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आत्म-कथा : भाग १
लोगोंकी रहन-सहन में कोई फर्क नहीं । उन्हें खानपानका कोई परहेज नहीं होता । सिगार तो मुंहसे अलग ही नहीं होती । पहनाव भी देखो तो नंगा । यह सब अपने कुटुंवको शोभा नहीं देगा । पर मैं तुम्हारे सामने विध्य भागता नहीं चाहता । मैं थोड़े ही दिनों में तीर्थयात्राको जाने वाला हूँ | मेरी जिंदगीके ग्रब थोड़े ही दिन बाकी हैं । सो मैं, जोकि जिंदगी के किनारेतक पहुंच गया हूं, तुमको विलायत जानेकी, समुद्र यात्रा करने की इजाजत कैसे दूं ? पर मैं तुम्हारा रास्ता न रोकूंगा । असली इजाजत तो तुम्हारी माताजी की है । अगर वह तुम्हें इजाजत दे दें तो तुम शौकसे जाम्रो । उनसे कहना कि मैं तुम्हें न रोकूंगा । मेरी आशीष तो तुम्हें हई है ।
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“ इससे ज्यादाकी प्राशा में आपसे नहीं कर सकता । श्रव मुझे माताजीको राजी कर लेना है | परंतु लेली साहबके नाम ग्राप चिट्ठी तो देंगे न ? " मैंने कहा । चाचाजी बोले, "यह तो मुझसे कैसे हो सकता है ? पर साहब भले आदमी हैं । तुम चिट्ठी लिखो । अपने कुटुंबकी याद दिलाना तो वह जरूर मिलनेका समय देंगे; और उन्हें ऊंचा तो मदद भी कर देंगे ।
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मुझे खयाल नहीं आता कि चाचाजीने सायके नाम चिट्ठी क्यों न दी ? पर कुछ-कुछ ऐसा अनुमान होता है कि विलायत जानेके धर्म विरुद्ध कार्यमें इतनी सीधी मदद देते हुए उन्हें संकोच हुआ होगा ।
मैंने लेली साहबको चिट्ठी लिखी । उन्होंने अपने रहने के बंगले पर मुझे बुलाया | बंगले के जीनेपर चढ़ते चढ़ते साहब मुझसे मिले और यह कहते हुए ऊपर कड़ गये कि -- “ पहले बी. ए. हो लो, फिर मुझसे मिलो अभी कुछ मदद नहीं हो सकती । " मैं बहुत तैयारी करके, बहुतेरे गया था । बहुत झुककर दोनों हाथोंसे सलाम किया था, पर मेरी सारी मिहनत फिजूल गई । अब मेरी नजर अपनी पत्नी के गहनोंपर गई । बड़े भाईपर मेची पार श्रद्धा थी । उनकी उदारताको सीमा न थी । उनका प्रेम पिताजीकी तरह था । में पोरबंदर से विदा हुआ और राजकोट सब बातें सुनाई । जोशीजी से सनाह-मशवरा किया । उन्होंने कर्ज करके भी विलायत भेजने की सलाह दी । मैंने सुझाया कि पीके गहने बेच डाले जायें | गहनोंसे दो-तीन हजार से ज्यादा रकम मिलने की याशा न थी । किंतु भा हो जिस तरह हो, का इंतजाम