________________
६४
आत्म-कथा : भाग १
अनादर करनेवाले मनुष्य के लिए भी मंडलमें स्थान हो सकता है ।
यद्यपि समिति में और लोग भी मुझ जैसे विचार रखते थे, परंतु इस बार मुझे अपने विचार प्रदर्शित करने की भीतर-ही-भीतर तीव्र प्रेरणा हो रही थी । मगर सबसे बड़ा प्रश्न यह था कि यह हो कैसे ? बोलनेकी मेरी हिम्मत नहीं थी । इसलिए मैंने अपने विचार लिखकर अध्यक्षको दे देनेका निश्चय किया। मैं अपना वक्तव्य लिखकर ले गया। जहांतक मुझे याद है, उस समय लेखको पढ़ सुनानेका भी साहस मुझे न हुआ । अध्यक्षने दूसरे सदस्यसे उसे पढ़वाया । अंतको डा० एलिन्सनका पक्ष हारा । अर्थात् इस तरहके इस पहले युद्ध में मैं हारनेवालोंकी तरफ था । परंतु मुझे इस बातसे अपने दिलमें पूरा संतोष था कि उनका पक्ष था सच्चा | मुझे कुछ ऐसा याद पड़ता है कि उसके बाद मैंने समितिसे इस्तीफा दे दिया था ।
मेरी यह झेंप विलायत में अंततक कायम रही । किसीसे यदि मिलने जाता और वहां पांच-सात आदमी इकट्ठे हो जाते, तो वहां मेरी जबान न खुलती । एक बार मैं बेंटनर गया । मजूमदार भी साथ थे। वहां एक अन्नाहारी घर था, उसमें हम दोनों रहते । 'एथिक्स प्राव डायट' के लेखक इसी बंदर में रहते थे । हम उनसे मिले। यहां अन्नाहारको उत्तेजन देनेके लिए एक सभा हुई । उसमें हम दोनोंको बोलनेके लिए कहा गया। दोनोंने 'हां' कर लिया । मैंने यह जान लिया था कि लिखा हुआ भाषण पढ़ने में वहां कोई ग्रापत्ति न थी । मैं देखता था कि अपने विचारोंको सिलसिलेवार और थोड़ेमें प्रकट करनेके लिए कितने ही लोग लिखित भाषण पढ़ते थे। मैंने अपना व्याख्यान लिख लिया । बोलकी हिम्मत नहीं थी, पर जब पढ़ने खड़ा हुआ तो बिलकुल न पढ़ सका । आंखों के सामने अंधेरा छा गया और हाथ-पैर कांपने लगे । भाषण मुश्किलसे फुलस्केपका एक पन्ना रहा होगा । उसे मजूमदारने पढ़ सुनाया । मजूमदारका भाषण तो बढ़िया हुआ, श्रोतागण करतल ध्वनिसे उनके वचनोंका स्वागत करते जाते थे । इससे मुझे बड़ी शर्म मालूम हुई और अपने बोलनेकी अक्षमतापर बड़ा दुःख हुआ ।
विलायत में सार्वजनिक रूपमें बोलनेका अंतिम प्रयत्न मुझे तब करना पड़ा, जबकि बिलात छोड़ने का अवसर आया, परंतु उनमें मेरी बुरी तरह फजीहत