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कार्तिक, वीर निवाण सं० २४६५] प्रभाचन्द्र के समयकी सामग्री
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१२० ) में उद्धृत 'यलेनानुमितोऽप्यर्थः। इस पथ म० म० गङ्गाधर शास्त्रीने इस 'भाचार्याः' को टिप्पणीमें 'भामती' टीकाका लिख दिया है। पदकं नीचे तात्पर्यटीकायां वाचस्पतिमिश्रा' पर वस्तुत: यह पद्य वाक्यपदीय (१-३४ ) का है यह टिप्पणी की है। यहाँ यह विचारणीय है कि
और 'न्यायमञ्जरी की तरह भामती टीकागें भी यह मत वाचस्पति मिश्रका है या अन्य किसी उद्धृत ही है-मूलका नहीं है।
पूर्वाचार्यका। तात्पर्य टीका (पृ० १४८) में तो स्पष्ट __न्यायसूत्रके प्रत्यक्ष-लक्षणसूत्र (१-१-४) की हो उभयजज्ञान नहीं मानकर उस ऐन्द्रियक कहा है। व्याख्या वाचस्पति मिश्र लिखते हैं कि-'व्यव- इसलिये वह मत वाचस्पतिका तो नहीं है। व्योमसायात्मक' पदसे सविकल्पक प्रत्यक्ष ग्रहण करना वती टीका (पृ०५५५ ) में उभयजज्ञान का स्पष्ट चाहिये तथा 'अव्यपदेश्य' पदसे निर्विकल्पक ज्ञान समर्थन है, अतः वह मत व्योमशिवाचार्यका हो का । संशयज्ञानका निराकरण तो 'अव्यभिचारी' सकता है । व्योमवतीमं न केवल उभय ज ज्ञानका पदसे हो ही जाता है, इसलिये संशयज्ञानका निरो. ममर्थन ही है किन्तु उसका व्यवच्छेद भी अव्यपकरण करना 'व्यवसायात्मक' पदका मुख्य कार्य देश्य पदसे किया है। हाँ, उम पर जो व्याख्याकार नहीं है । यह बात मैं 'गुरुन्नीत मार्ग' का अनु- की अनुपपत्ति है वह कदाचित वाचस्पतिकी तरफ गमन करके कहरहा हूँ।'
लग सकती है, सो भी ठीक नहीं क्योंकि वाचस्पतिइसी तरह कोई व्याख्याकार 'अयमश्व:' इत्यादि ने अपने गुरुकी जिस गाथाके अनुसार उभयजशब्दसंमृष्ट ज्ञानको उभय जज्ञान कहकर उसकी प्रत्य- ज्ञानको ऐन्द्रियक माना है, उससे साफ मालूम क्षताका निराकरण करनेके लिए श्राव्यपदेश्य पदकी हाता है कि वाचस्पतिक गुरुके सामने उभयजज्ञानको सार्थकता बताते हैं । वाचस्पति 'अयमश्वः' इम माननेवाल प्राचार्य (सभवत: व्योमशिवाचार्य) की ज्ञानको भय ज ज्ञान न मानकर ऐन्द्रियक कहते हैं। परम्परा थी, जिमका खण्डन वाचस्पतिक गुरुने
और वह भी अपने गुरुकं द्वारा उपदिष्ट इस गाथा किया। और जिस खण्डनको वाचस्पतिने अपने के आधार पर
गुरुकी गाथाका प्रमाण देकर तात्पर्य-टीकामें स्थान शब्दजत्वेन शाब्दश्चत् प्रत्यक्षं चाक्षजत्वतः।
दिया। स्पष्टग्रहणरूपत्वात् युक्तमन्द्रियकं हि तत् ॥
इसलिये 'अव्यपदेश्य' पदका प्रयोजन निवि इमी तरह तात्पर्य-टीका ( पृ० १०२ ) कल्पकका संग्रह करना ही बतलाते हैं। 'यदा ज्ञानं तदा हानांपादानापेक्षाबुद्धयः फलम्' . न्यायमञ्जरी (पृ० ७८) में 'उभय जज्ञानका व्य- इसका व्याख्यान करते हुए वाचस्पति मिश्रने उपावच्छेद करना अव्यपदेश्यपदका कार्य है। इस मत दयताज्ञानको उपादान' पदसे लिया है और उसका का 'प्राचार्याः' इस रूप से उल्लेख किया है। उस क्रम भी 'तीयालोचन, तीयविकल्प, दृष्टतज्जातीयपर व्याख्याकारको अनुपपत्ति दिखाकर न्यायमञ्जरी- संस्कारोबाध, स्मरण, 'तज्जातीयचेदम्' इत्या. कारने उभयजज्ञान को स्वीकार नहीं किया है। कारकपरामर्श, इत्यादि बताया है।