________________
अध्याय २१ : 'निर्बलके बल राम' नहीं जानता कि उसे उसका संयम बचाता है या और कोई। जो अपने संयमबलका गर्व करता है, उसका संयम भ्रष्ट नहीं हुआ, ऐसा किसने अनुभव नहीं किया ? ऐसे समय शास्त्र-ज्ञान तो व्यर्थ-सा मालूम होता है।
इस बौद्धिक धर्म-ज्ञानके मिथ्यात्वका अनुभव मुझे विलायतमें हुआ। पहले जो इस प्रकारके भयोंसे में बचा, उसका विश्लेषण करना असंभव है। उस समय मेरी उम्र बहुत कम थी। लेकिन अब तो मैं बीस वर्षका हो गया था। गृहस्थाश्रमका अनुभव खूब प्राप्त कर चुका था ।
बहुत करके विलायतमें मेरे आखिरी वर्षम, अर्थात् १८९० में, पोर्टस्मथम अन्नाहारियोंका एक सम्मेलन हुआ। उसमें मुझे तथा एक और भारतीय मित्रको निमंत्रण मिला था। हम दोनों वहां गये । हम दोनों एक बाईके यहां ठहराये गये।
पोर्टस्मथ मल्लाहों का बंदर कहा जाता है। वहां दुराचारिणी स्त्रियोंके बहुत-से घर है। वे स्त्रियां वेश्या तो नहीं कही जा सकतीं, लेकिन साथही उन्हें निर्दोष भी नहीं कह सकते । ऐसे ही एक घरमें हम ठहराये गये थे। कहनेका प्राशय यह नहीं है कि स्वागत-समितिने जान-बूझकर ऐसे घर चुने थे। लेकिन पोर्टस्मथ-जैसे बंदरमें जब मुसाफिरोंके ठहरनेके लिए घर खोजनेकी जरूरत पड़ती है, तब यह कहना कठिन हो जाता है कि कौन घर अच्छा और कौन बुरा ।
रात हुई । सभासे हम घर लौटे। भोजनके बाद हम ताश खेलने बैठे । विलायतमें अच्छे घरोंमें भी गृहिणी मेहमानोंके साथ इस प्रकार ताश खेला करती है। ताश खेलते समय सब लोग निर्दोष मजाक करते हैं। परंतु यहां गंदा विनोद शुरू हुआ ।
___मैं नहीं जानता था कि मेरे साथी इसमें निपुण हैं। मुझे इस विदोदमें दिलचस्पी होने लगी। मैं भी सम्मिलित हुअा। विनोदके वाणीसे चेष्टामें परिणत होनेकी नौवत आ गई। ताश एक ओर रखनेका अवसर आ गया; पर मेरे उस भले साथीके हृदयमें भगवान् जगे। वह बोले, “तुम और यह कलियुग--यह पाप ? यह तुम्हारा काम नहीं ! भगो यहांसे ।" ।
मैं शरमिंदा हुआ। चेता । हृदय में इस मित्रका उपकार माना । मातासे की हुई प्रतिज्ञा याद आई। मैं भगा। कांपता हुआ अपने कमरेमें पहुंचा। कलेजा धड़कता था। मेरी ऐसी स्थिति हो गई मानो कातिलके हाथसे छूटा शिकार ।