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आत्म-कथा : भाग १
तारीखको इंग्लैंड-हाईकोर्ट में ढाई शिलिंग देकर अपना नाम रजिस्टर कराया । बारह जूनको हिंदुस्तान लौट आनेके लिए रवाना हुआ ।
परंतु मेरी निराशा और भीतिका कुछ ठिकाना न था । कानून मैंने पढ़ तो लिया, परंतु मेरा दिल यही कहता था कि अभीतक मुझे कानूनका इतना ज्ञान नहीं हुआ कि वकालत कर सकूं ।
इस are वर्णन करनेके लिए एक दूसरे अध्यायकी श्रावश्यकता होगी ।
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मेरी दुविधा
बैरिस्टर कहलाना तो आसान मालूम हुआ, परंतु बैरिस्टरी करना बड़ा मुश्किल जान पड़ा । कानूनकी किताबें तो पढ़ डालीं, पर वकालत करना न सीखा । कानूनी पुस्तकों में कितने ही धर्म-सिद्धांत मुझे मिले, जो मुझे पसंद हुए । परंतु यह समझ में न आया कि वकालत के पेशेमें उनसे कैसे फायदा उठाया जा सकेगा । 'अपनी चीनका इस्तेमाल इस तरह करो कि जिससे दूसरोंकी चीजको नुकसान न पहुंचे, यह धर्म-वचन मुझे कानूनमें मिला । परंतु यह समझमें न ग्राया कि वकालत करते हुए मक्कल मुकदमे में उसका व्यवहार किस तरह किया जाता होगा । जिन मुकदमोंमें इस सिद्धांतका उपयोग किया गया था, मैंने उनको पढ़ा। परंतु उनसे इस सिद्धांतको व्यवहारमें लानेको तरकीब हाथ न आई ।
दूसरे, जिन कानूनोंको मैंने पढ़ा उनमें भारतवर्ष के कानूनों का नाम तक न था । न यह जाना कि हिंदू-शास्त्र तथा इस्लामी कानून क्या चीज है । अर्जीदाarne लिखना न जानता था । में बड़ी दुविधामें पड़ा। फीरोजशाह मेहताका नाम मैंने सुना था । वह अदालतोंमें सिंह समान गर्जना करते हैं । यह कला वह इंग्लैंड में किस प्रकार सीखे होंगे ? उनके जैसी निपुणता इस जन्ममें तो नहीं
ने की, यह तो दूरकी बात है; किंतु मुझे तो यह भी जबरदस्त शक था कि एक वकीलको हैसियत से मैं पेट पालने तक में भी समर्थ हो सकूंगा या नही !