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अध्याय १४ : मेरी पसंदगी
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चाहती थी। दोपहरको या शामको दूध बिलकुल नहीं मिलता था । मेरी यह हालत देखकर वह मित्र एक दिन झल्लाये और बोले -- "देखो, यदि तुम मेरे सगे भाई होते तो मैं तुमको जरूर देश लौटा देता । निरक्षर मांको यहांकी हालत जाने बगैर दिये गये वचनका क्या मूल्य ? इसे कौन प्रतिज्ञा कहेगा ? मैं तुमसे कहता हूं कि कानूनके अनुसार भी इसे प्रतिज्ञा नहीं कह सकते। ऐसी प्रतिज्ञा लिये बैठे रहना अंध-विश्वासके सिवा कुछ नहीं । और ऐसे अंध विश्वासोंका शिकार बने रहकर तुम इस देशसे कोई बात अपने देशको नहीं ले जा सकते । तुम तो कहते हो कि मैंने मांस खाया है । तुम्हें तो वह भाया भी था । अब जहां खाने की कोई जरूरत न थी वहां तो खा लिया, और जहां खास तौरपर उसकी जरूरत है वहां उसका त्याग ! कितने ताज्जुब की बात है !
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पर मैं टस से मस न हुआ ।
ऐसी दलीलें रोज हुआ करतीं । छत्तीस रोगोंकी दवा 'नन्ना' ही मेरे पास थी । वह मित्र ज्यों-ज्यों मुझे समझाते त्यों-त्यों मेरी दृढ़ता बढ़ती जाती । रोज मैं ईश्वर से अपनी रक्षाकी याचना करता और रोज वह पूरी होती । मैं यह तो नहीं जानता था कि ईश्वर क्या चीज है, पर उस रंभाकी दी हुई श्रद्धा अपना काम कर रही थी ।
एक दिन मित्रने मेरे सामने बेंथमकी पुस्तक पढ़नी शुरू की । उपयोगिताaar for पढ़ा। मैं चौंका | भाषा क्लिष्ट । मैं थोड़ा-बहुत समझता । तब उन्होंने उसका विवेचन करके समझाया। मैंने उत्तर दिया, “मुझे इससे माफी दीजिए। मैं इतनी सूक्ष्म बातें नहीं समझ सकता। मैं मानता हूं कि मांस खाना चाहिए, परंतु प्रतिज्ञाके बंधनको मैं नहीं तोड़ सकता । इसके संबंध में मैं वाद-विवाद भी नहीं कर सकता । मैं जानता हूं कि बहसमें मैं आपसे नहीं जीत सकता । अतः मुझे मूर्ख समझकर, अथवा जिद्दी ही समझकर इस बात मेरी नाम छोड़ दीजिए। आपके प्रेमको मैं पहचानता हूं । आपका उद्देश्य भी समझता हूं | आपको अपना परम हितेच्छु मानता हूं। मैं यह भी देखता हूं कि आप sired हैं कि आपको मेरी हालत पर दुःख होता है । पर मैं लाचार हूं । प्रतिज्ञा किसी तरह नहीं टूट सकती ।
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मित्र बेचारे देखते रह गये । उन्होंने पुस्तक बंद करदी |
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बस, अब