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आत्म-कथा : भाग १
बड़े भाईके साथ बातें करते हुए मेरी पढ़ाईके विषयमें पूछताछ की। यह सुनकर कि मैं शामलदास कालेजमें पढ़ता हूं, उन्होंने कहा--- "अब जमाना बदल गया है । तुम भाइयोंमें से यदि कोई कबा गांधीकी गद्दी कायम रखना चाहो तो यह बिना पढ़ाईके नहीं हो सकता। यह अभी पढ़ रहा है। इसलिए उस गद्दीको कायम रखनेका भार इसपर डालना चाहिए। इसे अभी ४ साल बी. ए. होने में लगेंगे। इसके बाद भी ५०)-६०) की नौकरी भले ही मिले, दीवान-पद नहीं मिल सकता। फिर अगर उसके बाद मेरे लड़केकी तरह वकील बनायोगे तो कुछ और साल लगेंगे,
और तबतक तो दीवानगिरीके लिए कितने ही वकील तैयार हो जायंगे। आपको चाहिए कि इसे विलायत पढ़ने भेजें। केवलराम (मावजी दवेका पुत्र) कहता है कि वहां पढ़ाई आसान है। तीन सालमें पढ़कर लौट आवेगा। खर्च भी ४-५ हजारसे ज्यादा न लगेगा। देखो न, वह नया वैरिस्टर आया है । कैसे ठाट-बाट से रहता है । वह यदि चाहे तो आज दीवान बन सकता है। मेरी सलाह तो यह है कि मोहनदासको आप इसी साल विलायत भेज दें। विलायतमें केवलरामके बहुतेरे मित्र है। वह परिचय-पत्र दे देगा तो इसे वहां कोई कठिनाई न होगी।"
जोशीजीने (मावजी दवेको हम इसी नामसे पुकारा करते थे), मानो उन्हें अपनी सलाहके मंजूर हो जानेमें कुछ भी संदेह न हो, मेरी ओर मुखातिब होकर पूछा
"क्यों, तुम्हें विलायत जाना पसंद है या यहीं पढ़ना ?” - मेरे लिए यह ‘नेकी और पूछ-पूछ 'वाली मसल हो गई। मैं कालेजकी कठिनाइयोंसे तंग तो आ ही गया था। मैंने कहा--"विलायत भेजें तो बहुत ही अच्छा । कालेजमें जल्दी-जल्दी पास हो जानेकी आशा नहीं मालूम होती। पर मुझे डॉक्टरीके लिए क्यों नहीं भेजते ? "
बड़े भाई बीच में बोले-- "बापूको यह पसंद न था । तुम्हारी बात जब निकलती तो कहते हम तो वैष्णव हैं। हाड़-मांस नोचनेका काम हम कैसे करें ? बापू तो तुमको वकील बनाना चाहते थे।"
___ जोशीजीने वीचमें ही हां-में-हां मिलाई-- “मुझे गांधीजीकी तरह डाक्टरी से नफरत नहीं। हमारे शास्त्रोंने इसका तिरस्कार नहीं किया है । परंतु डाक्टरी पास करके तुम दीवान नहीं बन सकते । मैं तुमको दीवान और इससे भी बढकर