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अध्याय १५ : 'सभ्य' बेशमें
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खोज में चला । पास ही एक अन्नाहारवाला भोजनालय था तो, पर वह बंद हो गया था। तब क्या करना चाहिए ? कुछ न सूझ पड़ा। अंतको भूखा ही रहा । हम लोग नाटक देखने गये । पर मित्रने उस घटनाके बारेमें एक शब्दतक न कहा । मुझे तो कुछ कहना ही क्या था ?
परंतु हमारे दरमियान यह आखिरी मित्र युद्ध था । इससे हमारा संबंध तो टूटा, न उसमें कटुता ही आई । मैं उनके तमाम प्रयत्नोंके मूलमें उनके प्रेमको देख रहा था, इससे विचार और प्रचारकी भिन्नता रहते हुए भी मेरा आदर उनके प्रति बढ़ा, घटा रत्तीभर नहीं ।
पर अब मेरे मन में यह श्राया कि मुझे उनकी भीति दूर कर देनी चाहिए । मैंने निश्चय किया कि मैं अपनेको जंगली न कहलाने दूंगा, सभ्योंके लक्षण प्राप्त करूंगा और दूसरे उपायोंसे समाजमें सम्मिलित होनेके योग्य बनकर अपनी अन्नाहार की विचित्रताको ढक लूंगा ।
मैंने 'सभ्यता' सीखनेका रास्ता इख्तियार तो किया; पर वह था मेरी पहुंचके परे और बहुत संकड़ा । अस्तु ।
मेरे कपड़े थे तो विलायती; परंतु बंबईकी काट के थे । अतएव वे अच्छे अंग्रेजी समाजमें न फबेंगे, इस विचारसे ' ग्रार्मी और नेवी स्टोर' में दूसरे कपड़े बनवाये । उन्नीस शिलिंगकी ( यह दाम उस जमाने में बहुत था ) ' चिम्नी' टोपी लाया । इससे भी संतोष न हुआ । बांड स्ट्रीटमें शौकीन लोगोंके कपड़े सिये जाते थे । यहां शामके कपड़े दस पौंडपर बत्ती रखकर, बनवाये । अपने भोले और दरियादिल बड़े भाई से खास तौरपर सोनेकी चेन बनवाकर मंगवाई, जो दोनों जेबोंमें लटकाई जा सकती थी । बंधी-बंधाई तैयार टाई पहननेका रिवाज न था । इसलिए टाई बांधनेकी कला सीखी । देशमें तो आइना सिर्फ बाल बनवाने के दिन देखते हैं, पर यहां तो बड़े आइने के सामने खड़े रहकर टाई ठीकठीक बांधने में और बाकी पट्टियां पाड़ने और ठीक-ठीक मांग निकालनेमें रोज दसेक मिनट बरबाद होते । फिर बाल मुलायम न थे । उन्हें ठीक-ठीक संवारे रखने के लिए ब्रुश ( यानी झाडू ही न ? ) के साथ रोज लड़ाई होती । और टोपी देते और उतारते हाथ तो मानो मांग-संवारेके लिए सिरपर चढ़े रहते और बीच-बीच में जब कभी समाजमें बैठे हों तब मांगपर हाथ फेरकर बालोंको संवारते