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जीवेम शरदः शतम्।'' इसका संवादी कथन यजुर्वेद में-'इस लोक में कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीवित रहने की कामना कर। इस प्रकार निष्काम कर्म करने से तू कर्मों से लिप्त नहीं होगा। मुक्ति के लिए इससे अन्य कोई भी मार्ग नहीं है।'40 सुस्पष्ट है जिजीविषा के साथ निष्काम कर्म ही मुक्ति का प्रमुख हेतु माना गया है।
वेदों में पशुबलि के रूप में हिंसा का विधान किया गया है ऐसी सामान्य धारणा है। इसका स्पष्टीकरण है-'अनेक लोग वेदों में पशुहिंसा होने का आक्षेप करते हैं। कुछ भाष्यकारों ने वैदिक सूक्तों का अर्थ करते हुए, पशुओं के मांस आदि से आहुति देने की बात लिखी है। मूल संहिताओं के मनन पर ज्ञात होता है कि वेदों ने तो हिंसा के बजाय अहिंसा का ही उपदेश दिया है और असहाय प्राणियों , पशुओं की रक्षा को परम धर्म माना है। इसका संवादी मन्तव्य है- 'पशुओं की रक्षा करो, गाय को मत मारो, बकरी को मत मारो, दो पैर वाले (मनुष्य पशु आदि) को मत मारो, एक खुर वाले पशुओं (घोड़ा, गधा आदि) को मत मारो, किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो।' स्पष्टतया हिंसा की प्रवृत्ति बढी तब हिंसा न करने पर बल दिया गया।
कार्य कारण की अपेक्षा से देखें तो अहिंसा और अहिंसक एक ही है। इस दृष्टि से अहिंसक मित्र का उल्लेख 'अहिंसा' की अपेक्षा से मननीय है। स्पष्ट उल्लेख है-'हम अभी चलें। मित्र द्वारा दिखाए गए मार्ग पर हम चलें। अहिंसक मित्र का श्रेष्ठ कल्याण हमको घर में प्राप्त हो।' अहिंसक मित्र से अभिप्राय अहिंसात्मक आचरण से है या व्यक्ति विशेष से, चिंतन का विषय है। पर इतना तो स्पष्ट है अहिंसा शब्द ऋग्वेद का विषय बना है। इसका विकासात्मक स्वरूप भी विद्यमान है-'जो आत्म ज्ञानी सब प्राणियों को आत्मा में ही देखता है, तथा सब प्राणियों में ही स्वयं को देखता है, वह संदिग्धावस्था में नहीं पड़ता।' इस आत्मानुभूति के भाव से जाहिर होता है कि चैतन्य की समान अनुभूति वाले व्यक्ति के लिए मोह-शोक का अवकाश ही नहीं रहता। इस तथ्य को व्यक्त करने वाला कथन यजुर्वेद में मिलता है-'जब आत्मज्ञानी सब प्राणियों को एक ही जान लेता है, तब उस एकात्मक भाव के दृष्टा को मोह और शोक क्या है? अर्थात् कुछ भी नहीं।' एकात्मभाव की अनभूति का अर्थ है-अहिंसा का सात्मीकरण होना, अहिंसामय बन जाना। निश्चित रूप से पूर्ण अहिंसक चेतना में मोह-शोक जैसे विकार भाव समाप्त हो जाते हैं।
__ वेदों में अहिंसा का विकास शांति सूक्तों में देख सकते हैं। ऋग्वेद में स्थान-स्थान पर प्राकृतिक तत्त्वों की शांति हेतु अनेक सूक्तों का निर्माण किया गया है। अथर्ववेद में अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्रमा
आदि को मंत्रोचार पर्वक कार्य सिद्धि के लिए आह्वान किया गया है। जाहिर है उनमें चैतन्य की स्वीकृति के साथ मैत्री भाव भी साधा जो अहिंसा का ही पर्याय है। इसी में (अथर्ववेद) विभिन्न प्रकृति के अंगों से रक्षा की प्रार्थना सूक्त बद्ध शैली में की है।
___ वेदों में जहाँ पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र को पूज्या भाव से देखा व अर्चा की वहीं सृष्टि के प्राणियों को प्रेम पूर्वक साथ रहने की प्रेरणा दी। ऐसा अहिंसा के विकास बिना असंभव है। परस्पर प्रेम भाव का विकास होगा तो अहिंसा को फलने-फूलने का अवसर मिलेगा। प्रेमपूर्वक साथ में रहने की प्रेरणा दी-'सब मनुष्य भली प्रकार मिलकर रहें, प्रेम पूर्वक आपस में वार्तालाप करें, सब के मनों में एक भाव हो।' 45 ऋग्वेद की इस ऋचा में अहिंसा के विषय का जो अव्यक्त बोध करवाया, महत्त्वपूर्ण है। इसमें स्वस्थ समाज रचना के मूलभूत तथ्यों का चित्रण है। विशेष रूप से समन्वय सूत्र बना-सब लोग एकमत हों, प्रतिकूल बातें करने वाले भी परस्पर अनुकूल हों। अपने
अहिंसा का ऐतिहासिक स्वरूप । 37