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आत्म-कथा : भाग १
इस क्रियापर भी कोई खास श्रद्धा न थी। दो कारणोंसे 'राम-रक्षा का पाठ करता था। एक तो मैं बड़े भाईको आदरकी दृष्टिसे देखता था, दूसरे मुझे गर्व था कि मैं 'राम-रक्षा का पाठ शुद्ध उच्चारण-सहित करता हूं।
परंतु जिस बीजने मेरे दिलपर गहरा असर डाला, वह तो थी रामायणका पारायण । पिताजीकी बीमारीका बहुतेरा समय पोरबंदरमें गया। वहां वह रामजीके मंदिरमें रोज रात को रामायण सुनते । कथा कहनेवाले थे रामचंद्रजीके परम-भक्त बीलेश्वरके लाधा महाराज । उनके संबंधमें यह आख्यायिका प्रसिद्ध थी कि उन्हें कोड़ हो गया था। उन्होंने कुछ दवा न की-सिर्फ बीलेश्वर महादेवपर चढ़े हुए विल्व पत्रोंको कोढ़वाले अंगोंपर बांधते रहे और राम-नामका जप करते रहे ; अंतमें उनका कोड़ समूल नष्ट हो गया। यह बात चाहे सच हो या झूठ, हम सुननेवालोंने तो सब ही मानी। हां, यह जरूर सच है कि लाधा महाराजने जब कथा प्रारंभ की थी, तब उनका शरीर बिलकुल नीरोग था। लाधा महाराजका स्वर मधुर था । वह दोहा-चौपाई गाते और अर्थ समझाते । खुद उसके रस में लीन हो जाते और श्रोताओंको भी लीन कर देते। मेरी अवस्था इस समय कोई १३ सालकी होगी; पर मुझे याद है कि उनकी कथामें मेरा बड़ा मन लगता था। रामायणपर जो मेरा अत्यंत प्रेम है, उसका पाया यही रामायणश्रवण है। आज मैं तुलसीदासको रामायणको भक्ति-मार्गका सर्वोत्तम ग्रंथ मानता है।
. कुछ महीने बाद हम राजकोट आये। वहां ऐसी कथा न होती थी। हां, एकादशीको भागवत अलबत्ता पढ़ी जाती थी। कभी-कभी मैं वहां जाकर बैठता; परंतु कथा-पंडित उसे रोचक न बना पाते थे। आज मैं समझता हूं कि भागवत ऐसा ग्रंथ है कि जिसे पढ़कर धर्म-रस उत्पन्न किया जा सकता है। मैंने उसका गुजराती अनुवाद बड़े चाव-भावसे पढ़ा है। परंतु मेरे इक्कीस दिनके उपवासमें जब भारत-भूषण पंडित मदनमोहन मालवीयजीके श्रीमुख से मूल संस्कृतके कितने ही अंश सुने तब मुझे ऐसा लगा कि बचपन में यदि उनके सदश भगवद्भक्तके मुंहसे भागवत सुनी होती, तो बचपन में ही मेरी गाढ़-प्रीति उसपर जम जाती। मैं अच्छी तरह इस बातको अनुभव कर रहा हूं कि बचपनमें पड़े शुभ-अशुभ संस्कार बड़े गहरे हो जाते हैं और इसीलिए यह बात ग्रन मुझे नहुन