________________
अध्याय १६ : परिवर्तन
५५
इस विचारकी धुन में पूर्वोक्त आशयका पत्र मैंने व्याख्यान - शिक्षकको भेज दिया । उससे मैंने दो या तीन पाठ पढ़े थे । नाच - शिक्षिकाको भी ऐसा ही पत्र लिख दिया । वायोलिन - शिक्षिका के यहां वायोलिन लेकर पहुंचा और उसे कह आया कि जो दाम मिले लेकर बेच दो । उससे कुछ मित्रता-सी हो गई थी, इसलिए उससे मैंने अपनी बेवकूफीका जिक्र भी कर दिया । नाच इत्यादिके जंजाल से छूट जानेकी बात उसे भी पसंद हुई । खैर ।
सभ्य बननेकी मेरी यह सनक तो कोई तीन महीने चली होगी, किंतु कपड़ोंकी तड़क-भड़क बरसोंतक चलती रही। पर अब मैं विद्यार्थी बन गया था ।
१६
परिवर्तन
कोई यह न समझे कि नाच यादिके मेरे प्रयोग मेरी उच्छृंखलताके युगको सूचित करते हैं। पाठकोंने देखा ही होगा कि उसमें कुछ विचारका अंश था । इस मूच्छके समय में भी कुछ अंशतक में सावधान था। एक-एक पाईका हिसाब रखता । खर्चका अंदाजा था । यह निश्चय कर लिया था कि १५ पौंड प्रति मास से अधिक खर्च न हो । बस ( मोटर ) किराया और डाकखर्च भी हमेशा लिखता और सोनेके पहले हमेशा हिसाबका मेल मिला लेता । यह टेव अंततक कायम रही; और मैंने देखा कि उसके बदौलत सार्वजनिक कार्योंमें मेरे हाथसे जो लाखों रुपये खर्च हुए उनमें मैं किफायत से काम सकता हूं, और जितनी हलचलें मेरी देखरेखमें चली है उनमें मुझे कर्ज नहीं करना पड़ा। उलटा हरेकमें कुछ-न-कुछ बचत ही रही है । यदि हरेक नवयुवक अपने थोड़े रुपयोंका भी हिसाब चिंता के साथ रखेगा, तो उसका लाभ उसे श्रवश्य मिलेगा, जैसा कि मेरी इस आदत के कारण आगे चलकर मुझे और समाज दोनोंको मिला ।
०
अपनी रहन-सहनपर मेरी कड़ी नजर थी। इसलिए मैं देख सकता था कि मुझे कितना खर्च करना चाहिए। अब मैंने खर्च आधा कर डालनेका विचार किया । हिसाबको गौर से देखा तो मालूम हुआ कि गाड़ी-भाड़ेका खर्च काफी बैठता था। फिर एक कुटुंब के साथ रहनेके कारण कुछ-न-कुछ खर्च प्रति सप्ताह लग