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आत्म-कथा : भाग १
सत्य कह देने की हिम्मत दे दी, इसके लिए साथ ही मुझे ग्रानंद भी हो रहा है । आप मुझे माफ तो कर देंगी न ? जिस बहनसे आपने मेरा परिचय कराया है, उनके साथ मैंने कोई अनुचित व्यवहार नहीं किया है, इसका मैं आपको विश्वास दिलाता हूं। मैं अपनी स्थितिको अच्छी तरह जानता था, प्रतएव में तो कोई अनुचित बात कर ही नहीं सकता था; पर आप चूंकि उससे नावाकिफ थीं इसलिए आपकी यह इच्छा होना स्वाभाविक ही है कि मेरा विवाह संबंध किसीके साथ हो जाय । अतः आपके मन में यह विचार और आगे न बढ़े, इसलिए भी मुझे सच बात आपपर अवश्य प्रकट कर देनी चाहिए ।
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"यह पत्र मिलने के बाद यदि आप अपने यहां आनेके योग्य मुझे न समझें तो मुझे बिलकुल बुरा न मालूम होगा । ग्रापकी इस ममता के लिए तो में सदाके लिए आपका ऋणी हो चुका हूं। इतना होनेपर भी यदि ग्राम मुझे अपने से दूर न हटावें, तो बड़ी प्रसन्नता होगी। यदि अब भी ग्राप मुझे अपने यहां आने योग्य समझेंगी, तो इसे मैं आपके प्रेमका एक नया चिह्न समजुंगा और उसके योग्य arth लिए प्रयत्न करता रहूंगा ।
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यह पत्र मैंने चट-पट नहीं लिख डाला । न जाने कितने मसविदे बनायें होंगे। पर हां, यह बात जरूर है कि यह पत्र भेज देनेपर मेरे दिलसे बड़ा बोझ उतर गया । लगभग लौटती डाकसे उस विवामित्रका जवाब आया । उसमें लिखा था-
"तुमने दिल खोलकर जो पत्र लिखा, वह मिल गया। हम दोनों पढ़कर खुश हुए और खिलखिलाकर हंसे। ऐसा असत्याचरण तो नव्य ही हो सकता है । हां, यह अच्छा किया जो तुमने अपनी सच्ची कथा लिख दी । मेरे निमंत्रणको ज्यों-का-त्यों कायम समझना । इस रविवारको हम दोनों तुम्हारी राह ग्रवश्य देखी । तुम्हारे बान-विवाहकी बातें सुनेंगी और तुमसे हंसी-दिल्लगी करनेका आनंद प्राप्त करेंगी । farare raat, अपनी मित्रताम फर्क न आन पावेगा ।
"
इस तरह अपने अंदर छिपा यह असत्यका जहर मेने निकाला और फिर तो कहीं भी अपने विवाह इत्यादिकी बातें करते हुए मुझे पशोपेश न होता ।