________________
आत्म-कथा : भाग १
कितने ही पादरी भी उनके सम्मानमें उपस्थित हुए थे। लौटते समय हम सब एक जगह ट्रेनकी राह देख रहे थे। वहां भीड़ मेंसे एक पहलवान नास्तिकतावादीने एक पादरीसे जिरह करना शुरू की--
" क्यों जी, आप कहते हैं न, कि ईश्वर है ? "
उस भले पादरीने धीमी आवाजमें जवाब दिया--"हां भाई, कहता तो हूं।"
पहलवान हंसा, और इस भावसे कि मानो पादरीको पराजित कर दिया हो, बोला--" अच्छा, आप यह तो मानते हैं न, कि पृथ्वीकी परिधि २८००० मील है ?"
"हां, अवश्य ।"
" तब बतायो तो देखें, ईश्वरका कद कितना बड़ा है और वह कहां रहता होगा ?"
"यदि हम समझें तो वह हम दोनोंके हृदयमें वास करता है ।"
चारों ओर खड़े हुए हम लोगोंकी और यह कहकर उसने विजयीकी तरह देखकर कहा--" किसी बच्चेको फुसलाइए किसी बच्चेको।"
पादरी ने नम्रता के साथ मौन धारण कर लिया। इस संबादने नास्तिक बादकी पोरसे मेरा मन और भी हटा दिया ।
'निर्बलके बल राम' इस तरह मुझे धर्म-गान्धोका तथा दुनियाके धर्मोका कुछ परिचय तो मिला, लेकिन इतना ज्ञान मनुष्यको बचाने के लिए काफी नहीं होता। आपत्तिके समय जो वस्तु मनुष्यको बचाती है, उसका उसे उस समय न तो भान ही रहता है, न ज्ञान ही । नास्तिक जब बच जाता है, जो कहने लगता है कि मैं तो अचानक बच गया। आस्तिक ऐसे समय कहेगा कि मुझे ईश्वरने बचाया। परिणामके बाद वह एमा अनुमान कर लेता है कि धर्मोके अध्ययनमें, ईश्वर हृदय में प्रकट होता है। इस प्रकारका अनुमान करनेका उसे अधिकार है। लेकिन बचते समय वह