Book Title: Kural Kavya
Author(s): G R Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तमिल भाषा का महान ग्रंथ करल काव्य मूल लेखक श्री एलाचार्य जी पया ! टीकाकार विद्याभूषण पं. श्री गोविन्दराय जैन शास्त्री महरौनी जिला ललितपुर (उ.प्र.) प्रकाशक . वीतराग बाणी ट्रस्ट रजिस्टर्ड सैलसागर, टीकमगढ़ (म प्र. प्रथमावृत्ति महावीर जंयती २०० . ५०.० ८.. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य ................ . ......---... - :.:: .. . .. .. प्रारकरार ! ....... --- Swaraurahmnaमामलwinitiam । मानवीय मारग की पद्धति का बोधगम्य दिग्दर्शन देने वाला सर्वाधिक लोकोत्तर ग्रंथ करल काल्ग है। अपने युग. के श्रेष्ठतम साहित्यकार विद्धा; .श्री गोविन्दरायजी, शास्त्री ने इस ग्रंथ, को तमिल भाषा लिपि से सस्कृत ग्राथा एव हिन्दी पद्य गद्य रूप रचना कर जनमानस का महान उपकार किया। उत्तर भारत में इस ग्रंथ की लोकग्नियता के प्रथम हेतु श्री पं. स्व गोविन्दरारजी शास्त्री ही हैं। इस ग्रंथ, का अनेंकों स्थानों संस्थाओं एवं व्यक्तियों द्वारा निरन्तर प्रकाशन साकार हुआ जो इस ग्रंथ की लोकोत्तर गौरव गरिमा का प्रतीक हैं। · .::: : कुरल काथ्य : तमिल भाषा का एक सर्वाधिक प्राचीन: लोकोत्तर ख्याति प्राप्त क्यज्य पथ है.। यूरोत की प्राय: सभी भाषाओं में इसके अनुवाद :प्रकाशित हो चुके हैं। तमिला भाषा भाषी इसे तमिल. वेद या पंचम वेद के रूप में स्वीकारते हैं। इस ग्रंथ का नामांकरण : कुरल वेणवा' नामक छंद विशेष के कारण हुआ!! इस ग्रंथ की विषय विवेचना शैली बड़ी ही सुन्दर और प्रभावोत्पादक है ! अनेक धर्मावलम्बी इस ग्रंथ को अपना धर्म ग्रंथ्र स्वीकारते हैं। शोध खोज़ के बाद यह ज्ञात हुआ कि इस , ग्रंथ के कर्ता श्री ऐलाचार्यजी हैं। जिनका अपर नाम कुन्दकन्याचार्य है। देवसेन आचार्य ने अपने दर्शनसार नामक ग्रंथ में कुन्दकुन्दाचार्य को पदमनंदि वक्रग्रीवाचार्य, लाचार्य, गूद्धपिच्छाचार्य नामों से भी उल्लिखित किया है। कुन्दकुन्दाचार्य वीर नि. सं. 492 के बाद भद्रबाह द्वितीय के शिष्य थे। इस ग्रंथ को तिरुवल्लवर कृत कहना कल्पित और संदिग्ध है। यह किसी दन्त कथा के आधार पर कह दिया गया होगा। कुरल काव्य की सारी रचना जैन मान्यताओं से परिपूर्ण है। श्रवणबेलगोल में हुई विद्वद् परिषद की मीटिंग दिनाक 18/12/2000 में यह निर्णय लिया गया कि भगवान महावीर स्वामी के 26 सौं वें जन्मोत्सव के पावन प्रसंग पर 25 प्रकार के लोकतंर ग्रंथों का प्रकाशन साकार किया जाए। विद्वत परिषद के इस निर्णा सं -----RATIAA.. P P ..A . Sit TA-Mitr-ra. . . . Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुल काव्य गई। बड़ी मात्रा हुई और ती : गेले. न परिवद के संग्लन मंत्री की हैसियत से आश्वासन दिया कि लगभग 5 ग्रथों का प्रकाशन समाज के गणमान्य जनो से सम्पर्क कर मैं भ० महावीर स्वामी की जंयती तक साकार कर दूंगा। प्रसन्नता है कि मात्र 2 माह के प्रयास से समाज के जिनवाणी आराधक दानी महानुभावों ने मेरे अरग्रह को स्वीकार किया और मैं अपने विद्वत परिषद को दिए गए आश्वासन को साकार कर सका। अ. भा दि. जैन विद्वत परिषद एवं वीतरागयाणी ट्रस्ट जि. टीकमगढ़ के संयुक्त तत्वावधान में मेरी प्रेरणा से 5 प्रकार के विशाल ग्रंथों का प्रकाशन संभव हुआ है। इस कार्य की साकारता के लिए महानतम राष्ट्रसंत आचार्य श्री विद्यानंद जी महाराज का सातिशय आशीर्वाद विशेष कार्यकारी है। विद्वत परिषद के तत्वावधान में प्रकाशित ग्रंथ देश के विद्वानों मुनिराजों तथा सुधीजनों तक दातारों की ओर से निःशुल्क प्रदाय किए गए हैं। जबकि जन जम के लिए दीतरावाणी ट्रस्ट रजि. टीकमगढ़ से प्रकाशित यह सभी ग्रंथ मूल्य से प्राप्त किये जा सकेगे। आशा है जनकल्याण के हित में यह ग्रंथ अवश्य भव्यों का भार्ग प्रशस्त करेगा। ___ भगवान महावीर स्वामी के 26 सौ की जयंती 6 अप्रैल 2001 को परम ज्योति महावीर महाकाव्य. त्रिषष्ठि चित्रण दीपिका नन्दीश्वर द्वीप वृहद विधान, कुरल काव्य एवं श्री मंदिर वेदी प्रतिष्ठा विधि जैसे लोकोत्तर एवं विशालकाय ग्रंथों का प्रकाशन विद्वत परिषद की गरिमापूर्ण गतिशीलला का प्रशंसनीय कार्य है। परिषद अपने एक वर्ष के जयंती महोत्सव में शेष 21 प्रकार के ग्रथों को प्रकाशित कर अपने पावन उद्देश्य की साकारता में सफलता प्राप्त करेगी। ऐसी पूर्ण सम्भावना है | वीतराग याणी ट्रस्ट टीकमगढ़ द्वारा अब तक प्रकाशित अन्यान्य 40 प्रकार के लोकोत्तर ग्रंश्यों का जन मानस ने व्यापक उपयोग किया । अशा है उसी श्रृंखला में इस ग्रंथ से लाभ प्राप्त करेंगे। सैलसागर. टीकमगढ़ प्रतिष्ठाचार्य पं. विमलकुमार जैन सौरया श्री महावीर जाती एम. ए. शास्त्री आ रत्न 6/4/2001 अध्यक्ष–वीतरागवाणी ट्रस्ट रजिस्टर्ड Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य थिरुक्कुरल तिरुवल्लुवर कृत थिरुक्कुरल मुक्तक शैली में लिखित एक ऐसा नीति काव्य है, जिसका वर्ण्य विषय सार्वजनिक है। इसकी लोक प्रियता इसी तथ्य से सिद्ध है कि इसे वैदिक एव ईसाई भी अपना अपना धर्म नीति ग्रन्थ मानकर उसे समान रूप से पूज्य मानते आये हैं। दक्षिण भारत में तो इसे पंचमवेद या तमिलवेद की मान्यता प्राप्त है । प्रस्तुत ग्रंथ का वर्ण्य विषय 108 परिच्छेदों में विभक्त है। प्रत्येक परिच्छेद 10-10 पद्यों में विभक्त है। इस प्रकार इसमें 1080 पद्म उहै। उनमें स्वस्थ्य समाज राष्ट्र के निर्माण हेतु जिन शिक्षाओं की अनिवार्यता है उनको पद्यवद्ध शैली में प्रस्तुत किया गया है जैसे- गृहस्थाश्रम (5), अतिथिसत्कार ( 9 ) मधुर भाषण ( 10 ), कृतज्ञता (11). परोपकार ( 22 ) निरामिश जीवन ( 26 ), अहिंसा ( 33 ) योग्य पुरुषों की मित्रता ( 45 ) सभा में प्रौढ़ता (63) आदि आदि । I प्रस्तुत ग्रन्थ तलिम भाषा में लिखित है। इसके प्रणेता के विषय में विद्वानों में मतभेद है किन्तु प्रो० ए० चक्रवर्ती ने प्रस्तुत ग्रन्थ में "एलाचार्य" उपाधि की खोजकर इसे आचार्य कुन्दकुन्द कृत माना है और उनका साधना स्थल मलय पर्वत (आन्ध्रप्रदेश) के पो नूरमलै नामक ग्राम की नीलगिरि पर्वत को माना है जहाँ उनकी चरण पादुकाऐं उपलब्ध हुई हैं। भारतीय ज्ञानपीठ के महामंत्री एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री लक्ष्मीचन्द्र जी जैन ने इसमें अहिंसा, दया, संयम, पशु-बलि- निषेध, सर्वज्ञ जितेन्द्रिय, जिन धर्मचक्र आदि के प्रयोगों से इसे जैन ग्रन्थ सिद्ध किया है। तमिल साहित्यकार श्री के. एन. सुब्रह्मण्यम् ने भी उक्त ग्रन्थ को कुन्दकुन्दाचार्य कृत मानकर अपना शोधकार्य किया था, जो आंग्ल भाषा में के नाम से भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली से प्रकाशित है । - प्रस्तुत ग्रन्थ की उपयोगिता को देखते हुए आज से लगभग छह दशक पूर्व महरौनी (ललितपुर) निवासी प्रज्ञाचक्षु पं गोविन्दराय जी · Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य - - -- - - शास्त्री ने उसका हिन्दी एवं संस्कृतः पुसवाद कर उसे प्रकाशित किया था। वह ग्रन्थ इतना लोकप्रिय हुओं कि उसका प्रकाशन आचार्य विद्यानन्द जी मुनिराज की प्रेरणा से सम् 1988 में श्री कन्या भारती नही: दिल्ली से भी प्रकाशित हुआ जिम्मका प्रश्रम संस्करण पत्काल समाप्त हो गया और सन 1992 तकः उसको घार. संस्करण निकले। और अब पाँचवाः संसकारण प्रकाशमान की तैयारी में है। !", |..:.:. .. "उसकी लोकप्रियता एवं' माँग देखकर श्री अॅमा दि." अन्न विद्वत्परिषद्ध की कार्यकारिणी ने भी निर्णय लिया कि विद्वल्परिषद की ओर सभी उसयम प्रकाशन किया जाये। अतः परिषद के संगठन मंत्री श्री धिमनकुमारीजी सोस्या टीकमगढ़ ने उसको प्रकाशन हेतु आर्थिक संसाधन जुटा2 तथा उसके प्रकाशन कप व्यवस्था भी की। इसको लिए थे साधुवाद के पात्रा हैं। विश्वास है किास्वाध्याय प्रेमी सज्जम इस प्रकाशन या स्वारात करेंगे।और-विद्वत्परिषद के आगामी कार्यक्रमों को सफाल मित्राने हेतु प्रश्साहित करते रहेंगे । भजामि जैन अध्यक्ष || आरा बहार राम I fini :", अभा. दि. जैन विद्वत्परिषद 61470017 !!: !:: :: :. .!.: ..:: :. 31 | !!::|| .:. ... .' |::.. .:. IFFi:: :: :: :.: . : . . ::.!: ...:::. : ... 1 : I:: : : :: ::id:-:. ..: :: iii. ::: ::::: :: i ri::; . Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुबल काव्य पर अनुक्रमणिका क्रम . विषय 166 TRA 170 116 122.. 178 1. ईश्वर स्तुति (दोहा) 2. मेघ महिमा 3. मुनि महिमा 4. धर्म महिमा 5. गृहस्थाश्रम 6. सहधर्मिणी 7. सन्तान 8. प्रेम 9. अतिथि सत्कार 10. मधुर भाषण 11. कृतज्ञता 12. न्याय शीलता 13. संयम 14. सदाचार 15. परस्त्री त्याग 16. क्षमा 17. ईर्ष्या त्याग 18. निर्लोभिता 19. चुगली से घृणा 20. व्यर्थ भाषण 21. पापकर्मों से मय 22. परोपकार 23. दान 24. कीर्ति 25. दया 26. निरामिश भोजन | 27 तप पृ.सं. क्रम विषय 110 28. धूर्तता 112 29. निष्कपट व्यवहार 114 30. सत्यता 31. क्रोध त्याग 118 32. उपद्रव त्याग 172 122 33. अहिंसा 174 34. संसार की अनित्यता ॥ 176 12435. त्याग 1265. सत्य का अनुमव 180 128 37. कामना का दमन 182 130 36. भवितव्यता 184 132 39. राजा 186 134 40. शिक्षा 188 136 41. शिक्षा की उपेक्षा 190 138 42. बुद्धिमानों के उपदेश 192 140 43. बुद्धि 142 44. दोषों को दूर करना 198 144 45. योग्य पुरुषोंकी मित्रता 198 146 46. कुसंग से दूर रहना 200 148 47. विचारपूर्वक काम करना 202 150 48. शक्ति का विचार 204 15249. अवसर की परख । 206 154 50. स्थान का विचार 208 156 51. विश्वस्त पुरुषों की.... 210 158 52. पुरुष परीक्षा और..... 212 53 बन्धुता 214 162 54. निश्चिन्तता से बचाव 216 194 16000 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय 55. न्याथ शासन 56. अत्याचार 57 भयप्रद कृत्गों का... 58. विचारशीलता क्रम 59. गुप्तचर 60. उत्साह 218 220 222, 224 226 228 230 232 234 236 238 240 242 244 69. राज-दूल 246 70. राजाओं के समक्ष ..... 248 71. मुखाकृति से मनोभाय... 250 72. श्रोताओं का निर्णय 252 73. सभा में प्रौढ़ता 254 74. देश 256 75. दुर्ग 258 76. धनोपार्जन 260 262 77. सैना के लक्षण 78. वीर योद्धा का आत्म. 79. मित्रता 264 266 80. मित्रताकेलिए योग्यता 288 81. घनिष्ट मित्रता 270 61. आलस्य त्याग 62. पुरुषार्थ 63. संकट में धैर्य 64. मंत्री 65. वाकपटुता कुरल काव्य 66. शुभाचरण 67. स्वभाव निर्णय 68. कार्य संचालन पृ.सं. विषय 82. विघातक मैत्री 83. कपटं मैत्री 94. मूर्खता 85. अहंकारपूर्ण मूढ़ता क्रम. 272 274 276 278 86. उद्धतता 280 87. शत्रु की परव 282 88. शत्रुओं के साथ..... 284 89. घर का भेदी 286 90. बड़ोंके प्रति दुर्व्यवहार 288 91. स्त्री की दासता 290 92. वेश्या 93. मद्य त्याग 94. जुआ 95. औषधि 96. कुलीनता 97. प्रतिष्ठा 98. महत्त्व 99. योग्यता 100. सभ्यता 101. निरुपयोगी धन 102. लज्जाशीलता 103. कुलोन्नति 104 खेती 105. दरिद्रता पृ.स 106. भिक्षा 107. भीख मांगने से भय 108. भ्रष्ट जीवन 292 294 296 298 300 302 304 306 308 310 312 314 316 318 320 322 324 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुक्ल काव्य - परिच्छेदः १ ईश्वर स्तुतिः 'अ' वर्णो वर्तते लोके शब्दानां प्रथमो यथा । तथादिभगवानस्ति पुराणपुरुषोत्तमः ||१|| यदि नो यजसे पादौ सर्वज्ञपरमेष्टिनः । अखिलं तर्हि वैदुष्यं मुधा ते शास्त्रकीर्तने ।।२।। वर्तेते पावनौ पादौ स्वर्णाम्भोजविहारिणः । शरप्यौ हृदये यस्य स नूनं चिरमेधते ।।३।।। वीतरागस्य देवस्य रक्तः पादारविन्दयोः ।। यो धन्यः स घुमाल्लोके दुःखी न स्यात् कदाचन ।।४।। उत्साहेन समायुक्ता नित्यं गायन्ति ये प्रभोः । गुणान्, भवन्ति ते नैव कर्मदुःखोपभोगिनः ।।५।। आत्मना जयिना तेन यो धर्माध्वा प्रदर्शितः । तं नित्यं येऽनुगच्छन्ति ते नूनं दीर्घजीविनः ।।६।। दुःखजालसमाकीर्णेऽगाधे संसारसागरे । कृच्छ्रान्मुक्तः स एवास्ति यस्यैकः शरणं प्रभुः ।।७।। धर्मसिन्धोर्मुनीशस्य लीना ये पदकंजयोः । त एव तरितुं शक्ताः क्षुब्धं तारुण्यवारिधिम् ।।८।। निष्क्रियेन्द्रियसंकाशा मानवास्ते महीतले । पादद्वयं नमस्यन्ति ये नाष्टगुणधारिणः ।।६।। जन्ममृत्युमहाम्भोधेः पारं गच्छन्ति ते जनाः । पावनी शरणं येषां योगीन्द्रचरणौ ध्रुवम् ।।१०।। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिच्छेदः २ मेषमहिमा. यथासमयसंजाता वृष्टिर्यस्योपकारिणी । वारिवाहः सुधारूपस्तेनेदं वर्तते जगत् ।।१।। सर्वस्वादिष्टखाद्यानां मूलं जलद उच्यते । नेदमेव स्वयं वारि भोजनांग प्रतिष्ठितम् ।।२।। मेघवृष्टिं बिना लोके दुर्भिक्षं संप्रजायते । समन्तात् सागरैर्युक्ता भूरपि स्यात् प्रपीडिता ।। ३11 जीवनाधारभूतानि स्वर्गस्रोतांसि वारिदाः । विलीनाश्चेत् कृषि नूनमहास्यन् हलजीविनः ।।४।। तिवृष्टिबलाज्जाता. क्षा में किस मानकाः । समृद्धास्ते हि भूयोऽपि जायन्ते वारिवर्षणात् ।।५।। खात् पतन्ती पयोवृष्टिर्विरता चेत् कदाचन । तृणजन्मविलुप्तिः स्यादन्येषां दूरगा कथा ।।६।। वीभत्सदारुणावस्था जायेताहो सरित्पतेः । तज्जलस्य ग्रहोत्सर्गौ न कुर्याच्चेत् पयोधरः ।।७।। देवानां परितोषाय सपर्या पंक्तिभोजनम् । सर्वाण्येतानि लुप्यन्ते विलुप्ते व्योम्नि वारिदे ।।८।। दानिनां दानकर्माणि शूराणां चैव शूरता। जपहोमक्रियाः सर्वा नष्टा नष्टे वलाहके ।।६।। संभवन्ति समस्तानि कार्याणि जलदागमे । सदाचारोऽपि तेनैव विदुषामेष निश्चयः ।।१०।। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः 3 मुनिमाहात्म्यम् परिग्रह परित्यज्य जाता ये तु तपस्विनः । तेषां गायन्ति शास्त्राणि माहात्म्यं सर्वतोऽधिकम् 119|| ऋषीणां पूर्णसामर्थ्यं वेत्तुं को मानवः क्षमः । दिवंगतान् यथा जीवन् संख्यातुं को जनः क्षमः ||२|| मुक्तेर्भिन्नं भवं ज्ञात्वा त्यक्तो येन महात्मना । उद्योतितं जगत्सर्वं तेनैव निजतेजसा ||३|| स्वर्गक्षेत्रस्य बीजानि संयमेन तपोधनाः । इन्द्रियाणि वशे येषामंकुशेन गजो यथा ||४|| विजिताक्षमहर्षीणां शक्तिरत्रास्ति कीदृशी । ज्ञातुमिच्छसि चेत्तर्हि पश्य भक्तं सुराधिपम् ||५| करोति दुष्करं कार्यं सुकरं पुरुषोत्तमः । करोति सुकरं कार्य दुष्करं पुरुषाधमः ।। ६ ।। स्पर्शे रसेऽथवा गन्धे रूपे शब्दे च यन्मनः । क्रमते नैव तस्यास्ति योगो विष्टपशासने ||७ ये सन्ति धार्मिका ग्रन्थाः समस्ते धरिणीतले । आलोकं तेऽपि कुर्वन्ति मुनीनां सत्यवादिनाम् ||८|| || त्यागस्य शिखरारूढो मोहग्रन्थिमपास्य यः । क्षणं सहेत तत्क्रोधमेवं नास्ति नरो भुवि || ६ || साथुस्वभावमापन्ना मुनयो ब्राह्मणा मताः । यतस्तेषां सदा चित्ते जीवानां करुणा स्थिता ||१०|| 3 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ४ धर्ममाहात्म्यम् धर्मात् साधुतरः कोऽन्यो यतो विन्दन्ति मानवाः । पुण्यं स्वर्गप्रदं नित्यं निर्वाणंच सुदुर्लभम् ||१|| धर्मान्नास्त्यपरा काचित् सुकृतिर्देहधारिणाम् । तत्त्यागान्न परा काचिद् दुष्कृतिर्देहभाजिनाम् ||२|| सत्कृत्यं सर्वदा कार्यं यदुदर्के सुखावहम् । पूर्णशक्तिं समाधाय महोत्साहेन धीमता || ३ || सर्वेषामेव धर्माणामेष सारो विनिश्चितः । मनः शुद्धिं विहायान्यो वृथैवाडम्बरो महान् ||४|| दुर्वचोलोभकोपेर्ष्या हातव्या धर्मलिप्सुना । इदं हि धर्मसोपानं धर्मज्ञैः परिनिश्चितम् ||५| करिष्यामीति संकल्पं त्यक्त्वा धर्मी भव द्रुतम् । धर्म एव परं मित्रं यन्मृत्यो सह गच्छति ॥ ६ ॥ धर्मेण मा पृच्छैवं कदाचन । को गुणः खलु शिवकावाहकान् दृष्ट्वा तस्यांचारूढभूपतिम् ||७|| व्यर्थ न याति यस्यैकं धर्माचारं विना दिनम् । जन्ममृत्युमहाद्वारं मुद्रितं तेन साधुना ॥ ८ ॥ सुखं धर्मसमुद्भूतं सुखं प्राहुर्मनीषिणः । अन्यथा विषयोद्भूतं लञ्जादुःखानुबन्धि तत् ||६|| कार्यं तदेव कर्तव्यं यत् सदा धर्मसंभृतम् धर्मेणासंगतं कार्यं हातव्यं दूरतो द्रुतम् ||१०|| 4 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ५ गृहस्थाश्रमः आश्रमाः खलु चत्वारस्तेषु धन्या गृहस्थिताः । मुख्याश्रया हि ते सन्ति भिन्नाश्रमनिवासिनाम् ।।१।। अनाथानां हि नाथो ऽयं निर्धनानां सहायकृत् । निराश्रितमृतानांच गृहस्थः परमः सखा || २ || गृहिणः पथ कर्माणि स्यात्रतिर्देवपूजनम् । बन्धुसाहाय्यमातिथ्यं पूर्वेषां कीर्तिरक्षणम् || ३ || परनिन्दाभयं यस्य बिना दानं न भोजनम् । कृतिनस्तस्य निर्बीजो वंशो नैव कदाचन ||४|| यत्र धर्मस्य साम्राज्यं प्रेमाधिक्यंच दृश्यते । तद्गृहे तोषपीयूषं सफलाश्च मनोरथाः ||५|| गृही स्वस्यैव कर्माणि पालयेद् यत्नतो यदि । तस्य नावश्यका धर्मा भिन्नाश्रमनिवासिनाम् ||६|| धर्मेण संगतं यस्य कार्यं संजायते सदा । मुमुक्षुजनमध्ये तु स श्रेष्ठ इति कीर्तितः ॥७॥ यो गृही नित्यमुद्युक्तः परेषां कार्यसाधने । स्वयंचाचारसम्पन्नः पूतात्मा स ऋषेरपि ॥८॥ धर्माचारौ विशेषेण नित्यं सम्बन्धभाजिनौ । जीवनेन गृहस्थस्य सुकीर्तिस्तस्य भूषणम् ||६|| विदधाति तथा कार्यं यथा यद्विहितं विधो । विबुधः स गृही सत्यं मान्यैरार्यैः प्रकीर्तितः ||१०|| Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः 8 गृहिणी यस्यामस्ति सुपत्नीत्वं सैवास्ति गृहिणी सती । गृहस्यायमनालोच्य व्ययते न पतिव्रता || १ || दृष्टि नास्ति गुहे दात पत्नी स्वगुणभूषिता । अन्यवैभवयोगे ऽपि कष्टं गार्हस्थ्यजीवनम् ||२|| यत्र पत्नी गुणैराढया तत्र श्रीः सर्ववस्तुनः । यदि पत्नी गुणैर्हीना त्रुटि: कस्य न वस्तुनः || ३|| पातिव्रत्यबलेनैव यदि स्त्री शक्तिशालिनी । + ततोऽधिकः प्रभावः कः प्रतिष्ठावर्धको भुवि || ४ || सर्वदेवान् परित्यज्य पतिदेवं नमस्यति । प्रातरुस्थाय या नारी तद्वश्या वारिदाः स्वयम् ॥५॥ आदृता पतिसेवायां रक्षणे कीर्तिधर्मर्यो अद्वितीया सतां मान्या पत्नी या पतिदेवता ||६|| गुप्तस्थाननिवासेन स्त्रीणां नैव सुरक्षणम् । अक्षाणां निग्रहस्तासां केवलो धर्मरक्षकः || प्रसूते या शुभं पुत्रं लोकमान्य विदाम्वरम् । स्तुवन्ति देवता नित्यं स्वर्गस्था अपि तां मुदा ||८|| यस्य गेहाद् यशोवल्याः प्रसारो नैव जायते । उद्ग्रीवः सन् कथं शत्रोर सिंह इवैति सं वरील विशुस्मादृतं गेहमुत्तमो करें उच्यते । सुसंततिस्तु माहात्म्यपराकाष्ठा प्रकाशिनी ।। १० । । w 6 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल करण्य पविजेता संततिः यदि पुण्यात् कुले जन्म बुद्धिमत्याः सुसंततेः । ततो ऽधिकं परं श्रेयो न मन्येऽहं महीतले ।।१|| निष्कलंका सदाचारभूषिता यस्य संततिः । सप्तजन्मसमाप्त्यन्तं नासौ पापस्य भाजनम् ||२|| आनन्ददायिनी पुंसः संततिः सत्यसम्पदा । निधानं प्राप्यते पुण्यैरीदृशं सुखदायकम् ||३|| शिशुभिर्लघुहस्ताभ्यां मध्यते यत् सुभोजनम् । तद्रसास्वादनं नूनं पीयूषस्वादसन्निभम् || ४ || अंगस्पर्शो हि बालानां देहे पूर्णसुखोदयः । निसर्गललितालापस्पेषां कर्णरसायनम् ||५|| वेणुध्वनी सुमाधुर्यं वीणा स्वादीयसी बहुः । एवं वदन्ति यैर्नैव श्रुता संततिकाकिली || ६ | प्रजां प्रति पितुः कार्यमिदमेवावशिष्यते । मध्येसभं यथा स्यात् सा बुधपंक्ती गुणादृता ||७|| सर्वेषां जायते मोदो दृष्ट्वा हर्षविकासिनीम् । बुद्धिवैभवमाहात्म्यैरात्मनोऽप्यधिकां प्रजाम् ||८|| प्रकाशते सुतोत्पत्त्या मातुर्मोदस्य वारिधिः । तत्कीर्तिश्रवणात्तस्या उद्वेलः स च जायते ॥ ६॥ यदुदात्तां कृतिं वीक्ष्य पृच्छेयुर्जनकं जनाः । यदीदृक् तपसा केन सुतो लब्धः स नन्दनः || १| Smar 7 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा, कुरल काव्य र परिच्छेदः ८ प्रेम अर्गला क्वापि नो नूनं प्रेमद्वारनिरोधिनी । सूच्यतेऽश्रुनिपातेन मानसे तस्य संस्थितिः ।। १।। ये. नर प्रेपशूलो हि जीतत्पनः कुते । परं प्रेमानुरक्तस्य कीकसंच परार्थकृत् ।।२।। प्रेमामृतरसास्वादलालसोऽयं हि चेतनः । सम्मतोऽभूत्पुनर्बद्धं पिंजरेऽस्थिविनिर्मिते ।।३।। प्रेम्णः संजायते स्नेहः स्नेहात् साधुस्वभावता । अमूल्यं मित्रतारत्नं सूते सा स्नेहशीलता ॥४॥ यदिहास्ति परत्रापि सौभाग्यं भाग्यशालिनः ।। तत् स्नेहस्य पुरस्कारो विश्रुतेयं जनश्रुतिः ।।५।। साधुभिः सह कर्तव्यः प्रणयो नेतरैः समम् 1 . नेयं सूक्तिर्यतः स्नेहः खलस्यापि जये क्षमः ।।६।। ।। अस्थिहीनं यथा कीटं सूर्यो ‘दहति तेजसा । नधा दान धर्मश्च प्रेमशून्यं नृकीटकम् ।।७।। मरुभूमी यदा स्थाणुर्भवेत् पल्लवसज्जितः ।। तदा प्रेमविहीनोऽपि भवेद् ऋद्धिसमन्वितः ।।८।। आत्मनो भूषणं प्रेम यस्य चित्ते न विद्यते । . बाह्यं हि तस्य सौन्दर्य व्यर्थं रूपधनादिजम् '१६।। जीवनं जीवनं नैव स्नेहो जीवनमः । । । प्रेमहीनों नरों नूने मांति नास्थिसनाः ।। १८५॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुबल काव्य - अतिथि सत्कारः बहुकष्टसमाकीर्णं गृहभारं मनीषिणः । वहन्ति केवलं वीक्ष्य पुण्यमातिथ्यपूजनम् ।।१।। यदि दैवाद् गृहे वासो देवस्यातिथिरूपिणः । पीयूषस्यापि पानं हि तं विना नैव शोभते ।।२।। गृहागतातिर्भक्तेर्यो हि नैव प्रमाद्यति । तस्योपरि न चायाति विपत्तिः कापि कष्टदा ।।३।। योग्यातिथैः सदा यस्य स्वागते मानसीस्थितिः । । श्रियोऽपि जायते मोदो वासार्थं तस्य समनि ।।४।। शेषमन्नं स्वयं भुङ्क्ते पूर्व भोजयतेऽतिथीन् । क्षेत्राण्यकृष्टपच्यानि नूनं तस्य महात्मनः ।।५।। पूर्वं सम्पूज्य गच्छन्तमागच्छन्तं प्रतीक्षते । यः पुमान् स स्वयं नूनं देवानां सुप्रियोऽतिथिः ।।६।। आतिथ्यपूर्णमाहात्म्यवर्णने न क्षमा चयम् । दातृपात्रविधिद्रव्यैस्तस्मिन्नस्तिविशेषता ।।७।। अकर्ताऽतिथियज्ञस्य शोकमेवं गमिष्यति । संचितोऽयं महाकोषः पंचत्वे हा न कार्यकृत् ।१८॥! योग्यवैभवसद्भावे येनाहो नेज्यतेऽतिथिः । दरिद्रः स नरो नूनं मूर्खाणांच शिरोमणिः ।।६।। आघातं म्लानतां याति शिरीषकुसुमं परम् । एकेन दृष्टिपातेन म्रियतेऽतिथिमानसम् ।।१०।। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुचल काठ्य पर परिच्छेदः 90 मधुरभाषणम् सुस्निग्धा मधुरा नूनं सतां भवति भारती । अकृत्रिमा दयायुक्ता पूर्णसद्भावसंभृता ।।१।। प्रियवाण्यां सुवात्सल्ये स्निग्धदृष्टौ च यद्विधम् । माधुर्यं दृश्यते तद्वद् बृहदानेऽपि नेक्ष्यते ।।२।। स्नेहपूर्णा दयादृष्टिहार्दिकी या च वाक्सुधा । एतयोरेव मध्ये तु धर्मो वसति सर्वदा ।।३।। वचनानि रसान्यानि यस्यास्लादकराणि सः । कदाचिल्लभते नैव दारिद्रयं दुःखवर्द्धनम् ।।४।। भूषणे द्वे मनुष्यस्य नम्रताप्रियभाषणे । अन्यद्धि भूषणं शिष्टैर्नादृतं सभ्यसंसदि ।।५।। यदि ते मानसं शुद्ध वाणी चान्यहितकरी । धर्मवृद्धया समं तर्हि विज्ञेयः पापसंक्षयः ।।६।। सेवाभावसमायुक्तं विनम्रवचन सदा । विश्वं करोति मित्रं हि सन्त्यन्येऽपि महागुणाः ।।७॥ शब्दाः सहृदयैः श्लाघ्याः क्षुद्रतारहिताश्च ये । कुर्वन्ति ते हि कल्याण मिहामुत्र च भाषिणः ।।८।। श्रुतिप्रियोक्तिमाधुर्यमवगम्यापि ना कथम् । न मुंचति दुरालापं किमाश्चर्यमतः परम् ।।६।। विहाय मधुरालापं कटूक्ति योऽथ भाषते । अपक्वं हि फलं भुक्ते परिपक्वं विमुच्य सः ।।१०।। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुचल काव्य - परिच्छेदः ११ कृतज्ञता या दया क्रियते भव्यैराभारस्थापनं बिना । स्वयंमल्वुभौ तस्याः प्रतिदानाय न क्षमी ।।१।। शिष्टैरवसरं वीक्ष्य यानुकम्पा विधीयते । स्वल्पापि दर्शने किन्तु विश्वस्मात् सा गरीयसी ।।२।। आपन्नातिविनाशाय यानपेक्ष्यार्यवृत्तिना । क्रियते करुणा तस्या अब्धेरप्यधिकं बलम् ।।३।। लाभः सर्षपतुल्योऽपि परस्माज्जायते यदि । कृतज्ञस्य पुरस्तात्तु तालतुल्यो भवप्यसौ ।।४।। सीमा कृतज्ञतावास्तु नोपकारावलचिता । तन्मूल्यमुपकार्यस्य पात्रत्वे किन्तु निर्भरम् ।।५।। उपेक्षा नैव कर्तव्या प्रसादस्य महात्मनाम् । प्रणयोऽपि न हातव्यस्तेषां ये दुःखबान्धवाः ।।६।। संकटे भीतिमापत्रान् य उद्धरति सर्वदा । कृतज्ञत्वेन तन्नाम कीर्त्यते हि भवान्तरे ।।७।। नीचत्वं ननु नीचत्वमुपकारस्य विस्मृतिः । भद्रत्वं खलु भद्रत्वमपकारस्य विस्मृतिः ।।८।। अपकर्तुरपि प्राज्ञैरुपकारः पुराकृतः । स्मृतः करोति दुःखानां विस्मृति मर्मघातिनाम् ।।६।। अन्यदोषेण निन्द्यानामुद्धारः संभवत्यहो । परं भाग्यविहीनस्य कृतघ्नस्य न चास्ति सः ।।१८।। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुल काव्य परिच्छेदः १२ न्यायशीलता इदं हि न्यायनिष्ठत्वं यन्निष्पक्षतया सदा । न्याय्यो भागो हृदा देयो मित्राय रिपवेऽथवा ॥१॥ न क्षीणा जायते जातु सम्पत्तियशालिनः । वंशक्रमेण सा याति सहैवास्य सुकर्मणः || २ || अन्यायप्रभवं वित्तं मा गृहाण कदाचन । वरमस्तु तदादाते लाभ एवास्तदूषणः ||३|| अन्यायेन समायुक्तं न्यायारूढंच मानवम् । व्यनक्ति संततिर्नूनं स्वगुणैरात्मसंभवम् ||४|| स्तुतिर्निन्दा च सर्वेषां जायेते जीवने ध्रुवम् । 'न्यायनिष्ठा परं किंचिदपूर्वं वस्तु धीमताम् ||५| नीतिं मनः परित्यज्य कुमार्ग यदि धावते । सर्वनाशं विजानीहि तदा निकटसंस्थितम् ||६|| अथ निःस्वो भवेन् न्यायी कदाचिद् दैवकोपतः । तथापि तं न पश्यन्ति लोका हेयदृशा ध्रुवम् ||७|| अमायिकस्तुलादण्डः पक्षद्वयसमो यथा 1 तेन तुल्यः सदा भूयादासीनो न्यायविष्टरे || || नैवस्खलति चेतोऽपि सुनीतेर्यस्य धीमतः । तस्यैौष्ठनिर्गतं वाक्यं न मृषा न्यायरागिणः || ६ | परकार्यमपि प्रीत्या स्वकार्यमिव यो गृही । कुरुते तस्य कार्येषु सिद्धिर्भाग्यवतः सदा 1190 || 12 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प काव्य - कुबत्य काव्य र परिच्छदः 93 संयमः इन्द्रियाणां निरोधेन लभ्यते त्रिदशालयः । घण्टापथस्तु विज्ञेयो रौरवार्थमसंयमः ।।१।। संयमोऽपि सदा रक्ष्यो निजकोषसमो बुधैः । ततोऽधिकं यतो नास्ति निधानं जीवने परम् ।।२।। सम्यग्बोधेन यः प्राज्ञः करोतीच्छानिरोधनम् । मेधादिसर्वकल्याणं प्राप्स्यते स सदाशयः ।।३।। इन्द्रियाणां जयो यस्य कर्तव्येषु च शूरता । पर्वतादधिकस्तस्य प्रभावो वर्तते मुवि ।।४।। नम्रता वर्तते नूनं सर्वेषामेव भूषणम् । पूर्णाशैः शोभते किन्तु धनिके विनयान्विते ।।५।। संयम्य करणग्रामं कूर्मोऽगांनीव यो नरः । वर्तते लेन कोशो हि संचितो भाविजन्मने ।।६।। अन्येषां विजयो माऽस्तु संयतां रसनां कुरु । असंयता यतो जिहा बहूपायैरधिष्ठिता ॥७।। एकमेव पदं पाण्यामस्ति चेन्मर्मघातकम् । विनष्टास्तर्हि विज्ञेया उपकाराः पुराकृताः ।।६।। दग्धमंग पुनः साधु जायते कालपाकतः । कालपाकमपि प्राप्य न प्ररोहित वाक्क्षतम् ।।६।। पश्य मत्र्य जितस्वान्तं विद्यावन्तं सुमेधसम् । यदर्शनाय तद्गेहमेतो धर्मित्वसाधुते ।।१०।। (13) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुबल काव्य परपरिच्छेदः १४ सदाचारः सदाचारेण सर्वत्र प्रतिष्ठाधारको जनः । प्राणाधिकस्तती रक्ष्यः सदाचारः सदा बुधः ।। प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत सुधीश्चरितमात्मनः । दृढमित्रं यतो नास्ति तत्तुल्यं क्वापि पिष्टपे ।।२।। | आचारेण सुवंश्यत्वं द्योत्यते जगतीतले । कदाचारैश्च नीचानां श्रेणादायाति मानवाः ।।३।। विस्मृतोऽप्यागमः प्राज्ञैः कण्ठस्थः क्रियते पुनः । स्वाचारप्रच्युतः किन्तु न पुनर्याति तत्पदम् ।।४।। परोत्कर्षासहिष्णूनां यथा नैव समृद्धयः । न गौरवं तथा किंचिद् दुराचारवतः कृते ।।५।। न स्खलन्ति सदाचारात् प्रतिज्ञापालका जनाः । स्खलनं ते हि जानन्ति दुःखाब्धेर्मूलकारणम् ।।६।। सन्मार्गवर्तिनः पुंसः सन्मानं सम्यसंसदि । अप्रतिष्ठापकीर्तिश्च भाग्ये कापथगामिनः ॥७।। सुखबीजं सदाचारो वैभवस्यापि साधनम् । कदाचारप्रसक्तिस्तु विपदां जन्मदायिनी ।।।। विद्याविनयसम्पन्नः शालीनो गुणवान् नरः । प्रमादादपि दुर्वाक्यं न ब्रूते हि कदाचन ।।६।। अन्यत् सर्वं सुशिक्षन्ते मूर्खा योग्योपदेशतः । हन्त सन्मार्गगामित्वं न शिक्षन्ते कदापि ते ।।१०।। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः १५ परस्त्रीत्यागः रूपलावण्यसंव्याप्तदेहयष्टिजुषामपि । नासौ रागी परस्त्रीणां धने धर्मे च यस्य धीः ||१|| नास्ति तस्मात् परो मूर्खो यो द्वारं प्रतिवेशिनः । वीक्षते पापबुद्ध्या स स्वधर्मात् पतितो जनः || २ || असंशयं मुखे मृत्योस्ते तिष्ठन्ति नराधमाः । असन्देहवतः सख्युर्गृहं यैरभिगम्यते ||३|| कोऽर्थस्तस्य महत्त्वेन रमते यः परस्त्रियाम् । व्यभिचारात् समुत्पन्ना लज्जा येन च हेलिता || ४ | आश्लिष्यति गले यश्च सुलभा प्रतिवेशिनीम् । अंकमारोप्य तेनैव दूषितं निजनामकम् ||५|| चत्वारो नैव चन्ति व्यभिचारिजनं सदा । घृणा पापानि भ्रान्तिश्च कलंकेन समन्विताः ।। ६ ।। विरक्तः प्रतिवेशिन्या रूपलावण्यसम्पदि । स एव सद्गृही सत्यं कुलजाचारपालकः ||७|| नैवेक्षते परस्त्रीं यः पुंस्त्वं तस्य जयहो । न परं तत्र धर्मित्वं महात्मा स हि भूतले || ८ || बाहुपाशे न यो धन्ते कण्ठाश्लिष्टां परांगनाम् । भोक्ता स एव सर्वेषां श्रेयसां भूमिवर्तिनाम् ||६| वरमन्यत्कृतं पापमपराधोऽपि वा चरम् । परं न साध्वी त्वत्पक्षे कांक्षिता प्रतिवेशिनी ||१०|| 15 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुरान काव्य र परिच्छेदः १६ क्षमा आश्रयं धरणी दत्ते खनितारमपि ध्रुवम् । तथा त्वं बाथकान्नित्यं क्षमस्वास्मिन् सुगौरवम् ।।१।। तस्मै देहि क्षमादानं यस्ते कार्यविघातकः । विस्मृतिः कार्यहानीनां यद्यहो स्यात् तदुत्तमा ११२।। स एव निर्थनो नूनमातिथ्याद् यः पराड्.मुखः । एवं स एव वीरेन्दुर्मीख्य येन विषह्यते ।।३।। यदि कामयसे सत्यं हृदयेन सुगौरवम् । कार्यस्तर्हि समं सर्वैर्व्यवहारः क्षमामयः ।।४।। प्रतिवरं विधत्ते यो न स्तुत्यः स विदाम्वरैः । अरावपि क्षमाशीलो बहुमूल्यः स हेमवत् ।।५।। यावदेकदिनं हर्षों जायते वैरसाधनात् । क्षमादानवतः किन्तु प्रत्यहं गौरवं महत् ।।६।। प्राप्यापि महती हानि स्वल्पोऽप्याकारविभ्रमः । न लक्ष्यते परं चित्रं नैवेहा वेरशोधने ।।७।। विधत्ते तव कार्याणां हानि यो गर्विताशयः । सद्वर्तनस्य शस्त्रेण तस्यापि विजयी भव ।।८।। गृहं विमुच्य ये जाता ऋषयो लोकपूजिताः । तेभ्योऽपि प्रवरा नूनं यैः खलोक्तिर्विषह्यते ॥६॥ महान्तः सन्ति सर्वेऽपि क्षीणकायास्तपस्विनः । क्षमावन्तमनुख्याताः किन्तु विश्वे हि तापसाः ।। १०।। 16 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त कुरण काव्य । परिच्छेद: १७ ईात्यागः ईर्ष्यापूर्णविचारास्तु सततं दुःखदायिनः । मनसा तांजहीहि त्वं तदमावे हि धर्मिता ।।१।। अखिलेाविनिर्मुक्तस्वभावसदृशं पुनः । नास्ति भद्रमहो पुंसां विस्तृते जगतीतले ।।२।। यस्य नास्ति धने प्रीतिधर्मे चात्महितंकरे । स ईय॑ति सदा वीक्ष्य समृद्धं प्रतिवेशिनम् 11३।। ईय॑या कुरुते नैव परहानि विचक्षणः । ईर्ष्याजन्यविकाराणां ह्युदर्कं वेत्ति तत्त्ववित् ।।४।। ईष्यवालं विनाशाय तदाश्रयप्रदायिनः ।। मुंचेद्वा तं रिपुर्जातु नत्वीर्ष्या सर्वनाशिनी ।।५।। ___ परस्मै यच्छते पुंसे य ईर्ण्यति नराधमः । भृशं दुःखायते तस्य कुटुम्ब कशिपोः कृते ।।६।। विजहाति स्वयं लक्ष्मीरीादूषितचेतसम् । अर्पयते च तं स्वस्याः पूर्वजायै दुराशयम् 11७।। अतिदुःखकरी नूनं दीनवीव दरिद्रता । इयमीp च तद्दती नरकद्वारदर्शिनी ।।८।। ईवितां समृद्धत्वं दानिनांच दरिद्रता । विवेकिनां मनस्येते समाने विस्मयावहे ।।६।। ईjया क्वापि नो कश्चित् पुष्पितः फलितोऽथवा । तथैवोदारचेतास्तु ताभ्यां क्वापि न वंचितः ।।१०।। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः १८ निर्लोभिता सन्मार्गं यः परित्यज्य परवित्ताभिलाषुकः । खलत्वं वर्द्धते तस्य परिवारश्च नश्यति ||१|| जुगुप्सा यस्य पापेभ्यो लोभं नैव करोति सः । प्रवृत्तिस्तस्य भद्रस्य कुकर्मणि न जायते || २ || स्थिर सौख्याय यस्यास्ति स्पृहा तस्य सुमेधसः । लोभो नास्त्यल्पभोगानां पापकर्माविधायिनः ||३|| इन्द्रियाणि वशे यस्य चित्ते चातिविशालता । स्वोपयोगीति बुद्ध्या स नान्यवस्तु जिघृक्षति ||४|| किं तया क्रियते मत्या लोभे का क्रमते सदा । बोधेनैवंच किं तेन यद्यधाय समुद्यतः ||५|| सत्पथं ये सदा यान्ति सुकीर्तेश्चानुरागिणः । तेऽपि नष्टा भविष्यन्ति यदि लोभात् कुचक्रिणः ||६|| तृष्णया संचितं वित्तं मा गृध्य हितवांछया । एवंभूतं धनं भोगे दुःखैस्तीक्ष्णतरं भवेत् ॥ ७॥ . लक्ष्मीर्भवेन्न मे न्यूना यद्येवं काड् क्षसे ध्रुवम् । मा भूस्त्वं ग्रस्तुमुद्युक्तो वैभवं प्रतिवेशिनः || ८ || सुनीतिं वेत्ति यः प्राज्ञः परस्वाद् विमुखो भवन् । तद्गृहं ज्ञातमाहात्म्या लक्ष्मीरन्विष्य गच्छति ||६|| अदूरदर्शिनस्तृष्णा केवला नाशकारिणी । निष्कामस्य महत्त्वन्तु सर्वेषां विजयि ध्रुवम् ||१०|| 18 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा बत्र काव्य - परिच्छेद: १६ पैशुन्यपरिहारः शुभं न रोचते यस्मै कुकृत्येषु रतश्च यः । सोऽपीदं मोदते श्रुत्वा यदसौ नास्ति सूचकः ।। १।। शुभादशुभसंसक्तो नूनं निन्धस्ततोऽधिकः । पुरः प्रियम्वदः किन्तु पृष्टे निन्दापरायणः ।।२।। अलीकनिन्दितालापिजीवितान् मरणं वरम् । एवं कृते न नश्यन्ति पुण्यकार्याणि देहिनः ।। ३।। अवाच्यं यदि केनापि प्रत्यक्षे गदितं त्वयि । तस्य पृष्ठे तथापि त्वं मा भूनिन्दापरायणः ।।४।। मुखेन भाषतां बहीं शुभोक्तिं पिशुनो वरम् । सूचयत्येव तज्जिहा निम्नत्वं किन्तु चेतसः ।।५।। त्वया यदि परे निन्द्याः स्युस्त्वां तेऽपि रुषान्विताः । दर्शयित्वा महादोषान् निन्दिष्यन्ति तवाहिताः ।।६।। मैत्रीरसं न जानाति न चापि मधुरं वचः । स एव भेदमाधत्ते मित्रयोरेककण्ठयोः ।।७।। पुरस्तादेव सर्वेषां मित्रं निन्दन्ति ये नराः । तैः शत्रवः कथं निन्द्या न स्युरिति विचार्यताम् ।।८।। निन्दाकर्तुः पदाघातं सहते स्वोरसि क्षमा । तद्भारायैव सा धर्म वीक्षते कि मुहुर्मुहुः ।।६।। अन्यदीयमिवात्मीयमपि दोषं प्रपश्यता । कः समः खलु मुक्तोऽयं दोषवर्गेण सर्वदा ।। १०।। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ज, कुबल काव्य परिच्छेदः २० व्यापण अर्थशून्यं वचो यस्य श्रुत्वोद्वेगः प्रजायते । तत्सम्पर्काज्जुगुप्सन्ते लोके सर्वेऽपि मानवाः ।।१।। ___क्लेशदानं स्वमित्रेभ्यो वरमस्तु कथंचन । गोष्ठयां किन्तु वृथालापो न श्लाघ्यो निम्नताकरः ।।२।। निस्सारं दम्भपूर्णच व्याख्यानं यः प्रभाषते । नन्वाख्याति स्वयं लोके स मन्दः स्वामयोग्यताम् ।।३।। बुधवृन्दे प्रलापेन कोऽपि लामो न जायते । विद्यमानो वरांशोऽपि तत्सम्बन्धाद् विलीयते ।।४।। योग्योऽप्ययोग्यवद् भाति व्यर्थालापपरायणः । सम्मानं गौरवंचास्य द्वयमेव विनश्यति ।।५।। रुधिरेवास्ति यस्याहो मोघार्थवचसा व्यये । तं मानवं न जानीहि ह्यपेक्ष्यं चापि कच्चरम् ।।६।। उचितं बुध चेद् भाति कुर्याः कर्कशभाषण । परं नैव वृथालापं यतोऽस्माद्वै तदुत्तमम् ।।७।। येषां हि निरतं चित्तं तत्त्वज्ञानगवेषणे । विकथां ते न कुर्वन्ति क्षणमात्रं महर्षयः ।।८।। येषां तु महती दृष्टिये चैवं दीर्घदर्शिनः । विस्मृत्यापि न कुर्वन्ति वृथोक्तीस्ते महाधियः ।।६।। वाचस्ता एव वक्तव्या याः श्लाघ्याः सभ्यमानवैः । वर्जनीयास्ततो भिन्ना अवाच्या या वृथोक्तयः ।। १०।। (20 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः 29 पापभीतिः यन्मौ निखले लोके पापनाम्ना निगद्यते । ततोऽभीताः खलाः किन्तु सन्तस्तस्माच्च दूरगाः ।। १ ।। 'द्रोहात्संजायते द्रोह' इति सत्यं सुभाषितम् । दूरादेव ततस्त्याज्यो द्रोहाग्निर्वैरवर्द्धकः || २ || कथयन्ति बुधा एवं यद्धीः सैवेह शस्यते । यया बुद्धिमता नित्यं हानिर्हेया द्विषामपि ||३| विस्मृत्यापि नरो धीमान् परनाशं न चिन्तयेत् । यतस्तस्य विनाशाय न्यायो यक्ति सदेक्षते ||४|| 'निर्धनोऽस्मीति ' बुद्ध्यापि न कर्तव्यं हि किल्विषम् । दुरिताद् वर्द्धते यस्माद् दारिद्र्यमधिकाधिकम् ॥ ५॥ यदीच्छसि विपत्तिभ्यस्त्राणं सततमात्मनः । न कर्तव्या त्वया हानिः परेषां दुःखदायिनी || ६ || अन्यारिभ्यस्तु संरक्षा कदाचित् संभवत्यो । परं पापाद् विनिर्मुक्तिर्नाशात्पूर्वा न जातुचित् ||७|| न जहाति नरं छाया यथा सा पृष्ठवर्तिनी । तथैव पापकर्माणि नाशोदर्काणि देहिनाम् ||८| न करोति नरः पापं यस्यात्मा वै ध्रुवं प्रियः । स एव कुरुते पापं यस्यात्मा ध्रुवमप्रियः ||६|| विपदी विहतास्तस्य पूर्णरीत्या च रक्षितः । विधातुं पापकर्माणि यः सन्मार्गं न मुंचति ||१०|| 21 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा कुमार काव्य पर परिच्छेद: २२ परोपकारः नोपकारपराः सन्तः प्रतिदानजिघृक्षया । समृद्रः किमसौ लोको मेघाय प्रतियच्छति ।। १।। महान्तो बहुभिर्यत्नैरर्जयन्ति स्वपौरुषात् । यद्रव्यं खलु तत्सर्वं परेषामेव कार्यकृत् ।।२।। यः कश्चिदुपकारो हि हार्दिकः क्रियते बुधैः । न किंचिद्वस्तु तत्तुल्यं भूतले वा सुरालये ।।३।। योग्यायोग्यविचारो हि नूनं यस्य स जीवति । तयोविवेकहीनश्च जीवन्नपि मृतायते ।।४।। पश्य तं सलिलापूर्ण कासारं हृद्यदर्शनम् । एवं तस्यापि गेहे श्रीर्यस्यान्तः प्रेमसंस्थितिः ।।५।। उदाराणामिदं सर्वं वैभवं समुपार्जितम् । ग्राममध्ये समुत्पन्नतसवैभवसन्निभम् ।।६।। तेन वृक्षेण संकाशा उत्तमस्य विभूतयः । सर्वांग यस्य भैषज्यं सदा च फलशालिनः ।।७।। दुःखं दैवाद् यदि प्राप्तो योग्यायोग्यपरीक्षकः । न मुंचति तथाप्येष उपकारं दयाकरः ।।८।। सुकृती रिक्तमात्मानं तदानीं मन्यते ध्रुवम् । आशाभंगान्निवर्तन्ते यदा वै याचका जनाः ।।६।। उपकारो विनाशैन सहितोऽपि प्रशस्यते । विक्रीयापि निजात्मानं भव्योत्तम विधेहि तम् ।।१०।। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शुभ zाव्य र परिच्छेदः २३ दानम् दीनाय दुःखपात्राय यद्दानं तत्प्रशस्यते । अन्यत् सर्वन्तु विज्ञेयमुद्धारसदृशं पुनः ।।१।। दानादाने हि न श्रेयः स्वर्गोऽपि प्राप्यते यदि । दानंच परमो धर्मः स्वर्गद्वारे ऽपि मुद्रिते ।।२।। प्रशंसाहर्हाः सतां मान्या ननु सर्वेऽपि दानिनः । परं तेषु कुलीनः स यः पूर्वं न निषेधति ।।३।। तावन्न मोदते दानी यावत्रासौ विलोकते । सन्तोषजनितं हर्षमर्थिनो मुखमण्डले ।।४।। विजयेषु समस्तेषु श्रेष्ठ: स्वात्मजयो मतः । ततोऽपि विजयः श्रेष्ठः परेषां क्षुत्प्रशामनम् ।।५।। आर्तक्षुधाविनाशाय नियमोऽयं शुभावहः । कर्तव्यो थनिभिनित्यमालये वित्तसंग्रहः ।।६।। इतरानपि संभोज्य यो 'मुङ्क्ते दययान्वितः । नैव स्पृशति तं जातु क्षुधारोगो भयंकरः ।।७।। संचिनोति विनाशाय संकीर्णहृदयो धनम् । ज्ञायते तेन न ज्ञातो दानस्य मधुरो रसः ।।८।। एकाकी कृपाणो भुङ्क्ते यदन्नं प्रीतिसंयुतः । अनाय॑जुष्टमस्वयं भिक्षान्नात् तघृणास्पदम् ।।६।। मृत्युरेव हि तद्वस्तु यत्सर्वाधिकमप्रियम् । दानशक्तरसद्भावे चित्रमेषोऽपि रोचते ।।१०।। 23 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुवार काव्य परपरिच्छेदः २४ कीर्तिः दानं विश्राण्य दीनेभ्यः प्रार्जयेत् कीर्तिमुज्ज्वलाम् । कीर्तितुल्यो यतो लाभो नरस्यान्यो न विद्यते ।।१।। प्रशंसकमुखे तेषां वर्तते नामकीर्तनम् । वैः सदा दायते क्षानं दालेभ्यो दययान्वितैः ।।२।। सर्वे भावा विनश्यन्ति भुवनत्रयवर्तिनः । अंतुला केवला कीर्तिर्नरस्याहो न नश्यति ।।३।। दिगन्तव्यापिनी येन स्थायिनी कीतिरर्जिता । सम्मानयन्ति तं देवा ऋषेरपि महत्तरम् ।।४।। विनाशः कीर्तिविस्फायी मृत्युश्च कीर्तिवर्द्धनः । मध्येमागं समायाति महतामेव तद्वयम् ।।५।। नरत्वं खलु चेल्लब्धं भवितव्यं यशस्विना । नियोगेन त्वया मर्त्य मा भवेस्त्वं नरोऽथवा ।।६।। न च क्रुध्यत्यहो स्वस्मै स्वयं दोषहतो नरः । परं वैरायते साकं निन्दकैः स जडाशयः ।।७।। प्रतिष्ठाधारका नैव नूनं सन्ति नरास्तु ते । येषां नैव स्मृतिर्लोके कीर्तिस्पेण विश्रुता ।।८।। अपकीर्तिमतां भारैराकान्तं पश्य मण्डलम् । समृद्धमपि तत्पूर्वं क्षयं याति शनैः शनैः ।।६।। निष्कलंक सदा यस्य जीवनं तस्य जीवनम् । कलंकैर्नष्टकीर्तिश्च नूनं मृतक एव सः ।।१०।। .-(24) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः २५ दया महतां हि धनं चित्तं करुणारससंभृतम् । अन्यद् द्रव्यं यतो लोके हीनवर्गे ऽपि दृश्यते ||१|| यथाक्रमं समीक्ष्यैव दयां चित्तेन पालयेत् । सर्वे धर्मा हि भाषन्ते दया मोक्षस्य साधनम् ||२|| असूर्या नाम ये लोका अन्धेन तमसावृताः । ताँस्ते प्रेत्य न गच्छन्ति येषां चित्ते दयालुता ||३| अंहसां न फलं तेषां भुङ्क्ते सर्वदयारतः । येषां स्मरणमात्रेण नूनमात्मा प्रकम्पते ||४|| दयालुः पुरुषो नैव जायते क्लेशभाजनम् । साक्षिणी तत्र वातानां वलयैर्वेष्टिता मही || ५॥ हन्त येन दया धर्मस्त्यतः पापान्धचेतसा । विस्मृतं तेन भुक्त्वापि धर्मत्यजनदुष्फलम् ||६|| यथा वैभवहीनाय नायं लोकः सुखाकरः । न तथा परलोकोऽपि कारुण्यक्षीणवृत्तये ॥ ७ ॥ ऐहिकार्थपरिक्षीणः कदाचिद् धनिको भवेत् । परं भूतदयारिक्तो नामुत्र सुदिनोदयः ||८|| सुलभं नो यथा सत्यं कषायवशवर्तिनः । न प्रशस्तं तथा कार्यं सुकरं निष्ठुरात्मना ||६|| दुर्बलं. वाधितुं क्रूर यदोत्साहेन चेष्टसे । तत्पदे स्वं तदा मत्वा चिन्तयस्व निजस्थितिम् ||१०|| :. 25 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - छुनल काव्य र परिच्छेदः २६ निरामिषजीवनम् अद्यते येन मांसं हि निजमांसविवृद्धये । नैव संभाव्यते नूनं करुणा तस्य मानसे ॥१॥ यथा धनं न तत्पावं व्यर्थं यो व्ययते नरः । मांसाशिनस्तथा चित्ते दयास्तित्वं न दृष्यते ।।२।। मांसमास्वाद्यते येन निर्दयेन दुरात्मना । न श्रेयसि मनस्तस्य लुण्ठाकस्येव शस्त्रिणः ।। ३३ । असंशयं महत् क्रौर्यं जीवानां खलु हिंसनम् । परं पापस्य घोरत्वं यन्मांसं भुज्यते जनैः ।।४।। नियमेन मनुष्यस्य मांसत्यागे सुजीवनम् । अन्यथा नरकद्वारं न निर्गन्तुमनावृतम् ।।५।। यदि नैव भवेल्लोके मांसास्वादस्य कामना । तर्हि नैव भवेल्लोके मांसस्य खलु विक्रयः ।।६।। परस्यापि विजानीयात् स्वस्येव निधने व्यथाम् । सकृदेव नरो भूयो न कुर्याज्जीवहिंसनम् ।।७।। मिथ्यात्वत्यजनाद् यस्य हृदयं न्यायसंगतम् । नासौ शवबुमुक्षुः स्यात् प्राणैः कण्ठगतैरपि ।।६।। हिंसायाः पिशिताच्चैव घृणा यस्यास्ति मानसे । कोटियज्ञफलं नित्यं लभ्यते तेन साधुना ॥६।। आमिषाजीवघाताच्च विरतिर्यस्य धीमतः । - पाणी संयोज्य सम्मानं कुरुते विष्टपम् ।।१०।। 26 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो कुल काव्य र बारिखद: २७ तपः सर्वेषामेव जीवानां हिंसाया विरतिस्तथा । शान्त्या हि सर्वदुखानां सहनं तप इष्यते ।। १।। तपो नूनं महत्तेजस्तेजस्विन्येव शोभते । निस्तेजसि तपः किन्तु निष्फलं जायते सदा ।।२।। ऋषीणां परिचर्यार्थं केचिदावश्यका जनाः । इतीब न तपस्यन्ति किमन्ये धर्मवत्सलाः ।।३।। रिपूणां निग्रहं कर्तुं सुहृदांचाप्यनुग्रहम् । यदीच्छा तर्हि तप्यस्व तपस्तद्वयसाधनम् ।।४।। सर्वेषामेव कामानां सुसिद्धौ साधनं तपः । अतएव तपस्यार्थं यतन्ते सर्वमानवाः ।।५।। ये कुर्वन्ति तपो भक्त्या श्रेयः कुर्वन्ति ते ऽजसा । अन्ये तु लालसाबद्धा आत्मनो हानिकारकाः ।।६।। यथा भवति तीक्ष्णाग्निस्तथैवोज्जवलकांचनम् । तपस्येवं यथाकष्टं मनःशुद्धिस्तथैव हि ।।७।। प्रभुत्वं वर्तते यस्य स्वस्यात्मन्येव वस्तुनि । सम्पूजन्ति तं सर्वे निष्कामं पुरुषोत्तमम् ।।८।। शक्तिसिद्धीउभेयस्य संप्राप्ते तपसोबलात् । .. मृत्योरपि जये तस्य साफल्यं दृश्यते स्फुटम् ।।६।। अतृप्ताः सन्त्यसंख्याता अभिलाषावशंवदाः । अधिका हि तपोहीना विरलाश्च तपस्विनः 11१०11 || 27 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुभल काव्य र परिच्छेदः २८ धूर्तता प्रतारणमयीं वृत्तिं वीक्ष्य तस्यैव मायिनः । भौतिकागानि देहान्तस्तूष्णीं भूत्वा हसन्ति तम् ।। १।। को उर्शः प्रधाननत्यापि नरण मुखमुद्रया । यदि सैव विजानाति स्वचित्तं शाट्यदूषितम् ।।२।। तपस्विवेशमाधाय कातर्यं येन सेव्यते । सिंहचर्मपरिच्छन्नस्तृणभोजी स रासभः ।।३।। धर्मेणाच्छादितस्तिष्ठन् स्वैराचारी हि पातकी । गुल्मेनान्तर्हितो गृहन् विष्किरानिव नाफलः ।।४।। शुचिमन्यः कुधीर्दम्भी मायया धर्मसेवकः । देहान्ते विलपत्येष हा हा नैव शुभं कृतम् ।।५।। बहिस्त्यजति मायावी किल्विषं नैव चेतसा । तथाप्याडम्बरो भूयान् दृश्यते निष्टुरात्मनः ।।६।। कृष्णतुण्डी यथा गुंजा बहिरेव मनोहरा । सुन्दरोऽपि तथा धूर्तो दूषणैर्दूषिताशयः ।।७।। एवं हि बहवो लोका मनो येषां न पावनम् । परं तीर्थकृतस्नाना भ्रमन्ति ज्ञानिसन्निभाः ।।८।। दर्शने सरलो वाणः किञ्चिद्वक्रश्च तुम्बुरुः । नराकृतिमतो हित्वा पश्य तत्कार्यपद्धतिम् ।।६।। लोकनिन्द्यानि कार्याणि येन त्यक्तानि धीमता । कि जदाधारणैस्तस्य मुण्डनैर्वा महात्मनः ।।१०।। -- ----- ---28): Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुबल काव्य र परिचलेलः २९ निष्कपटव्यवहारः घुणितं यदि नो लोके निजात्मानं दिदृक्षसि । स्वस्यात्मानं ततो नित्यं कपटाद्रक्ष यत्नतः ।।१।। सर्व वित्तं हरिष्यामि मायया प्रतिवेशिनः । एवं हार्दिकसंकल्पः पापाय परिकल्पते ।।२।। कपटप्रभवं द्रव्यं वरं वर्द्धिष्णु भासताम् । अन्ते नाशः परं तस्य नियतोऽस्तीति निश्वयः ।।३।। अपहारपिपासेयं समृद्धेरप्यनेहसि । अनन्तसंख्यकं दुःखं प्रत्येव नयति ध्रुवम् ।।४।। परस्वं गृनुदृष्ट्या यो हर्तुं कालं प्रतीक्षते । दयास्थानं न तच्चित्ते प्रेमवार्ता च दूरगा ।।५।। नापैति गृध्नुता यस्य लुण्ठित्वाप्यन्यसम्पदम् । वस्तुमूल्यं न तदृष्टी सुपथन्च न याति सः ।।६।। संसारासारतां ज्ञात्वा लब्धबोधः पवित्रदृक् । पार्श्वस्थवंचनादोषं कुरुते नैव धन्यधीः ।।७।। . आर्याणां राजते चित्ते निसर्गादृजुता यथा । मायित्वस्य निवासस्तु चौराणां हृदये तथा ।।८।। तस्मिन् कारुण्यमायाति यत्रान्या नास्ति कैतवात् । वार्ता विमुच्य सन्मार्ग विनाशं स प्रयास्यति ।।६।। निजदेहेऽपि स्वामित्वं वंचकानां विनश्यति । दायादाः किन्तु निर्बाधाः स्वर्गभूमेरमायिनः ।।१०।। 29 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुभत्य काव्य ।र परिच्छेदः 30 सत्यभाषणम् यस्मान्न जायते पीडा कस्यापि प्राणधारिणः । तदेव वचनं सत्यं भाषितं मुनिपुंगवैः ।।१।। संकटाकीर्णजीवानामुद्धारकरणेच्छया । कथिता साधुभिर्जातु मृषोक्तिरमृषैत मा ।।२।। मृषात्वं यस्य विज्ञातं मनसा यदि धीमता । तद्वचो न प्रयोक्तव्यमनुतापोऽन्यथा भवेत् ।।३।। सत्यव्रतेन यस्यास्ति पवित्रं मानसं सदा । प्रभुत्वं वर्तते तस्य सर्वेषामेव मानसे ।।४।। सत्ये शाश्वतकल्याणे निमग्नं यस्य मानसम् । ऋषिभ्यः स महान् नूनं दानिभ्यश्च दरो मतः ।।५।। अतः परा च का कीर्तिर्यन्मृषासौ न भाषते । एवं विधो नरो नूनं विना क्लेशेन सिद्रिभाक् ।।६।। न वक्तव्यं न वक्तव्यं मृषावाक्यं कदाचन। सत्यमेव परो धर्मः किं परैर्धर्मसाधनैः ।।७।। विमलैः सलिलैर्यद्वद् गात्रं शुद्ध्यति देहिनाम् । एवमेव मनुष्याणां मानसं सत्यभाषणैः ।।८।। अन्यान् सर्वविधान्नैव प्रकाशान् मन्यते सुधीः । सत्यमेव परं ज्योतिर्विजानाति विशुद्धधीः ।।६।। बहुवस्तूनि दृष्टानि तत्रैकं सारवत्तरम् । इदमेव मया ज्ञातं यत्सत्यं परमोत्तमम् ॥१०।। 30 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा कुस्न काव्य - कुरल काव्य रिच्छेद: 39 लोयत्यागः सत्यां निग्रहशक्तौ हि क्रोथत्यागः सुशोभते । यतः शक्तिविहीनस्य क्षान्त्याऽक्षान्त्या च किं भवेत् ।। १।। अथ चेन् निग्रहेऽशक्तिस्तदा कोपो निरर्थकः । __ अथ चेन् निग्रहे शक्तिस्तदा कोपो घृणास्पदः ।। २।। । हानिकर्ता भवेत् कोऽपि कोपो हेयस्तथापि सः । अनर्था येन जायन्ते शतशो दुःखदायिनः ।।३।। मोदं विहन्ति कोपोऽयमानन्दध्वन्सकारकः । अन्यो नास्ति ततः कोऽपि शत्रुहर्हानिविधायकः ॥४।। भद्रमिच्छसि चेद् भद्र कोपं मुंच सुदूरतः । अन्यथाऽऽक्रम्य शीघ्रं ते स विनाशं विधास्यति ॥५।। अग्निदहति तद्वस्तु तत्पावें यस्य संस्थितिः । ... भस्मीकरोति कोपस्तु क्रुध्यन्तं सुकुटुम्बकम् ।।६।। निधाय हृदि रोषं यो निथानमिव रक्षति । भूमि संताड्य हस्तेन पीड़ितः स प्रमत्तवतु ।।७।। सम्प्राप्य महतीं हानि क्रोधाग्नौ मंज्वलत्यपि । इदं भद्रतरं नूनं यत् कोपाद्भव दूरगः ।।८।। त्वरितं तस्य सिध्यन्ति सर्व एव मनोरथाः । येन दूरीकृतो नित्यं क्रोधोऽयं शान्तचेतसा ।।६।। स्ववशे नैव यश्चण्डः स नूनं मृतसन्निभः । यश्च कोपपरित्यागी योगितुल्यो विभाति सः ।।१०।। 31 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , कुबल काव्य घर परिच्छेदः 32 उपद्रवत्यागः लोभादिदोषनिर्मुक्तो विशुद्धहृदयो नरः ।। दत्ते त्रासं न कस्मैचिद् अपि कौवेरसम्पदे 11१।। द्वेषबुद्ध्या महत्कष्टं विधत्ते यदि दृष्टधीः । न कुर्वते तथाप्यार्या वैरशुद्धिं विकल्मषाः ।।२।। अहेतौ यो व्यथां दत्ते मे तस्मै च तथैव ताम् । दास्येऽहमिति संकल्पे दुश्चिकित्स्या विपत्तयः ॥३।। अहितस्य हितं कुर्याद् हिया येन मृतो भवेत् । विनया हि दुष्टानामषैव श्लाध्यपद्धतिः ।।४।। यो न वेत्ति परस्यापि स्वस्येव व्यसने व्यथाम् । कोऽर्थस्तस्य नरस्याहो तीक्ष्णयापि महाथिया ।।५।। दुःखानि यानि भुक्तानि स्वयमेव मनीषिणा । परस्मै तानि नो जातु देयानीति विचिन्तयेत् ।।६।। ज्ञातभावेन कस्मैचित् स्वल्पा अपि मनोव्यथाः । न दत्ते यस्ततः कोऽन्यः श्लाघ्यो भवति भूतले ।।७।। यानि दुःखानि भुक्तानि स्वयमेव मुहुर्मुहुः । न जातु तानि देयानि परस्मै सारसंग्रहः ।।८।। मध्यान्हे यद्यहो कश्चिद् बाधते प्रतिवेशिनम् । तद्दिने प्रहरादूर्ध्वं स्वयं सैव विपद्यते ।।६।। दुष्कर्मकारिणां शीर्षमाक्रमन्त्यापदः सदा । अपकृत्यान्यतो भद्रास्त्यजन्तीह निरन्तरम् ।। १०।। 32 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुलत्य काव्य पर परिच्छेदः 33 अहिंसा अहिंसा परमो धर्मो धर्मेषु श्रेष्ठसम्मतिः । हिंसा च सर्वपापानां जननी लोकविश्रुता ।।१।। इदं हि धर्म पर्दम्य स्वयं बनने द्वरा ! क्षुधार्तेन समं भुक्तिः प्राणिनांचैव रक्षणम् ।।२।। अहिंसा प्रथमो धर्मः सर्वेषामिति सम्मतिः । ऋषिभिर्बहुधा गीतं मृनृतं तदनन्तरम् ।।३।। अयमेव शुभो मार्गो यस्मिन्नेवं विचारणा । जीवः कोऽपि न हन्तव्यः क्षुद्राक्षुद्रतरोऽपि सन् ।।४।। हिंसां दूरात समुत्सृज्य येनाहिंसा समादृता । उदात्तः स हि विज्ञेयः पापत्यागिषु वै ध्रुवम् ।।५।। अहिंसाव्रतसम्पन्नो धन्योऽस्ति करुणामयः । सर्वग्रासी यमोऽप्यस्य जीवने न क्षमो भवेत् ।।६।। विपत्तिकाले सम्प्राप्ते प्राप्ते च प्राणसंकटे । तथाप्यन्यप्रियप्राणान् मा जहि त्वं दयाधीः ।।७।। श्रूयते बलिदानेन लभ्यन्ते वरसम्पदः । पवित्रस्य परं दृष्टौ तास्तुच्छाश्च घृणास्पदाः ।।८।। येषां जीवननिर्वाहो हिंसायामेव निर्भरः । विबुधानां सुदृष्टौ ते मृतस्वादकसन्निभाः ।।६।। पूतिगन्धसमायुक्तं पश्य शी- कलेवरम् । स घातकचरो नूनं बुधैरित्यनुमीयते ।।१०।। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -नी, कुल काव्य - परिचोट 38 संसारानित्यता अहो मोहस्य माहात्म्यमज्ञानं वाथ कि परम् । अध्रुवं यद् ध्रुवं वेत्ति न च स्वस्यैव बोधनम् ।।१।। समायाति महालक्ष्मीः प्रेक्षणे जनसंघवत् । विनिर्याति महालक्ष्मीस्तदन्ते जनसंधवत् ।।२।। समृद्धो यदि जातोऽसि द्रुतमेव विधेहि तत् । यत्कार्य सुस्थिरं लोके यतो वित्तं न शाश्वतम् ।।३।। कालो यद्यपि निर्दोषः सरलश्चाथ दृश्यते । परं कृन्तति सर्वेषामायुः क्रकचसन्निभः ।।४।। शीघ्रतैव सदा कार्या विबुधैः शुभकर्मणि ।। को हि वेत्ति कदा जिम स्तब्धा स्यात् सह हिक्कया ।।५।। ह्य एव मनुजः कश्चिदासीदखिलगोचरः । स एवाद्य नरो नास्ति नृनमित्येव विस्मयः ।।६।। को जानाति पलस्यान्ते जीवन मे भवेन्न टा । परं पश्यास्य संकल्पान् कोटिशो हृदि संस्थितान ।।७।। पत्त्रं प्राप्य यथा पत्त्री स्फुटिताण्ड विहाय च । उड्डीयते तथा देही देहाद् याति स्वकर्मतः ।।८।। असौ मृत्युः समाम्नातो निद्रातुल्यो विदाम्बरैः ।। जीवनं तस्य विच्छेदः स्वापाजागृति सन्निभम् ।।६॥ आत्मनो वै निजावासः किंस्विन्नास्तीह भो जनाः । हीनस्थाने यतो देहे भुड्.क्ते वासेन पीडनम् ।।१०।। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ता कुबल काव्य पर परिच्छेदः 3५ त्यागः मन्ये ज्ञानी प्रतिज्ञाय यत्किंचित् परिमुंचति । तदुत्पन्नमहादुःखान्निजात्मा तेन रक्षितः ।। १।। अनेकसुखरत्नानामाकरस्त्यागसागरः । चिरं सुखाभिलाषा चेद् भव त्यागपरायणः ।।२।। निग्रहं कुरु पंचानामिन्द्रियाणां विकारिणाम् । प्रियेषु त्यज संमोहं त्यागस्यायं शुभक्रमः ।।३।। सर्वसंगपरित्यागो यमिना व्रतमिष्यते । पुनर्बन्धनप्राप्तिर्हि त्यक्तोपात्तैकवस्तुना ।।४।। भवचक्रनिवृत्तीच्छोरस्ति कायेऽपि हेयता । कथमावश्यकास्तस्य भित्रा बन्धनहेतवः ।।५।। 'अहं' 'ममेति' संकल्पो गर्वस्वार्थित्वसम्भृतः । जेतास्य याति तं लोकं स्वर्गादुपरिवर्तिनम् ।।६।। अतितृष्णाभिभूतो यो लोभं नैव जिहासति । स दुःखैर्ग्रस्यते नित्यं यतो मुक्तिर्न जातुचित् ।।७।। विरक्तो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहः सर्ववस्तुनि । अन्ये संसारिणः सर्वे मोहजालवशीकृताः ।।८।। न चाप्नोति पुनर्जन्म लोभमोहजयक्षणात् । बन्धनं यैस्तु नोच्छिन्नं प्रमजाले पतन्ति ते ।।६।। शरणं व्रज तस्यैव येन मोहो विनिर्जितः । आश्रयी भव तस्यैव छिद्यते येन बन्धनम् ।।१०।। -- - 35 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुबल काव्य - परिच्छेदः 38 सत्यस्यानुभूतिः अनित्ये खलु संसारे किंचित सत्यं न विद्यते । सत्यं पश्यन्ति ये तत्र तेषा दुःखितजीवनम् ।। १।। ___ मिथ्याभावविनिर्मुक्त आत्मदृष्टिश्च यो नरः । दुःखमोही समुच्छिद्य स शान्तिमधिगच्छति ॥२।। असत्यं यः परित्यज्य लभते सत्यदीपकम् । तत्कृतेऽतिसमीपस्थः स्वर्गो भतलगादपि ।।३।। यद्यात्मन् शाश्वतं सत्यमनुभूतं न जातुचित् । नरयोनौ तदा जन्मग्रहणेनापि को गुणाः ।।४।। इयानेवात्र सत्यांश: शेषस्तत्प्रत्यनीकभाक् । इदमेव परिज्ञानं मेधाया वरलक्षणम् ।।५।। येन सत्यमभिज्ञातं स्वाध्यायतपसोर्बलात् । स धन्यो याति तद्धाम यद्गत्वा न निवर्तते ।।६11 ध्यानप्रभृतियोगांगेयेन सत्यं समर्जितम् । भाविजन्मसमादाने का चिन्ता तस्य योगिनः ।।७।। अविद्या भवरोगस्य जननी सर्वदेहिनाम् । तन्मुक्त्या सह चित्प्राप्तिरेषेव प्राज्ञता परा 11८।। मोक्षमार्गस्य यो ज्ञाता मोहारेश्च जयोद्यतः । तस्य भावीनि दुःखानि यान्ति शान्तिमयत्नतः 11511 कामः क्रोधस्तथा मोहो यथा स्युः क्षीणशक्तिकाः । तथानुगामिदुःखानि क्षीयन्तेऽधिकमात्रया ।।१०।। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी कुलस्य काव्य र परिच्छेदः 3७ कामनाया दमनम् एकस्यापि पदार्थस्य कामना बीजसंततिः । प्रतिजन्तु यतो जन्मनिष्पत्तिः फलशालिता ।।१।। कामना कर्तुमिच्छा चेत् तर्हि मुक्तौ विधीयताम् । सोऽधिकारी परं तत्र येनेयं कामना जिता ॥२।। निर्दोषं हि महद्वस्तु निष्कामित्वं महीतले । स्वर्गेऽपि नास्ति तत्तुल्यो द्वितीयः कोषसंग्रहः ।।३।। कामनायाः परित्यागान्नान्या काचित् पवित्रता । तत्त्त्यागस्तु परब्रह्मपदप्राप्त्यभिलाषया ।।४।। मुक्तास्त एव सन्तीह निजिता यैस्तु कामना । अन्ये च बन्धनैर्बद्धाः स्वतन्त्रा इव भान्ति ते ।।५।। हातव्या कामना दूरात् स्वकल्याणं यदीच्छसि । तृष्णाजालस्वरूपेयमन्ते नैराश्यकारिणी ।।६।। विषयाशाः परित्यक्ताः सर्वथा येन धीमता । मुक्तिरायाति तत्पावे निर्दिष्टेनैव वर्त्मना ।।७।। यो न कामयते किंचिद् दुःखान्यपि न तत्कृते । बम्श्रमीति य आशावान् दुःखाना तग्य गशयः ।।८।। स्थिरं सुखं मनुष्येण प्राप्तुमत्रापि शक्यते । दुःखानुबन्धिनी तृष्णा विध्वस्ता चेत् स्वशक्तितः ।।६।। इच्छाभिस्तु नरः कोऽपि संतृप्तो नैव भूतले । पूर्णतृप्तः स एवास्ति येनाशात्याग आदृतः ।। १०।। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुवरल काव्य र= परिचलेदः 36 भवितव्यता नरो दृढप्रतिज्ञः स्याद् भाग्यलक्ष्मीप्रसादतः 1 स एव याति शैथिल्यं हतभागस्य दोषतः ।।१।। शक्तेर्हासो मनुष्याणां दुर्भाग्यात्सम्प्रजायते । बुद्धेः स्फूर्तिस्तु लोकानां जागृते पुण्यकर्मणि ।।२।। कोऽर्थो ज्ञानेन जातेन चातुर्येणापि को गुणः । अन्तरात्मा यतो नित्यं सर्वोपरि प्रभाववान् ।।३।। द्वे वस्तुनीह संसारे विभिन्ने सर्वथा पृथक् । ___ एकं तत्र धनाढ्यत्वं द्वितीयं साधुशीलता ।।४।। शुभोऽप्यशुभतां याति सति भाग्ये पराड्.मुखे । अनुकूले सति स्वस्मिन्त्रशुभोऽपि शुभायते ।।५।। यत्नेनापि न तद् रक्ष्यं भाग्यं नैव यदिच्छति । भाग्येन रक्षितं वस्तु प्रक्षिप्तं नापि नश्यति ।।६।। महाशासकदैवस्य शासनातिक्रमेण वै । उपभोक्तुं न शक्तोऽस्ति कोट्यधीशो वराटिकाम् ।।७।। निर्धना अपि जायन्ते कदाचित् त्यागबुद्धयः । भाविदुःखकृते दैवं परं तत्रास्ति बाधकम् ।।८।। सुखे न जायते येषामुढेलो हर्षसागरः । दुःखं प्राप्य कथं लोके शोकमग्ना भवन्ति ते ।।६।। दैवस्य प्रवला शक्तिर्यतस्तद्ग्रस्तमानवः । यदैव यतते जेतुं तदैवाशु स पात्यते ।।१०।। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः 30 राजा सेना मंत्री सुहृत् कोषो दुर्गेः साकं जनाश्रयः । षडेते सन्ति राजसिंह स भूतले 15 साहसं बुद्धिरौदार्यं कार्यशक्तेश्च पूर्णता । आवश्यका इमे सर्वे गुणाः शासनकारिणः || २ || शासनाय समुत्पन्नान् न त्यजन्ति गुणास्त्रयः । विद्या निर्णयसामर्थ्यं नित्यंचापि परीक्षणम् ||३|| नूनं स एव राजास्ति यो न धर्मात् प्रमाद्यति अधर्मघ्नः सदाचारी वीरः सम्मानरक्षकः ॥४।। राज्यसाधनविस्फूर्तिर्वृद्धिश्चापि कथं भवेत् । कथं कोषस्य पूर्णत्वं कथमायव्ययौ च मे ।। धनस्य परिरक्षा च कथं मे वर्ततेऽधुना । एतत्सर्वं हि विज्ञेयं राज्ञा स्वहितकांक्षिणा । । ५ ।। युग्मम् प्रजानां खलु सर्वासां सुलभं यस्य दर्शनम् । नाप्युद्वेगकरं वाक्यं तस्य राज्यं समुन्नतम् || ६ || औचित्येन समं दानं प्रेमयुक्तंच शासनम् । एतद्वयं हि यस्यास्ति स भूपो लोकविश्रुतः ॥ ७ ॥ रक्षणे नित्यमुयुक्तो निष्पक्षो न्यायकर्मणि । धन्य एवंविधो भूपः स नूनं भुवि देवता || ८ || कर्णयोरप्रियाञ् शब्दाज् श्रोतुं शक्नोति यो नृपः । तस्यच्छन्त्रतलेऽजस्रं सकलेयं वसुन्धरा ।।६।। उदारी न्यायसम्पन्नः प्रजासेवी दयारतः । य एवं वर्तते भूपो ज्योतिष्मान् स हि राजसु ||१०| 39 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ४० शिक्षा अधिगम्यं किं गज्ज्ञानं सायस्त्येन तदर्जयेत् । आचरेच्च तथा नित्यं विद्याप्राप्तेरनन्तरम् 119|| द्वे चक्षुषी मनुष्याणां जातेजीवित जागृते । एकं वर्णसमाम्नायो द्वितीयंचांकसंग्रहः ||२|| यः शिक्षितः स एवास्ति चक्षुष्मानिह भूतले । अन्येषान्तु मुखे नूनमस्ति गर्तद्वयाकृतिः ||३|| सहैव नयते मोदं विद्वान् यत्रापि गच्छति । प्रमोदोऽपि ततो याति यतश्चायं निवर्तते ||४॥ न्यक्कृतोऽपि भवंशिष्टेर्धनिकैरिव भिक्षुकः । प्रयत्नेन पठेद् विद्यां ह्यधमा ज्ञानदूरगाः ।।५।। तावदेव जलं भूरि यावत् स्रोतो निखन्यते । एवंच तावती विद्या यावती सा हि पठ्यते ॥६॥ सर्वत्र विदुषां गेहं स्वदेशश्च महीतलम् । यावज्जीवं पुनर्मर्त्याः कथं न ज्ञानरागिणः ||७|| एकजन्मनि यज्ज्ञानं गृहीतं देहधारिणा । उन्नतं तत् करोतीह जीवमागामिजन्मसु ॥८॥ इयं विद्या यथा मेऽस्ति पुष्कलानन्ददायिनी । तथैवेयं परस्यापि सुप्रियातो बुधस्य सा ||६|| मनुष्याणां कृते ज्ञानमविनाशी महानिधिः । दोषत्रुटिविहीनंच यस्मादन्यन्त्र वैभवम् ।।१०।। 40 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमल काव्य र परिच्छेदः ४७ शिक्षाया अवहेलना अध्यास्ते संसद: पीटं पूर्णशिक्षामुपेक्ष्य यः । शारीपर्ट विना सोऽयमक्षैर्दीव्यति धूर्तथीः ।।१।। अनभ्यस्य श्रुतं यो वा काड्.क्षते वारिग्मगौरवम् । .. युवसु ख्यातिसाकाङ्.क्षानुरोजा रमणीव सः ।।२।। सुशिक्षितानां पुरो धैर्यान् मूर्खश्चेन्मौनमास्थितः । गण्यते शिक्षितो लोकैर्विदुषां सोऽपि योगतः ।।३।। कियानपि भवेद् धीमान् शिक्षाशून्यो हि मानवः । आद्रियते परं नैव विद्वद्भिस्तस्य मंत्रणा ।।४।। अवहेलितशिक्षो यः पण्डितं मन्यते निजम् । सुस्पष्टं सोऽपि लज्जेत यदा भाषेत संसदि ।।५।। अशिक्षितजनस्याहो दशोषरमहीनिभा । स जीवत्यतो नास्ति वार्ता तद्विषयेऽपरा ।।६।। विदुषां वैभवहीनत्वं मनसे नैव रोचते । आढयता किन्तु मूढानामप्रियास्ति ततोऽधिका ।।७।। भव्यानि सूक्ष्मतत्त्वानि यद्बुद्धि वगाहते । तद्देहस्य सुसीन्दर्यं मृण्मूर्तेरिव मण्डनम् ।।८।। उच्चवंशप्रसूतोऽपि लघुतामेत्यशिक्षितः । विद्यावृद्धः कुवंश्योऽपि लभते किन्तु गौरवम् ।।६।। पशुभ्योऽयं नरो यावान् साधुभवति भूतले । अशिक्षितेभ्यो वरस्तावान् शिक्षितोऽप्यस्ति विश्रुतः ।। १०।। -- ----- 41 ...---- Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ४२ प्रवचनश्रवणम् कोषेषु मूल्यवान् कोषः कर्णकोषोऽस्ति सर्वथा । सम्पदासु च सर्वासु म श्रेष्ठो नात्र संशयः ||१|| कर्णयोर्मधुरं पेयं प्राप्तं नैव यदा भवेत् । कुक्षेरपि तदा तृप्त्यै दानीयं स्यात् सुभोजनम् || २ || सूक्तयो बहवो नित्यं यैः श्रुताः श्रुतशालिनाम् । महीतले हि ते सन्ति देवतारूपधारिणः || ३|| नैवाधीतं श्रुतं येन शृणुयात् सोऽपि सद्वचः । विपदां सन्निधाने हि शान्तिस्तेनैव जायते ॥ ४ ॥ धार्मिकाणां शुभा वाणी दृढयष्टिरिवाहिता । विपत्तिकाले सम्प्राप्ते पतनाद् या सुरक्षति ।। ५ ।। अपि स्वल्पं महद्वाक्यं श्रोतव्यं युक्तचेतसा । एकाकिना यतस्तेन क्रियते भुवि मान्यता || ६ || समभ्यस्य श्रुतं येन स्वयंच मननं कृतम् । विस्मृत्यापि बुधः सोऽयमवाच्यं नैव भाषते ||७|| बधिरावेव ती कर्णौ श्रवणक्षमतायुतौ । अनभ्यासो ययोरस्ति श्रोतुं विज्ञसुभाषितम् ।। ८ ।। न श्रुतं विदुषां येन कलापूर्णं सुभाषितम् । तस्य भाषणनैपुण्यं स्वयमेवातिदुर्लभम् ||६|| जिरसन्तु यो वेत्ति कर्णयोः किन्तु नो रसम् । को गुणो जन्मना तस्य हानिर्वा मरणेन का ।।१०।। 42 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -जा कुशल काव्य पर पाटिलेदः ४३ आकस्मिके विपच्चक्रे बुद्धिः सन्त्राहसन्निभा । अजय्यः प्रतिभादुर्गः समवेत्यापि शत्रुभिः ।।१।। सुबुद्ध्या करणग्रामो विषयेभ्यो निवर्तते । अशुभाच्च शुभे मागें नियु.क्ते सा यथाविधि ।।२।। अस्ति बुद्धेरियत्कार्यं यत्सत्यासत्यनिर्णयः । तद्वक्ताऽस्तु पुनः कोऽपि सुप्रियो दुष्प्रियोऽथवा ।।३।। मतिमान भाषते नित्यं सुबोध्यामेव भारतीम् । परेषां वचसां सारं स्वयंचापि स बुध्यति ।।४।। सर्वसौहार्दवृत्तित्वात् सवधियः सुधीः सदा । यस्यैकरूपता सख्ये चित्ते चातिव्यवस्थितिः ।।५।। लोकरीत्यनुसारेण व्यवहारोऽपि सर्वदा । आख्याति बुद्धिसद्भावमिति लोकज्ञभाषणम् ।।६।। बुद्धिमान बुद्धिसामर्थ्यात् किमुदके भविष्यति । इति पूर्व स्वयं वेत्ति न चैवं बुद्धिवर्जितः ।।७।। भीतिस्थाने हठादेव प्रवृत्तिर्बुद्रिहीनता । भयहेतोर्विभीतिश्च प्रबुद्धेरेव सूचिका ।।८।। सर्वेषामेव कार्याणां कृते यः पूर्वसज्जितः ।। तस्य कम्पकदुःखाना नाघातो दूरदर्शिनः ।।६।। अखिलं तस्य कल्याणं यस्यास्ति बुद्धिवैभवम् । यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा तस्य किंचिन्न विद्यते ।। १०।। (43 +---.-..-- Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ४४ दोषनिवृत्तिः क्रोधदप हतौ यस्य विषये चास्तकामनाः । अपूर्वमेव तस्यास्ति सौभाग्यद्योति गौरवम् ||१|| प्रभुत्वजनितो दर्पो गृध्नुता विषयान्थता । भूपे दोषा भवन्त्येते प्रायेणैव विशेषतः ||२|| शुभ्रज्योत्स्नासमा कीर्तिः सुप्रिया यस्य विद्यते । स्वदोषं सर्षपाकारं तालतुल्यं स मन्यते || ३ || दोषाणं त्वं विनाशाय नित्यं भव समुद्यतः । अन्यथा सर्वनाशं ते विधास्यन्तीति निश्चयः || ४ || भाविदुः खफलं भोक्तुं यः पूर्वं नैव सज्जितः । स तथा निधनं याति यथाग्नौ तृणसंहतिः || ५ || परशुद्धिविधेः पूर्वं यः स्वदोषान् विशुध्यति । के तं दोषां स्पृशन्तीह भूपालं योगिसन्निभम् || ६ || हा धिक् तं कृपणं मर्त्यं व्ययो यस्य न राजते । व्ययस्थानेऽपि तस्यान्ते विनाशो ननु निश्चितः ॥ ७॥ निन्द्यत्वेन समाः सर्वे दुर्गुणाः खलु भूतले । परं पत्रापि कार्पण्यं विभिन्नं परिगण्यते ॥८ सहसैव प्रसादोऽपि नृणां दोषाय कल्पते । लाभेन वर्जितं कार्यं हातव्यं तच्च दूरतः ||६|| स्वाभिलाषास्तथा गोप्या यथा वेद्या निजारिभिः । न भवेयुः कथचेत् ता निष्फलाः स्युस्ततो द्विषः ||१०|| 44 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी, कुबल काव्य पर ___ परिच्छेदः ४५ योग्यपुरुषाणां मैत्री धर्ममाचरतां येषां वृद्धत्वं वयसा समम् । नित्यं तेषां सुवात्सल्यं प्रतिपत्त्या समजयः ।।१।। यदस्ति भावि वा यच्च दुःखं तद् यो व्यपोहितुम् ।। शक्तस्तेन समं मैत्री कुरु सोत्साहचेतसा ।।२।। सन्मानवैः समं सख्यं प्राप्तं यस्य सुदैवतः । असंशयं हि सौभाग्यं वर्तते तस्य धीमतः ।।३।। गुणाधिकस्य सौहार्द लब्धं येन सुभक्तितः । प्राप्ता तेनेदृशी शक्तिस्तुच्छा यत्पुरतोऽपराः ।।४।। लोकशासकभूपानां सचिवा दृष्टिसन्निभाः । अतस्तेषां नियोगोऽपि विधातव्यो यथागुणम् ।।५।। सत्पुरुषैः समं मैत्री नित्यं यस्य विराजते । अपकारं हि तत्साधोः कर्तुं शक्ता न वैरिणः ।।६।। अपि भर्त्सयितुं शक्तैः सार्थं सख्यस्य गौरवम् ।। यस्यास्ति तस्य के सन्ति भूतले हानिकारकाः ।।७।। यस्यापेक्षा न साहाय्ये तस्य यः साधु शास्ति तम् । असद्भावेऽपि शत्रूणां स च भूपः क्षयोन्मुखः ।।८।। यथा लाभो न तस्यास्ति नीवी यस्य न विद्यते । व्यवस्थापि तथा नास्ति बुद्धिं बुद्धिमतां विना ।।६।। विरोधो बहुभिः सार्धं मौख्यं सूचयते यथा । तथा सख्यविधातोऽपि सद्भिः साकं ततोऽधिकम् ।। १०।। www245 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुरष काव्य पर परिच्छेदः ४E कुसंगपरित्यागः भद्रो बिभेति दुःसंगात परः संगच्छते तथा । अभद्रेण समं नित्यं यथा स्यात् तत्कुटुम्बभाक् ||१|| यथाभूमौ वहत्यम्मस्तत्तथा परिवर्तते । यादृशी संगतिस्तस्य पुरुषोऽपि तथाविधः ।।२।। बुद्धेर्यद्यपि सम्बन्धो मस्तकादेव वर्तते । यशसः किन्तु सम्बन्धी गोष्टया उपरि निर्भरः ।।३।। ज्ञायते हृदये वासः स्वभावस्य सदा जनैः । परं तस्य निवासस्तु तद्गोष्ठयां यत्र स स्वयम् ।।४।। मनसः कर्मणश्चापि शुद्धेर्मूलं सुसंगतिः । तद्विशुद्धौ यतः सत्यां संशुद्धिर्जायते तयोः ।।५।। पवित्रं हृदयं यस्य संततिस्तस्य पुण्यभाकू । __ यावज्जीवमसौ भद्रः समृद्धः सन् सुखायते ।।६।। मनःशुद्धिर्मनुष्यस्य निधानं वसुधातले । सत्संगश्च ददातीह गौरवं गुणवत्तरम् ।।७।। आकरा गुणरत्नानां स्वयं सन्ति मनीषिणः । सत्संगति तथाप्येते मन्यन्ते शक्तिमन्दिरम् ।।८।। धों गमयति स्वर्ग पुण्यात्मानं विकिल्विषम् । धर्मप्राप्त्यै च सद्वृत्ते नियुड्.क्ते सा सुसंगतिः ।।६।। सत्संगादपरो नास्ति नजस्य परमः सखा । दुःसंगाच्च परो नास्ति हानिकर्ता महीतले ।। १० । RAM Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा कुबन काळ्य पर परिच्छेदः ४७ समीक्ष्यकारिता व्ययः कियानू कियाँल्लाभो हानि का भविष्यति । इतिपूर्वं विचार्यैव कार्यं कुर्वीत थीधनः ।।१।। मंत्रज्ञैर्मत्रिभिः सार्धं मंत्रयित्वैव यो नृपः ।। विदधाति स्वकार्याणि तस्यास्ति किमसम्भवम् ।।२।। सन्त्येवं हि बयांगा य पूर्वं लाभदर्शकाः । समूलघातका अन्त लेषु हस्तो न धीमताम् ।।३।। नैवेच्छति निजात्मानं यो यातुं परिहास्यताम् । नासमीक्ष्य क्वचित् किंचिद् विधत्तेऽसौ विचारवान् ।।४।। अयनेषु च सर्वेषु व्यूहादिस्थितिसूचिकाम् । युद्धसज्जां बिना युद्धं राज्ये वैर्यभिषेचनम् ।।५।। अकर्मणः समाचारानु नूनं नश्यति मानवः । कर्मणश्च परित्यागात् सत्यं नश्यति मानवः ।।६।। नाविचार्य क्वचित् किंचिद् विधातव्यं मनीषिणा । पूर्वं प्रारभ्य पश्चाच्च शोचन्ति हतबुद्धयः ।।७।। सन्मार्ग यः समुत्सृज्य स्वकार्याणि चिकीर्षति । तस्य यत्ना ध्रुवं मोघाः साहाय्यं प्राप्य भूर्यपि ।।८।। उपकारोऽपि कर्तव्यः स्वभावं वीक्ष्य देहिनः । अन्यथा स्यात् प्रमादेन यातनैव विधायिनः ।।६।। कुरु तान्येव कार्याणि यान्यनिन्द्यानि सर्वथा । निन्धकार्याद् यतः प्राणी प्रतिष्ठाभंगमानुप्रयात् ।। १०।। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ४८ शक्तेर्विमर्शः पूर्वं संचिन्त्य विघ्नौघान् शक्तिं स्वस्य परस्य च । सधीचस्तद्बलंचापि दृष्ट्वा कुर्वीत वांछितम् ।। १ ।। यथायोग्यकृताभ्यासः स्वशक्तेः पूर्णवेदकः । अनुगामी च यो बुद्धेस्तस्य यानं जयोन्मुखम् || २ || स्वं शक्तावधिकम्मन्या बभूवुर्बहवो नृपाः । स्वशक्तेरधिकं कार्य ते प्रारभ्य क्षयं गताः ॥३॥ अहंकारविमूढात्मा ज्ञानशून्यो बलाबले । शान्तिजीवी च यो नास्ति त्रय एते विनाशिनः || ४ || बहूनामप्यसाराणां समवायो हि दुर्जयः । केकिपत्रैर्यतः प्राज्ये रथभंगो विधीयते ||५|| शक्तिं समीक्ष्य भावानां क्रियां कुर्वीत पण्डितः 1 अधियानं हि नाशाय तरोः शिखरवर्तिनः ।।६।। विभवं स्वस्य संवीक्ष्य कर्तव्यमतिसर्जनम् । अनुरूपं बुधैरेष योगक्षेमविधिः शुभः ||७|| संकीर्णापि न चिन्त्यास्ति लोके पूरकनालिका । व्ययनाली न विस्तीर्णा यद्यस्ति गृहिणी गृहे ||८|| यस्यायव्यययोर्नास्ति लेखो नापि विचारणा । कार्यात्पूर्वं स्वशक्तेश्च तन्नामापि न शिष्यते || ६ || यः स्ववित्तमनालोच्य व्ययते मुक्तहस्तकः । अविलम्ब क्षयं याति विपुलं तस्य वैभवम् ||१०|| 48 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुबल काव्य र परिवछैदः ४१ अवसरसमीक्षा जयत्यवसर प्राप्य दिवोलूकं हि वायसः । एवंचावसरो हेतुर्विजये भूपतेरपि ।। १।। समयं वीक्ष्य कार्याणां करणं मन्यते बुधः । प्रेमरज्वा स्वरोपायप्रियो कि बन्धनम् ।।२।। क्षेत्रं साहाय्यसम्पत्तिं पूर्व वीक्ष्य करोति यः । कार्य साधनविज्ञातुस्तस्यास्ति किमसम्भवम् ।।३।। यदि स्ववसरं वेत्सि साधनानि तथैव च । शक्नोषि निजवीर्येण विजेतुं जगतीतलम् ।।४।। कार्यकालं प्रतीक्षन्ते जोषं हि जयरागिणः । न क्षुभ्यन्ति कदाचित्ते नाप्युत्तापविधायिनः ।।५।। संघातकरणात् पूर्वं यथा मेषोऽपसर्पति । तथाऽकर्मण्यता लोके कर्मण्यस्यापि दृश्यते ।।६।। अमर्षस्य प्रकाशो हि त्वरितं नैव धीमताम् । तं गुप्तं हृदये कृत्वा तत्कालं स प्रतीक्षते ।।७।। विनेव्यो रिपुस्तावद् यावत्तस्य शुभोदयः । विनिपातो यदा तस्य सुखोच्छेद्यस्तदा हि सः ।।८।। अमोघकालं संप्राप्य विचिकित्सां विहाय च । क्षिप्रमेव विधातव्यं कार्य चेदपि दुष्करम् ।।६।। पूर्व निश्चेष्टवभापि वामे काले विचक्षणः । अनुकूले पुनः काले वकवद वाधते रिपुम् ।।१०।। - - Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2ी कुक्ल काव्य और परिदः १७ स्थाजविस्तार: असमीक्ष्य बुधः क्षेत्रं न कार्यं नापि विग्रहम् । विदधाति तथा नैव क्षुद्रकं मन्यते रिपुम् ।। १।। आस्तां नरो महाशूरो रणकर्मणि कोविदः । दुर्गाश्रयस्तु तस्यापि नूनमावश्यको मतः ।।२।। योग्यस्थानं विनिश्चित्य यो युध्यति सुयुक्तितः । दुर्बलोऽपि बलिष्ठारि जयति ध्रुवमेव सः ।।३।। दृढभूमिं समाश्रित्य ये युध्यन्ति सुशस्त्रिणः । व्यर्था भवन्ति संकल्पाः सर्वेषामेव तद्विषाम् ।।४।। मकरो हि पयोराशौ पंचास्य इव भीतिदः । जलाबहिः स एवास्ति क्रीडावस्तु स्ववैरिणाम् ।।५।। रथोहि दृढचक्रोऽपि समुद्रे नाभिगच्छति । समुद्रयायी पोतश्च स्थलगामी न जायते ।।६।। कार्य पूर्व विनिर्धार्य सुक्षेत्रे यस्य विक्रमः । तस्यारिविजये नास्ति परापेक्षा महीपतेः ।।७।। दृढसैन्यविहीनोऽपि सुस्थानं प्राप्नुयाद् यदि । विफलास्तर्हि बोद्धव्या उपायास्तस्य वैरिणाम् ।।८।। असत्यपि सुरक्षायाः साधनेऽनादिवस्तुनि ।। स्वदेशे हि जनाः सर्वे दुर्जय्याः खलु वैरिणाम् ।।६।। निर्निमेषं रणे येन प्रहाराः कुन्तधारिणाम् । सोढाः स एव सानाह्यः पंके क्रोष्ट्रा विजीयते ।।१०।। - 51 60 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ५१ उपयुक्तपरीक्षा अर्थो धर्मश्च कामश्च प्राणानां भयमेव च । उपयुक्तपरीक्षार्थं चतस्रो निकषा मताः ||१|| अप्रतिष्ठाभयं यस्य निर्दोषः कुलजस्तथा । स एव पुरुषो योग्यस्त्व सेवार्थं महीपते ||२|| ज्ञानविज्ञानसम्पत्रो यतिकल्पोऽपि यो नरः । सोऽक्रियो वरित विचारे अति उत्त्वतः || ३|| नरस्य सद्गुणान् पश्य दोषानपि तथैव च । अधिकाः सन्ति ये तेषु प्रकृतिस्तस्य तादृशी || ४ || वर्तते किमसौ क्षुद्रः किन्नु वायमुदारधीः । इति वेत्तुं नरः पश्येदाचारं निकषोपमम् ||५|| असमीक्ष्य न कर्तव्यो विश्वासो निष्कुटुम्बिनः । एकाकिनो यतस्तस्य मोहलज्जाविहीनता || ६ || मूढं कार्यविधेः शून्यं यः करोति स्वमंत्रदम् । केवलं प्रीतिमात्रेण स नृपो विपदां पदम् ॥७॥ अपरीक्षितविश्वासं कुरुते यो हि मानवः । सं संततिकृते दुःखबीजानि वपति ध्रुवम् ||८|| परीक्षितस्य विश्वासः कर्तव्यो हृष्टचेतसा । परीक्षिताय तद्योग्यं कार्यं देयं नृपालकैः || ६ || अज्ञातकुलशीलस्य विश्वासो भयदायकः । एवं विज्ञातशीलस्याप्रत्ययां दुःखकारकः ||१०|| 51 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ५२ पुरुषपरीक्षा सदसच्चोभयं वेत्ति परमश्रयते शुभम् । एवं यस्य मनोवृत्तिर्नियोक्तव्यः स कर्मसु ||9|| शासनांगेषु विस्फूर्तिर्यस्यास्ति प्रतिभाबलात् । यो हर्ता च विपत्तीनां स कार्यः कार्यवाहकः || २ || दयावाप दुद्धिसम्पत्रः कार्येषु द्रुतनिश्वयः । यो लोभेन विनिर्मुक्तः स कार्यो राज्यसेवकः || ३|| ईदृशोऽपि जनाः सन्ति येषां सर्वत्र पौरुषम् । परं तेऽपि विलोक्यन्ते काले कर्तव्यविच्युताः ॥ ४॥ कार्येषु पूर्णदाक्षिण्यं शक्ति शान्तिविधायिनीम् । इति वीक्ष्यैव दातव्यं कार्य न प्रीतिमान्त्रतः ॥ ५॥ मानवं योग्यतां वीक्ष्य योग्यकर्मणि योजयेत् । योग्यकाले च सम्प्राप्ते कार्यारम्भंच कारयेत् || ६ || शक्ति कार्यंच दीक्षेत पूर्वं भृत्यस्य भूमिपः । पश्चात्कार्यं तदायत्तं विदध्याद गतसंशयः ॥ ७ ॥ तत्पदायोपयुक्तोऽयं यद्येवं निश्चितं त्वया । तस्यानुरूपशोभापि तर्हि त्वय्यवशिष्यते ॥ ८ ॥ भक्ते दक्षे च यो भृत्ये रुष्टो भवति भूपतिः । नूनं तस्य भवेदेव भाग्यश्रीः परिवर्तिता ।। ६ ।। प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत भृत्यकार्याणि भूप्रभुः । भृत्या यत्र विशुद्धा हि तद्राज्यं न विपद्यते || १०|| 52 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुष काल्य पर परिच्छेद: ५3 बन्धुता एकैव बन्धुता यत्र स्नेहस्थैर्य विलोक्यते । अन्यथा विपदां चक्रे क्व च तस्यास्ति दर्शनम् ।।१।। गुणाढ्ये यत्र बन्धूनां स्नेहो नैवापचीयते । तस्य भाग्यवतो वृद्धः कोऽपि नास्ति निरोधकः ।।२। भूत्वा सहृदयो येन बन्धुस्नेहो न लभ्यते । तथैव विद्यते सोऽयं निराधारं सरो यथा ।।३।। वैभवस्य फिमुद्देशः कि फल पाप विद्यते । सम्बन्धिनां समाह्यनं प्रतिपत्त्या च मोहनम् ।।४।। वाण्यां यस्यातिमाधुर्यमौदार्यंच करे तथा । तस्य गेहं समायान्ति बन्थवो बद्धपंक्तयः ।।५।। सार्वं यस्यामितं दानं क्रोधशून्यंच जीवनम् । लोकबन्धुः स एवास्ति पश्यान्विष्य महीतलम् ।।६।। काको भक्ष्यं यथा स्वार्थाद् बन्धुभ्यो न निगृहते । एवं हि प्रकृतिर्यस्य वैभवं तस्य सपनि ।।७।। राजा यथागुणं बन्धून् सत्कुर्याद् गुणरागतः । अन्यथा बहवः सन्ति स्वस्वत्वामर्षिणो जनाः ।।५।। विरागहेतोः संत्यागादपसगोऽपि हीयते । एवं चित्तविशुद्ध्या तु गताप्यायाति बन्धुता ।।६।। त्यत्तस्नेहोऽपि बन्धुश्चेद् भूयोऽप्ययाति बन्धुताम् । सहर्षो मिलतेनामा धृत्वा किन्तु सतर्कताम् ।।१०।। --- --- ----53 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना कुमार काव्य पर परिचय: ५४ निस्विन्ततात्यागः अचिकित्स्याल्पसन्तोषाज्जाता चिन्ताविहीनता । नृनं निन्धतमा लोके निस्सीमक्रोधतोऽप्यहो ।। १।। यथैव प्रतिभा हन्ति लोके दुष्टा दरिद्रता । वैभवंच तथा हन्ति निर्भयस्त्यानभावना ।।२।। नित्यनिश्चिन्तचित्तानां वैभवं नैव जायते । अन्तिमो ह्येष सर्वेषामाम्नायानां विनिश्चयः ॥३।। कातरस्य जनस्याहो कोऽथों दुर्गेण सिध्यति । को गुणः प्रधुरैरथैरेवमेव प्रमादिनः ।।४।। प्रमत्तपुरुषो नित्यं स्वरक्षायै निसर्गतः । दोषं करोति पश्चाच्च संकटस्थो विषीदति ।।५॥ प्रागेव ना प्रबुद्धश्चेत् सर्वेः साकं सुदृत्तये । अतो नास्ति परा काचित् सुवार्ता जगतीतले ।।६।। || समाहितस्य सर्वत्र यस्यास्ति मनसो गतिः । अशक्यं तस्य किं लोके वर्तते गुणशालिनः ।।७।। विज्ञैः प्रदर्शितं कार्यमाशु कुर्वीत भूपतिः । अन्यथा जन्मपर्यन्तं प्रायश्चित्तं न विद्यते ।।८।। प्रमादेन यथा भद्र व्यामोहो मानसे भवेत् । तेन दोषेण नष्टानां चिन्त्यस्व तदा दशाम् ।।६।। विधत्ते यः पुरो दृष्टेर्निजध्येयं निरन्तरम् । सहजा एव तत्पक्षे सिद्धाः सन्ति मनोरथाः ।।१०।। .. - % 3D --54 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकलेटः ५ न्यायशासनम् सम्यग्विचार्य निष्पक्षो भूत्वा चापि महीपते । नीतिज्ञसम्मत: शुद्धः कर्तव्यो न्यायविस्तरः ।।१।। जीवनस्य प्रदानाय लोको मेधं यथेक्षते । न्यायप्राप्त्यै तथा चायं राजदण्डं समीक्षते ।।२।। राजदण्डो यथेहास्ति मुख्यो धर्मस्य रक्षकः । राजदण्डस्तथैवास्ति विद्यानां परिपालकः ।।३।। स्निग्धदृष्ट्यैव यो राजा स्वराज्यं शास्ति सर्वदा । तं भूपति कदापीह राजश्रीनॆव मुंचति ।।४।। न्यायदण्डं समादत्ते भूपतियों यथाविधि । तद्राज्ये विपुला सस्यवृद्धि: स्याच्च सुवर्षणम् ।।५।। महीपतेः खरः कुन्तो विजये नास्ति कारणम् । विशुद्धो न्याय एवास्ति विजये किन्तु कारणम् ।।६।। भुवं रक्षति भूपालो गुणवृद्धेन तेजसा । विशुद्धो राजदण्डश्च तं नृपं पाति सर्वदा ।।७।। प्रजाभ्यो योऽस्ति दुर्दशों न्याये नापि विचारकः । अरिणा स च हीनोऽपि स्वपदाद् अश्यते नृपः ।।८।। अन्तरस्थाँस्तथा बाह्यान् दण्ड्यान् दण्डेन दण्डयन् । भृपः करोति कर्तव्यमतस्तस्मिन्न दूषणम् ।।६।। परित्राणाय साधूनां श्रेयान् दुष्टबधस्तथा । तृण्योच्छेदो यथा क्षेत्रे शालीनां हि समृद्धये ।।१०।। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ५६ अत्याचारः यः प्रजा बाधते नित्यमत्याचारपरायणः । शासकोऽसौ न राजास्ति सोऽधमः किन्तु घातकात् || १ || शासनं यस्य हस्ते ऽस्ति विनम्रमपि तद्वचः । देहि सर्वं न किंचित्ते लुण्टाकस्य वचोनिभम् ||२|| राज्ये शासनचक्रं यो नृपो नित्यं न वीक्षते । न मार्ष्टि च त्रुटीः सर्वाः प्रभुत्वं तस्य क्षीयते ||३|| अहो तस्मिन महाशोको निर्विचारे नरेश्वरे । न्यायादपैति यस्तस्य राज्यं वित्तंच नश्यति ॥ ४ ॥ । असंशयं नृपान्यायत्रस्तानामश्रुबिन्दवः । वाहयन्ति तदीयां हि समृद्धिं सकलामपि ॥ ५ ॥ यशसा भूष्यते भूपो यदि न्यायेन शासनम् । अकीर्त्या दृष्यते सैव यद्यन्यायेन शासनम् ।।६।। या दशा जायले क्षोण्या वर्षाशून्ये नभस्तले । सा दशा सर्वभूतानां राज्ये निर्दयभूपतेः ॥ ७ ॥ | अन्यायिनो महीपस्य राज्ये सर्वेऽपि दुःखिनः । परा हि दुर्दशा तेषु धनिनां सर्वतो ऽधिका || ८ || उच्चरते यदा दोषादधर्मं न्यायंच भूपतिः । योग्यकालेऽपि तद्राज्ये जायते ऽवग्रहस्तदा ||६|| न्याय्यं हि शासनं जयाद् यदि राजा स्वदोषतः । धेनुस्तन्यविलोपः स्याद् द्विजविद्या च विस्मृता ||१०|| 56 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुबल काव्य परिच्छेदः ५७ भयप्रदकृत्यत्यागः सुप्रणीतं यथासीमं दण्डं दद्यात् तथा नृपः । यथा नैन पुनर्दोषं कुर्यात् ततः ||१|| स्वप्रभुत्वबलं लोके चिरं वांछन्ति ये नृपाः । मृद्वाघातकरं दण्डं ते गृणन्तु स्वपाणिषु || २ || योऽसिनैव प्रजाः शास्ति स भूमीशो भयावहः । तत्सखः को भवेल्लोके तस्य नाशो विनिश्चितः ||३|| सुविख्यातं प्रजावर्गे निर्दयं यस्य शासनम् । अकाले स पदाअष्टो भूत्वा याति यमालयम् ।।४।। अगम्यभीमभूपस्य वैभवं तेन सन्निभम् । निधिना यत्र संवासो राक्षसस्य दुरात्मनः || ५ | योऽमर्षणो नृपः क्रोधाद् ब्रवीत कटुकं वचः । समृद्धं वैभवं दुतं नडू. क्ष्यति नडू. क्ष्यति ।।६।। दण्डदानं बहिःसीमं नित्यं कर्कशभाषणम् । इति शस्त्रद्वयं तीक्ष्णं छिनत्ति प्रभुतां दृढाम् ॥७॥ न गृह्णाति पूरा बुद्धिं मंत्रिभ्यो यो महीपतिः । क्षोभं याति च वैफल्ये क्षीयते तस्य वैभवम् ||८|| कालं लक्ष्यापि येनाही रक्षोपाया अनादृताः । स वेपथुं रणे पश्येत् स्वं स्तब्धो द्रुतपातितम् ।। ६ ।। यच्चाटुकारिमूर्खाणां परामर्शेऽस्ति निर्भरम् । तत् कुत्स्यं शासनं त्यक्त्वा को भारो भूव्यथाकरः ||१०|| 57 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. -- - परिच्छेदः ५४ चारुशीलम् चारुशीलात्परं नास्ति सुरभ्यं मोददायकम् । कार्य सुचारुरूपेण सृष्टेस्तेनैव वर्तते ।।१।। जीवनस्यापि माधुर्यं शीले सत्येव विद्यते । भारभूता विपर्यासे जायन्ते मानवा भुवि ।।२।। अहो गीतेन किं तेन यन्न केनापि गीयते । नेत्रेणापि च किं तेन यत्र स्नेहो न दृश्यते ।।३।। कोऽथों नेत्रेण मात्रायां यन्नादरपरं परे । केवलं मुखमुद्रायां नूनमस्यास्ति दर्शनम् ॥४।। नेत्रयोभूषणं शीलं यत्र तन्नैव विद्यते । अहो ते लोचने नूनं वर्तेते शिरसि क्षते ।।५।। जायते नैव यस्याक्षि सविचारं परं प्रति । सनेत्रोऽपि स किंनेत्री निर्विशेषश्च भूरुहात् ।।६।। सत्यमेवाक्षिरहीनास्ते येषु नास्ति परादरः । सनेत्राः सन्ति ते ये च परदोषे दयालवः ।।७।। यः कर्तव्ये न वैलक्ष्यं कृत्वा सत्कृरुते परान् । तस्य रिक्थे महीराज्यं वर्तते गुणशालिनः ।।६।। दुःखदेभ्यः क्षमादानं दत्वा नूनं विमोचनम् ।। सहैव स्नेहदानं चेत् ख्याता चित्तसमुन्नतिः ।।६।। यदीच्छसि निजं लोके शीलनेत्रसमन्वितम् । तद्विषं तर्हि पानीयं यत् ते साक्षाद् विमिश्रितम् ।।१०।। 58 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जा कुबाप काव्य परिच्छेद: ५५ गुप्तचरः नेत्रद्वयेन भूपालो वीक्षते राज्यसंस्थितिम् । राजनीतिस्तु तत्रैक द्वितीयं चरसंज्ञकम् ।।१।। भूपतेरितिकर्तव्ये कर्तव्योऽयं विनिश्चितः । केषांचिच्चरितं पश्येत् प्रत्यहं चरचक्षुषा ।।२।। न वेत्ति घटनाचक्र चारैर्दूतैश्च यो निजैः । स शक्तोऽपि दिशो जेतुं न शक्नोति महीपतिः ।।३।। रिपूणां राजभृत्यानां बान्धावानांच भूपतिः । गति मतिंच विज्ञातुं नियुंजीत 'चर' सदा ।।४।। आकनियस्य नास्ति क्वापि सन्देहकारिणी । मा निगरभावश्च स चरो गुणवत्तरः ।।५।। वर्णितापसवेशेषु स्वान्तर्भावं निगृहयन् । येन केनापि यत्नेन स्वकार्य साधयेच्चरः ।।६।। परमर्मसमादाने निपुणो यो निसर्गतः । यस्य कार्यमसंदिग्धं शुद्धंचासौ चरो मतः ।।७।। अपरस्यावसर्पस्य तादृशीमेव सूचनाम् । प्राप्य पूर्वचरस्योक्ती कुर्यात् प्रामाण्यनिर्णयम् ।।८।। परस्परमजानन्तः स्पशाः कुर्युः समीहितम् । त्रयाणामेकवाक्ये तु सत्यं बुध्येत भूपतिः ।।६।। न हि स्वराज्यचाराणां पुरस्कार प्रकाशयेत् । अन्यथाकरणे राज्ञा राज्यमेव प्रकाश्यते ।।१।। 459 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ---- कुमरन काव्य पर पाटिलतः 0 उत्साहः उत्साहभूषिता एव सत्यं सम्पत्तिशालिनः । तद्विरुद्धाः पुनर्नेव स्वामिनः स्वश्रियामपि ।।१।। उत्साह एव लोकेऽस्मिन् सत्यं परमवैभवम् । अन्यद्धि सर्वनेश्वर्ष वायं न कर्हिचित् ।।२।। उत्साहसाधनं येषां करे नित्यं विराजते। ते धन्याः सर्वनाशेन न सीदन्ति कदाचन ।।३।। स धन्यो यः श्रमान्नैव दूरादेव पलायते । सौभाग्यश्रीस्तदावासमन्विष्यायात्यनेहसि ।।४।। क्षुपेभ्यो वारिदानेन पुष्पश्री सूच्यते यथा । नथोत्साहन भाग्यश्रीर्जायते देहधारिणः ।।५।। निजलक्ष्यं सदोदात्तं कार्य कुशलबुद्धिभिः । वैफल्येऽपि यतो जाते कलंकः कोऽपि नो भवेत् ।।६।। पराजितोऽप्यनुत्साहं भजते नैव साहसी । शराघातं रणे प्राप्य दृढपादो गजो यतः ।।७।। तं पश्य क्षीयते लोके यस्योत्साहः शनैः शनैः । अपारवैभवानन्दस्तस्य भाग्ये न वर्तते 11८।। पीनोन्नतेन देहेन खरदन्तैश्च दन्तिनः । को गुणो यदि वीक्ष्यैव मृगेन्द्रं म्रियते मनः ।।६।। अस्ति नूनं महोत्साहो महाशक्तिर्महीतले । ये सन्ति तेन हीनास्ते पशवो देहभेदतः ।।१०।। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुबल काव्य यूर रिच्छेद: ६ आसयामः आलस्यं कुत्सितो वायुः पिण्डाघातेन यस्य हा । लुप्यते राजवंशस्याखण्डज्योतिर्धरातलात् ।।१।। अयमालस्यवानित्थ भाषन्तां मानवा वरम् । किन्वालस्यं स्वयं बुद्ध्वा हेयं वंशोन्निनीषुणा ।।२।। घातकं रोचते यस्मा आलस्यं पश्य तं जडम् । सह्यभागी स्वयं पश्येज्जीवन्नेव कुलक्षयम् ।।३।। आलस्यादुच्चकार्येषु येषां हस्तो न वर्तते । तद्गृहं क्षीणतां प्राप्य संकटेषु पतिष्यति ।।४।। कालस्य यापनं निद्रा शैथिल्यं विस्मृतिस्तथा । उत्सवस्य महानावः सन्त्येता हतभागिनः ।।५।। आलस्यर्निरतो लोकः कृपां लब्ध्वापि भूपतेः । कर्तुं समुन्नतिं नैव शक्नोति जगतीतले ।।६।। येषामुदात्तकार्येषु व्यापारो नास्ति हस्तयोः । न्यक्कारं वा घृणां नित्यं सहन्ते ते प्रमादिनः ।।७।। आलस्यमन्दिरं लोके जायते यत्कुटुम्बकम् । विपद्यते सपत्नानां क्षिप्रमेव करेषु तत् ।।८।। विपदुन्मुखोऽपि लोकोऽयं चेत् स्याद् विगतालसः । स्तभ्नन्ति तर्हि तत्रैवायान्तोऽपि क्रूरसंकटाः ।।६।। यो न देत्ति महीपाल आलस्यं नित्यकर्मयुक् । त्रैविक्रमैर्मितां पादैः स शास्ति सकलामिलाम् ।। १०।। - - 61 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ == कुशल काव्य पर परिच्छेदः ६२ पुरूषार्थः अशक्यमिति संभाष्य कर्म मा मुच दृरतः । उद्योगो वर्तते यस्मात् कामसूः सर्वकर्मसु ।।१।। सामिकार्यं न कुर्वीत लोकरीतिविशारदः । तद्विधात्रे यतः कोऽपि स्पृहयेन सचेतनः ।।२।। न जहाति विपत्ती यः सान्निध्यं तस्य गौरवम् । सेवारूपनिधिन्यासाल्लभ्यते तत् सुदुर्लभम् ।।३11 अनुद्योगवतो नूनमौदार्यं क्लीवखंगवत् । यतस्तयोड़ियोर्मध्ये नैकं चास्ति चिरस्थिरम् ।।४।। सुखे रतिर्न यस्यास्ति कामना किन्तु कर्मणः । आधारः स हि मित्राणां विपत्तावश्रुमार्जिकः ।।५।। अद्योगशीलिता लोके वैभवस्य यथा प्रसूः । दारिद्र्याशक्तियुग्मस्य जनकोऽस्ति तथालसः ।।६।। आलस्यं वर्तते नूनं दारिद्र्यस्य निवासभूः । गतालस्यश्रमश्चाथ कमलाकान्तमन्दिरम् ।।७।। नापि लज्जाकरं दैवाद् वैभवं यदि नश्यति । वैमुख्यं हि श्रमात् किन्तु लज्जायाः परमं पदम् ।।८।। वरमस्तु विपर्यस्त भाग्यं जातु कुदैवतः । पौरुषन्तु तथापीह फलं दत्ते क्रियाजुषे ।।६।। शश्वत्कर्मप्रसक्तो यो भाग्यचक्रे न निर्भरः । जय एवास्ति तस्याहो अपि भाग्यविपर्यये ।। १०।। 62 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः 83 विपदि धैर्यम् हसन् भव पुरोभागी विपत्तीनां समागमे । विपदा हि जये हासः सहाय मतः ।।। अव्यवस्थितचित्तोऽपि भवन्नेकाग्रमानसः । विपदां चेत् पुरःस्थायी तत्क्षुब्धाब्धिः प्रशाभ्यति ॥ २ ॥ विपदो मन्यते नैव विपदो यो हि मानवः । ध्रुवं तस्य निवर्तन्ते विपत्राः स्वयमापदः || ३|| प्राणेषु त्यक्तमोहः सन् यतते यो लुलायवत् । जेतुं सर्वापदस्तस्य हताशाः प्रतियान्ति ताः || ४ || स्वविपक्षे विपत्तीनां सज्जितां महतीं चमूम् । दृष्टवापि यस्य नाधैर्यं ततो विभ्यति ताः स्वयम् ॥१५॥ नासीत् सौभाग्यकालेऽपि प्रमोदो यस्य सद्मनि । स कथं कथयेत् सर्वं ' हा संप्रति विपद्धत : ' ।। ६ ।। इति वेत्ति स्वयं प्राज्ञो यद्देहो विपदां पदम् । अतएव विपन्नोऽपि नानुशोचति पण्डितः ||७|| यो विलासप्रियो नास्ति मन्यते चापदस्तथा । सहजा जन्मना साकं स दुःखातों न जायते ॥ ८ ॥ यस्य नास्ति महाहर्षः सम्पत्तीनामुपागमे । विषादोऽपि कथं तस्य भवेत् तासामपागमे || ६ || मन्यते सुखमायासे थषविगद्वये च यः । तं स्तुवन्ति महाधीरं विरुद्धा अपि वैरिणः ||१०|| 63 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुबल काव्य और परिच्छेदः ६४ मंत्री महत्त्वपूर्णकार्याणां सम्पादनकुशाग्रधीः । समयज्ञश्च तेषां यः स मंत्री स्यान्महीभुजाम् ।।१।। कौलीन्य पौरुषं श्रेष्ठ स्वाध्यायो दृढनिश्चयः । प्रजोत्कर्षाय सस्नेहचेष्टा मंत्रिगुणा इमे ।।२।। रिपूणां भेदकर्तुत्वे मित्राणां सख्यवर्धने ।। अरिभिश्च पुनःसन्धौ शक्तिर्यस्य स मंत्रदः ।।३।। साधूयोगेषु सुप्रीतिः साधनानां विनिश्चयः । सम्मतिः स्पष्टरूपा च मंत्रदातुरिमे गुणाः ।।४।। स्थानावसरसंवेदी नियमझो बहुश्रुतः । सम्यग्विचार्य वक्ता यो मंत्री योग्यः स भूतले ।।५।। स्वाध्यायाद् यस्य संजाता प्रतिभा सर्वतोमुखी । दुर्जेयं तस्य किं वस्तु विद्यते ननु विष्टपे ।।६।। भवानुभवसम्पन्नो विद्यावित्तो भवत्रपि । पूर्व विमृश्य मेधावी व्यवहारं सदाऽऽवहेत् ।।७।। निर्विचारोऽस्तु भूपालो यदि वा कार्यबाधकः । तथापि मंत्रिणा वाच्यं हितमेव नरेश्वरे ।।८।। अनुशास्ति विनाशाय यो मंत्री मंत्रणागृहे । सप्तकोटिरिपुभ्यो ऽपि स शत्रुरधिका मतः ।।६।। नूनं विमर्शशून्या धीः संप्राप्यापि सुपद्धतिम् । व्यवहारे स्खलत्येव सिद्धिंचापि न गच्छति ।।१०।। =- - =-(64)- - - - - ------ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुरख काव्य - परिच्लेदः ६५ वाकपटुता वाग्मिनं हि वरीतर्ति वरदानं तिलक्षणाम् । तन्नांशोऽन्यस्य कस्यापि स्वतः सिद्धं तदीप्सितम् ।।१।। मृत्युर्वसति जिव्हाग्रे जिव्हाग्रे ननु जीवनम् । अतः सुधीर्वदेद् वाणी विचायैव शुभां सदा ।।२।। वाचस्ता एव सुग्लाघ्या याः सक्ताः सख्यवर्धने । रिपूणामपि कल्पन्ते हृदयाकर्षणाय च ।।३।। पर्यालोच्य नरः पूर्वं पश्चाद् भाषेत् भारतीम् । धर्मवृद्धिरतो नान्या लाभश्वापि शुभावहः ।।४।। वाणी सैव प्रयोक्तव्या यस्यां किंचिन्न हेयता । अनुल्लंध्या च या सवैलब्धसार्वगुणोदया ।।५।। आशुविद् यः परार्थानां सुवक्ता चित्तकर्षकः । अधिकारी स एवास्ति राजनीतेर्विदांवरः ।।६।। नैव स्खलति यस्यान्तः सुवक्तुर्वादसंसदि । कथं पराजयः शक्यस्तस्य निर्भीकचेतसः ।।७।। ओजस्वि वाड्.मय यस्य विश्वास्यं परिमार्जितम् । तदिंगते नरीनति समस्तं वसुधातलम् ।।८।। शब्दैः परिमितैरेव स्वाभिप्रायप्रकाशनम् । ये जना नैव जानन्ति तेषु वै वावदूकता ।।६।। निजार्तितं यदि ज्ञानं स्वयं व्याख्यातुमक्षमः । नरो न शोभते तद्वन निर्गन्धं कुसुमं यथा ।।१०।। । -- --- 65 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । काव्य परिच्छेदः ६६ शुभाचरणम् मित्रत्वेन समायाति साफल्यं सर्ववस्तुषु । शुभाचरणवृत्तिस्तु नूनं सर्वत्र कामसूः ।।१।। यतो न जायते कीर्तिभिश्चापि शुभोदयः 1 वैमुख्यमेव सुश्रेयस्ततोऽस्ति हितकारकम् ।।२।। अभ्युदयं सदाराध्यं यदि लोके समीहसे । तत्कार्यं तर्हि हातव्यं येन कीर्तिर्विहन्यते ।।३।। . विपत्कालेऽपि येषान्तु वस्तुयाथार्थ्यनिर्णयः । कुर्वन्ति नैव ते कर्म छुद्रं कीर्तिविराधकम् ।।४।। किं कृतनु मयाद्येति पश्चात्तापविधायकम् । कार्यं नैव सुधीः कुर्यात् कृतं नारोडितं पुनः ।।५।। विगर्हितानि सन्तीह यानि कार्याणि साधुभिः । जनन्या अपि रक्षार्थं तानि कुर्यान्न जातुचित् ।।६।। शुभाचारवतः पुंसो दारिद्रयमपि राजते ।। नत्त्वाचारविहीनस्य वैभवं धर्मवर्जितम् ।।७।। निषिद्धान्यपि कार्याणि यो नरो नैव मुंचति । सफलस्यापि तस्याहो निर्वृति व मानसे ।।८।। विलापैरजिता लक्ष्मीः क्रन्दनैः सह नश्यति । धर्मेण सञ्चिता सम्पन् मध्ये क्षीणापि वृद्धये ।।६।। आमकुम्भे भृतं नीरं यथैवास्ति निरर्थकम् । तथैव संचितं वित्तं मायया परवंचनात् ।।१०।। -- ENA Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुबल काव्य - परिच्छेदः ६७ स्वभावनिर्णयः मनोबलात् किमन्यत्र महत्त्वं यशसां चये । इतरेषां यतो नास्ति तत्राल्पापि किलांशता ।।१।। विनिश्चयाय कार्याणां विदुषां निर्णयद्वयम् । पूर्णदाढय निजोद्देशेऽशक्यस्याथविमोचनम् ।।२।। न व्यनक्ति निजोद्देशं सिद्धेः पूर्व सुकर्मटः । अलंध्या अन्यथा पुंसो जायन्ते विपदां चयाः ।।३।। कथनं सुलभं लोके यस्य कस्यापि वस्तुनः । यथापद्धति हस्तेन करणं किन्तु दुर्लभम् ।।४।। विधानादुच्चकार्याणां सन्ति ये कीर्तिशालिनः । सेवन्ते तान् नृपा नत्वा श्लाघन्ते च जनाः सदा ।।५।। पुमाँश्चेत् सत्यसंकल्पः पूर्णशक्त्या च संभृतः । तदेव लभ्यते तर्हि यथा यत्तेन काम्यते ।।६।। आकृत्यैव नरः कोऽपि नैष्कर्म्यं नाधिगच्छति । स एव दृश्यते काले कार्याधारो रथाक्षवत् ।।७।। सदुद्ध्या यत् त्वया कार्य स्वकर्तव्ये विनिश्चितं । तत्सिद्ध्यै पूर्णशक्त्यैव यतस्वाचलचेतसा ।।६।। प्रसादकेषु कार्येषु संलग्नो भव चेतसा । आक्रान्तोऽपि शतैः कष्टैर्यावदन्तं दृढो भवन ।।६।। चरित्रगठने येषां शक्तिमत्ता न विद्यते । तेऽन्यदिक्षु महान्तोऽपि न लोके गौरवान्विताः ।। १०।। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ६८ कार्यसंचालनम् क्रियते हि परामर्शो निश्वयार्थ विचक्षणैः । निश्वये च पुनर्जाते निस्सारं कालयापनम् ||9|| अविलम्बसह कार्यमाशु कुर्वीत धीधनः । चिरभावि च यत्कार्य तत् कुर्याच्छान्तिमास्थितः || २ || लक्ष्येणैव हि गन्तव्यं स्थितिश्चेदनुकूलिनी । वामाथ तर्हि गन्तव्यं स्वल्पबाधामये पथि || ३ || कार्य सामिकृतं शत्रुर्नास्ति यश्व पराजितः । समये वृद्धिमापन्त्री शेषाग्निरिव दुःखदी ||४|| क्षेत्रं साधनसम्पत्तिं द्रव्यं भावंच कालवत् । पूर्वं विचार्य पश्चाच्च कार्यं कुर्वीत कोविदः || ५ || अत्र कार्ये कियाँल्लाभः श्रमश्वापि कियान । बाधाश्चापि कियत्यः स्युरिति पूर्वं विचिन्तयत् ॥६॥ कार्यसिद्धेरसी मार्गो विद्वदिः परिनिश्चितः । यद् रहस्यविदं प्राप्य तद्रहस्यं समर्जयेत् ||9|| वने हि वशितां याति गजेनैव गजो यथा । कार्यक्षेत्रे तथा धीमान् कार्यं कार्येण साधयेत् ॥८॥ मित्रोपहारदानादप्यथिकेयं शुभक्रिया । यद् द्रुतं हि विधातव्या रिपूणां सांत्वनक्रिया ||६|| दुर्बलाय हिता नैव संकटेषु चिरस्थितिः । अतो बलवता साकं काले सन्धिं समर्जयेत् ||१०|| 68 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जा, कुरम काव्य परिच्छेद: ६९ राजदूतः लोकपूज्ये कुले जन्म हृदयं करुणामयम् । नृपाणां मोददातृत्वं राजदूतगुणा इमे ।।१।। निसर्गात् प्रेमवृत्तित्वं वाग्ग्मित्वं विस्मयावहम् । प्रतिभावत्त्वञ्च दूतानां यो ह्यावश्यका गुणाः ।।२।। !! स्वामिलाभाय येनात्तो भारो भूपतिमण्डले । आवश्यकं हि तवाण्यां पाण्डित्यं सर्वतोऽधिकम् ।।३।। प्रभावजननी यस्य मुखमुद्रास्ति पश्यताम् । विद्याविभूषितो यश्च स दूतार्हो महीभुजाम् ।।४।। संक्षेपभाषाणं वाण्यां माधुर्यं कट्वभाषणम् ।। सुदूताः साधनैरेतैः कुर्वन्ति स्वामिनो हितम् ।।५।। प्रभावोत्पादिका वाणी वैदुष्यं समयज्ञता । प्रत्युत्पत्रमतित्वञ्च दूतस्य प्रथमे गुणाः ।।६।। स्थानावसरकर्त्तव्यबोधे यस्यातिपाटवम् ।। आलोचितोक्तशब्दो यः स दूतो दूत उच्यते ।।७।। निसर्गहृदयग्राही विशुद्धात्मा सदाशयः । दृढाश्च यस्य मंकल्पास्तं दृत्ये खलु योजयेत् ।।८।। आवेशादिप न ब्रूते दुर्वाक्यं यो विचक्षणः । परराष्ट्रे स एवास्ति योग्यः शासनहारकः ।।६।। च्यवन्ते नैव कर्तव्यात प्राणैः कण्टगतैरपि । सुदूतः पूर्णयत्नेन सानोति स्वामिनो हितम् 41१०11 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुबल काठ्य पर रिच्छेदः ७० नृपाणां समक्षे व्यवहारः नातिदूरसमीस्थो नृपं सेवेत पण्डितः । शीतबाधानिवृत्यर्थं यथाग्निं सेवते जनः ।।१।। नृपस्याभीष्टवस्तूनां लालसा त्यज दूरतः । ततो वैभसवंप्राप्तेरेषमंत्रोऽस्त्यबाधितः ।।२।। विरागं भूपतेः प्राप्तुं यदि त्वं नैव वाञ्छसि । मुञ्च तर्हि महादोषान् यतः शंकास्ति दुस्त्यजा ।।३।। राज्ञाः पुरो न केनामा कर्तव्यं कर्णभाषणम् । स्मितेगिते च नो कार्ये आत्मनोभूतिमिच्छता ।।४।। निलीय शृणुयात्रैव वार्ता काञ्चिन् महीपतेः । यत्नश्चापि न कर्तव्यस्तद्गुह्यस्यावबोधने ।।५।। कालोऽस्ति सांप्रतं कीदृक् प्रकृतिश्चास्य की दृशी । । इति पूर्वं समालोच्य वाचा तदनुमोदयेत् 11६।। मोदो भवतिः याः श्रुत्वा वाचस्ता व्याहरेन नृपम् ।। याभिश्च कोऽपि लाभो न पृच्छ्यमानो न ता वदेत ।।७॥ बन्धुमल्पवयस्क वा मत्वा भृपं न हेडताम् । महती देवता ह्येषा नररूपेण तिष्ठति ॥८॥ निर्द्वन्दः शुद्धदृष्टियों लब्धभूपप्रसादकः । न सत्कार्यं स कुर्वीत रुष्टः स्याद् भूपतिर्यतः ।।६।। घनिष्ठो दृढमित्रंच वर्तते मम भूपतिः । इति मत्वापकृत्ये यो रतो नूनं स नश्यति ।।१०।। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना कुमरन काय पर परिच्छेदः १७ मुखाकृत्याभावपरीक्षणम् उक्तेः पूर्वं विजानाति मनोभावं परस्यः यः । से मेधावी सलां वन्यो वर्तते भूविशेषकः ।।१।। मनोगतं हि यो भावं बुद्ध्या समधिगच्छति । न स साधारणः किन्तु वर्तते भुवि देवता ।।२।। आकृतिं वीक्ष्य यः प्राज्ञः परभावं समूहते । प्रीत्या केनापि यत्नेन मन्त्रदः स विधीयताम् ।।३।। उक्तं वेत्ति नरः कश्चिदनुक्तञ्चाप्यतुच्छधीः । आकृती सति साम्येऽति श्रेण्यां भिन्नस्थितिस्तयोः ।।४।। सकृदेव नरं दृष्ट्वा भावं मानससंस्थितम् । बोद्धुं यदक्षमं चक्षुर्वृथा ज्ञानेन्द्रियेषु तत् ।।५।। भिन्नवर्णसमायोग व्यनक्ति स्फटिको यथा । तथैव सर्वलोकानां वक्त्रं वक्ति हि मानसम् ।।६।। भावपूर्णमुखं त्यक्त्वा श्रेष्ठमन्यन्न वस्तुकम् । मुखं हि सर्वतः पूर्वं हर्षाम! व्यनक्ति नुः ।।७।। यदि प्राप्तो भवेत्पुण्याद् बिना शब्देन भाववित् । तदक्षिसन्निकर्षोऽपि जायते ननु सिद्धिदः ।।८।। आकृतादिपरिज्ञानकुत्तमं यदि वर्तते ।। एकेन तर्हि बुध्येते रागरोषौ हि चक्षुषा ।।६।। धूर्ता भद्रतराश्चापि सन्ति ये वसुधातले । तदृष्टिरेव सर्वत्र तेषां भावस्य सूचिका ।।१०।। - 1 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ७२ श्रोतॄणां निर्णयः चित्ते सुरुचिसम्पन्नो बाक्कलायां विशारदः । श्रोतृभावं विदित्वादावनुरूपं वदेद् वचः ||१|| भो भोः शब्दार्थवत्तारः शास्तारः पुण्यमानसाः । श्रोणीहून भारतीम् ||२|| श्रोतॄणां प्रकृतिं वेत्तुं यस्य नैवास्ति पाटवम् । वक्तृकलानभिज्ञः स निष्कर्मा चान्यकर्मसु || ३ || ज्ञानचर्चा तु कर्तव्या विदुषामेव संसदि । मौर्ये च दुष्टिमाथाय वक्तव्यं मूर्खमण्डले ||४|| त्यज्यते येन नेतृत्वकामना मान्यसंसदि । सं गुणेष्वस्ति विख्यातो धन्यो वचनसंयमः ||५|| यस्यास्ति नैव सामर्थ्यं साफल्यंचापि भाषणे । न विभाति बुधाग्रे स धर्मभ्रष्टो नरो यथा ||६|| लोकातिशायिपाण्डित्यं विदुषां पूर्णवैभवैः । उद्योतते सभामध्ये विदुषामेव रागिणाम् ||७|| धीमतां ननु सान्निध्ये विदुषो ज्ञानकीर्तनम् । जीविते तरुसंघाते भाति नीरनिषेकवत् ||८|| व्याख्यानेन यशोलिप्सो श्रुत्वेदं स्ववधार्यताम् । विस्मृत्याग्रे न वक्तव्यं व्याख्यानं हतचेतसाम् ||६|| विरुद्धानां पुरस्तात्तु भाषाणं विद्यते तथा । मालिन्यदूषिते देशे यथा पीयूषपातनम् ||१०|| Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा कुबल काव्य पर परिच्छेदः 1.3 सभायां प्रौढता वाक्कला शिक्षिता येन सुरुच्या च समन्विता । स वाग्ग्मी विदुषामग्रे मुब्रवीति च्युति बिना ।। १।। . सिद्धान्तदृढता यस्य राजते विज्ञसंसदि । स प्राज्ञो विदुषां मध्ये समाम्नातो विदाम्बरैः ।।२।। सन्ति शूरा महेष्वासा बहवो रणकोविदाः । विरलाः किन्तु वक्तारः सभायां लब्धकीर्तयः ॥३॥ यदुपात्तं स्वयं ज्ञानं तद्विद्वत्सु प्रकाश्यताम् । अनुपात्तमथज्ञानं विज्ञेभ्यः साधु शिक्ष्यताम् ।।४।। अधीष्वसाधुरीत्या त्वं तर्कशास्त्रमसंशयम् । न विभेति हि तर्कज्ञो भाषितुं लोकसंसदि ।।५।। कोऽर्थस्तस्य कृपाणेन शक्तिर्यस्य न विद्यते । किं वा शास्त्रेण भीतस्य तिष्ठतो विदुषां पुरः ।।६।। श्रोतृणां पुरतो ज्ञानं विभ्यतो न हि राजते । रणक्षेत्रे यथा खंगो क्लीबहस्ते न शोभते ।।७।। विद्वद्गोष्ठ्ययां निजज्ञानं यो हि व्याख्यातुमक्षमः । तस्य निस्मास्तां याति पाण्डित्यं सर्वतोमुखम् ।।८।। सन्ति ये ज्ञानिनः किन्तु स्थातुं शास्त्रविदां पुरः । न शक्नुवन्ति ते नृनमज्ञेभ्योऽपि घृणावहाः ।।६।। सध्यानां पुरो यातु ये भवन्ति भयान्विताः । सिद्धान्तवर्णनाशक्तस्ते श्वसन्तो मृताधिकाः ।।१०।। - - - ...................... ....-.-- 73 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ७४ देशः देशेषु स महान् देशो यत्र सन्ति महर्षयः । धार्मिका धनिकाश्चापि कृषिर्नित्यं समृद्धिभाक् ।।१।। स एवास्ति महान् देशो यो द्रव्यैलोककर्षकः । प्रचुरा च कृषियंत्र स्वास्थ्यं पूर्णनिरामयम् ||२|| समृद्धं पश्य तं देशं सहते यो बहूनपि । उत्साहेन रिपोर्वारान् काले च करदायकः || ३॥ यस्मिन् देशे न दुर्भिक्षं न वा मारी च दृश्यते । समन्ताद् रक्षितो यश्च स याति महनीयताम् ||४।। महान् स एव देशो न विभक्तो विपक्षिषु । देशविद्रोहिणः कृत्या न च स्युर्यत्रमण्डले ||५|| न जातः शत्रुयानेन लुप्तश्रीर्यो हि जातुचित् । जातो ऽप्ययायपूर्णो यः स देशो रत्नसन्निभः ।। ६ ।। भूमिवारि नदीवारि नभोवारि महीधरः । सुदृढो दुर्गवर्गश्च देशस्यावश्यका इमे ||७|| समृद्धिरुर्वराभूमिरारोग्यं सुखशालिता । रिपुभ्यश्च परित्राणां देशभूषणपञ्चकम् ||८|| सहजा जीविकोपाया यस्मिन् सन्ति स वस्तुतः । देशोऽस्ति तत्पुरोऽन्ये तु समकक्षा भवन्ति नो || ६ || तावन्न राजते देशो युक्तोऽपि बहुभिर्गुणैः । यावत् तत्र न सौराज्यं प्रजानां परिपालकम् ।।१०।। 74 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिवछेदः ०५ दुर्ग: उपकर्ता यथा दुर्गा निर्बलानां स्वरक्षिणाम् । सबलानां तथैवैष नास्ति न्यूनः सहायकृत् ||१|| वनदुर्गे गिरेर्दुर्गा मरुदुर्गोऽथ वारिणः । दुर्गः प्राकारदुर्गश्च सन्ति दुर्गा अनेकथा || २ || दाढर्यमुत्मेथविष्कम्भावजय्यत्वञ्च सर्वतः । दुर्गाणां हि विनिर्माण नूनमावश्यका गुणाः ||३|| यो दाढये किंचिदूनोऽपि शत्रूणां मदभंजकः । पर्याप्तो यत्र विस्तारो स दुर्गः प्रवरो मतः || ४ || दुर्गसैनिकरक्षायाः प्रबन्धो वस्तुसंग्रहः । अजय्यत्वञ्च दुर्गस्य सन्ति ह्यावश्यका गुणाः || ५ | आवश्यकपदार्थानां यत्र पर्याप्तसंग्रहः । रक्षितो यो हि वीरैश्च स दुर्गा दुर्ग उच्यते ॥ ६ ॥ चिरानुबन्धावरकन्दसुरंगाभिश्च यं रिपुः । विजेतुं नैव शक्नोति स दुर्गे दुर्ग उच्यते ||७|| विजयाय कृतोद्योगान् परिवारकसैनिकान् । अपि जेतुं क्षमो यश्च सैव दुर्गेऽस्त्यसंशयम् ||८ ॥ सैव दुर्गोऽस्ति यच्छक्तस्तवस्था रक्षका भटाः । दूरादेव बहि: सीनो घातयन्ति स्ववैरिणः ||६|| पूर्णसाधनसम्पन्नः सुदुर्गोऽपि निरर्थकः । यदि प्रमादिनः सन्ति रक्षकाः स्फूर्तिविच्युताः ||१०|| 75 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुल काव्य परिच्छेदः ७६ धनोपार्जनम् तुच्छोऽपि गुरुता हि विविचापविशुः धनेन मनुजो ह्येवं शक्तिः क्वान्यत्र दृश्यते ॥19॥ निर्धनानां हि सर्वत्र न्यक्कारः खलु जायते । धनिकानाञ्च सर्वत्र प्रतिपत्तिर्विवर्द्धते || २ || अविश्रान्तमहज्ज्योतिरहो वित्तं हि भूतले । स्थानं तमोवृतं येन ज्योत्स्नापूर्णं विधीयते || ३ || निर्दोषैः पापशून्यैर्यत् साधनैः प्राप्यते वसु । ततो वहन्ति स्रोतांसि सुखस्य सुकृतस्य च || ४ || यधनं दयया रिक्तं प्रेमशून्यञ्च विद्यते । तज्जिघृक्षा न कर्तव्या स्पर्शो वा तस्य नो वरः || ५१ दण्डद्रव्यं मृतद्रव्यं करस्वं शुल्कजं धनम् । युद्धद्रव्यञ्च भूपस्य कोषसंवृद्धिहेतवः || ६ || अनुकम्पा हि भूतानां विद्यते प्रेमसंततिः । तत्पालनाय धान्येषा सम्पत्तिः करुणाभृता ॥७।। गिरिश्रृंगाद् यथा निर्भीः प्रेक्षते करिणो रणम् । तथा कार्यं समारभ्य शंकां नाप्नोति वित्तवान् ||८|| यदीच्छसि रिपुं जेतुं कर्तव्यस्तर्हि संग्रहः । द्रविणस्य यतोऽमोघं शस्त्रमेतज्जयैषिणाम् ||६|| येन स्वपौरुषात् पुंसा सञ्चितं हि महाधनम् । करमध्ये स्थितौ तस्य धर्मकामावुभावपि ।।१०।। 76 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ७१७ सेना शिक्षितं बलसम्पन्न संकटे चास्तभीतिकम् । नृपस्य वस्तुजातेषु श्रेष्ठमस्ति सुसैन्यकम् ||१|| अपर्याप्ताभिघातेऽपि नैराश्ये च भयंकरे । स्थितिरक्षां हि कुर्वन्ति शूरा युद्धविशारदाः || २ || अहितं नास्ति नः किञ्चिद् वरं गर्जन्तु तेऽब्धिवत् । अलमाखुमहस्रेभ्यः फूत्कारः कृष्णभोगिनः || ३|| च्यवते या न कर्तव्यान्नानुभूतपराजया । प्रदर्शितस्वशौर्या च सैव सेना वरूथिनी || ४ | यमेन पूर्णक्रुद्धेन समं यस्याः सुसाहसम् । योद्धं विशोभते तस्याः सेनाख्या वीरकाडू. क्षिता ।।५।। प्रतिष्ठावीरते ज्ञानं युद्धानां पूर्ववर्तिनाम् बुद्धिमत्वञ्च सेनाया गुणाः सन्नाहसन्निभाः || ६ || आक्रम्यापि रिपुर्नूनं जितः स्यादिति निश्चयात् । गवेषयन्ति निर्भीकाः स्वशत्रुं सुभटोत्तमाः ||७|| न चेत् सज्जा नवाशक्तिः प्रचण्डाक्रमणाय च । विभवीजः प्रतापाश्च सेनायास्त्रुटिपूरकाः || ६ || या न्यूना नास्ति संख्यायां नार्थाभावेन पीडिता । तस्या अस्ति जयो नूनं सेनाया इति निश्चयः ॥ ६ सेनापतेरसद्भावे न सेना- कापि जायते । सन्तु यद्यपि भूयांसः सैनिका रणकोविदाः ||१०|| 77 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुल काव्य - परिस: १७४ वीरयोदुरात्मगौरवम् रे रे सपत्नसंघात मा तिष्ठ स्वामिनः पुरः । स योद्धं ये: पुराहूतः साम्प्रत तं चिताश्मसु ।।१।। कुन्ताघातो गजे मोघोऽप्यस्ति गौ खदायकः । शशे किन्तु शराघातो सफलोऽपि न मानदः ।।२।। नूनं तदेव वीरत्वं येन ह्यानम्यते रिपुः । शरणागतवात्सल्य रूपञ्चास्त्यस्य सुन्दरम् ।।३॥ स्वकुन्तं करिदेहान्तः प्रवेश्यान्यं गवेषयन् । निष्कासयँश्च गात्रस्थं स्मयते स भटाग्रणीः ।।४।। रिपुप्रासप्रहाराच्चेज्जातं नेत्रनिमीलनम् । तर्हि ख्यातस्य वीरस्य का लज्जा स्यादतः परा ।।५।। न पश्यन्ति यदा शूराः स्वांगमालीढशोभितम् । तदा दिनानि मन्यन्ते व्यानि क्षीणचेतसः ।।६।। प्राणेषु त्यक्तमोहः सन् कीर्ति लोकान्तसंश्रिताम् । ईप्सते यस्तदंघ्रिस्थो निगडोऽपि सुशोभते ।।७।। यस्य नास्ति भयं मृत्योर्युद्धे स सुभटोत्तमः । आतंकादपि सेनान्यो भटनीतिं न मुञ्चति ।।८॥ अभीष्टकार्यसिद्ध्यर्थं वीरा उद्योगशालिनः । यदि प्राणैवियुक्तः स्युस्तर्हि के दोषवादिनः ।।६।। यं समीक्ष्य भवेत् स्वामी वाष्पपूर्णाकुलेक्षणः ।। भिक्षया चाटुकारैश्च तं मृत्यु प्रार्जयेद् भटः ।। १०११ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -जा कुबल काव्य परपरिच्छेद: ५५ मित्रता किमस्ति कठिनं लोके शिष्टैः श्लाघ्या सुमित्रता । तत्समो दृढसन्नाहो यतो नास्ति महीतले ।।१।। सतां भवति मैत्री तु ज्योत्स्नाचन्द्रकलासमा । असतांच पुनः सैव तमिनेन्दुकलानिभा ।।२।। मैत्री भवति गुण्यानां श्रुतिस्वाध्यायसन्निभा । उत्तरोत्तरवृद्धा ही द्योतन्ते यत्र सद्गुणाः ।।३।। नैतामोदविनोदार्थ मित्रतादियते बुधैः । अपि भर्त्सनया मित्रं मार्गस्थं क्रियते तया ।।४।। सदैव सहगामित्वं भूयोभूयश्च दर्शनम् । सख्यस्य वर्थने नैव कारणं किन्तु मानसम् ।।५।। विनोदकारिणी गोष्ठी नैवास्ते मित्रतागृहम् । मैत्री प्रेमामृतोद्भूता हृदयाल्हादकारिणी ।।६।। कापथाहिराकृष्य नियुङ्क्ते न्यायकर्मणि । उपतिष्ठते च दुःखेषु यत् तन्मित्रं प्रगण्यते ।।७।। गृहीतोऽरं यथा पाणी वायुविच्युतमंशुकम् । विपन्नमित्रकार्याणि सुसखः कुरुते तथा ।।६| आस्थानं कृत्र सख्यस्य यत्रास्ते हृदयकता । उभे च यत्र चेष्टेते मिलित्वा श्रेयसे मिथः ।।६।। उपकारप्रसंख्यानं यत्रास्ति प्रीतिधारिणाम् । दारिद्र्यंतत्र गर्वोक्त्या गाढस्नेहस्य घोषणा ।।१०।। (79 =- = Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ८० सख्यार्थ योग्यतापरीक्षा अपरीक्ष्यैव मैत्री चेत् कः प्रमादो ह्यतः परः । भद्राः प्रीतिं विधायादौ न तां मुंचति कर्हिचित् ||१|| अज्ञातकुलशीलानां मैत्री संकटसंहतिः । सति प्राणक्षये यस्याः शान्तिर्भवति पूर्णतः || २ || कथं शीलं कुल किं कः सम्बन्धः का च योग्यता । इति सर्व विचार्यैव कर्तव्यो मित्रसंग्रहः ||३|| प्रसूतिर्यस्य सद्वंशे कुकीर्तेश्च विभेति यः । मूल्यं दत्त्वापि तेनामा कर्तव्या खलु मित्रता ||४|| अन्विष्यापि समं तेन मैत्री कार्या विपश्चिता । सुमार्गाच्चलितं मित्रं यो भर्त्सयति नीतिवित् ।। ५ ।। विपत्स्वपि महानेकः सुगुणः सर्वसम्मतः । यदापन्मानदण्डेन ज्ञायते मित्रसंस्थितिः || ६ || अस्मिन्नेवास्ति कल्याणं नराणां सौख्यवर्द्धनम् । यन्मूर्खस्य सदा या मैत्री दुर्गतिकारिणी ॥ ७ ॥ ॥ औदासीन्यनिरुत्साहभृता हेया विचारकाः । बन्धुता सापि हातव्या विपत्तौ या पराडू. मुखी ||८|| सम्पत्ती सह संवृद्धा विपत्तौ ये च मायिनः । मैत्रीस्मृतिर्हि तेषान्नु मृत्युकाले ऽपि दाहदा || ६ 11 विशुद्धहृदयैरायैः सह मैत्रीं विधेहि वै । उपयाचितदानेन मुंचस्वानार्यमित्रताम् ||१०|| 80 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी कुवल काव्य पर परिच्छेदः ४१ धनिष्टॉमत्रता घनिष्टमित्रता सैव तयोरस्त्यनुरूपयोः । यत्रात्मा प्रीतिपात्राय यथाकामं समर्प्यते ।। १।। सत्यरूपात तयोमैत्री वर्तते विज्ञसम्मता। स्वाश्रिती यत्र पक्षौ द्वौ भवतो नापि बाधकौ ।।२।। यदि नास्ति वयस्यस्य स्वातन्त्र्यं मित्रवस्तुनि । सौहार्देनापि किं तेन क्रियाविकलरूपिणा ।।३।। प्रगाढमित्रयोरेकः किमप्यनुमति विना । कुरुते चेद् द्वितीयोऽपि सख्यमाध्याय हृष्यति ।।४।। | मित्रकृत्येन केनापि यदि ते दूयते मनः । तस्यार्थः सख्युरज्ञानं किं वा वामेकतानता ।।५।। अभिन्नहृदयं मित्रं सुसखो नैव मुंचति । वरमस्तु विनाशस्य हेतुरेव तदाश्रयः ।।६।। येन साकं घिरस्नेहो यश्चासीत् सुप्रियो हृदि ।। कुर्वन्नपि व्यलीकानि स प्रियो न घृणास्पदम् ।।७।। मित्रं नैव सुमित्रस्य सहते दोषकीर्तनम् । निन्दको दण्ड्यते यस्मिन् तदहस्तस्य तोषदम् ।।६।। अन्तर्हिमालयाद्यस्य प्रेमगंगा परान् प्रति । वहत्यखण्डधारायां भूप्रियः सोऽपि जायते ।।६।। यस्य स्नेहो न शैथिल्यं याति मित्रे चिरन्तने । तस्मै मानवरत्नाय स्निह्यन्ति रिपवोऽप्यलम् ।।१०।। . 81) --- Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुबल काव्य और परिच्छन्दः ८२ विघातिका मैत्री विघातिनी तयोमैत्री यौ प्रदर्शयतो बहिः । सख्यं किन्तु ययोः किंचिद् वर्तते नैव मानसे ।। १।। पतन्ति पदयोः स्वार्थात् स्वार्थाभावाच्च दूरगाः । ये धूर्तास्ते हि हातव्यास्तत्सख्येनापि को गुणः।।२।। अस्मात् सख्युरियाँल्लाभः स्यादित्येवं विचारयन् । नरो भवति चौराणां वेश्यानांच कुपंक्तिषु ।।३।। पलायते यथा युद्धात् पातयित्वाश्ववारकम् । कुत्स्यसप्तिस्तथा मायी का सिद्धिस्तस्य सख्यतः।।४।। विश्वस्तं सुहृदं काले मुंचता सह मायिना । सख्यस्थापनमश्रेयः श्रेयान् ननु विपर्ययः ।।५।। प्राज्ञैः समं विरोधोऽपि वरं मूढस्य संगते । सादृश्याय यतो नूनं वर्द्धन्ते गुणराशयः ।।६।। स्वार्थिनां चाटुकर्तृणां सौहार्दाद् वैरिणामहः । असह्यापि घृणा साध्वी शतगुण्या मता बुधै. ।।७।। तव पाणीकृते कार्य योऽस्ति बाधाविधायकः । किंचितं प्रति मा ब्रूहि मैत्री मुंच शनैः शनैः ।।८।। । अन्यदेव खलु ब्रूते कुरुते चान्यदेव यः । स्वप्नेऽप्यशुभरूपास्ति तेनामा सख्यकल्पना ।।६।। एकान्त स्तौति यो नित्यं बहिर्निन्वति दुष्टधीः । वृत्तिरेवंविधा यस्य स ह्युपेक्ष्यो विमर्शिना ।।१०।। 82 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो कुचल काव्य र घाटाः ४.३ कपटमैत्री मैत्रीप्रदर्शनं शत्रोः केवलं स्थाणुयोजना । समये त्वापि यत्रासौ ताडयेद्धातुसन्निभम् ।।१।। हृदये यस्य दुर्भावो बाह्ये यश्च सखीयते । कामिन्या इव तच्चित्तं क्षणेनैति विरागताम् ।।२।। वरमस्तु महाज्ञानं विशुद्धिर्वापि मानवे । शत्रोश्चित्ते तथापीह घृणात्यागोऽस्त्यसंभवः ।।३।। बहिर्हष्यति यो मायी द्वेष्टि चान्तर्दुराशयः । भीतो भव ततो धूर्ताद् यदि प्राणानपेक्षसे ।।४।। त्वयामा ह्रदयं येषां विद्यते नैव सर्वथा । विश्वासरतेषु नो कार्यो वदत्स्वपि प्रियं वचः ।।५।। अहो नूनं क्षणेनैव परिपन्थी प्रकाशते । सखेव मधुरालापं कुर्वत्रपि मुहुर्मुहुः ।।६।। प्रव्होऽपि च रिपु व विश्वास्यो दीर्घदर्शिना । धनुषो हि विनम्रत्वमनिष्टस्यैव सूचकम् ॥७।। कृतांजली रुदॆश्चापि प्रत्येतव्यो न वैरकृत् । शस्त्रं संभाव्यते तस्य निगूढं करमध्यके ।।८।। बाह्ये नौति विविक्ते च घृणार्थ हसति ध्रुवम् । बहिः संस्तुत्य तं काले मर्दयेन्मित्रतां गतम् ॥६॥ संथित्सुः खल्वरातिश्वेदशक्तश्च स्वयं बले । सन्धिस्तेन समं कार्यः कृत्वा च भव दूरगः ।।१०।। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ८४ मूर्खता किमिति जिज्ञासो श्रृणु तर्हि वदामि तत् । लाभहेतोः परित्यागो ग्रहणं हानिकारिणाम् ।।१।। अयोग्येऽथ विनिन्द्ये च प्रवृत्तित॑नु॒ कर्मणि । प्रथमा मूढता ज्ञेया तस्याः सर्वासु कोटिषु || २ || भूख विस्मृत्य कर्तव्यमसभ्यं भाषते वचः । धर्मो न रोचते तस्मै ह्रीदयाभ्यां स वर्ज्यते ||३|| शिक्षितोऽपि सुदक्षोऽपि गुरुत्वे सुस्थितोऽपि सन् । लम्पटो योऽक्ष जाताना को मूढस्तादृशी भुवि || ४ || अहो स्वयं समाख्याति पूर्वमेव स्वजीवने । श्वभ्रस्य विवरे तुच्छे स्वस्थानं खलु मूढधीः ।।५।। उच्चकार्यं समादत्ते यो मूढो निजहस्तयोः । स परं नैव तत्राशी बन्दी भवति च स्वयम् || ६ | मूर्खोपार्जितवित्तेन भवन्ति सुखिनः परे । आत्मीयाः किन्तु दुःखार्ताः त्रस्यन्ति क्षुधयातुराः ।।७।। बहुमूल्यं यदा वस्तु दैवादज्ञेन लभ्यते । उन्मत्तसदृशो भूत्वा तदा सोऽयं कुचेष्टते ||८|| मैत्री भवति मूर्खाणां सुप्रिया ननु सर्वदा । यतो विघटने तस्याः सन्तापो नैव जायते ॥६॥ अविदग्धस्तथा नैव शोभते बुधमण्डले । दुग्धोज्ज्वले हि पर्यके यथैव मलिनं पदम् ||१०|| 84 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुबल काय परत परिच्छेदः ४५ अहंकारपूर्णा मूढता दारिद्रयेष्वतिदारिद्रयं बुद्धेरेव विहीनता। निनित्वं क्षयं याति यतो योग्यप्रयत्नतः ।।१।। स्वेच्छया यदि महात्मा दत्ते किंचिदाणयना । .. सौभाग्यं तत्र पात्रस्य हेतुरन्यो न कश्चन ।।२।। मूर्खः स्यदोषसंघातैः स्वयं यादृग विपद्यते । तादृग् विपद्युतो नैव क्रियते क्रूरवैरिभिः ।।३।। सहस्रबुद्धिमात्मानं वेत्ति यो गर्विताशयः । नूनं स एव मूढात्मा बोद्धव्यो विदुषां वरैः ।।४।। अज्ञातविषयज्ञानं दर्शयित्वा हि मन्दधीः । विज्ञातविषयज्ञाने संशीतिं जनयत्यहो ।।५।। मूढानां हि निजागेषु को गुणः पटधारणात् । अस्त्यसंवृतदोषाणां मानसे यदि संस्थितिः ।।६।। भेदं कमपि यः क्षुद्रः स्वस्मिन्नेव न सीमितम् । कर्तुं शक्नोति तन्मूनि वर्तते विपदां चयः ।।७।। नो शृणोति न चावति सुनीति यो दुराग्रही । स हि मूढः स्वबन्धूनां दुःखदोऽस्ति निरन्तरम् ।।८।। प्रबोधनाय मूर्खस्य यतते सोऽपि बालिशः । शुद्धं नावैति मृढोऽन्यं मार्ग ह्यात्मविनिश्चितात् ।।६. अपि लोकमतं वस्तु यो दम्भी नैव मन्यते । स भूतो भूमिसंचारी ज्ञायते सर्वमानवैः ।। १०।। 85): Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tी, कुबन काव्य पर परिचलेदः उद्धतता औन्द्रत्येन परेषान्तु परिहासं करोति यः ।। अनेन दुर्गुणेनैव सोऽस्ति लोके घृणावहः ।।१।। पार्श्ववासी यदि ज्ञात्वा कदाचित् कलहेच्छया । त्वां बाधते तथापीदं वरं त्रासादवैरिता ।।२।। कलहस्य चिराभ्यासो महाव्याधिरहो खले । लभन्ते तेन निर्मुक्ताः प्रतिष्ठामन्तवर्जिताम् ।।३।। ___ भण्डवृत्तिं महागाँ मुंचतः खलु दूरतः । हृदये परमास्लादो जायते वै निसर्गतः ।।४।। विद्वेषभावनां चित्ताद् योहि दूराद् व्यपोहति । मर्वपियः स लोके स्यात् प्रकृत्या चारुतां गतः ।।५।। हृदयं लादते यस्य विद्वेषे प्रतिवासिनः । तस्याधःपतन शीघ्रममन्दंच भविष्यति ।।६।। मात्सर्याद यश्च भूपालो सर्वैः साकं विरुध्यते । कलहे तस्य लिप्तस्य राज्यवृद्धिः कथं भवेत् ।।७।। विग्रहस्य विधेस्त्यागाद् वैभवं वर्द्धते सदा । तस्य संवर्द्धनात् किन्तु व्यद्धिरेवाभिवर्द्धते ।।८।। मविशं जहात्येव नरः पुण्यस्य वैभवात् । अथ पापात् म एवाहो विद्वेष्टी प्रतिवेशिनम् ।।६।। विद्वेषस्य फलं लोके विद्वेषो ह्यस्ति नापरः । भवतः शिष्टवृत्तौ च शान्तिरेवं समन्वयः ।।१०।। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्य ___ परिक्तः ८७ शत्रुपरीक्षा सबलेनारिणा साकं न योद्धव्यं मनीषिणा । अविश्रभ्य क्षणं किन्तु संयुध्याशक्तवैरिणा ।। १।। यस्य निर्दयिनः केऽपि नैव सन्ति सहायकाः । अशक्तश्च स्वयं सोऽयमाक्रामति कथं रिपुम् ।।२।। प्रतिभा धैर्यमौदार्यं यत्र नास्त्रि गुणत्रयी।। प्रत्यन्तराज्यविद्वेषी सुजय्यः स महीपतिः ।।३।। जिह्म यस्य वशे नास्ति कटुर्यश्च निसर्गतः । न्यक्रियते स भूपालो सर्वैः सर्वत्र भूतले ।।४।। अदक्षो योऽस्ति कर्तव्ये स्वमानानभिरक्षकः । राजनीते रसंवेदी स नृपो रिपुमोददः ।।५।। किंकरो यस्तु लिप्सानां चण्डो वा बुद्धिवर्जितः । सपत्नास्तस्य भूपस्य वैरार्थं स्वागतोधताः ।।६।। कार्य प्रारभ्य पश्चाद् यो वैफल्याय विचेष्टते । मूल्यं दत्त्वापि तद्वैरं गृहणीयाद् हितवान्नरः ।।७।। नैकोऽपि सद्गुणो यत्र दोषाणां किन्तु राशयः । तस्य मित्रं न कोऽपि स्यादमित्रानन्दवर्षिणः ।।६।। बालिशैः कातरैः साकं यदि युध्यन्ति शत्रवः । तदा भवति तेषां तु प्रवृद्रो हर्षसागरः ।।६।। पार्श्वस्थ राजभिमूढः सार्थ यो नैव युध्यति । जयाय यत्नहीनश्च म राजा नो प्रतिष्टितः ।।१०।। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =====ी , कुक्ल काव्य ------ परिषदः ८८ शत्रून्प्रति व्यवहारः नन्वेका राक्षसी लोके शत्रुतानामधारिणी । विनोदेऽपि न सा कार्या स्वयमेव विपश्चिता ।।१।। वरं करोतु हे भद्र वैरं वै शस्त्रपाणिना । परं कुर्यान्न ते नामा वाणी यस्यासिसन्निभा ।।२।। उन्मत्तः स हि भूपालो यस्यैको न सहायकृत् । परमायते योद्धुमनेकानपि वैरिणः ।।३।। अमित्रमपि मित्रं यो कर्तुं शक्तोऽस्ति पाटवात् । सुस्थिरा तस्य राज्यश्रीर्जयश्रीश्च करे ध्रुवा ।।४।। असहायः स्वयंचैको विरोधे द्वौ च वैरिणी। एंकेन तर्हि संदध्यादपरं युधि योजयेत् 11५।। संकल्पितोऽपि शत्रुर्वा सखा चैव परागमे । प्रतिवेशी न कर्तव्यो माध्यस्थ्ये हितवृत्तिता ।।६।। अजानतां पुरो नैव भाषणीया विपत्तयः । त्रुटयोऽपि न वक्तव्या रिपूणां पुरतस्तथा 11७।। युक्तिसाधनसम्पन्नः सुव्यवस्थः सुरक्षितः । अहो चेदसि शत्रूणां द्रुतं गर्वो विनडू,क्ष्यति ।।।। छेद्यः कण्टकिनो वृक्षा जाता एव मनीषिणा 1 छेत्तुरेवान्यथा पाणी कुर्वन्ति क्षतविक्षतौ ।।६।। अवज्ञातू रिपोनैव शक्ता ये मानभंचने । ते नूनमधमा लोके न च स्युश्चिरजीविनः ।।१०।। ।। %3 - - - - - - । ० - - "3DDDDDD- Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुबत्व काव्य - परिच्छेदः ४९ महोपी कुंजः पुष्करवर्षी च नूनं चेद् रोगवर्द्धको । अप्रियौ भवतस्तद्वद् बन्धुरप्यहितः परः ।।१।। तस्माद् द्विषो न भेतव्यं योऽस्ति नग्नासिसन्निभः । भेतव्यं हि ततोऽमित्रादेति यो मित्रकैतवात् ।।२।। अप्रमत्तो निजं रक्षेदन्तर्विष्टाद् रिपोः सुधीः । कर्त्यत्यवसरे शत्रुरन्यथा चक्रिसूत्रवत् ।।३।। अहितो यदि ते कश्चिन् मित्रत्वं न्यस्यते । स भेदमुपसंथाय विधास्यति विपद्गृहम् ।।४।। स्वजना यदि संक्रुद्धाः स्वयं विद्रोहभाजिनः । सन्निपाते विपत्तीनां जीवनं तर्हि यास्यति ।।५।। आस्थाने यस्य भूपस्य विद्यते कपटस्थितिः । एकदा सोऽपि तदोषात् तस्या लक्ष्यं भविष्यति ।।६।। ययोभेदस्तयोरैक्यं नैव दृष्टं महीतले । पिधानेनावृतं पात्रं भिन्नमेव स्वरूपतः ।।७।। भेदबुद्धिगुहे येषां भूमिसाद्वै भवन्ति ते । घर्षणीयंत्रसभिन्नलोहस्य कणका यथा ।।८।। पारस्परिकसंघर्षः स्वल्पोऽपि तिलसन्निभः । यत्रास्ति तत्र सर्वस्वनाशो नृत्यति मस्तके ।।६।। विद्विष्टेन समं ब्रूते प्रतिपत्तिं विनैव यः । उटजे फणिना साकं नूनं वासं करोति सः ।।१०।। . -....... Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुषत्व काश्य पर परिच्छेदः ९० महतामवज्ञात्यागः यो वांछति निजं श्रेयः स साथोरपमानतः । आत्मानं सततं रक्षेन् महायत्नेन शुद्धधीः ।।११ यः करिष्यति मूढात्मा न्यक्कारं हि महात्मनाम् । पतन्ति मूनि तच्छक्त्या विपदो वीतसंख्यकाः ।।२।। अनादृत्य हितान् गच्छ सर्वनाशं यदीच्छसि । विरोधी भव तेषांच यच्छक्तिः सर्वनाशिनी ॥३॥ सबल शक्तिसम्पन्नं योऽवजानाति रोषतः । स स्वजीवनगताय मृत्युमास्यते कुधीः ।।४।। बलिनां भूपतीनांच क्रोधं संवर्थयन्नरः । पृथिव्यां क्वापि गत्वापि सुखवान् नैव जायते ।।५।। दहनादपि संरक्षा कदाचित् संभवत्यहो । अरक्ष्याः सर्वथा किन्तु मन्ये साध्ववहेलिनः ।।६।। आत्मशक्तौ महाशूराः क्रुद्धा यदि महर्षयः ।। कुतो हि जीवनानन्दः का सिद्धिश्च समृद्धिषु ।।७11 विशालं दृढमूलंच राज्यं यस्य स भूमिपः । उच्छियते यतेः क्रोधाद् ऋषयो हाद्रिसत्रिभाः ।।८।। ऋषयो व्रतसंशुद्धा यदि स्युर्वन्नदृष्टयः । .. आस्तामन्यत् स सक्रोऽपि स्वपदात् प्रच्युतो भवेत् ॥६॥ . ... आत्मशक्तेः परा देवाः क्रुद्धा यदि महर्षयः । नरस्य कुत्र रक्षास्ति श्रित्वापि बलिनो जनान् ।।१०।।। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुबर काव्य र परिच्छेद: ५५ स्त्रीदासता नासो महत्त्वमाप्नोति यो नारी पादपूजकः । आर्यस्तु कुरुते नैव कार्यमीदृम्विधं मुधा ||१|| अनंगरंगकेली यः प्रसक्तो विषयातुरः । गर्हितः स समृद्धोऽपि स्वयमेव विलज्जते ।।२।। क्लीव एव नरः सोऽयं स्त्रियो यो हि वशंवदः । भद्रेषु लज्जितो भूत्वा नैवोद्ग्रीवः प्रयाति सः ।।३।। अहो तस्मिन् महाखेदः स्त्रियो यो हि विकम्पते । अभव्यः स च निर्भाग्य: संभाव्या नैव तद्गुणाः ।।४।। स्त्रियो विभ्रमवाणाया यो बिभेति हि कामुकः । सद्गुरूणां स सेवार्य भजते नापि साहसम् ।।५।। प्रियाया मृदुबाहुभ्यां ये बिभ्यति हि कामुकाः । लब्धवर्णा न ते सन्ति भूत्वापि सुरसन्निभाः ।।६।। प्रभुत्वं चोलराज्यस्य येन स्वस्मिनुपासितम् । कन्यायां हीविशिष्टायां ततोऽस्त्यथिकगौरवम् ।।७।। एषां सर्वत्रकान्तायाः प्रमाणां वाक्यमेव ते । मित्राणामिष्टसिद्ध्यर्थं न शक्ता वा सुकर्मणे ।।८।। नो लभन्ते धनं धर्म कामिनीराज्यशासिताः । प्रेमामृतरसस्वादे नापि ते भाग्यशालिनः ।।६।। उच्चकार्येषु संलग्नाः सौभाग्येनाभिवर्द्धिताः । ते दुर्बुद्धिं न कुर्वन्ति विषयासक्तिनामिकाम् ।।१०।। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ता, कुभल्प काव्य परिच्छेदः १२ . वेश्या धनाय नानुरागाय नरेभ्यः स्पृहयन्ति याः । तासां मृषाप्रियालापाः केवलं दुःखहेतवः ।।१।। वदन्ति मधुरा वाचः परं ध्यानं धनागमे । वण्यस्त्रीणां मनोभावं ज्ञात्वैवं भव दूरगः ।।२।। कपटप्रणयं धूर्ता दर्शयन्ती मुहुर्मुहुः । विलासिनी महावित्तमालिंगत्युरसा विटम् ॥ ___ परं तस्य समायलेषस्तथा तम्मा लगानि म: । कुविष्टिवै यथाऽज्ञातं स्पृशेत् संतमसे शवम् ।।३।।(युग्म विशुद्धकार्यसंलग्नाः सव्रताः पुरुषोत्तमाः । कलंकितं न कुर्वन्ति निजांगं वारयोषिता ।।४।। येषामगाधपाण्डित्यं बुद्धिश्चापि सुनिर्मला । रूपाजीवांगसंस्पर्शान मलिना न भवन्ति ते ।।५।। न गृह्णन्ति करं तस्या जना स्वहितकारिणः । विक्रीणाति निजं रूपं स्वैरिणी यातिचंचला ॥६11 अन्वेषयन्ति तां भुक्तामज्ञा एव पृथग् जनाः । देहेन स्वजते किन्तु रमतेऽन्यत्र तन्मनः ।।७।। येषां विमर्शशून्याधीमन्यन्ते ते हि लम्पटाः । स्वर्वध्वा इव वेश्यायाः परिष्वंग सुधामयम् ।।६।। गणिका कृतशृंगारा नूनं निरयसत्रिभा । तत्प्रणालश्च तबाहुर्यत्र मज्जन्ति कामिनः ।।६।। दुरोदरं सुरापानं बहुसक्ता नितम्बिनी । भाग्यं येषां विपर्यस्तं तेषामानन्दहेतवः ॥१०।। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुलर काव्य । परिच्छेद 3 सुरापानत्यागः मद्यपाने रतिर्यस्य नास्ति तस्माद् रिपोर्भयम् । अर्जितं गौरवं तस्य तत एव विनश्यति ।।१।। सुरापानं न कर्तव्यं केनापि हितमिच्छता । पिपासा यदि केषांचित् कर्तव्यं चेदनार्यता ।।२।। प्रमत्तवदनं वीक्ष: पासव जुगनमः । का कथा तर्हि भद्राणां दृष्टवा तम्य मुखाकृतिम् ।।३।। सुरापानकदभ्यासो यस्य पुंसः कुसंगतः । पराड्.मुखी ततो याति सुलज्जा मत्तकाशिनी ।।४।। अतिलोकमिदं मौयं सौभाग्यध्वंसकारणम् । मूल्यं दत्त्वा यदादत्ते संमोहस्मृतिशून्यते ।।५।। . ... विषं पिवन्ति ते नित्यं मदिरापरनामकम् । महानिद्राभिभूतास्ते सन्त्येव मृतसन्निभाः ।।६।। सुगृढापि सुरापीता जनयत्येव विधमान् । तेभ्योऽधिगम्य शौण्डत्वं ग्लायन्ति पार्श्ववर्तिनः ।।७।। हालापलापं मा कुर्या मद्यपानरतोऽपि सन् । एवं कृते यतोऽलीकपापमन्यच्च योज्यते ।।८।। प्रमत्तस्य हिताख्यानं केवलं कालयापनम् । उल्कालोको यथा मोघो जलमग्नगवेषणे ॥६॥ मत्तस्य कुगतिं शौण्डः संपश्यति मदात्यये । जातां तामेव स्वस्यापि कथं नानुमिनोति हा ।।१०।। 93 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिच्छेदः १४ द्यूतम् जये सत्यपि मा दीव्येद् द्यूतं बुद्धिविभूषितः । यतो जयोऽपि नाशाय मत्स्यार्थं वडिशो यथा 11911 शतं यत्र पराजित्य जयत्येकन्तु जातुचित् । स्यात्समृद्धः कथं तत्र द्यूतकारो दुरोदरे ।।२॥ प्रायो दीव्यति पाशैस्तु यः संस्थाप्य ग्लहे पणम् । अज्ञातजनहस्तेषु वैभवं तस्य गच्छति ।।३।। द्यूतं यथा तथा नान्यः करोति मनुजं खलम् । कुकीर्तिर्जायते यस्मात् प्रेर्यते चाशुभे मनः ।।४।। सन्त्यनेके पटुम्मन्या मत्ताः पाशककर्माण । परमेको न तत्रास्ति यो नैवानुशयं गतः ।।५।। दारिद्र्येणान्थता नीतो द्यूतव्यसनकैतवात् । अनुबोभूय दुःखानि म्रियते क्षुधयातुरः ।।६।। यस्य कालो लयं याति प्रायशो द्यूतसमनि । पैतृकैर्विभवैः साके कीर्तिस्तस्य विलुप्यते ।।७।। द्यूतान् नश्यन्ति वित्तानि प्रामाण्यंच विलीयते । कठोरं जायते चित्तं द्यूतं दुःखानुबन्धनम् ।।८।। द्यूतासक्तं विमुंचन्ति कीर्तिवैदुष्यसम्पदः । । नेदमेव व्यथायुक्तो भिक्षतेऽन्नं पटेच सः ।।६।। पराजयादहो यूते रतिर्नूनं विवर्द्धते । यावज्जीवं दहेत तृष्णा दुःखातंच पराजितम् ।।१०।। । 94 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः १५ औषधम् वातपित्तकफाः काये गुणाः प्रोक्ता महर्षिभिः । न्यूनाधिका यदा सन्ति तदा ते रोगकारकाः ||१|| भुक्ताने जीर्णतां याते यदि भुंजीत मानवः । आवश्यकं कथं तस्य भवेद् भैषज्यसेवनम् ||२|| शान्त्या सदैव भोक्तव्यं भुक्त्वा च परिपाचयेत् । पाकान्ते च पुनर्भुक्तिः प्रक्रमश्चिरजीविनः ||३|| भुक्तं यावत्र जीर्ण चेतु तावद् विरम भोजनात् । परिपाके पुनर्जाते भोक्तव्यं सात्म्यमात्मनः || ४ || पथ्यान् रुचिकरान् वृष्यान् यो भुड्. क्ते मोदसंभृतः । दुष्टा देहव्यथा तस्य कदाचिन्नैव जायते ||५|| यथा मृगयते स्वास्थ्यं रिक्तोदरसुभोजिनम् । तथा मार्गयते व्याधिर्मात्राधिक्येन खादकम् || ६ || जठराग्निमनादृत्य यो भुङ्क्ते रसलोलुपः । असंख्यैर्विविधै रोगैर्ग्रस्यते स सदा कुधीः ॥ ७ ॥ ॥ रोगो विचार्यतां पूर्वमुत्पत्तिं तदनन्तरम् । निदानंच समीक्ष्ययैव पश्चात् कुर्यात् प्रतिक्रियाम् ॥८॥ को रोगः कीदृशो रोगी कः कालो वर्ततेऽधुना । इति सर्वं समीक्ष्यैव विदध्याद् भेषजं भिषक् ।।६।। भिषग् भैषज्यविक्रेता भेषजं रोगपीडितः । चत्वारः सन्ति साफल्ये चिकित्सायाः सुहेतवः ॥ १०॥ । 95 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । कुरत कालमा : परित्लेट: १६ कुलीनता निसर्गादभिजातानां भवतो द्वौ हि सद्गुणौ । हृद्या लज्जास्ति तत्रैको द्वितीयश्च यथार्थता ।।१।। सदाचारात् सुलज्जायाः सत्यस्नेहाच्च सर्वदा । नैवस्खलन्ति सदश्याः ख्यातमेवेति भूतले ।।२।। कुलीनो हि भवत्येव चतुर्भिः सद्गुणैर्युतः । हृष्टास्यो मधुरालापी गर्वशून्य उदारधीः ।।३।। कोटिसंख्यकमुद्राणां लाभोऽपि किल चेदरम् । तथापि नो निजं नाम दूषयन्ति सुवंशजाः ।।४।। पुरातनमहावंशजातान् पश्यन्तु भो जनाः । न त्यजन्ति गतैश्वर्या अपि ये स्वामुदारताम् ।।५।। प्रतिष्टितं कुलाचार रक्षितुं ये समुद्यताः । ते कुकृत्यं न कुर्वन्ति भवन्ति न च मायिनः ।।६।। शुद्धान्वये प्रसूतस्य दोषः सर्वैः समीक्ष्यते ।। चन्द्रबिम्बे यथा लग्नः कलंक: कैर्न दृश्यते ।।७।। विशुद्धकुलजातोऽपि भाषते गहितं यदि । आशंका तर्हि कुर्वन्ति लोकास्तजननेऽपि च ।।६।। || आख्याति भूमिमाहात्म्यं यथा वृधः फलश्रिया । वाणी वक्ति तथा लोके मनुष्यस्य कुलस्थितिम् ।।६।। सलज्जो भव चेदिच्छा साधुत्वे सद्गुणेषु च । औचित्येन समं ब्रूहि चेदिच्छा वंशगौरवे ॥१०।। (96 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , कुपस्प काञ्च - परिच्छेदः ९७ प्रतिष्ठा आत्मनः पतनं यस्मात् तस्माद् भवतु दूरगः । अपि चेन्याणरक्षागै तम्यानमारकी स्थितिः ।। कामयन्ते निजां कीर्ति जीवनोपरमेऽपि ये । अपि प्रभाववृद्ध्यर्थमयोग्यं कुर्वते न ते ।।२।। समृद्धौ कुरु हे भव्य विनयश्रीसुवर्षणम् । क्षीणस्थितौ तु सम्माने दृष्टिमान् भव सर्वदा ।।३।। कुकृत्यैर्दूषिता येन स्वप्रतिष्ठा महीतले । स मनुष्यस्तथा भाति कर्तिता अलका यथा ।।४।। गुंजातुल्यमपि स्वल्पं कुर्याच्चेत् किल्विषं नरः । क्षुद्रो भवति भूत्वापि प्रभावे गिरिसन्निभः ।।५।। न यशो वर्द्धते यस्मान् नापि स्वर्गश्च लभ्यते । घृणाकर्तुः कथं तस्य भवत्या जीवितुमिच्छसि ।।६।। । घृणाकर्तुः पदर्शादिदमेव वरं ध्रुवम् । यद्भाग्ये लिखितं भोक्तुं सज्जः स्यान् निर्विकल्पकः 1७।। अनर्घ वस्तु किं कायो यन्मोहान् मोहिता जनाः । रक्षन्ति तं महायत्नैर्विक्रीयापि स्वगौरवम् ।।८।। आत्मानं हन्ति केशेषु कान्तारे चमरी यथा ।। स्वाभिमानी तथा हन्ति मानार्थ स्वस्य जीवितम् ।।६।। हते माने पुनर्लोके यो न जीवितुमिच्छति । लोकास्तस्य यशोवेदी क्षिपन्ति कुसुमांजलिम् ।।१०।। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- कुबल काव्य परपरिच्छेदः १४ महत्त्वम् उच्चकार्यचिकीर्षेव महत्त्वं परिभाष्यते । विना तेन भवत्येषा क्षुमान प्रधारिणी ।।१।। जन्मना सदृशाः सर्वे मानवाः सन्ति भूतले । कीर्ती किन्तु महान् भेदस्तेषां कार्यप्रभेदतः ।।२।। कुलीनोऽपि कदाचारात् कुलीनी नैव जायते । निम्नजोऽपि सदाचारान् न निम्नः प्रतिभासते ।।३।। निर्व्याजया बहिर्वृत्या विशुद्ध्या चात्मनः सदा । महत्त्वं रक्ष्यते पुसा यथाशीलं कुलस्त्रिया ।।४।। साधनानां प्रयोक्तारो मल्लान्तो हि निसर्गतः । भवन्त्यशक्यकार्याणां स्रष्टारोऽपि स्वकौशलात् 11५।। लधूनां स्वल्पबुद्धीनां सर्ग एव तथाविधः । यत् प्रतिष्ठा न फूज्यानां न चेच्छा तत्कृपाप्तये ।।६।। सम्पत्तिः प्राप्यते काचिद् यदि क्षुट्रैः सुदैवतः । मानप्रदर्शनं तेषां निस्सीम जायते ततः ।।७।। नीचैर्वृत्तिर्महतायां परं नैव प्रदर्शनम् । भवतीति सुविख्यातं क्षुद्रता विश्वघोषिका ।।८।। महतां लघुभिः सार्धं व्यवहारो दयान्वितः । स्निग्धश्च जायते किन्तु क्षुद्रो मूर्त इव स्मयः ।।६11 उदात्ताः परदोषाणां निसर्गादुपगृहकाः ।। अनुदात्ताश्च विद्यन्ते परच्छिद्रगवेषकाः ।।१०।। 98 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गी, कुचल काव्य र परिच्छेदः १ योग्यता कार्यस्वरूपमालोच्य योग्यतायै समाहिताः । कर्तव्यमेव तत्सर्वं मन्यन्ते यद्गुणास्पदम् ।।१।। सद्वृत्तमेव भद्राणां सौन्दर्य सुमनोहरम् । देहरूपं परं तत्र नास्ति वैचित्र्यकारणम् ।।२।। दाक्षिण्यं विश्वबन्धुत्वं लज्जा सूनृतगृह्यता । गोपनंचान्यदोषाणां सद्वृत्तस्तम्भपंचकम् ।।३।। महर्षीणां यथा धर्मः सर्वसत्वानुकम्पनम् । भद्राणांच तथा धर्मो दोषस्यानपकीर्तनम् ।।४।। लघुता नम्रता चापि बलिनामेव सबले । जयार्थं ते हि शत्रूणां सतां सत्राहसत्रिभे ।।५।। लघूनामपि योग्यानामादरो गुणरागतः । जायते यत्र शाणोऽसौ योग्यतायाः प्रकीर्तितः ।।६।। कोऽर्थस्तस्य महत्त्वेन योग्यस्यापि महामतेः । खलैरपि समं यस्य सद्वृत्तिर्नेव दृश्यते ।।७।। निर्धनत्वं महादोषो गुणराशिविनाशकः । किन्त्वाचारवतः सोऽपि नालं गौरवहानये ।।८।। विपदा सन्निपातेऽपि सन्मार्गान्न स्खलन्ति ये । प्रलयान्तेऽपि ते सन्ति सीमान्ता योग्यताम्बुधेः ।।६।। विहाय भद्रतां भद्रा अभद्रा इन्त चेदहो । मानवानां क्षितिर्भारं वोढुं मैवाक्षमिष्यत ।।१०।। 99 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः 900 सभ्यता निर्व्याजचेतसा नित्यं स्वागताय समुद्यताः । अपूर्वेषु प्रियालापा भवन्ति प्रियदर्शनाः 11911 ज्ञानमूना: सुसंस्कारा हृदये च दयालुता । चेद् गुणद्वयसम्बन्धाद् हर्षबुद्धिः प्रजायते ||२|| आकृती सति साम्येऽपि न साम्यं मन्यते बुधः । आचारैश्च विचारैश्च साम्यं वै हर्षदायकम् 11३॥ सन्नीत्या धर्मबुद्धया च लोकानुपकरोति यः । स्तुवन्ति सुजनास्तस्य प्रकृतिं पुण्यरूपिणीम् ।। ४ । । उक्त हास्येऽपि दुर्वाक्यं जनानामस्त्यरुन्तुदम् । दुर्व्याहृतं न कर्तव्यं भद्वैस्तस्माद् रिपावपि ||५|| सार्वाः सद्गुणसम्पन्ना आर्याः सन्ति महीतले । दयादाक्षिण्यसम्पूर्ण तेनेदं वर्तते जगत् ||६|| आचारात्पतितो नैव शिक्षितोऽपि शुभावहः । सुव्रश्चनो यथा नैव रणे दण्डाद् वृहत्तरः ||७|| अनम्रता नरस्यायैः सदा सर्वत्र गर्हिता । अन्यायिनि विपक्षे वा प्रयुक्ताऽपि न शोभते ॥ ८ ॥ स्मितं न जायते यस्य विस्तृते धरणीतले ।' तस्याभाग्यवतो नूनं दिनेऽपि निविद्धं तमः ||६|| कुपात्रे निहितं क्षीरं यथैवास्ति निरर्थकम् । वैफल्यं हि तथा याति वित्तं दुर्जनसनि 119011 100 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुबल काव्य : परिच्छेन्दः 909 निरूपयोगिधनम् निजगेहे कृतो येन विपुलस्त्वर्थसंग्रहः । व्यये किन्तु कदयोऽस्ति ततो मृतवदेव सः ।।१।। धनमेव परं वस्तु वर्तते वसुधातले । इत्यर्थाय मतो गृघ्न राक्षसोऽमुत्र जायते ।।२।। वित्तार्थन्तु महोत्साह: कीत्यै किन्तु निरादरः । येषां ते सन्ति निस्सारा भुवो भाराय केवलाः ॥३॥ स्वस्मिन् नैवार्जिता येन सुप्रीतिः प्रतिवेशिनाम् । आशा कास्ति पुनस्तस्य प्राणान्ते यां समुत्सृजेत् ।।४।। न दत्ते नापि भुड्.क्ते यो लोभोपहतमानसः । जातु चेत् कोट्यधीशोऽपि वस्तुतः सोऽस्ति निर्धनः ।।५।। परस्मै ददते नैब भुंजते नापि ये स्वयम् । ते सन्ति कृपणा लोके स्वलक्ष्म्या रोगरूपिणः ।।६।। देशे काले च पात्रे च यद्वित्तं नैव दीयते । मोघं तदपि सुन्दर्या वनस्थायाः सुरूपवत् ।।७।। सन्तो यया न सुप्रीताः सा लक्ष्मीननु तादृशी । ग्राममध्ये यथा जातः फलितो विषपादपः ।।८।। धर्माधर्मावनादृत्य बुभुक्षांच विषय यः । संचीयते निधिर्नित्यं परेषां स हितावहः ।।६।। आपन्नातिविनाशेन वदान्यस्य दरिद्रता । जाता जातु न नित्या सा मेघस्येव सुवर्षणात् ।।१०।। . . . -- 101 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी कुल काव्य परपरिच्छेदः १०२ लज्जाशीलता भद्रो जिहेति लोकेऽस्मिन् प्रमादादेव सर्वदा । सुन्दरीणामतो भिन्ना लज्जा भवति सर्वथा ।।१।। इयं लज्जैव मत्येषु वर्तते भेदकारिणी । अन्यथा सदृशाः सर्वे वस्त्रसन्तानमुक्तिभिः ।।२।। वसन्ति सर्वदेहेऽस्मिन् प्राणा यद्यपि देहिनाम् ।। नरस्य योग्यता किन्तु लज्जामावसति ध्रुवम् ।।३।। हृदये गुणिता लज्जा रत्नतुल्यो महानिधिः । उत्सेको गतलज्जस्य चक्षुषोः कष्टकारकः ।।४।। मानभंग परस्यापि वीक्ष्य स्वस्येव ये जनाः । त्रपन्ते ते महात्मानः शीलसंकोचमूर्तयः ।।५॥ निन्दितैः साधनैपि राज्यं गृह्णन्ति साधवः । उपेक्षां तेन तन्वन्ति कीर्तिकान्तानुरागिणः ।।६।। लज्जात्राणाय मुंचन्ति निजांगं भद्रवृत्तयः ।। न त्यजन्ति हियं वा ते प्राप्तेऽपि प्राणसंकटे ।।७।। परो हि त्रपते यस्मात् ततो यो नैव लज्जते । पतितः स नरो नूनं ततो जिवेत भद्रता ।।८।। विस्मृताश्चेत् कुलाचाराः कुलभ्रष्टोऽभिजायते । लज्जायां किन्तु नष्टायां सर्वे नश्यन्ति सद्गुणाः ।।६।। लज्जावारि मनुष्यस्य चक्षु किल चेच्च्युतम् । जीवनं मरणं तस्य काष्ठपुत्तलसन्निभम् ॥१०॥ (102)----- - Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुबल काव्य परिच्छेदः 903 कुलोन्नतिः अहर्निशं श्रमिष्यामि विना श्रान्तिं करद्वयात् नरस्यायं हि संकल्पः कुलोत्कर्षैककारणम् ||१|| योगक्षेमपरा बुद्धिः श्रमश्च पौरुषान्वितः । इमे तो वंशवृद्ध्यर्थं समर्थे द्वे हि कारणे ||२|| कुलोन्नतिं यदा कर्तुं नरो भवति सज्जितः । कटिवद्धाः सुरा यान्ति तदग्रे स्वयमव्यथाः ||३|| येन मुक्त न चेत्किंचित् कुलोत्कर्षचिकीर्षया । स्वल्पमप्यस्तु तत्कार्य सिद्धये किन्तु निश्चितम् ||४|| अनघैश्चरितैर्नित्यं यः करोति कुलोन्नतिम् । स उदात्तः सदा मान्यस्तन्मित्रं क्षितिमण्डलम् ।।५।। स वंशो गुरुतां नीतः श्रियि ज्ञाने बले च वा । यत्र जन्म मनुष्यस्य पौरुषं तस्य पौरुषम् ।। ६ ।। वीरमेव यथा युद्धे प्रहरन्त्यरयो भृशम् । शक्त स्कन्धौ तथा लोके कुलभारो ऽभिगच्छति ॥ ७ ॥ कुलोन्नति चिकीर्षोस्तु सर्वे काला हितावहाः । प्रत्यनीके प्रमादेन कुलपातो विनिश्चितः || ८ || कुटुम्बरक्षिणां कायं वीक्ष्यैवं थीः प्रजायते । श्रमार्थमथ दुःखार्थं किमसौ विधिना कृतः ||६|| यस्य नास्ति कुटुम्बस्य पालकः सत्प्रबन्धकः । तन्मूले विपदां घातात् पतनं तस्य जायते ||१०|| 103 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुकरम काव्य - परिच्छेदः १०४ कृषिः नरो गच्छतु कुत्रापि सर्वत्रान्नमपेक्षते । उत्सितिल ऋोतरमादा मुभिधेऽणि हिताय सा ।।१।। कृषिवला धुरा तुल्या देशरूपस्य चक्रिणः । अकृषाणा यतः सन्ति नूनं तदुपजीविनः ।।२।। ये जीवन्ति कृषि कृत्वा ते नराः सत्यजीविनः । परपिण्डादिनः किन्तु सर्वेऽन्ये सन्ति मानवाः ।। ३11 स्निग्धच्छायासु सस्यानो क्षेत्राणि यस्य शेरते । तद्देशीयनृपच्छत्रादधः स्युश्छत्रिणः परे ॥४॥ अभिक्षुकाः परं नैव दानिनोऽप्यनिषेधकाः । ते सन्ति ये कृषि नित्यं कुर्वते साधुमानवाः ।।५।। कृषीवलाः कृषेः कार्याद विरताश्चेत् कथंचन । सन्यासिनोऽपि ये जातास्तेऽपि स्युर्वज्पीडिता: ।।६।। जलार्दा खलु चेन्मृत्स्ना शोषयेत् तां रवे: करैः । तुर्याशस्यावशेषे सा निःखाद्यापि बहूर्वरा ।।७।। कर्षणात् खाद्यदानेषु निन्यदानादनन्तरम् । अम्बुसेकाच्च रक्षायां भवन्ति बहवो गुणाः ।।८। यः पश्यति कृषि नैव गृहे नित्यमवस्थितः । सुभार्येव कृषिस्तस्मै कुप्यति क्षीणदेहिका ।।६।। भक्षणाय न मे किंचिदस्तीति वचनं भृशम् । वदन्तं क्रन्दमानंच हसत्युवीरमालसम् ।। १०।। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - -- - - , कुपल काव्य परपरिचन्दः १५ दरिद्रता दारिद्र्यादधिकं लोके वर्तते किन्नु दुःखदम् । इति पृच्छास्ति चेतर्हि श्रृणु सैवास्ति निःस्वता ।।१।। हतदैवं हि दारिद्र्यमस्त्येवेहाति दुःखदम् । पारलौकिकभीगानामप्यास्ते किन्तु घातकम् ।।२।। तृष्णानुबन्धिदारिद्र्यं सत्यं गातिगर्हितम् । वंशस्य गुरुतां हन्ति वाचो यच्च मनोजताम् ।।३।। हीनस्थितिमनुष्यग्य महती कष्टदायिनी । हीना इव प्रभापन्ने सुवंश्या अपि यद्वशात् ।।४।। अभिशापोऽस्ति देवस्य दारिद्र्यापरनामकः । निलीनाः सन्ति यस्याधो विपदो हि सहनश: ।।५।। रिक्तस्य न हि जागर्ति कीर्तनीयोऽखिलो गुणः । अलमन्यैर्न लोकेभ्यो रोचते तत्सुभाषितम् ।।६।। आदौ रिक्तः पुनर्धर्माद्धीनो यस्तु पुमानहो । पौरुषं तस्य संवीक्ष्य तन्मातैव जुगुप्सते ।।७।। किन्न मुंचसि दुःखात मामद्यापि दरिद्रते। ह्य एव हि महादुष्टे कृतः सामिमृतस्त्वया ॥८।। तप्तशूलेषु सुष्वापः कदाचित् सम्भवत्यहो । आकिंचन्ये च मर्त्यस्य सुखनिद्रा न संभवा ।।६।। उत्सृजन्ति निजप्राणान् यदि नो निर्धना न तीन्येषां वृथा याति भक्तं पानंच सैन्धवम् ।। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुल्ल काव्य घर--- रिक्तः 90 याचना याचतां तान् महाभागान् सन्ति ये साधनान्विताः । अदानाय यदि व्याजं कुर्वते ते हि दोषिणः ।।१।। अपमानं विना भिक्षा प्राप्यते या सुदैवतः । प्राप्तिकाले तु संप्राप्ता सा भिक्षा हर्षदायिनी ।।२।। || कर्तव्यं ये सुबुध्यन्ति व्याजाच्च न निषेधकाः । याचना तेषु सश्लाघा भण्यते व्यावहारिकैः ।।३।। स्वप्नकालेऽपि यत्पार्वे यांचा मोघा न जायते । स्वदानमिव तद् यांचा वर्तत मानवानी ।।४।। दानशूरा जना नूनं बहवः सन्ति भूतले ।। तत एव जनाः केचित् सन्ति भिक्षोपजीविनः ।।५।। अदानाय न ये क्षुद्रकृपणाः सन्ति सज्जनाः । तेषां दर्शनमात्रेण दारिद्रयं याति संक्षयम् ।।६।। ददते ये दयाप्राणा विनैव क्रोधभर्सने । अर्थिनस्तान् विलोक्यैव मोदन्ते स्नेहवीक्षिताः ।।७11 याचका यदि नैव स्युर्दानधर्मप्रवर्तकाः । काष्ठपुत्तलनृत्यं स्यात् तदा संसारजालकम् ।।८।। भिक्षुका यदि नैव स्युरहो अस्मिन्महीतले । अवर्तिष्यत् कथं तर्हि कुत्रौदार्यस्य वैभवम् ।।६।। असामर्थ्य यदि ब्रूते दाता दानस्य कर्मणि । अर्थी नैव ततः क्रुध्येत् स्पष्टा चेत् सदृशी स्थितिः।१०। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तु, कुवर काय परिच्छेदः 900 भिक्षाभीतिः अभिक्षुको वरीवति भिक्षोः कोटिगुणोदयः । याचनास्तु वदान्ये वा निजादधिगुणे च वै ।।१।। भिक्षया जीवनं कुर्यान् नरो यस्यैष निश्चयः ।। सृष्टेः स च विधातापि बम्भ्रमीतु भवे भवे ।।२।। निर्लज्जेष्वपि निर्लज्जः सोऽस्ति कापुरुषः परः । यो ब्रूते भिक्षया नूनं नाशयिष्ये स्वनिःस्वताम् ।।३।। न याचते परात् किंचिद् यो नरो निर्धनोऽपि सन् । महीं तस्य कृते स्वल्पा धन्यं तस्यात्मगौरवम् ।।४।। यद्भोजनं स्वपाणिभ्यामय॑ते श्रमपूर्वकम् । जलवच्चेद् द्रवीभूतं स्वादीयः किन्तु भक्षणे ।।५।। एकोऽपि याचना शब्दो जिह्यया निकृतिः परा ।। वरमस्तु स शब्दोऽपि पानीयार्थं हि गोः कृते ।।६।। एक हि याचकान् याचे मा याचध्वं कदाशयान् । अद्यश्वो ये तु कुर्वन्ति साधयन्ति न चेप्सितम् ।।७।। याचनाश दपोतस्यादातुवै कालयापनम् । शिलासंघातसंकाशं जायते भंगकारणम् ।।८।। भाग्यं याचनवृत्तीनां समीक्ष्यात्मा विकम्पते । वीक्ष्यावज्ञा पुनस्तेषां म्रियते ध्रुवमेव सः ११६।। निलीनाः कुत्र तिष्ठन्ति प्राणास्तम्य निषेधिनः । धिक्कारं किन्तु श्रुत्वैव ते निर्यान्यर्थिनस्तनोः ।।१०।। ....-----(107)---- Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जा. कुलस्य काव्य परिच्छेदः 906 क्षष्टजीवनम् सन्तीमे पतिता भ्रष्टाः कीदृशो मनुजैः समाः । अहो एवंविधं साम्यं मया नान्यत्र वीक्षितम् ।।१।। अनार्या अधिका आर्याज्जायन्ते सुखिनो ध्रुवम् । यतो न मानसैर्दुःखैरभिभूता भवन्ति ते ।।२।। आभासन्ते किल भ्रष्टाः प्रत्यक्षेश्वरसन्निभाः ।। यतः स्वशासिता नित्य ते भवन्ति महीतले ॥३॥ अतिदुष्टो यदा स्वस्मान् न्यूनं पश्यति दुर्जनम् । वर्ण्यते तत्पुरस्तेन गर्वोक्त्या स्वाधसंहतिः ।।४।। दुष्टा नरा भयेनैव कयाचित् तृष्णयाऽथवा । श्रेयोमार्गे प्रवर्तन्ते निसर्गात्तु कुमार्गिणः ।।५।। पुरढक्कासमाः सन्ति नीचाः खलु निसर्गतः ।। कर्णजाहं गतं भेदं यान्त्युद्धोष्यैव निर्वृतिम् ।।६।। तेषामेव वशे नीचा मुखे ये मुष्टिघातकाः । अन्यथोच्छिष्टपाणेश्च प्रक्षेपाय निषेधकाः ।।७।। एकमेव हि सद्वाक्यमलं योग्याय वर्तते । विसृजन्ति तथा क्षुद्रा यथा पुण्ड्रा निपीलिताः ॥८।। | यदैव सुखिनं दुष्टः पश्यति प्रतिवेशिनम् । तदैव तेन तन्मूनि दोषः कोऽप्यवतार्यते ।।६।। क्षुद्रो हि मानवो जातु विपदा परिभ्यते । शीघ्रमेव स मोक्षार्थ विक्रीणीते स्वजीवनम् ।।१०।। =108)-= 108 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (कुरल-काव्य हिर्न (गद्य-पद्यानुवाद गद्य-प Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुभाष काव्य परिच्छेदः १ ईश्वर-स्तुति शब्द लोक की आदि में, ज्यों 'अ' वर्ण आख्यात । आदीश्वर सबसे प्रथम, पुण्यपुरुष त्यों ख्यात ॥१॥ जो अर्चे सर्वज्ञ के, कभी न तूने पाद । तो मेरा पाण्डित्य भी, व्यर्थ रहा बकवाद 11२।। शरण लिये जिसने यहाँ, उस विभु के पदफ्छ । कनक कमलगामी वही, नारे उसे हुशसा ।।३।। वीतराग पदफ्न का, जो रागी दिनरात । वह बड़भागी धन्य है, उसे न दुःखाघात ।।४।। गाते हैं उत्साह से, जो प्रभु के गुण वृन्द । वे नर भोगें क्या कभी, कर्मों के दुखद्वन्द 11५।। स्वयं जयी उस ईश ने, कथन किया जो धर्म 1 दीर्घवयी होंगे उसे, समझ करें जो कर्म ।।६।। भवसागर गहरा बड़ा, जिसमें दुःख अनेक । इनसे वह ही बच सके, शरण जिसे प्रभु एक ॥७॥ धर्मसिन्धु मुनिराज के, चरणों में जो लीन । योवन धन के ज्वार में, तिरता वही प्रवीण ।।८।। क्रियाहीन इन्द्रिय सदृश, भू में वे निस्सार । अष्टगुणी प्रभु के चरण, जो न भजें विधिवार ।।६।। जन्ममृत्यु के जलधि को, करते ही हः ।। शरण जिन्हें प्रभु के चरण, तारण को 'प'र .।". 110 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त कुशल काव्य पर परिच्छेदः १ ईश्वर-स्तुति 1-अ जिस प्रकार शब्द-लोक का आदि वर्ण है, ठीक उसी प्रकार अदि भगवान पुराण-पुरुषों में आदिपुरुष हैं । 2-यदि तम सर्वज्ञ परमेश्वर के श्रीचरणों की पूजा नहीं करते हो तो तुम्हारी सारी विद्वत्ता किस काम की ? 3-जो मनुष्य उस कमलगामी परमेश्वर के पवित्र चरणों की शरण लेता है. वह जगतमें दीर्घ जीवी होकर सुख-समृद्धि के साथ रहेगा । ___4-धन्य है वह मनुष्य, जो आदिपुरुष के पादारविन्द में स्त रहता है। जो न किसी से राग करता है और न घृणा, उसे कभी कोई र नहीं होता। 5-देखो. जो मनुष्य प्रभु के गुणों का उत्साहपूर्वक गान करते हैं. उन्हें अपने भले-बुरे कर्मों का दुःखद फल नहीं भोगना पड़ता है । 6-जो लोग उस परम जितेन्द्रिय पुरुष के दिखाये धर्ममार्ग का अनुसरण करते हैं, चिरजीवी अर्थात अजर अमर बनेंगे ।' - 7–केवल वे ही लोग दुःखों से बच सकते हैं, जो उस अद्वितीय पुरुष की शरण में आते हैं । 8- धन वैभव और इन्द्रिय-सुख के तूफानी समुद्र को वे ही पार कर सकते हैं, जो उस धर्मसिन्धु मुनीश्वर के चरणों में लीन रहते हैं । g-जो मनुष्य अष्ट गुणों से मण्डित परब्रह्म के आगे शिर नहीं झुकाता. वह उस इन्द्रिय के समान है, जिसमें अपने गुणों को ग्रहण करने की शक्ति नहीं है । ___10--जन्ममरण के समुद्र को वे ही पार कर सकते हैं, जो प्रभु के चरणों की शरण में आ जाते हैं । दूसरे लोग उसे तर ही नहीं सकते। 111 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूरल काव्य परिच्छेदः २ मेघमहिमा यथासमय की वृष्टि से, धरणी धरती प्राण । विबुधवृन्द कहते अतः, वारिद सुधासमान |1911 सबही मीठे खाद्य का, मूल जलद विख्यात । यह ही क्यों, जल आप भी, भक्ष्य मधुर विज्ञात ||२|| मेघदेव वर्षे विना होता है दुष्काल । चार जलधि से है घिरी, तो भी भू बेहाल ||३|| यदि स्वर्गों के स्रोत ये, सूख जांय विधिशाप । विपदा छाये विश्व में, कृषक तजें कृषि आप ||४ || अतिवर्षा के जोर से लोग हये जो दीन । वे ही वर्षायोग से, फिर होते सुखलीन ||५|| नभ से यदि आयें नहीं, वारिदविन्दु अनेक । अन्य कथा तो दूर ही, क्या उपजे तृण एक ॥ ६ ॥ जावे या आवे नहीं, ऊपर वारिधिनीर 1 सिन्धु बने वीभत्स तो, यद्यपि वह गम्भीर ||७| 3 स्वर्गसुधा के स्रोत ये हो जायें यदि लुप्त । देवों की पूजा तथा होवें भोज्य विलुप्त ||८|| दानी तज दें दान को, योगी करना योग । रण छोड़ें रणवांकुरे, विना मिले जलयोग || ६ || होते हैं संसार में, जल से ही सब काम । सदाचार कहते सुधी, उसका ही परिणाम ||१०|| 112 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी कुल काव्य परपरिच्छेदः र मेष-महिमा 1- समय पर न चूकने वाली मेघवर्षा से ही धरती अपने को धारण किये हुये है, और इसीलिये लोग उसे अमृत कहते हैं । 2-जिलने भी स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ हैं, वे सब वर्षा ही के द्वारा मनुष्य को प्राप्त होते हैं और जल स्वयं ही भोजन का एक मुख्य अंग हैं। 3-यदि पानी न वर्षे तो सारी पृथ्वी पर अकाल का प्रकोप छा जाये, यद्यपि वह चारों ओर समुद्र से घिरी हुई है । 4. स्वर्ग के झरने यदि सूख जावें तो किसान लोग हल जोतना ही छोड़ देंगे। 5-वर्षा ही नष्ट करती है और फिर यह वर्षा ही है, जो नष्ट हुए लोगों की फिर से हरा भरा कर देती है । 6-यदि आकाश से पानी की बौछारें आना बन्द हो जाये तो घास का उगना तक बन्द हो जायगा । 7-स्वयं शक्तिशाली समुद्र में ही कुत्सित वीभत्सता का दारुण प्रकोप जग उठे, यदि आकाश उसके जल को पान करना और फिर उसे वापिस देना अस्वीकार कर दे । B-यदि स्वर्ग का जल सूख जाय तो न तो पृथ्वी पर यज्ञ-याग होंगे और न भोज ही दिये जायेंगे । g-यदि ऊपर से जलधारायें आना बन्द हो जार्य तो फिर इस पृर्थी भर में न कहीं दान रहे, न कहीं तप । 10-पानी के बिना संसार में कोई काम नहीं चल सकता, इसलिये सदाचार भी अन्ततः वर्षा ही पर आश्रित है । 113-- - Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुलत्य काव्य - परिच्छेद: 3 मुनि-महिमा विषयाशा जिनने तजी, बनकर तप के पात्र । उनकी महिमा तो बड़ी, गाते हैं सब शास्त्र ।।१।। ऋषियों की सामर्थ्य को, नाप सके नर कौन ? स्वर्ग गये जनवृन्द को, गिन सकता ज्यों कौन ।।२।। तुलना कर शिवलोक से, छोड़ा सब संसार । उस त्यागी के तेज से, जगमें ज्योति अपार ।।३।। स्वर्ग-खेत के बीज वे, संयम-अंकुश मार । करते गज सम इन्द्रियाँ, वश में पूर्ण प्रकार ॥४॥ शम-दम के भण्डार में, कैसी होती शक्ति । इच्छित हो तो देखलो, स्वर्गाधिप की भक्ति ।।५।। अनहोती होती करें, वे ही उच्च महान् । होती अनहोती करें, वे ही नीच अजान ।।६।। करतीं जिसकी इन्द्रियाँ, नीतिविहित उपभोग । रखता है वह सत्य ही, भू-शासन का योग ।।७।। धर्मग्रन्थ भी विश्व के, ऋषियों का जयघोष । करते हैं जिनके सदा, सत्य वचन निर्दोष ।।८।। त्याग शिखर जो है चढ़ा, तजकर सकल विकार । क्षण भर उसके क्रोध को, सहना कठिन अपार ।।६।। मुनि ही ब्राह्मण सत्य हैं, जिनका साधु स्वभाव । कारण उनके ही रहे, सब पर करुणा भाव ।।१०।। 114 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धुनम पर जो जम कार परिच्छेदः 3 मुनि-महिमा 1--जिन लोगों ने इन्द्रियो के समस्त उपभोगों को त्याग दिया है और जो तापसिक जीवन व्यतीत करते हैं, धर्मशास्त्र उनकी महिमा को और सब बातों से अधिक उत्कृष्ट बताते हैं । 2-तुम तपस्वी लोगों की महिमा को नहीं नाप सकते। यह काम उतना ही कठिन है जितना कि दिवंगत आत्माओं की गणना करना । 3-जिन लोगों ने परलोक के साथ इहलोक की तुलना करने के पश्चात इसे त्याग दिया है, उनकी महिमा से यह पृथ्वी जगमगा रही ___4-जो पुरुष अपनी सुदृढ़ इच्छा शक्ति के द्वारा पाँचों इन्द्रियों को इस तरह वश में रखता है, जिस तरह हाथी अकुश द्वारा वशीभूत किया जाता है. वास्तव में, वही स्वर्ग के खेतों में बोने योग्य बीज है । 5-पंचेन्द्रियों की तृष्णा जिसने शमन की है, उस तपस्वी के तप में क्या सामर्थ्य है, यदि यह देखना चाहते हो तो देवाधिदेय और इन्द्र की ओर देखो । 6-महान् पुरुष वे ही हैं, जो अशक्य कार्यों को भी सम्भव कर लेते हैं और क्षुद्र वे हैं, जिनसे यह काम नहीं हो सकता । 7.-जो, स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द इन पाँच इन्द्रिय-विषयों का यथोचित उपभोग करता है, वह सारे संसार पर शासन करेगा । 8-संसार भर के धर्म-ग्रन्थ, सत्यवक्ता महात्माओं की महिमा की घोषणा करते हैं । 9-त्याग की चट्टान पर खड़े हुए महात्माओं के क्रोध को एक क्षण भी सह लेना असम्भव है । ___ 10-साधुप्रकृति पुरुषों को ही ब्राह्मण कहना चाहिये, कारण वे ही लोग सब प्राणियों पर दया रखते हैं । (115 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ४ धर्म-महिमा धर्म भिन्न फिर कौन है, कही सुधी कल्याण जिससे मिलता स्वर्ग है, तथा कठिन निर्वाण ।।१।। धर्म तुल्य इस लोक में, अन्य न कुछ भी श्रेय । और न उसके त्याग सुम्, अन्य अधिक अश्रेय || २ || सत्कर्मों को विज्ञजन, कहते सुख की खान । यथाशक्ति उत्साह से, करो सतत धीमान् 11३11 अपने मन की शुद्धि ही, धर्मों का सब सार । शब्दाडम्बर मात्र हैं, वृथा अन्य व्यापार || ४ || क्रोध लोभ के साथ में, त्यागी ईर्ष्या, मान । मिष्टवचन - भाषी बनो, यही धर्म-सोपान || आज काल को छोड़कर, अब ही कर तू धर्म मृत्यु समय भी साथ दे, परममित्र यह धर्म || ६५ धर्म किये क्या लाभ है, यह मत पूछी बात । देखो नृप की पालकी, वाहक- गण ले जात ॥७।। धर्मशून्य जाता नहीं, जिसका दिन भी एक । बन्द किया भवद्वार ही उसने हो सविवेक ॥८॥ धर्मजन्य सुख को कहें, सच्चा सुख धीमान् । और विषय सुख को कहें, लज्जा दुःखनिदान ||६|| जिसका साथी धर्म है, करो सदा वह काम | जिसके साथ अधर्म है, छोड़ो उसका नाम ||१०| 116 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ४ धर्म-महिमा 1- धर्म से मनुष्य को मोक्ष मिलता है और उससे स्वर्ग की प्राप्ति भी होती है, फिर भला धर्म से बढ़कर लाभदायक वस्तु और क्या है। 2 - धर्म से बढ़कर दूसरी और कोई नेकी नहीं, और उसे भुला देने से बढ़कर दूसरी कोई बुराई भी नहीं है। 3 -- सत्कर्म करने में तुम लगातार लगे रहो, अपनी पूरी शक्ति और पूर्ण उत्साह के साथ उन्हें करते रहो । 4- अपना अन्तःकरण पवित्र रक्खो धर्म का समस्त सार बस एक इसी उपदेश में समाया हुआ है, अन्य सब बातें और कुछ नहीं. केवल शब्दाडम्बर मात्र हैं । 5- ईर्ष्या, लालच, क्रोध और अप्रिय वचन इन सबसे दूर रहो. धर्म-प्राप्ति का यही मार्ग है । 6 - यह मत सोचो कि मैं धीरे धीरे मार्ग का अवलम्बन करूगा, किन्तु अभी बिना बिलम्ब किये ही शुभ कर्म करना प्रारम्भ कर दो क्योंकि धर्म ही वह वस्तु है जो मृत्यु के समय तुम्हारा साथ देने वाला, अमर मित्र होगा । 7- मुझसे यह मत पूछो कि धर्म करने से क्या लाभ है ? बस एक बार पालकी उठाने वाले कहारों की ओर देख लो और फिर उस आदमी को देखो, जो उसमें सवार है ! 8- यदि तुम, एक भी दिन व्यर्थ नष्ट किये बिना, समस्त जीवन सत्कर्म करने में बिताले हो तो तुम आगामी जन्मों का मार्ग बन्द किये देते हो ! 9- केवल धर्म -जनित सुख ही वास्तविक सुख है, शेष सब तो पीड़ा और लज्जा - मात्र हैं। 10- जो काम धर्मसंगत है, बस वही कार्यरूप में परिणत करने योग्य है। दूसरी जितनी बातें धर्मविरुद्ध हैं, उनसे दूर रहना चाहिए । 117 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुभल काव्य परपरिचदः गृहस्थाश्रम आश्रम यद्यपि चार हैं, उनमें धन्य गृहस्थ । मुख्याश्रय सबका वही, इससे श्रेष्ठ गृहस्थ 11911 मृतकों का सच्चा सखा, दीनों का आधार । है अनाथ का नाथ वह, गृही दया साकार ।।२।। देव अतिथि पूजन सदा, स्वोन्नति निज जन भर्म । रक्षण पूर्वज कीर्ति का, पाँच गृही के कर्म ।।३।। दान बिना भोजन तथा, रुचै न निन्दा अंश । बीजशून्य होता नहीं, उसका कभी सुवंश ।।४।। धर्मराज्य के साथ में, जिसमें प्रेम-प्रवाह । तोष-सुधा उस गेह में, पूर्ण फलें सब चाह ।।५।। पालन यदि करता रहे, मनुज गृही के कर्म । आवश्यक क्यों हों उसे, अन्याश्रम के धर्म ।।६।। जो गृहस्थ करता सदा, धर्म-सुसंगत कार्य । वह मुमुक्षुगण में कहा, परमोत्तम है आर्य ।।७।। साधक जो पर कार्य का, तथा उदारचरित्र । है गृहस्थ वह सत्य ही, ऋषि से अधिक पवित्र ।।८।। धर्म तथा आचार का, है सम्बन्ध विशेष । गृहजीवन के साथ में, भूषण कीर्ति विशेष ||६|| ___जिस विधि करना चाहिए, करे उसी विधि कार्य । - है गृहस्थ वह देवता, कहते ऐसा आर्य ।।१०।। HA Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुबरम काव्य - परिच्छेदः । गृहस्थाश्रम 1-पृहस्थाश्रम में रहने वाला मनुष्य अन्य तीनों आश्रमों का । प्रमुख आश्रय है । 2- गृहस्थ अनाथों का लाथ. गरीबों का सहायक और निराश्रित मृतकों का मित्र है । 3--पूर्वजों की कीर्ति की रक्षा. देवपूजन, अथितिसत्कार, बन्धुबान्धवों की सहायता और आत्मोत्रति, ये गृहस्थ के पाँच कर्म हैं। 4-जो बुराई से डरता है और भोजन करने से पहिले दूसरों को : दान देता है, उसका वंश कभी निर्बीज नहीं होता। 5-जिस घर में स्नेह और प्रेम का निवास है, जिसमे धर्म का साम्राज्य है, वह सम्पूर्णतया सन्तुष्ट रहता है-उसके सब उद्देश्य सफल होते हैं । 6-यदि मनुष्य गृहस्थ के सब कर्तव्यों को उचित रूप से पालन । करे, तब उसे दूसरे आश्रमों के धर्मों के पालने की क्या आवश्यकता ? 7-मुमुक्षुओं में श्रेष्ठ वे लोग हैं जो धर्मानुकूल गार्हस्थ्य जीवन व्यतीत करते हैं । 8 जो गृहस्थ दूसरे लोगों को कर्तव्य पालन में सहायता देता है और स्वयं भी धार्मिक जीवन व्यतीत करता है. वह .षियो से अधिक पवित्र हैं । _---सदाचार और धर्म का विशेषतया विवाहित जीवन से : सम्बन्ध और सुयश उसका आभूषण है। 10--जो गृहस्थ उसी तरह आचरण करता है जिस तरह कि उसे करना चाहिए.. वह मनुष्यों मे देवता समझा जायेगा। לין Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः सहधर्मिणी वही सती सहधर्मिणी, जो पत्नी गुणयुक्त 1 आय देख व्यय को करे, पतिसेवा - अनुरक्त 119|| यदि पत्नी दुर्भाग्य से, नहीं गुणों की मूर्ति । गृही सुखी होता नहीं, रहते अन्य विभूति || 211 यदि पत्नी गुणयुक्त तो, त्रुटि फिर घर में कौन ? यदि पत्नी गुणहीन तो, कमी नहीं फिर कौन 11३|| , यदि नारी निज शील से है सच्ची बलवान् । उससे बढ़कर कौन है, गौरव उच्च महान् ||४|| जग कर, सबके पूर्व ही, जो पूजे पतिदेव । कहना उसका मानते, वारिद भी स्वयमेव ||५|| कीर्ति, शील पतिप्रेम में, जो पूरी कर्मण्य । धर्मधुरीणा धन्य वह उस सम और न अन्य || ६ चार कोट की ओट में नारी रखना व्यर्थ | इन्द्रिय - निग्रह एक ही, जब रक्षार्थ समर्थ ॥७॥ जन्में जिससे पुत्रवर, ज्ञानी कीर्ति समेत 1 उस नारी को स्वर्ग के, देव बधाई देत ||८|| जिस घर से फैली नहीं, यश की लता विशाल 1 शिर उठाय वह शत्रु ढिंग, क्या हो सिंह सुचाल ||६|| आदृत और विशुद्ध गृह, है उत्तम वरदान । उपजे संतति योग्य तो महिमा अति परिमाण ||१०| 120 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः € सहधर्मिणी 1- वही उत्तम सहधर्मिणी है, जिसमें सुपत्नीत्व के सब गुण वर्तमान हों और जो अपने पति की सामर्थ्य से अधिक व्यय नहीं करती। 2- यदि पत्नी गृहिणी के गुणों से रहित हो तो और सब देनगियों के होते हुये भी गार्हस्थ्य जीवन व्यर्थ है । 3- यदि किसी की स्त्री सुयोग्य हैं तो फिर ऐसी कौन सी वस्तु है जो उसके पास विद्यमान नहीं ? और यदि स्त्री में योग्यता नहीं तो फिर उसके पास है ही कौन सी द्रव्य ? 4 - नारी अपने सतीत्व की शक्ति से सुरक्षित हो तो जगत में उससे बढ़कर गौरव पूर्ण बात और क्या है ? 5- जो स्त्री दूसरे देवताओं की पूजा नहीं करती किन्तु बिछौने से उठते ही अपने पतिदेव को पूजती है, जल से भरे हुये बादल भी उसका कहना मानते हैं। 6- वही उत्तम सहधर्मिणी है जो अपने धर्म और यश की रक्षा करती है तथा प्रेमपूर्वक अपने पतिदेव की आराधना करती है। 7- चार दिवारी के अन्दर पर्दे के साथ रहने से क्या लाभ ? स्त्री के धर्म का सर्वोत्तम रक्षक उसका इन्द्रियनिग्रह है। 8 जां महिला लोकमान्य और विद्वान् पुत्र को जन्म देती है, स्वर्गलोक के देवता उसकी स्तुति करते हैं। 9- जिस मनुष्य के घर से सुयश का विस्तार नहीं होता है. वह मनुष्य अपने वैरियों के सामने गर्व से माथा ऊँचा करके सिंह - वृत्ति के साथ नहीं चल सकता 10 सुसम्मानित पवित्र उसके महत्व की पराकाष्ठा । गृह सर्वश्रेष्ठ वर हैं, और सुयोग्य सन्तति 121 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ७ सन्तान बुद्धिविभूषित जन्म ले कुल में यदि सन्तान । उस समान हम मानते, अन्य नहीं वरदान || १ || निष्कलंक, आचाररत जिस नर की सन्तान । सात जन्म होता नहीं, वह नर अघ से म्लान || २ || नर की सभी सम्पदा, उसकी ही उतार पुण्य उदय से प्राप्त हो, ऐसा सुखद निधान ||३|| स्वर्ग सुधा सा मिष्ट है, सचमुच वह रसघोल । शिशु जिसको लघुहस्त से, देते मचा घोल ||४|| शिशु का अंगस्पर्श है, सुख का पूर्ण निधान । उसकी बोली तोतली, कर्णसुधा रसपान ||५|| मुरली ध्वनि में माधुरी, वीणा में बहु स्वाद । कहते यों, जिनने नहीं, सुना न निज शिशुनाद || ६ || सभा बीच वरपंक्ति में आदृत बने विशेष । संतति प्रति कर्तव्य यह, योग्य पिता का शेष ।।७।। अपने से भी बुद्धि में, बढ़ी देख सन्तान । होता है इस लोक में, सबको हर्ष महान् ||८|| , जननी को सुत - जन्म से होता हर्ष अपार । उमड़ पड़े सुखसिन्धु जब, सुनती कीर्ति अगार ||६|| पुत्र वही जिसको निरख, कहें जनक से लोग । किस तप से तुमको मिला, ऐसे सुत का योग ||१०|| 122 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ७ सन्तान 1. पैश होने से बढ़कर संसार में दूसरा सुख नहीं । 2- वह मनुष्य धन्य है जिसके बच्चों का आचरण निष्कलंक है सात जन्म तक उसे कोई बुराई छू नहीं सकती । 3- सन्तान ही मनुष्य की सच्ची सम्पत्ति है, क्योंकि वह अपने संचित पुण्य को अपने कृत्यों द्वारा उसमें पहुँचाता है। 4- निस्सन्देह अमृत से भी अधिक स्वादिष्ट वह साधारण 'ऐसा' है जिसे अपने बच्चे छोटे छोटे हाथ डालकर घघोलते हैं। 5- बच्चों का स्पर्श शरीर का सुख है, और कानों का सुख है। उनकी बोली को सुनना । 6- वंशी की ध्वनि प्यारी और सितार का स्वर मीठा है, ऐसा वे ही लोग कहते हैं जिन्होंने अपने बच्चे की तुतलाती हुई बोली नहीं सुनी है । 7- पुत्र के प्रति पिता का कर्तव्य यही है कि उसे सभी में प्रथम पंक्ति में बैठने योग्य बना दे । 8 - बुद्धि में अपने बच्चे को अपने से बढ़ा हुआ पाने में सभा को आनन्द होता है। 9- माता के हर्ष का कोई ठिकाना नहीं रहता जब उसके गर्भ से लड़का उत्पन्न होता है, लेकिन उससे भी कहीं अधिक आनन्द उस समय होता है जब लोगों के मुँह से उसकी प्रशंसा सुनती है। 10- पिता के प्रति पुत्र का कर्तव्य क्या है ? यही कि संसार उसे देखकर उसके पिता से पूछे किस तपस्या के बल से तुम्हें ऐसा सुपुत्र मिला है ? 123 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्य ज, कुन काव्य र परिच्छेदः । प्रेम प्रेम देव के द्वार को, कर देवे जो बन्द । ऐसी आगर हैं कहाँ, कहते आँसू मन्द ।।१।। जीवे निज ही के लिये, प्रेमशून्य नर एक । पर, प्रेमी के हाड़ भी, आवें काम अनेक १।२।। प्रेमामृत के चाखवे, रागी बना अतीव ।। राजी हो फिर भी बंधा, तन पिंजर में जीव ।।३।। होता है मन प्रेम से, स्नेही, साधु स्वभाव । मैत्री जैसा रत्न भी, उपजे शील स्वभाव ।।४।। जो कुछ भी सौभाग्य है, यहाँ तथा परलोक । पुरस्कार वह प्रेम का, कहते ऐसा लोग ।।५।। भद्र पुरुष के साथ ही, करो प्रेम व्यवहार । मूर्ख उक्ति, यह प्रेम ही, खलजय को हथियार ।।६।। जलता है रवि तेज से, अस्थिहीन ज्यों कीट । त्यों ही जलता धर्म से, प्रेमहीन नरकीट ।।७।। सूखा तरु मरुभूमि में, जब हो पल्लव युक्त । प्रेमहीन नर भी तभी, बने ऋद्धि संयुक्त ।।८।। जिसके मनमें प्रेम का, नहीं आत्म-सौन्दर्य । बाह्य रूप धन आदि का, व्यर्थ उसे सौन्दर्य ||६|| है जीवन, जीवन नहीं, सच्चा जीवन प्रेम । अस्थिभांस का पिण्ड ही, जो न रखे मन प्रेम ।।१०।। 124) Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ८ प्रेम 1 - ऐसी आगर अथवा डंडा कहाँ है जो प्रेम के दरवाजे को बन्द कर सके ? प्रेमियों की आँखों के मन्दमन्द अश्रु - बिन्दु अवश्य ही उसकी उपस्थिति की घोषणा किये बिना न रहेंगे । 2 - जो प्रेम नहीं करते, वे केवल अपने लिए ही जीते हैं और जो दूसरे को प्रेम करते हैं, उनकी हड्डियाँ भी दूसरों के काम आती हैं। 13- कहते हैं कि प्रेम का आनन्द लेने के लिए ही आत्मा एक बार फिर अस्थि - पिंजर में बन्द होने को राजी हुआ है। 4- प्रेम से हृदय स्निग्ध हो उठता है और उस स्नेहशीलता से ही मित्रता रूपी बहुमूल्य रत्न पैदा होता है । 5- लोगों का कहना है कि भाग्यशाली का सौभाग्य इस लोक और परलोक दोनों स्थानों में उसके निरन्तर प्रेम का ही पारितोषिक है। 6- वे मूर्ख हैं जो कहते हैं कि प्रेम केवल सद्गुणी मनुष्य के लिए ही है। क्योंकि दुष्टों के विरुद्ध खड़े होने के लिए भी प्रेम ही एकमात्र साथी है। 7- देखो, अस्थि-हीन कीड़े को सूर्य किस तरह जला देता है। ठीक उसी तरह धर्मशीलता उस मनुष्य को जला डालती है जो प्रेम नहीं करता । 8- जो मनुष्य प्रेम नहीं करता वह तभी फूले फलेगा कि जब मरुभूमि के सूखे हुए वृक्ष के ढूँढ में कोपलें निकलेंगी। 9- बाह्य सौन्दर्य किस काम का जबकि प्रेम जो आत्मा का भूषण है हृदय में न हो ? 10-1 - प्रेम जीवन का प्राण है। जिसमें प्रेम नहीं वह केवल मांस से घिरी हुई हड्डियों का ढेर है । 125 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुशल काव्य परपरिच्छेदः । अतिथिसत्कार अतिथियज्ञ की साधना, करने को ही आर्य 1 गृह में करते कष्ट से, धनसंचय का कार्य ।।१।। अतिथिदेव यदि भाग्यवश, गृह में हो साक्षात् । तो पीना पीयूष भी, उन बिन योग्य न तात ।।२।। अतिथिदेव की भक्ति में, जिसको नहीं प्रमाद । उस नर पर टूटें नहीं, संकट, भीति, विषाद ।।३।। योग्यअतिथि का प्रेम से, स्वागत का यदि नाद । तो लक्ष्मी को वास का, उसके घर आल्हाद ।।४।। पूर्व अतिथि, फिर शेष जो, जीमे प्रेम समेत । आवश्यक होता नहीं, बोना उसको खेत ।।५।। एक अतिथि को पूज जो, जोहे पर की बाट । बनता वह सुर-वर्ग का, सुप्रिय अतिथिसम्राट ।।६।। महिमा तो आतिथ्य की, कहनी कठिन अशेष । विधि आदिक के भेद से, उसमें अन्य विशेष ।।७।। दान बिना पछतायगा, लोभी आठों याम । मृत्यु समय यह सम्पदा, हाय न आवे काम ।।८।। अतिथि-भक्ति करता नहीं, होकर वैभवनाथ । पूर्णदरिद्री सत्य वह, मूर्खशिरोमणि साथ ।।६।। पुष्पअनीचा का मधुर, सूंघे से मुरझाय । अतिथि हृदय तो एक ही, दृष्टि पड़े मर जाय ।। १०।। । . .. . .-126 ... Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -जा कुबरम काव्य पर पारदः । अतिथिसत्कार ... 1-बुद्धिमान् लोग. इतना परिश्रम करके गृहस्थी किस लिये बनाते हैं ? अतिथि को भोजन देने और यात्री की सहायता करने के लिए। 2-जब घर में अतिथि हो तब चाहे अमृत ही क्यों न हो, अकेले नहीं पीना चाहिये। 3- घर आये हुए अतिथि का आदर-सत्कार करने में जो कभी नहीं चूकता. उस पर कभी कोई आपत्ति नहीं आती। 4-जो मनुष्य योग्य अतिथि का प्रसन्नता पूर्वक स्वागत करता है. उसके घर में निवास करने से लक्ष्मी को आल्हाद होता है । 5-प्रथम अतिथि को जिमाकर, उसके पश्चात् बचे हुये अन्न को जो स्वयं खाता है, क्या उसे अपने खेत को बोने की आवश्यकता होगी २ 6-जो पुरुष बाहिर जाने वाले अतिथि की सेवा कर चुका है और आने वाले अतिथि की प्रतीक्षा करता है, ऐसा आदमी देवताओं का सुप्रिंय अतिथि बनता है। 7- हम किसी अतिथि-सेवा के माहात्म्य का वर्णन कर सकते कि उसमें कितना पुण्य है। अतिथि-यज्ञ का महत्त्व तो अतिथि की योग्यता पर निर्भर है। ---जो मनुष्य अतिथि सत्कार नहीं करता वह एक दिन कहेगामैंने परिश्रम करके इतना धन वैभव जोड़ा पर हाय ! सब व्यर्थ ही हुआ, कारण वहाँ मुझे सुख देने वाला कोई नहीं है। --सम्पत्तिशाली होते हुये भी जो यात्री का आदर-सत्कार नहीं करता. वह मनुष्य नितान्त दरिद्र है. ग्रह बात केवल मूों में ही होती है। 10-पारिजात का पुष्प सूंघने से मुझा जाता है पर अतिथि का मन लोड़ने के लिये एक दृष्टि ही पर्याप्त है। 17... ....... .... Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुमव काव्य पर परिच्छेदः १० मधुर-भाषण सज्जन को वाणी मथुर, होती मा स्वभाव । दयामयी, कोमल खरी, भरी पूर्ण सद्भाव ।।१।। वाणी, ममता, दृष्टि का, है माधुर्य महान् । उस सम मोहक विश्व में, नहीं प्रचुर भी दान ।।२।। मधुर दृष्टि के साथ में, प्रियवाणी यदि पास । तो समझो बस धर्म का, वहीं निरन्तर वास 11 ३11 जिसके मीठे शब्द सुन, सुख उपजे चहुँ ओर । दुखवर्द्धक दारिद्र्य क्या, देखे उसकी ओर ।।४।। दो गहने नर जाति के, 'विनय' तथा 'प्रियबोल' । शिष्टों की वरपंक्ति में, अन्यों का क्या मोल ।।५।। हो यदि वाणी प्रेममय, तथा विशुद्ध विचार । पापक्षय के साथ तो, बढ़े धर्म आचार ।।६।। सूचक सेवाभाव के, नम्र वचन सविवेक । मित्र बनाते विश्व को, ऐसे लाभ अनेक ।।७।। . सहृदयता के साथ जो, ओछेपन से हीन । बोली दोनों लोक में, करती है सुखलीन ।।८।। कर्ण मधुर मृदु शब्द का, चखकर भी माधुर्य । कटुक उक्ति तजता न फिर, यही बड़ा आश्चर्य ।।६11 कटुक शब्द जो बोलता, मधुर वचन को त्याग । कच्चे फल वह चाखता, पके फलों को त्याग ।।१०।। माग | 128 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - न कुल काव्य र परिच्छेदः १० मधुर-भाषण 1-सत्पुरुषों की वाणी ही वास्तव में सुस्निग्ध होती है, क्योंकि वह दया, कोमल और बनावट से खाली होती है। 2-औदार्यमय दान से भी बढ़कर सुन्दर गुण, वाणी की मधुरता, दृष्टि की स्निग्धता और स्नेहार्द्रता में है। 3-हृदय से निकली हुई वाणी और ममतामयी स्निग्ध-दृष्टि में ही धर्म का निवास स्थान है। 4-जो मनुष्य सदा ऐसी वाणी बोलता है कि सबके हृदय को आल्हादित कर दे, उसके पास दुःखों की अभिवृद्धि करने वाली दरिद्रता कभी न आयेगी। . 5-नम्रता और प्रिय सम्भाषण, बस ये ही मनुष्य के आभूषण हैं. अन्य नहीं। 6--यदि तुम्हारे विचार शुद्ध तथा पवित्र हैं और तुम्हारी वाणी में सहृदयता है तो तुम्हारी पाप-वृत्ति का क्षय हो जायेगा और धर्मशीलता की अभिवृद्धि होगी । 7- सेवाभाव को प्रदर्शित करने वाला और विनम्र वचन मित्र बनाता है तथा बहुत से लाभ पहुंचाता है। 8-वे शब्द जो कि सहृदयता से पूर्ण और क्षुद्रता से रहित हैं इस लोक तथा परलोक दोनों में सुख पहुँचाते हैं। 9- श्रुति-प्रिय शब्दों का माधुर्य चखकर भी मनुष्य क्रूर शब्दों का ।। व्यवहार करना क्यों नहीं छोडता? 10-मीठे शब्दों के रहते हुए भी जो मनुष्य कड़वे शब्दों का प्रयोग करता है वह मानों पके फलो को छोड़कर कच्चे फल खाता 129 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुबल काव्य - परिच्छेदः 99 कृतज्ञता करुणा करते श्रेष्ठजन, बिना रखे आभार । उसके बदले की नहीं, सुर-नर का अधिकार ।।१।। आवश्यकता के समय, अनुकम्पा का दान । जो मिलता वह अल्प भी, भू से अधिक महान ।।२।। स्वार्थ त्याग के साथ में, जो होवे उपकार । तो पयोधि से भी अधिक, उसकी शक्ति अपार ।।३।। पर से यदि होता कभी, राई-सा उपकार । वह कृतज्ञ नर को दिखे, तातुल्य हर-बार ।।४।। नहीं अवधि आभार की, अवलम्बित उपकार । उपकृत की ही योग्यता, है उसका आधार ।।५।। सन्तों की वर प्रीति का, करो नहीं अपमान । दुःख समय के बन्धु भी, मत त्यागो मतिमान ।।६।। आर्तजनों का कष्ट से, जो करता उद्धार । जन्म जन्म भी नाम लें, उसका नर साभार ||७|| सचमुच है वह नीचता,यदि भूले उपकार । उस सम और न उच्चता, जो भूले अपकार ।।८।। वैरी का भी प्राज्ञ को, पहिले का उपकार । स्मृत होते भूलती, तुरत व्यथा भयकार ।।६।। अन्य दोष से निन्ध का, सम्भव है उद्धार । पर कृतघ्न हतभाग्य का, कभी नहीं उद्धार ।।१०।। | 130) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अफ का घर परिच्छेदः 99 कृतज्ञता 1-आभारी बनने की इच्छा से रहित होकर जो दया दिखाई जाती है. स्वर्ग और पृथ्वी दोनों मिलकर भी उसका बदला नहीं चुका सकते। 2-अवसर पर जो उपकार किया जाता है, वह देखने में छोटा भले ही हो, पर जगत में सबसे भारी है। -प्रत्युपकार मिलने की चाह के बिना जो भलाई की जाती है. वह सागर से भी अधिक बड़ी है। 4-किसी से प्राप्त किया हुआ लाभ, राई की तरह छोटा ही क्यों न हो, किन्तु समझदार आदमी की दृष्टि में वह ताइवृक्ष के बराबर है। 5-कृतज्ञता की सीमा. किये हुये उपकार पर अक्लम्बित नहीं है. उसका मूल्य उपकृत व्यक्ति की लायकी पर निर्भर है। 6-महात्माओं की मित्रता की अवहेलना मत करो और उन लोगों का त्याग मत करो जिन्होंने संकट के समय तुम्हारी सहायता की 7-जो किसी को कष्ट से उबारता है, जन्म जन्मान्तर तक उसका नाम कृतज्ञता के साथ लिया जायेगा। 8-उपकार को भूल जाना नीचता है. लेकिन यदि कोई भलाई के बदले बुराई करे तो उसको तुरन्त ही भुला देना बड़प्पन का चिन्ह हानि पहुँचाने वाले का यदि कोई उपकार स्मृत हो आता है तो महा भयंकर व्यथा पहुँचाने वाली भी चोट उसी क्षण भूल जाती है। 10-और सब दोषों से कलंकित मनुष्यों का तो उद्धार हो सकता है, किन्तु अभागे अकृतज्ञ मनुष्य का कभी उद्धार न होगा! 131 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा कुबल काव्य । परिच्छेदः १२ न्यायशीलता न्यायनिष्ठ का चिन्ह यह, हो निष्पक्ष उदार । जिसका जिसको भाग दे, शत्रु मित्र सम धार ।।१।। न्यायनिष्ठ की सम्पदा, कभी न होती क्षीण । वंश-क्रम से दूर तक, चली जाय अक्षीण ।।२।। मत लो वह धन मूल से, जिसमें नीति-द्वेष । । हानि बिना उससे भले, होवें लाभ अशेष ।।३।। न्यायी या नयहीन की, करनी हो पहिचान । तो जाकर बुध देख लो, उसकी ही सन्तान ।।४।। स्तुति-निन्दा-द्वय से भरे, सब ही जीव समान । पर नयज्ञ मनका अहो, है अपूर्व ही मान ।।५॥ ___ नीति छोड़ मन दौड़ता, यदि कुमार्ग की ओर । तो समझो आया निकट, सर्वनाश ही घोर ।।६।। न्यायी यदि दुर्दैव से, हो जावे धनहीन । पर उसकी होती नहीं, कभी प्रतिष्टा क्षीण ।।७।। तुलादण्ड सीधा तथा, है सच्चा जिस रीति । हो ऐसी ही न्याय के, अधिकारी की नीति ।।।। जिसका मन भी. नीति से, डिगे न खाकर चोट । नित्य-सत्य बोलें वचन, उस न्यायी के ओठ ५६।। जो करता परकार्य भी, अपने कार्य समान । धन्य गृही, वह कार्य में, पाता सिद्धि महान् ।। १०।। 132 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुभल काच परत परिच्छेदः १२ न्यायशीलता 1- न्यायनिष्ठा का सार केवल इसी में है कि मनुष्य निष्पक्ष होकर, धर्मशीलता के साथ दूसरे के देय अंश को दे देवं. फिर चाहे लेने वाला शत्रु हो या मित्र। 2-न्यायनिष्ठ की सम्पत्ति कभी कम नहीं होती। वह दूर तक, पीढी दर पीढ़ी चली जाती है। 3-सन्मार्ग को छोड़कर जो धन मिलता है, उसे कभी हाथ न लगाओ. भले ही उससे लाभ के अतिरिक्त और किसी बात की सम्भावना न हो। 4-भले और बुरे का पता उसकी सन्तान से चलता है। 5-भलाई और बुराई का प्रसंग तो सभी को आता है. पर एक न्यायनिष्ठ मन बुद्धिमानों के लिए गर्व की वस्तु है। 6-जब तुम्हारा मन सत्य से विमुख होकर असत्य की ओर झुकने लगे तो समझा लो कि तुम्हारा सर्वनाश निकट ही है। 7-संसार धर्मात्मा और न्याय-परायण पुरुष की निर्धनता को हेयदृष्टि से नहीं देखता। -बराबर तुली हुई उस तराजू की डंडी को देखो, वह सीधी है और दोनों ओर एक सी है । बुद्धिमानों का गौरव इसी में है कि वे इसके समान ही बनें, न इधर को झुकें और न उधर को। 9-जो मनुष्य अपने मन में भी नीति से नहीं डिगता, उसके न्यायमार्गी ओठों से निकली हुई बात नित्य-सत्य है। ____10-उस सद्व्यवहारी पुरुष को देखो कि जो दूसरे के कामों को भी अपने विशेष कार्यों के समान ही देखता भालता है। उसके उद्योग धन्धे अवश्य उन्नति करेंगे। 133) Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः 43 संयम संयम के माहात्म्य से मिलता है सुरलोक । और असंयम राजपथ, रौरव को बेरोक || १|| संयम की रक्षा करो, निधिसम ही धीमान । कारण जीवन में नहीं, बढ़कर और निधान ||२|| समझ बूझकर जो करे, इच्छाओं का रोध । मेधादिक कल्याण वह, पाता बिना विरोध || ३ || जो निष्कामी कार्य में, विचलित करे न भाव | उसके मुख का सर्व पर, गिरि से अधिक प्रभाव ||४| वैसे तो सब में विनय, होतो शोभावान | पर पूरी खुलती तभी, विनयी यदि श्रीमान ||५|| कूर्मअंग- सम, इन्द्रियाँ, वश में पूर्ण प्रकार । तो समझो परलोक को, जोड़ा निधि भण्डार ||६|| इन्द्रियगण में अन्य को रोक भले मत रोक । पर जिल्हा को रोक तू, जिससे मिले न शोक ||७| वाणी में यदि एक भी, पद है पीड़ाकार । तो समझो बस नष्ट ही, पहिले के उपकार ||८|| दग्धअंग होते भले, पाकर के कुछ काल । पर अच्छे होते नहीं, वचन घाव विकराल ।।६।। वशीपुरुष को देखलो, विद्या - बुद्धि - निधान । दर्शन को उसके यहाँ आते सब कल्याण || १०|| " 134 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुषल काव्य परिच्छेदः 93 ਸ਼ਕਸ 1- आत्मा - संयम से स्वर्ग प्राप्त होता है, किन्तु असंयत इन्द्रियलिप्सा अपार अंधकार पूर्ण नरक के लिए खुला हुआ राजपथ है। 2- आत्म-संयम की रक्षा अपने खजाने के समान ही करो, कारण उससे बढ़कर इस जीवन में और कोई निधि नहीं है। 3- जो पुरुष ठीक तरह से समझ बूझ कर अपनी इच्छाओं का दमन करता है, उसे मेधादिक सभी सुखद वरदान प्राप्त होंगे। 4- जिसने अपनी समस्त इच्छाओं को जीत लिया है और जो अपने कर्तव्य से पराड़, मुख नहीं होता, उसकी आकृति पहाड़ से भी बढ़कर प्रभावशाली होती है। 5- विनय सभी को शोभा देती है, पर पूरी श्री के साथ श्रीमानों में ही खुलती है। 6- जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को उसी तरह अपने में खींचकर रखता है, जिस तरह कछुआ अपने हाथ-पाँव को खींचकर भीतर छुपा लेता है, उसने अपने समस्त आगामी जन्मों के लिए खजाना जमाकर रखा है। 7- और किसी को चाहे तुम मत रोको, पर अपनी जिल्हा को अवश्य लगाम लगाओ, क्योंकि बेलगाम की जिव्हा बहुत दुःख देती है । 8- यदि तुम्हारे एक शब्द से भी किसी को कष्ट पहुँचता है तो तुम अपनी सब मलाई नष्ट हुई समझो। 9- आग का जला हुआ तो समय पाकर अच्छा हो जाता है, पर वचन का घाव सदा हरा बना रहता है। 10- उस समय को देखो जिसने विद्या और बुद्धि प्राप्त कर ली है। जिसका मन शान्त और पूर्णत वश में है, धार्मिकता तथा अन्य सब प्रकार की भलाई उसके घर उसका दर्शन करने के लिए आती हैं। F 135 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुबल काव्य र--- परिद ४ सदाचार लोकमान्य होता मनुज, यदि आचार पवित्र । इससे रक्षित राखिए, प्राणाधिक चारित्र ।।१।। प्रतिदिन देखो प्राज्ञजन, अपना ही चारित्र । कारण उस सम लोक में, अन्य नहीं दृढमित्र ।।२।। सदाचार सूचित करे, नर का उत्तम वंश । बनता नर दुष्कर्म से, अधम-श्रेणि का अंश ।।३।। भूले आगम प्राज्ञगण, फिर करते कण्ठस्थ । पर चूका आचार से, होता नहीं पदस्थ ।।४।। डाहभरे नर को नहीं, सुख-समृद्धि का भोग । वैसे गौरव का नहीं, दुष्कर्मी को योग ॥५।। नहीं डिगें कर्तव्य से, दृढ़प्रतिज्ञ वरवीर । कारण डिगने से मिलें, दुःख-जलधि गम्भीर ।।६।। सन्मार्गी को लोक में, मिलता है सम्मान । दुष्कर्मी के भाग्य में, हैं अकीर्ति अपमान ॥७॥ सदाचार के बीज से, होता सुख का जन्म । कदाचार देता तथा, विपदाओं को जन्म ।।८।। विनयविभूषित प्राज्ञजन, पुरुषोत्तम गुणशील । कभी न बोले भूलकर, बुरे वचन अश्लील ।।६11 यद्यपि सीखें अन्य सब, पाकरके उपदेश । पर सुमार्ग चलना नहीं, सीखें मूर्खजनेश ।।१०।। -(136)-- - ---- Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुरल काव्य कुल काव्य और परिच्छेदः १४ सदाचार 1-जिस मनुष्य का आचरण पवित्र है सभी उसकी वन्दना करते हैं इसलिए सदाचार को प्राणों से भी बढ़कर समझना चाहिए। 2-अपने आचरण की पूरी देख रेख रक्खो क्योंकि तुम जगत में कहीं भी खोजो. सदाचार से बढ़कर पक्का मित्र कहीं न मिलेगा। 3-सदाचार सम्मानित परिवार कोप्रगट करता है, परन्तु दुराचार कलंकित लोगों की श्रेणी में जा बैठाता है। 4-धर्मशास्त्र भी यदि विस्मृत हो जाये तो फिर याद कर लिये जा सकते हैं. परन्तु सदाचार से स्खलित हो गया तो सदा के लिए अपने स्थान से भ्रष्ट हो जाता है। 5-सुख-समृद्धि, ईर्ष्या करनेवालों के लिए नहीं है, ठीक इसी तरह गौरय दुराचारियों के लिए नहीं है। 6-दृढ़-प्रतिज्ञ सदाचार से कभी भ्रष्ट नहीं होते, क्योंकि वे जानते हैं कि इस प्रकार भ्रष्ट होने से कितनी आपत्तियाँ आती हैं। 7-मनुष्यसमाज में सदाचारी पुरुष का सम्मान होता है, लेकिन जो लोग सन्मार्ग से च्युत हो जाते हैं. अपकीर्ति और अपमान ही उनके भाग्य में रह जाते हैं। __8-सदाचार सुख-सम्पत्ति का बीच बोता है परन्तु दृष्ट-प्रवृत्ति .असीम आपत्तियों की जननी है।। - 9-अवाच्य तथा अपशब्द, भूलकर भी संयमी पुरुष के मुख से नहीं निकलेंगे। 10-भूखों को जो चाहो तुम सिखा सकते हो किन्तु सन्मार्ग । पर चलना वे कभी नहीं सीख सकते । । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुल काव्य पर परिच्छेदः १५ परस्त्री त्याग धर्म तथा धन से अहो, जिसको है अनुराग । करे नहीं वह भूलकर, पर-नारी से राग ॥१॥ पापबुद्धि से मूर्ख ही, तके पड़ौसी-द्वार । पतितों में वह अग्रणी, अधों का सरदार ।।२।। निर्धम मित्रों के यहाँ, जो करते हैं घात । वे कामी बस मृत्यु के, मुख में ही साक्षात ।।३।। कैसे वह नर श्रेष्ठ है, जो करता व्यभिचार । लज्जा जैसी वस्तु भी. तज देता जब जार ।।४।। गले लगाता कामवश, बैठाकर निज अंक। सुलभ पड़ौसिन को, मनुज लेता नाम कलंक ।।५।। छुटकारा पाता नहीं, इन चारों से जार । घृणा पाप के साथ में, प्रान्ति कलंक अपार ।।६॥|| रूप तथा लावण्यमय, देख पड़ौसिन अंग । होता जिसे विराग है, वही गृही अव्यंग ।।७।। धन्य पुरुष जो शील में, है पूरा श्रीमन्त । केवल धर्मी ही नहीं, भूतल में वह सन्त ।। ८11 पर-रमणी मेंटे न जो, डाल गले भुजपाश । भूभर के वह पुण्य सब, भोगे नृप संकाश ।। ६11 और पाप को त्याग तू, चाहे मत भी त्याग । जो चाहे सुश्रेय तू, त्याग पड़ौसिन राग ।।१०।। 138 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुस्त्त काव्यर परिच्छेदः १५ - परस्त्री त्याग 1-जिन लोगों की दृष्टि धर्म तथा धन पर रहती है वे कभी चूक | कर भी परस्त्री की कामना नहीं करते । ___ 2-जो लोग धर्म से गिर गये हैं उनमें उस पुरुष से बढ़कर मूर्ख और कोई नहीं है जो कि पड़ौसी की ड्योढ़ी पर खड़ा होता है ।। 3-निस्सन्देह वे लोग काल के मुख में हैं कि जो सन्देह न करने वाले मित्र के घर पर हमला करते हैं । ___4-मनुष्य चाहे कितना ही श्रेष्ठ क्यों न हो, पर उसकी श्रेष्ठता किस काम की जबकि वह व्यभिचार जन्य लज्जा का कुछ भी विचार न कर परस्त्री -गमन करता है । 5-जो पुरुष अपने पड़ौसी की स्त्री को गले लगाता है इसलिए कि वह उसे सहज में मिल जाती है, उसका नाम सदा के लिये कलंकित हुआ समझो । 6-व्यभित्तारी को इन चार बातों से कभी छुटकारा नहीं मिलताघृणा, पाप, भ्रम और कलंक । 7 .. सदगृहरथ वही है जिसका हृदय अपने पड़ौसी की स्त्री के ! सौन्दर्य तथा लावण्य से आकृष्ट नहीं होता । 8-धन्य है उसके पुरुषत्व को जो पराई स्त्री पर दृष्टि भी नहीं डालता, वह केवल श्रेष्ठ और धर्मात्मा ही नहीं, सन्त है । 9--पृथ्वी पर की सब उत्तम बालों का पात्र कौन है? वही कि जो !! परायी स्त्री को बाहु-पाश में नहीं लेता । 10-तुम कोई भी अपराध और दूसरा कैसा भी पाप क्यों न करे पर तुम्हारे पक्ष में यही श्रेयस्कर है कि तुम पड़ौसी की स्त्री से सदा दूर रहो । 139 %3D Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा, कुबल काव्य पर परिच्छेद: १६ क्षमा खोदे उसको भी मही, देती आश्रयदान । बाधक को तुम भी सहो, बड़ा इसी में मान ।।१।। ___ कार्यविधायक को सदा, करो क्षमा का दान । भूल सको यदि हानि तो, बढ़े और भी मान ।।२।। विमुख बने आतिथ्य से, वह ही सच्चा रंक । सहे मूर्ख की मूर्खता, वह ही वीरमयंक ।।३।। गौरव का यदि चाहते, बनना तुम आधार । क्षमाशील बनकर करो, सबसे सद्व्यवहार ।।४।। प्राज्ञों से अश्लाघ्य वह, जो करता प्रतिवैर 1 सोने सा बहुमूल्य वह, जो अरि में निर्वैर ।।५।। बदले से तो एक दिन, होता मनको मोद । . किन्तु क्षमा से नित्य हो, गौरव का आमोद।।६।। । मिलें बहुत सी हानियाँ, पर वैचित्र्य अथाह । मन में खेद न रंच भर, ना बदले की चाह ।।७।। ___ क्षति यद्यपि देता अधिक, मानी मद से चूर । पर सवर्तन से उसे, कसे विजित भरपूर ११८।। गृहस्यागी ऋषि वर्ग से, उनकी ज्योति अपार । सहते जो है शान्ति से, दुर्जन वाक्यप्रहार ।।६।। तप करते जो भूख सह, वे ऋषि उच्च महान् । क्षमाशील के बाद ही, पर उनका सम्मान ।।१०।। 10 . - .-.- - Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुशल काव्य पर परिच्छेदः १६ क्षमा 1-धरती उन लोगों को भी आश्रय देती है कि जो उसे खोदते हैं । इसी तरह तुम मी उन लोगों की बातें सहन करो जो तुम्हें सताते हैं, क्योंकि बड़प्पन इसी में है । 2-दूसरे लोग तुम्हें हानि पहुँचाएं उसके लिये तुम उन्हें क्षमा कर दो, और यदि तुम उसे भुला सको तो यह और भी अच्छा है । -अतिथि सत्कार से विमुख होना ही सबसे बड़ी दरिद्रता है और मूरों की असभ्यता को सह लेना ही सबसे बड़ी वीरता है ।। 4-यदि तुम सदा ही गौरवमय बनना चाहते हो तो सबके प्रति क्षमामय व्यवहार करो । 5-जो पीड़ा देने वालों को बदले में पीड़ा देते हैं बुद्धिमान लोग उनको मान नहीं देते, किन्तु जो अपने शत्रुओं को क्षमा कर देते हैं वे स्वर्ण के समान बहुमूल्य समझो जाते हैं । 6-बदला लेने का आनन्द तो एक ही दिन होता है, किन्तु क्षमा करने वाले का गौरव सदा स्थिर रहता है । 7-क्षति चाहे कितनी ही बड़ी क्यों न उठानी पड़ी हो परन्तु बड़प्पन इसी में है कि मनुष्य उसे मन में न लादे और बदला लेने के विचार से दूर रहे | ___8-घमण्ड में चूर होकर जिन्होंने तुम्हें हानि पहुँचाई है उन्हें अपने उच्च वर्ताव से जीत लो । 9-संसार-त्यागी पुरुषों से भी बढ़कर सन्त यह है जो अपनी निन्दा करने वालों की कटु वाणी को सहन कर लेता है । 10-उपवास करके तपश्चर्या करने वाले निस्सन्देह महान हैं. पर उनका स्थान उन लोगों के पश्चात् ही है जो अपनी निन्दा करने वालों को क्षमा कर देते हैं । 141 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः १७ ईर्ष्या-त्याग मन से त्यागो तात तुम, ईर्ष्यापूर्ण विचार । कारण इसका त्याग ही, धर्म अंग शुभ सार || १|| ईर्ष्यामुक्त स्वभाव सम, श्रेष्ठ नहीं वरदान । उस सम मंगल विश्व में, अन्य न होता भान || २ || थर्म तथा धन की जिन्हें रहे न कुछ परवाह | देख पड़ौसी - वृद्धि को करते वे ही डाह || ३ || ईर्ष्या से करते नहीं, परविघात मतिधाम । ईर्ष्याजन्य बिगाड़ का जान कटुक परिणाम ||४ ॥ ईर्ष्यायुत के नाश को, ईर्ष्या ही पर्याप्त । वैरी चाहे छोड़ दें, उससे क्षय ही प्राप्त ॥५॥ जिसे न भाता अन्य का, पर को देना दान | मांगेगी उस नीच की, अन्न-वस्त्र सन्तान ॥६॥ जिसने ईर्ष्या को दिया, अपना मन है सौंप | तज जाती श्री भी उसे, बड़ी बहिन को सौंप ||७|| डाइन निर्धनता बुरी, उसे बुलावे डाह अधम नरक के द्वार भी, ले जावे यह आह ||८|| | मूंजी तो वैभव भरा, दानी धन से म्लान । दोनों ही आश्चर्यमय, बुध को एक समान || ६ || ईर्ष्या से कोई कभी फूला फला न तात । " और न दानी अर्थ बिन, सहता दुःखाघात ।।१०।। 142 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -...करत्व कालसर परिच्छेदः १७ ईर्ष्या-त्याग 1-ईर्ष्या के विचारों को अपने मन में न आने दो, क्योंकि ईर्ष्या से रहित होना धर्माचरण का एक अंग है । 2-सब प्रकार की ईर्ष्या से रहित स्वभाव के समान दूसरा और । कोई बड़ा वरदान नहीं है । 3-जो मनुष्य धन या धर्म की परवाह नहीं करता, वही अपने पड़ोसी की समृद्धि पर डाह करता है । 4-समझदार लोग ईर्ष्या बुद्धि से दूसरों को हानि नहीं पहँचाते. क्योंकि उससे जो खोटा परिणाम होता है, उसे ये जानते हैं । 5-ईर्ष्यालु के लिए ईर्ष्या ही पूरी बला है, क्योंकि उसके वैरी । उसे चाहे क्षमा भी कर दें तो भी वह उसका सर्वनाश ही करेगी। 6-जो मनुष्य दूसरों को देते हुए नहीं देख सकता. उसका कुटुम्ब रोटी और कपड़ों तक के लिए मास मारा फिरेगा और नष्ट हो जायेगा । 7-लक्ष्मी ईर्ष्या करने वाले के पास नहीं रह सकती. वह उसकी अपनी बड़ी बहिन दरिद्रता की देखरेख में छोड़कर चली जायेगी । 8-दुष्टा ईर्ष्या दरिद्रता दानवी को बुलाती है और मनुष्य को नरक के द्वार तक ले जाती है । 9-ईर्ष्या करने वाले की समृद्धि और उदारचित्त पुरुषों की कंगाली ये दोनों ही एक समान आश्चर्य जनक हैं । 10-न तो ईर्ष्या से कभी कोई फूला फला और न उदार हृदय कभी वैभव से हीन ही रहा । 4143) Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुलत्य काव्य पर परिच्छेदः १८ खिलमिता परधन लेने के लिए, जिसका मन ललचाय । नीतिविमुख वह क्रूरतम, क्षीण-वंश हो जाय ।।१।। जिसे घृणा है पाप से, वह नर करे न लोभ । लगे न वह दुष्कर्म में, बढ़े न जिससे क्षोभ ॥२।। परसुख चिन्तक श्रेष्ठजन, त्यागें सदा अकार्य । क्षुद्र-सुखों के लोभ में, बनते नहीं अनार्य ।।३।। जिसके वश में इन्द्रियाँ, तथा उदार विचार । ईप्सित भी परवस्तु लूँ, उसके ये न विचार ॥४।। ऐसी बुद्धि न काम की, लालच जिसे फँसाय । तथा समझ वह निन्द्य जो, दुष्कृति अर्थ सजाय ।।५।। उत्तम पथ के जो पथिक, यश के रागी साथ । मिटते वे भी लोभवश, रच कुचक्र निज हाथ 11६।। तृष्णा संचित द्रव्य का, भोगकाल विकराल । त्यागो इसकी कामना, जिससे रहो निहाल ।।७।। न्यून न हो मेरी कभी, लक्ष्मी ऐसी चाह । करते हो तो छीन धन, लो न पड़ौसी आह ।।८।। विदितनीति परधनविमुख, जो बुध, तो सस्नेह । ढूंढ़त ढूंढत आप श्री, पहुँचे उसके गेह ॥६।। दूरदृष्टि से हीन का, तृष्णा से संहार । निर्लोभी की श्रेष्ठता, जीते सब संसार ।। १०।। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुषल काव्य परिच्छेदः १८ निर्लोभिता 1- जो पुरुष सन्मार्ग छोड़कर दूसरे की सम्पत्ति लेना चाहता है। उसकी दुष्टता बढ़ती जायेगी और उसका परिवार क्षीण हो जायेगा । 2-- जो पुरुष बुराई से विमुख रहते हैं वे लोभ नहीं करते और न दुष्कर्मों की ओर ही प्रवृत्त होते हैं । 3- जो मनुष्य अन्य लोगों को सुखी देखना चाहते हैं, वे छोटे मोटे सुखों का लोभ नहीं करते और न अनीति का ही काम करते हैं। 4- जिन्होंने अपनी पाँचों इन्द्रियों को वश में कर लिया है और जिनकी दृष्टि विशाल है, वे यह कह कर दूसरे की वस्तुओं की कामना नहीं, ओ हो हमें इनकी अपेक्षा है । 5- वह बुद्धिमान और समझदार मन किस काम का जो लालच में फँस जाता है और अविचार के कामों के लिए उतारू होता है । 6- वे लोग भी जो सुयश के भूखे हैं और सन्मार्ग पर चलते हैं, नष्ट हो जायेंगे, यदि धन के फेर में पकड़कर कोई कुचक्र रचेंगे । 7- लालच द्वारा एकत्रित किये हुए धन की कामना मत करो, क्योंकि भोगने के समय उसका फल तीखा होगा । 8- यदि तुम चाहते हो कि हमारी सम्पत्ति कम न हो तो तुम अपने पडोसी के धन-वैभव को ग्रसने की कामना मत करो । 9- जो बुद्धिमान मनुष्य न्याय की बात को समझता है और दूसरों की वस्तुओं को लेना नहीं चाहता, लक्ष्मी उसकी श्रेष्ठता को जानती है और उसे ढूँढ़ती हुई उसके घर जाती है। 10-2 - दूरदर्शिताहीन लालच नाश का कारण होता है, पर जो यह कहता है कि मुझे किसी वस्तु की आकांक्षा ही नहीं, उस तृष्णाविजयी की " महत्ता सर्वविजयी होती है । 145 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न कुल काव्य पर परिच्छेदः १६ . चुगली से घृणा “खाता यह चुगली नहीं", पर की ऐसी बात । सुनकर खल भी फूलता, जिसे न नीति सुहात ।।१।। परहित तज, पर का अहित, करना निन्दित काम । मधुमुख पर उससे बुरा, पीछे निन्दा धाम ।।२।। मृषा, अधम जीवन बुरा, उससे मरना श्रेष्ठ । कारण एसी मृत्यु से, बिगड़े कार्य - अंग्छ ।।३।। .. मुख पर ही गाली तुम्हें, दीहो बिना विचार । तो भी उसकी पीठ पर, बनो न निन्दाकार ।।४।। मुख से कितनी ही भली, यद्यपि बोले बात । . पर जिहा से चुगल का, नीच हृदय खुल जात ।।५।। निन्दाकारी अन्य के, होगे तो स्वयमेव । खोज खोज चिल्लायेंगे, वे भी तेरे ऍव 11६।। मैत्रीरस-अनभिज्ञ जो, उक्ति माधुरी हीन । वाह ही बोकर फूट को, करता तेरह-तीन ।।७।। खुल कर करते मित्र की, जो अकीर्ति का गान । वे कब छोड़ें शत्रु का, अपयश का व्याख्यान ।। ८11॥ धैर्य सहित उर में सहे, निन्दक पादप्रहार । धर्म ओर फिर फिर तके, भू, उतारवे भार ।।६।। अन्य मनुज के दोष सम, जो देखे निज दोष । उस समान कोई नहीं, भू-भर में निर्दोष ।।१०।। ......-----(146)- -- --- --- Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिच्छेदः १९ चुगली से घृणा 1- जो मनुष्य सदा अन्याय करता है और न्याय का कभी नाम भी नहीं लेता, उसको भी प्रसन्नता होती है. जब कोई कहता है- देखो. यह आदमी किसी की चुगली नहीं खाता । 2 - सत्कर्म से विमुख हो जाना और कुकर्म करना निस्संदेह बुरा है, पर मुख पर हँसकर बोलना और पीठ पीछे निन्दा करना उससे भी बुरा है। 3- झूठ और चुगली के द्वारा जीवन व्यतीत करने से तो तत्काल ही मर जाना अच्छा है, क्योंकि इस प्रकार मर जाने से शुभकर्म का फल मिलेगा । 4- पीठ पीछे किसी की निन्दा न करो, चाहे उसने तुम्हारे मुख पर ही तुम्हें गाली दी हो । s - मुख से चाहे कोई कितनी ही धर्म कर्म की बातें करे पर चुगल खोर जिव्हा उसके हृदय की नीचता को प्रगट कर ही उसकी छुवल काव्य देती है। 6- यदि तुम दूसरे की चुगली करोगे तो वह तुम्हारे दोषों को खोज कर उनमें से बुरे दोषों को प्रगट कर देगा 7- जो मधुर बचन बोलना और मित्रता करना नहीं जानते वे चुगली करके फूट का बीज बोते हैं और मित्रों को एक दूसरे से जुदा कर देते हैं । 8- जो लोग अपने मित्रों के दोषों को स्पष्ट रूप से सबके सामने कहते हैं, वे अपने वैरियों के दोषों को भला कैसे छोड़ेंगे ? 9- पृथ्वी अपनी छाती पर निन्दा करने वाले के पदाघात को धैर्य के साथ किस प्रकार सहन करती है ! क्या चुगलखोर के भार से अपना पिण्ड छुड़ाने के लिए ही धर्म की ओर बार बार ताकती है ? 10- यदि मनुष्य अपने दोषों की विवेचना उसी प्रकार करे जिस प्रकार कि वह अपने वैरियों के दोषों की करता है, तो क्या उसे कभी कोई दोष स्पर्श कर सकेगा ? 147 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना कुबल काव्य परपरिच्छेदः २० व्यर्थ-भाषण अर्थ शून्य जिसके वचन, सुन उपजे उद्वेग ।। उस नर के सम्पर्क से, बचते सभी सवेग ।।१।। मित्रों को भी क्लेश दे, उससे अधिक निकृष्ट । गोष्ठी में जो व्यर्थ का, भाषण देता धृष्ट ।।२।। दम्भभरा निस्सार जो, भाषण दे निश्शंक । घोषित करे अयोग्यता, मानो प्रज्ञारंक ।।३।। कर प्रलाप बुधवृन्द में, लाभ न कुछ भी हाथ ।। जो भी अच्छा अंश है, खोता वह भी साथ ।।४।। बकवादी यदि योग्य हो, तो भी दिखे अयोग्य । गौरव से वह रिक्त हो, मान न पाता योग्य ।।५।। रुचि जिसकी बकवाद में, मानव उसे न मान । आवश्यक ही कार्य लें, कचरा सम धीमान ।।६।। उचित जचे तो बोल ले, चाहे कर्कश बात । वृथालाप से तो वही, दिखती उत्तम तात ।।७।। तत्त्वज्ञान विचार में, जिनका मन संलग्न । वे ऋषिवर होते नहीं, क्षणभर विकथा-मग्न ।। ना ! जिनकी दृष्टि विशाल वे, प्राज्ञोत्तम गुणथाम ।। कभी न करते भूलकर, बकवादी के काम ।।६।। भाषण के जो योग्य हो, वह ही बोलो बात । और न उसके योग्य जो, तज दीजे वह भात ।। १०।। 148 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुवल काव्य परिच्छेद: 20 व्यर्थ - भाषण 1 - निरर्थक शब्दों से जो अपने श्रोताओं में उद्वेग लाता है वह सब के तिरस्कार का पात्र है । 2 - अपने मित्रों को दुःख देने की अपेक्षा भी अनेक लोगों के आगे व्यर्थ की बकवाद करना बहुत बुरा है । 3- जो निरर्थक शब्दों का आडम्बर फैलाता है वह अपनी अयोग्यता को ऊँचे स्वर से घोषित करता है । 4. सभा में जो व्यर्थ की बकवाद करता है, उस मनुष्य को देखो, उसे और कुछ तो लाभ होने का नहीं, पर जो कुछ उसके पास अच्छी बातें होंगी व भो छोड़कर चला जावगी : 5- यदि व्यर्थ की बकवाद अच्छे लोग भी करने लगें तो ये भी अपने मान और आदर को खो बैठेंगे । 6 - जिसे निरर्थक बातों के करने की अभिरुचि है उसे मनुष्य ही न मानना चाहिए. कदाचित उससे भी कोई काम आ पड़े तो समझदार आदमी उससे कचरे के समान ही काम ले ले। 7- यदि समझदार को योग्य मालूम पड़े तो मुख से कठोर शब्द कहले, क्योंकि यह निरर्थक भाषण से कहीं अच्छा है । 8 - जिनके विचार बड़े बड़े प्रश्नों को हल करने में लगे रहते हैं. ऐसे लोग विकथा के शब्द अपने मुख से निकालते ही नहीं । 9- जिनकी दृष्टि विस्तृत है ये भूलकर भी निरर्थक शब्दों का उच्चारण नहीं करते । 10- मुख से निकालने योग्य शब्दों का ही तू उच्चारण कर, परन्तु निरर्थक अर्थात् निष्फल शब्द मुख से मत निकाल । 149 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा कुभल काश्य पर परिच्छेदः 29 पापकर्मों से भय जिस अनीतिमय रीत में, पाप कहें जनवृन्द । सज्जन उससे दूर ही, रहें निडर खलवृन्द ।।१।। 'बढ़े पाप से पाप ही', यह उक्ति ध्रुवसत्य । पाप बड़ा है आग से, भीत रहो बुध नित्य ।।२।। कहते ऐसा प्राज्ञगण, बुद्धि उसी के पास । वैरी की भी हानि को, जिसका चित्त उदास ।।३।। मत सोचो तुम भूलकर, पर का नाश कदैव । कारण उसके नाश को, सोचे न्याय सदैव ।।४।। 'निर्धन हूँ' ऐसा समझ, करो न कोई पाप । कारण बढ़ती और भी, निर्धनता अघशाप ।।५।। विपदाओं के दुःख से, यदि चाहो निज त्राण । हानि अन्य की छोड़कर, करो स्वपर कल्याण ।।६।। अन्य तरह के शत्रु से, बच सकता नर आप । नाश बिना पर जीव का, पिण्ड न छोड़े पाप ।।७।। पाप फिरें पीछे लगे, छाया जैसे साथ । सर्वनाश के अन्त में, करते जीव अनाथ ।।८।। जिसको प्यारी आत्मा, करे नहीं वह पाप । जिसे न प्यारी आत्मा, वह ही करता पाप ।।६।। रक्षित वह है सर्वथा, विपदा उसकी अस्त । पाप हेतु छोड़े नहीं, जो नर मार्ग प्रशस्त ।।१०।। - 150/ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ज, कुनम काव्य परिच्छेदः २१ यापकर्मों से भय 1-दुष्ट लोग उस मूर्खता से नहीं डरते जिसे पाप कहते हैं. परन्तु भद्रजन उससे सदा दूर भागते हैं । - 2--पाप से पाप उत्पन्न होता है, इसलिए आग से भी बढ़कर उससे डरना चाहिए । 3-कहते हैं कि सबसे बड़ी बुद्धिमानी यही है कि शत्रु को भी हानि पहुँचाने से परहेज किया जाय । 4-भूल से भी दूसरे के सर्वनाश का विचार न करो, क्योंकि न्याय उसके विनाश की युक्ति सोचता है जो दूसरे के साथ बुराई करना चाहता है। . . रब है ऐसा वाहकर किसी को पापकर्म में लिप्त न होना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से वह और भी नीची दशा को पहुँच जाएगा। 6-जो मनुष्य आपत्तियों द्वारा विषाद में पड़ना नहीं चाहता, उसे दूसरों का अपकार करने से बचना चाहिए । ___7-दूसरे प्रकार के सब शत्रुओं वे बचने का उपाय हो सकता है. पर पाप कर्मों का कभी विनाश नहीं होता, वे पापी का पीछा करके उसको नष्ट किये बिना नहीं छोड़ते । 8-जिस प्रकार छाया मनुष्य को कभी नहीं छोड़ती, बल्कि जहाँ जहाँ वह जाता है उसके पीछे पीछे लगी रहती है, बस ठीक इसी प्रकार पापकर्म पापी का पीछा करते हैं और अन्त में उसका सर्वनाश कर डालते हैं। -रादि किसी को अपनी आत्मा से प्रेम है तो उसे पाप की और किंचित् भी न झुकना चाहिए । 10-उसे आपत्तियों से सदा सुरक्षित समझो जो अनुचित कर्म करने के लिए सन्मार्ग को नहीं छोड़ता । (1511 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुबल काव्य और-- परिच्छेदः 22 परोपकार बदले की आशा बिना, सन्त करें उपकार । बादल का बदला भला, क्या देता संसार ।।१।। बहुयलों से आर्य जो, करते अर्जित अर्थ । वह सब होता अन्त में, परहित के ही अर्थ ||२|| हार्दिकता से पूर्ण जो, होता है उपकार । मू में या फिर स्वर्ग में, उस सम वस्तु न सार ।।३।। योग्यायोग्य विचार ही, नर का जीवित रूप । होता है विपरीत पर, मृतकों सा विद्रूप ।।४।। पूर्ण लबालब जो भरा, ग्राम-सरोवर पास । उस सम शोभा भव्य की, जिसमें प्रेमनिवास 11५।। ग्राम वृक्ष के फूल-फल, भोगों जैसे लोग । उन्नत-मन के द्रव्य का, वैसा ही उपभोग 11६।। उस तरु के ही तुल्य है, उत्तम नर की द्रव्य ।। औषधि जिसके अंग हैं, सदा हरा वह भन्य दुःखस्थिति में भी सुधी, रखता । . . पर, वत्सल तजता नहीं, करना पर-उपकार ।।। उपकारी निजको तभी, माने धन से हीन । याचक जब ही लौटते, होकर आशाहीन ॥६।। होवे यद्यपि नाश ही, पर उत्तम उपकार । । बिककर बन परतंत्र तू, फिर भी कर उपकार।। १०।। -------152 --- -- -- Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुल काव्य - परिच्छेदः २२ परोपकार 1.-महान पुरुष जो उपकार करते हैं उसका बदला नहीं चाहते। . भला संसार जल बरसाने वाले बादलों का बदला किस भॉति चुका सकता है ? 2-योग्य पुरुष अपने हाथों से परिश्रम करके जो धन जमा करते हैं, वह सब जीवमात्र के उपकार के लिए ही होता है । 3-हार्दिक उपकार से बढ़कर न तो कोई चीज इस भूतल में मिल सकती है और न स्वर्ग में । 4-जिसे उचित अनुचित्त का विचार है, वही वास्तव में जीवित है और जिसे योग्य अयोग्य का ज्ञान नहीं हुआ उसकी गणना मृतकों में की जायेगी । 5-लबालब भरे हुए गाँव के तालाब को देखो, जो मनुष्य सृष्टि से प्रेम करता है उसकी सम्पत्ति उसी तालाब के समान है। 6-सहदय व्यक्ति का वैभव गाँव के बीचों बीच उगे हुए और फलों से लदे हुए वृक्ष के समान है । ___7-परोपकारी के हाथ का धन उस वृक्ष के समान है जो औषधियों का सामान देता है और सदा हरा बना रहता है । 8-देखो, जिन लोगों को उचित और योग्य बातों का ज्ञान है, वे बुरे दिन आने पर भी दूसरों का उपकार करने से नहीं चूकते । 9-परोपकारी पुरुष उसी समय अपने को गरीब समझता है जबकि वह सहायता माँगने वालों की इच्छा पूर्ण करने में असमर्थ होता ___10-यदि परोपकार करने के फलस्वरूप सर्वनाश उपस्थित हो. तो दासत्व में फंसने के लिए आत्म-विक्रय करके भी उसको सम्पादन करना उचित है । 151 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tiger :HTEE Tपरिच्छेद: 23 दाज दीनजनों को प्रेम से, देना ही है दान । अन्य तरह का दान तो, है उधार ही दान ।। १।। स्वर्ग मिले यदि दान में, लेना दान न धर्म । स्वर्गद्वार भी बन्द हो, फिर भी देना धर्म ।।२।। | दानी सब ही हैं भले, पर है वही कुलीन । जो देने के पूर्व ही, रहे निषेध विहीन ।।३।। होता दानी को नहीं, तब तक मन में मोद । जब तक वह देखे नहीं, याचक मुख पर मोद ।।४।। विजयों में बस आत्मजय, सबसे अधिक महान । क्षुधाशमन तो अन्य का, उससे भी जयवान ।।५।। आर्तक्षुधा के नाशहित, यही नियम अव्यर्थ । धनिकवर्ग करता रहे, घर में संचित अर्थ ।।६।। जो करता है बाँटकर, भोजन का उपयोग ।। कभी न व्यापे भूख का, उसे भयंकर रोग ।।७।। कृपण द्रव्य को जोड़कर, करे नाश का योग ।। चाखा उसने ही नहीं, मधुरदान का भोग ।।८।। भिक्षा भोजन से बुरा, वह है अधिक जघन्य । एकाकी जिस अन्न को, खाता कृपण अधन्य ।।६।। सबसे अप्रिय वस्तु है, तीन लोक में मृत्यु । दानशक्ति यदि हो नहीं, तब रुचती यह मृत्यु ।। १०।। ----....-...--(154 ------ -- ---- Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुरल काव्य कुबल काव्य । परिच्छेद: 23 दान 1-गरीबों को दना ही दान है. और सब तरह का देना उधार देने के समान है । 2 दान लेना बुरा है चाहे उससे स्वर्ग ही क्यों न मिलता हो और दान देने वाले के लिए चाहे स्वर्ग का द्वार ही क्यों न बन्द हो जाये, फिर भी दान देना धर्म है । 3-"हमारे पास नहीं है। ऐसा कहे बिना दान देने वाला पुरुष ही केवल कुलीन होता है । 4-याचक के ओठों पर सन्तोष-जनित हँसी की रेखा देखे बिना दानी का मन प्रसन्न नहीं होता । 5.-आत्म-जयी की विजयों में श्रेष्ठ जय है भूख को जीतना, पर उसकी विजय से भी बढ़कर उस मनुष्य की विजय है जो दूसरे की क्षुधा को शान्त करता है । 6-गरीबों के पेट की ज्वाला को शान्त करने का यही एक मार्ग है कि जिससे श्रीमानों को अपने पास विशेष करके धन संग्रह कर रखना चाहिए । 7. जो मनुष्य अपनी रोटी दूसरों के साथ बॉटकर खाता है 'उसको भूख की भयानक बीमारी कभी स्पर्श नहीं करती । -वे निष्ठुर कृपण लोग जो धन संग्रह कर करके उसको निकम्मा करते हैं, क्या उन्होने कभी दूसरों को दान देने का आनन्द ही नहीं लिया ? 9-भिक्षान से भी बढ़कर अप्रिय उस कंजूस का भोजन है जो अकेला बैठकर खाता है । 10-मृत्यु से बढ़कर और कोई कड़वी बात नहीं, परन्तु मृत्यु भी उस समय मीठी लगती है जब किसी में दान की सामर्थ्य नहीं रहती। (155) Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः २४ कीर्ति दीनजनों को दान दे, करो कीर्ति विस्तार | कारण उज्ज्वल कीर्ति सम, अन्य न कुछ भी सार ।। १ ।। जो दयालु करते सदा, दीनजनों को दान । सदा प्रशंसक - कण्ठ में, उनका नाम महान ||२|| जो पदार्थ इस विश्व में, निश्चित उनका नाश | अतुलकीर्ति ही एक है, जिसका नहीं विनाश ||३|| स्थायी यश जिसका अहो, छाया सर्वदिगन्त । माने उसको देव भी ऋषि से अधिक महन्त ||४|| जिनसे बढ़ती कीर्ति हैं, ऐसे मृत्यु - विनाश । वीरों के ही मार्ग में आते दोनों खाश ||५|| · जो लेते नरजन्म तो करो यशस्वी कर्म । यदि ऐसा करते नहीं, मत धारो नर - चर्म || ६ || निन्दकजन पर अज्ञ यह, करता है बहुरोष । पर निजपर करता नहीं, रखकर भी बहुदोष ||७|| उन सबकी इस लोक में, नहीं प्रतिष्ठा तात । जिनकी स्मृति कुछ भी नहीं, कीर्तिमयी विख्यात ॥ भ्रष्टकीर्तिनर - भार से, जब जब दबता देश 1 पूर्व ऋद्धि के साथ में, तब तब उजड़े देश || ६ || वह ही जीवित लोक में, जिसको नहीं कलंक । मृतकों में नर है वही, यश जिसका सकलंक ।। १० । । 156 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुवल काव्यर-- परिच्छेदः २४ कीर्ति 1-गरीबों को दान दो और कीति कमाओ, मनुष्य के लिए इससे बढ़कर लाभ किसी में नहीं है । 2-प्रशंसा करने वालों के मुख पर सदा उन लोगों का नाम रहता है कि जो गरीबों को दान देते हैं । ___-ज्न गत् में और सब दस्तुऐं नश्वर हैं. परन्तु एक अतुलकीर्ति ही मनुष्य की नश्वर नहीं है । 4- देखो, जिस मनुष्य ने दिगन्तव्यापी स्थायी कीर्ति पायीं है, . स्वर्ग में देवता लोग उसे साधु-सन्त, सेरि 'नो हैं । 5-वह विना| जिससे कीर्ति में वृद्धि हो और वह मृत्यु जिससे लोकोत्तर गश की प्राप्ति हो. ये दोनों बातें महान् आत्म-बलशाली पुरुषों के मार्ग में ही आती हैं । 6-यदि मनुष्य को जगत में पैदा ही होना है तो उसको चाहिए कि वह सुयश उपार्जन करे । जो ऐसा नहीं करता उसके लिए तो यही अच्छा था कि वह जन्म ही न लेता । 7-जो लोग दोषों से सर्वथा रहित नहीं हैं वे स्वयं निज पर तो नहीं बिगड़ते, फिर वे अपनी निन्दा करने वालो पर क्यों क्रुद्र होते हैं? -निस्सन्देह यह मनुष्यों के लिए बड़ी ही लज्जा की बात है | कि वे उस चिरस्मृति का सम्पादन नहीं करते जिसे लोग कीर्ति कहते 9 बदनाम लोगों के बोझ से दबे हुए देश को देखो, उसकी सद्धि भूतकाल में चाहे कितनी ही बढ़ी चढ़ी क्यों न रही हो. धीरे-धीरे नष्ट हो जायेगी । 10-वही लोग जीते है जो निष्कलंक जीवन व्यतीत करते हैं और जिनका जीवन कीर्ति विहीन है, वास्तव में ये ही मुर्दे हैं । 157 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. कुबल काटा चारपरिच्छेद: २५ दया , बड़े पुरुष करुणामयी, मन से ही श्रीमान । लौकिक धन से क्षुद्र भी, होते हैं धनवान ।। १।। सोच समझ क्रमवार ही, करो दया के कर्म । मुक्तिमार्ग उसको सभी, कहें जगत के धर्म ।।२।। सूर्य बिना जिस लोक में, छाया तम ही प्राज्य । वहाँ न लेते जन्म वे, जिनमें करुणा राज्य ।।३।। जिन पापों के नाम से, काँप उठे यह जीव । वह उनको भोगे नहीं, जिसमें दया अतीव १।४।। दयाधनी पाता नहीं, क्लेश भरा सन्ताप । साक्षी इसमें है मही, मारुतवेष्ठित आप ।।५।। दया धर्म जिसने तजा, होता उस पर शोक । चख कर भी फल पाप के, भूल गया अघशोक ।।६।। जैसे वैभवहीन को, नहीं सुखद यह लोक । दयाशून्य नर को नहीं, वैसे ही परलोक ।।७।। ऐहिक धन से क्षीण फिर, हो सकता धनवान । शुभदिन पर उसको नहीं, जिसमें करुणा म्लान ||८|| सत्य सुलभ उसको नहीं, जिसमें मोहविकार । सहज न वैसे क्रूर को, करुणा का अधिकार ।।६।। दुर्बल की जैसी दशा, करता है तू क्रूर । वैसी हो तेरी दशा, तब कैसा हो शूर ।। १०।। - ...... ---(158) ... Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा, कुल्ल काव्य राम परिच्छेदः २६५ दना 1 दया से लबालब भरा हुआ हृदय ही संसार में सबसे बड़ी सम्पत्ति है क्योंकि भौतिक विभूति तो नीच मनुष्यों के पास भी देखी जाती है । 2-ठीक पद्धति से सोच विचार कर हृदय में दया धारण करो और यदि तुम सब धर्मों से इस बारे में पूछकर देखोगे तो तुम्हें मालूम होगा कि दया ही एकमात्र मुक्ति का साधन है । 3-जिन लोगों का हृदय दया से ओत प्रोत है वे अंधकार पूर्ण नरक में प्रदेश न करेंगे। ___4-जो मनुष्य सब जीवों पर कृपा तथा दया दिखलाता है उसे उन पाप परिणामों को नहीं भोगना पड़ता जिन्हें देखकर ही आत्मा काँप उठती है। 5-क्लेश दयालु पुरुषों के लिए नहीं है, वातबलय–वेष्टित पृथ्वी इस बात की साक्षी है । 6-खेद है उस आदमी पर जिसने दयाधर्म को त्याग दिया है और पाप के फल को भोगकर भी उसे भूल गया है । 7-जिस प्रकार यह लोक धनहीन के लिए नहीं, उसी प्रकार परलोक निर्दयी मनुष्य के लिए नहीं है । 8-ऐहिक वैभव से शून्य, गरीब लोग तो किसी दिन समृद्धिशाली हो सकते हैं. परन्तु जो लोग दया और ममता से रहित हैं सचमुच ही कंगाल हैं और उनके सुदिम कभी नहीं फिरते । 9-विकार ग्रस्त मनुष्य के लिए सत्य को पा लेना जितना सहज है, कठोर हृदय वाले पुरुष के लिए नीति के काम करना भी उतना ही आसान है । 10- जब तुम दुर्बल को सताने के लिए उद्यत हो तो सोचो कि अपने से बलवान मनुष्य के आगे भय से जब तुम काँपोगे तब तुम्हे कैसा लगेगा ? 159 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुभव काव्य र परिच्छेदः २६ निरामिष-जीवन मांसवृद्धि के हेतु जो, मांस चखे रख चार । उस नर में संभव नहीं, करुणा का सद्भाव ।।१।। द्रव्य नहीं जैसे मिले, व्यर्थव्ययी के पास । आमिषभोजी में नहीं, वैसे दयाविकास ।।२।। जो चखता है मांस को, उसका हृदय कठोर । डाकू जैसा शस्त्रयुत, झुके न शुभ की और ।।३।। निस्संशय है क्रूरता, करना जीव-विधात । पर चलना तो मांस का, घोर पाप की बात ।।४।। मांस त्याग से ही रहे, जीवन पूर्ण ललाम । यदि इससे विपरीत तो, बन्द नरक ही धाम ।।५।। खाने की ही कामना, करें नहीं यदि लोग । आमिष-विक्रय का नहीं, आवे तो कुछ योग ।।६।। | एक बार ही जान ले, निज-सम ही परकष्ट । तो इच्छा कर मांस की, करे न जीवन भ्रष्ट ।।७।। जो नर मिथ्याबुद्धि को, छोड़ बना सज्ञान । लाश नहीं वह खायगा, तन में रहते प्राण ।।८।। मांस तथा परघात से, जिसको घृणा महान । कोटि यज्ञ का फल उसे, कहते हैं विद्वान ।।६।। आमिष-हिंसा से घृणा, जो रखता मतिमान । हाथ जोड़ उसका सभी, करते हैं सम्मान ।। १०।। 160) Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः २६ निरामिष - जीवन 1-मला उसके मन में दया कैसे आयी जो अपना भास बढ़ाने के लिए दूसरों का मांस खाता है । 2- व्यर्थव्ययी के पास जैसे सम्पत्ति नहीं ठहरती, ठीक वैसे ही मांस खाने वाले के हृदय में दया नहीं रहती । ३ - जो मनुष्य भांस चखता है उसका हृदय शस्त्रधारी मनुष्य के हृदय के समान शुभकर्म की ओर नहीं झुकता । 4 1-- जीवों की हत्या करना निस्सन्देह क्रूरता है, पर उनका मांस खाना तो सर्वथा पाप है । 5- मांस न खाने में ही जीवन है । यदि तुम खाओगे तो नरक का द्वार तुम्हें बाहर निकल जाने देने के लिए कभी नहीं खुलेगा । 6-- यदि लोग मांस खाने की इच्छा ही न करें तो जगत में उसे बेचने वाला कोई आदमी ही न रहेगा । 7- यदि मनुष्य दूसरे प्राणियों की पीड़ा और यन्त्रणा को एक बार समझ सके तो फिर वह कभी मांस भक्षण की इच्छा ही न करेगा । 8- जो लोग माया और मूढता के फन्दे से निकल गये हैं वे लाश को नहीं खाते । 9- प्राणियों की हिंसा व मांस भक्षण से विरक्त होना सैकड़ों यज्ञों में बलि व आहुति देने से बढ़कर है । 10- देखो, जो पुरुष हिंसा नहीं करता और भांस न खाने का व्रती है, सारा संसार हाथ जोड़कर उसका सम्मान करता है । 161 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः 29 तप सबविध हिंसा - त्याग कर, बनना करुणाधार । सब दुःखों को शान्ति से, सहना तप का सार || १|| तेजस्वी में शोभता, तप का तेज महान । आजहीन नर में वही, निष्फलता से म्लान || २ || ऋषियों की सेवार्थ भी, आवश्यक हैं लोग । ऐसा ही क्या सोचकर करें न तप कुछ लोग ||३|| मित्र-नुह रिपुदमन, यदि चाहो तो आर्य । दृढ़ प्रतिज्ञ वरवीर बन, करो तपस्या - कार्य ||४|| सर्वकामना सिद्धि में, रहता तप का योग । इसीलिए तप को सदा, करते सब उद्योग ॥५॥ 7 तप करते जो भक्ति से वे करते निज श्रेय 1 माया के फँस जाल में, अन्य करें अश्रेय ||६॥ तप में जैसा कष्ट हो, वैसी मन की शुद्धि । जैसे जैसी आग हो, वैसी कांचनशुद्धि || ७ || आत्म विजय जिसने किया, इच्छाओं को रोक | उस पुरुषोत्तम वीर को, पूजे सारा लोक ||८|| तपबल से जिसको मिले, शक्ति तथा वर - सिद्धि 1 मृत्यु विजय उसको सहज, ऐसी तप की ऋद्धि ||६|| दीनों की संख्या अधिक, इसमें कारण एक । तपधारी तो अल्प हैं, तप से हीन अनेक 11१०|| 162 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -ज, कुबल काव्य - परिच्छेदः २७ __. . जप 1-शान्तिपूर्वक दुःख सहन करना और जीव हिसा न करना, : बस इन्हीं में तपस्या का समस्त सार है । 2-तपस्या तेजस्वी लोगों के लिए ही है. दूसरे लोगों का तप करना निरर्थक है । 3-तपस्वियों को आहारदान तथा उनकी सेवा शुश्रूषा के लिए भी कुछ लोग आवश्यक हैं क्या इसी विचार से इतर लोगों ने तप करना स्थगित कर रखा है । 4-यदि तुम अपने शत्रुओं का नाश करना और उन लोगों को उन्नत बनाना चाहते हो जो तुम्हें प्रेम करते हैं, तो जान रक्खो कि यह शक्ति तप में है । 5-तप समस्त कामनाओं को यथेष्ट रूप से पूर्ण कर देता है. इसीलिए लोग जगत में तपस्था के लिए उद्योग करते हैं । 6-जो लोग तपस्या करते हैं वे ही वास्तव में अपना भला करते हैं और सब तो लालसा के जाल में फंसे हुए हैं जो कि अपने को केवल हानि ही पहुँचाते हैं। 7.सोने को जिस आग में पिघलाते हैं वह जितनी ही अधिक तेज होती है सोने का रंग उतना ही अधिक उज्ज्वल निकलता है। ठीक इसी तरह तपस्वी जितने ही बड़े कष्टों को सहता है उसके उतने ही अधिक आत्मिक भाव निर्मल होते हैं । 8-देखो, जिसने अपने पर प्रभुत्व प्राप्त कर लिया है उस पुरुषोत्तम को सभी लोग पूजते हैं । 9-देखो. जिन लोगों ने तप करके शक्ति और सिद्धि प्राप्त कर ली है, वे मृत्यु को जीतने में भी सफल हो सकते हैं । ___10-यदि जगत् में दीनों की संख्या अधिक है तो इसका कारण यही है कि वे लोग जो तप करते हैं थोडें हैं और जो तप नहीं करते हैं उनकी संख्या अधिक है । 163 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुल काव्य र परिच्छेदः २८ धूर्तता वंचक के व्यवहार से, उसके भौतिक अंग । मन ही मन हँसते उसे, देख छली का ढंग ||१|| दिव्यदेह किस काम की, नर की भरी प्रभाव । जानमान जिसके हृदय, कपट-भरे यदि भाव ।।२।। ऋषियों का जो वेश धर, बनता कातर दास । सिंह खाल को ओढ़ खर, चरता वह है घास ।।३।। धर्मात्मा का रूप रख, जो नर करता पाप । झाड़ी भीतर व्याध सा, बैठा वह ले चाप ।।४।। बाह्य प्रदर्शन के लिये, दम्भी के सब काम । रोता पर वह अन्त में, सोच बुरे निज काम ।।५।। धूर्त नहीं है त्यागता, मनसे कोई पाप । पर निष्ठुर रचता बड़ा, त्यागाडम्बर आप ।।६।। गुंजा यद्यपि रूपयुत, फिर भी दिखती श्याम । वैसे सुन्दर धूर्त भी, भीतर दिखता श्याम ।।७।। शुद्ध हृदय जिनके नहीं, ऐसे लोग अनेक । पर तीर्थों में स्नान कर, फिरें बनें सविवेक।।८।। शर सीधा होता तथा, 'घक तंबूरा आर्य । इससे आकृति छोड़कर, नर के देखो कार्य 11६।। जिस बुध ने त्यागे अहो, लोकनिन्ध सब काम । जटाजूट अथवा उसे, मुण्डन से क्या काम ।।१०।। 164 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य ज, कुबल काव्य र परिच्छेदः २८ धूर्तता 1-स्वयं उसके ही शरीर के पंच तत्व मन ही मन उस पर हँसते हैं जबकि वे पाखण्डी के पाखण्ड और चालबाजी को देखते हैं। 2. वह प्रभावशाली मुखमुद्रा किस काम की. जबकि अंतःकरण में बुराई भरी है और हृदय इस बात को जानता है । ___3-वह कापुरुष जो तपस्वी जैसी तेजरची आकृति बनाये रखता है उस गधे के समान है जो सिंह की खाल पहिने हुए घास चरता है। 4-उस आदमी को देखो. जो धर्मात्मा के वेश में छुपा रहता है और दुष्कर्म करता है । वह उस बहेलिये के समान है जो झाड़ी के पीछे छुपकर चिड़ियों को पकड़ता है । 5-दभी आदम दिखावे के लिए पवित्र बनता है और कहता है-मैंने अपनी इच्छाओं, इन्द्रिय लालसाओं को जीत लिया है. परन्तु अन्त में वह पश्चात्ताप करेगा और रो-रो कर कहेगा-मैंने क्या किया. हाय मैंने क्या किया ? 6-देखो, जो पुरुष वास्तव में अपने मन से तो किसी वस्तु को छोड़ता नहीं परन्तु बाहर त्याग का आडम्बर रचता है और लोगों को टगता है, उससे बढ़कर कठोर हृदय कोई नहीं है । -गुमची देखने में सुन्दर होती है, परन्तु उसकी दूसरी ओर कालिमा होती है। कुछ आदमी भी उसी की तरह होते हैं। उनका बाहिरी रूप तो सुन्दर होता है. किन्तु अंतःकरण बिल्कुल कलुषित होता है। 8-ऐसे लोग बहुत हैं कि जिनका हृदय तो अशुद्ध होता है पर तीर्थों में स्नान करते हुए घूमते फिरते हैं । 9-वाण सीधा होता है और तम्बूरे में कुछ टेढापन होता है इसलिए मनुष्यों की आकृति से नहीं, किन्तु उनके कामों से पहिचानो। 10-जगत् जिससे घृणा करता है यदि तुम उससे बचे हुए हो तो फिर न तुम्हें जता रखने की आवश्यकता है और न मुण्डन की । ....... .... .... -165 (165) Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जी कुरष काव्य परिच्छेदः २९ निष्कपट व्यवहार घृणित न देखा चाहते, निज को यदि तुम तात। कपट भरे कुविचार से, तो बच लो दिन-रात ।।१।। द्रव्य पड़ोसी की सभी, ले लूँगा कर छन । मनका यह संकल्प ही, पापों का दृढ़ सा ।।२।। जिस धन की हो आय में, कपटजाल का पाश । वृद्धिंगत चाहे दिखे, पर है अन्त विनाश ।।।३।। वैभव की भी वृद्धि में, ठगखोरी की चाट । ले जाती नर को वहीं, जहाँ विपद की हाट ।।४।। | पर धन के हरणार्थ जो, करे प्रतीक्षा क्रूर । दया नहीं उसके हृदय, प्रेमकथा बहु दूर ।।५।। छलकर भी पर द्रव्य को, बुझे न जिसकी प्यास । । वस्तुमूल्य अनभिज्ञ वह, सुपथ न उसके पास ।।६।। क्षणनश्वर ऐश्वर्य है, जिस मन में यह छाप । नहीं पड़ोसी को वहीं, छलकर लेगा पाप ॥७|| शुद्ध सरलता ज्यों करे, आर्य हृदय में वास । चोर ठगों के चित्त में, त्यों ही कपट-निवास ||८|| कपट भिन्न जिस के नहीं, मन में उठे विचार । उस नर पर आती दया, देख पतन-विस्फार ।।६।। छली पुरुष निज देह का, खोता है अधिकार ।। वारिस बनता स्वर्ग का, सीधा नर साभार।। १०।। . 1166 - Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः २९ निष्कपट व्यवहार 1- जो यह चाहता है कि वह घृणित न समझा जाये तो उसे स्वयं कपटपूर्ण विचारों से अपने आपको बचाना चाहिए । 2 - अपने मन में यह विचार पाप है किं मैं अपने पड़ोसी की सम्पत्ति को कपट द्वारा ले लूँगा । 3 - वह वैभव जो कपट द्वारा किया जाता है भले ही बढ़ती की ओर दिखाई देता हो, परन्तु अन्त में नष्ट होने को ही है । 4- अपहरण की प्यास अपने उन्नतिकाल में भी अनन्त दुःखों की ओर ले जाती है । 5- जो मनुष्य दूसरों की सम्पत्ति को लोभभरी दृष्टि से देखता है और उसको हड़पने की प्रतिज्ञा में बैठा रहता है उसके हृदय में दया को कोई स्थान नहीं और प्रेम तो उससे कोसों दूर है । 6- लूट के पश्चात् भी जिस मनुष्य को लोम की प्यास बनी रहती है वह वस्तुओं का उचित मूल्य नहीं समझ सकता और न वह सत्यमार्ग का पथिक ही बन सकता है । 7- यह मनुष्य धन्य है जिसने सांसारिक वस्तुओं के सार को समझ कर अपने हृदय को दृढ़ बना लिया है। वह फिर अपने पड़ोसी को धोखा देने की गलती कभी नहीं करेगा । 8 - जिस प्रकार तत्त्वज्ञानी साधु सन्तों के हृदय में सत्यता निवास करती है उसी प्रकार चोर ठगों के मन में कपट का वास नियम से होता है। 9- उस मनुष्य पर तरस आती है जो छल तथा कपट के अतिरिक्त और किसी बात पर विचार ही नहीं करता, वह सत्यमार्गे को छोड़ देगा और नाश को प्राप्त होगा । 10-जो दूसरों को छलता है वह स्वयं अपने शरीर का भी स्वामी नहीं रहने पाता, परन्तु जो सच्चे हैं उनको स्वर्ग का नित्य उत्तराधिकार रहता है । 167 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः 30 सत्यता नहीं किसी ही जीव को, जिससे पीड़ा कार्य । सत्य वचन उसको कहें, पूज्य ऋषीश्वर आर्य || || दुःखित जन का क्लेश से, करने को उद्धार ।" मृषा वचन भी सन्त के होते सत्य अपार ||२|| निज मन ही यदि जानता, जिसे असत्य प्रलाप । ऐसी वाणी बोलकर, मत लो मन संताप ||३|| सत्यव्रत के योग से, जिसका चित्त विशुद्ध । करता है वह विश्व के मन पर शासन शुद्ध || ४ || शाश्वत सुखमय सत्य ही, जिसको मन से मान्य ऋषियों से वह है बड़ा, दानी से अधिमान्य ||५|| 'मिथ्यावादी' यह नहीं, जिसकी ऐसी कीर्ति । बिना क्लेश उसको मिलें, ऋद्धि-सिद्धि वरप्रीति ॥ ६ ॥ मत कह मत कह झूठ को, मिथ्या कथन अधर्म । सत्य वचन यदि पास तो वृथा अन्य सब धर्म ॥७३॥ जैसे निर्मल नीर से, होती देह विशुद्ध । त्यों ही नर चित्त भी होता सत्य विशुद्ध ॥८॥ अन्य ज्योति को ज्योति ही, प्राज्ञ न माने ज्योति । सत्य प्रकाशक ज्योति को कहते सच्ची ज्योति ||६|| देखी मैंने लोक में, जो जो वस्तु अनेक I उनमें पाया सत्य ही, परमोत्तम बस एक ||१०|| 168 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो कुभत्य काव्य परपरिच्छेदः 30 सत्यता 1-सचाई क्या है ? जिससे दूसरों को कुछ भी हानि न पहुंचे उस बात का बोलना ही सचाई है । 2-उस झूठ में भी सत्यता की विशेषता है जिसके परिणाम में नियम से भलाई ही होती हो । 3-जिस बात को तुम्हारा मन जानता है कि वह झूठ है, उसे कभी मत बोलो, क्योंकि झूठ बोलने से स्वयं तुम्हारी अन्तरात्मा ही तुम्हें जलायेगी। 4-देखो, जिस मनुष्य का मन असत्य से अपवित्र नहीं है, वह सबके हृदय पर शासन करेगा । 5-जिसका मन सत्यशीलता में निमग्न है वह पुरुष तपस्वी से भी महान् और दानी से भी श्रेष्ठ है । 6-मनुष्य के लिए इससे बढ़कर सुयश और कोई नहीं है कि लोगों में उसकी प्रसिद्धि हो कि वह झूठ बोलना जानता ही नहीं । ऐसा पुरुष अपने शरीर को कष्ट दिये बिना ही सब तरह की सिद्धियों को पा जाता है । 7-"असत्य माषण मत करो यदि मनुष्य इस आदेश का पालन कर सके तो उसे दूसरे धर्मों के पालन करने की आवश्यकता नहीं है। ___-शरीर को स्वच्छता का सम्बन्ध तो जल से है. परन्तु मन की पवित्रता सत्यभाषण से सिद्ध होती है । 9--योग्य पुरुष और सब प्रकार के प्रकाशों को प्रकाश ही नहीं मानते, केवल सत्य की ज्योति को ही वे सच्चा प्रकाश मानते हैं । 10-मैंने इस संसार में बहुत सी वस्तुएं देखी हैं. परन्तु उनमें सत्य से बढ़कर उप और कोई वस्तु नहीं है । --.-...-- .. - ..- 169)----------------- Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेद: 39 क्रोध-त्याग क्रोध त्याग तब ही मला, जब हो निग्रह शक्ति । कारण क्षमता के बिना, निष्फल राग-विरक्ति ||१|| 1 यदि है निग्रहशक्ति तो, कोप, घृणामय व्यर्थ और नहीं वह शक्ति तो, कोप किये क्या अर्थ ॥२॥ हानिविधायक कोई हो, तो भी तजदो रोष । कारण करता सैकड़ों, अति अनर्थ यह दोष || ३ || क्रोध तुल्य रिपु कौन जो कर सर्व-विनाश हर्ष तथा आनन्द को, वह है यम का पाशा | ४॥ निज शुभ की यदि कामना, कोप करो तो दूर । टूटेगा वह अन्यथा, कर देगा सब धूर ||५|| जलता वह ही आग में, जो हो उसके पास । क्रोधी का पर वंश भी, जलता बिना प्रयास ।। ६ ।। निधिसम मनमें कोप जो, रक्षित रखता आप । भू में कर वह मारकर पागल करे विलाप ||७|| बड़ी हानि को प्राप्त कर, बलता हो यदि कोप । तो भी उत्तम है यही, करो कोप का लोप ॥८॥ इच्छाऐं उसकी सभी, फलें सदा भरपूर जिसने अपने चित्त से, कोप किया अति दूर ॥६॥ वह क्रोधी मुततुल्य है, जिसे न निज का भान । पर उसका होत सन्न समान |1901 " More Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - .. -- - - - -- न कुमार काव्य परिच्छेद: 39 क्रोध-त्याग 1-जिसमें चोट पहुंचाने की शक्ति है उसी में सहनशीलता क. होना समझा जा सकता है । जिसमें शक्ति ही नहीं है वह क्षमा करे य न करे. उससे किसी का क्या बनता बिगड़ता है ? 2-यदि तुम में प्रहार करने की शक्ति न भी हो तब भी क्रोध करना बुरा है और यदि तुम में शक्ति हो तब क्रोध से बढ़कर बुरा काम और कोई नहीं है । -तुम्हारा अपराधी कोई भी हो, पर उसके ऊपर कोप न करो, . क्योंकि क्रोध से सैकड़ों अनर्थ पैदा होते हैं । 4-क्रोध हर्ष को जला देता है और उल्लास को नष्ट कर देता है । क्या क्रोध से बढ़कर मनुष्य का और भी कोई भयानक शत्रु है ? 5–यदि तुम अपना भला चाहते हो तो रोष से दूर रहो, क्योंकि दूर न रहोगे तो वह तुम्हें आ दबोचेगा और तुम्हारा सर्वनाश कर डालेगा । 6-अग्नि उसी को जलाती है जो उसके पास जाता है, परन्तु क्रोधाग्नि सारे कुटुम्ब को जला डालती है । 7-जो क्रोध को इस प्रकार हृदय में रखता है मानो वह बहुमूल्य पदार्थ हो । वह उस मनुष्य के समान है जो जोर से पृथ्वी पर हाथ दे मारता है उस आदमी के हाथों में चोट लगे बिना नहीं रह सकती. ऐसे क्रोधी पुरुष का सर्वनाश अवश्यम्भावी है । 8-जो तुम्हें हानि पहुँची है वह भले ही तुम्हें प्रचण्ड अग्नि के समान जला रही हो तब भी यही अच्छा है कि तुम क्रोध से दूर रहो। _g-मनुष्य की समस्त कामनाएं तुरन्त ही पूर्ण हो जाया करें यदि अपने मन से क्रोध को दूर कर दें । 10-जो क्रोध के मारे आपे से बाहर है वह मृतक के समान है. पर जिसने कोप करना त्याग दिया है वह सन्तो के समान है । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -जा कुशल काव्य पर परिच्छन्दः 3२ उपद्रव-त्याग चाहे मिले कुवेरनिधि, फिर भी शुद्ध महान । नहीं किसी को त्रास दें, सज्जन दया निधान ।।१।। उच्च जनों को द्वेषवश, यदि दे कष्ट निकृष्ट । वैरशुद्धि उनको नहीं, करती पर आकृष्ट 11२।। जब अंहेतु दुःखद मुझे, तब 'मैं त्रास अपारदूंगा सह संपला ही, बन्द हुन अगार !३!! अरि का भी उपकार कर, दे दो लज्जा-मार । दुष्टदण्ड के हेतु यह, सबसे श्रेष्ठ प्रकार ।।४।। कष्ट न जाने अन्य का, जो नर आप समान । महाबुद्धि उसकी अहो, तब है व्यर्थ समान ।।५।। भोगे मैंने दुःख जो, होकर अति हैरान । . परको वे दूंगा नहीं, रखे मनुज यह ध्यान ।।६।। जानमान जो अन्य को, नहीं स्वल्प भी कष्टदेता, उस सम कौन है, भूतल में उत्कृष्ट ।।७।। जिन दुःखों में आप ही, नर है हुआ अधीर । वे फिर कैसे अन्य को, देगा बन बे-पीर ।।८।। यदि देते पूर्वान्ह में, निकटगृही को खेद । ____ तो भोगो अपरान्ह में, तुम भी सुखविच्छेद 11६।। दुष्कर्मी के शीष पर, सदा विपद का पूर । जो चाहें निज त्राण वे, रहते उनसे दूर ।। १०॥ 1 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः 32 उपद्रव त्याग 1- शुद्धांतःकरणाला मनुष्य की सम्पत्ति मिले तो भी किसी को त्रास देने वाला नहीं बनेगा | 2 - द्वेषबुद्धि से प्रेरित होकर यदि कोई दूसरा आदमी उसे कष्ट देवे तो भी पवित्र हृदय का व्यक्ति उसे उसका बदला नहीं देता । 3- यदि बिना किसी छेड़खानी के तुम्हें किसी ने कोई कष्ट दिया है और बदले में तुम भी उसे वैसा ही कष्ट दोगे तो अपने ऊपर ऐसे घोर संकटों को खींच लोगे जिनका फिर कोई उपचार नहीं । 4- दुख देने वाले व्यक्ति को शिक्षा अर्थात् दण्ड देने का यह ही एक उत्तम उपाय है कि तुम उसके बदले में मलाई करो जिससे वह मन ही मन लज्जा के मारे मर जावे, यह ही उससे बड़ी गहरी मार है। 5- दूसरे प्राणियों के दुःख को जो अपने दुःख समान ही नहीं समझता और इसीलिए वह दूसरों को कष्ट देने से विमुख नहीं होता, ऐसे मनुष्य की बुद्धिमत्ता का क्या उपयोग ? 5- स्वयं एक बार दुखों को भोग कर मनुष्य के फिर वैसे कष्ट दूसरों को न देने का ध्यान रखना चाहिये । 7- यदि तुम जानबूझकर किसी प्राणी को थोड़ा सा भी दुःख नहीं देते हो, तो यह बड़ी श्लाघ की बात है । 8- स्वयं कष्ट आ पड़ने पर कैसी वेदना होती है. ऐसा जिसको अनुभव है वह दूसरे को दुःख देने के लिए कैसे उतारू होगा ? 9- यदि कोई मनुष्य किसी पड़ोसी को दोपहर को दुःख देता है। तो उसी दिन तीसरे पहर ही उसके ऊपर विपत्तियाँ अपने आप आ टूटेंगी । 10 - दुष्कर्म करने वालों के शिर के ऊपर विपत्तियाँ सदैव आया ही करती हैं, इसलिए जो मनुष्य दुःखदाई अनिष्टों से बचना चाहते है वे आप ही दुष्कृत्यों से सदैव अलग रहते हैं । 173 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ता, कुरष काव्य परपाटेच्छेदः 33 अहिंसा सब धर्मों में श्रेष्ठ है, परम अहिंसा धर्म । हिंसा के पीछे लगे, पाप भरे सब कर्म ।। १।। सन्तों के उपदेश में, ये ही दो है सार । जीवों की रक्षा तथा, भूखे को आहार ।।२।। कहता सारा लोक है, परम अहिंसा-धर्म । उसके पीछे सत्य है, ऋषियों का यह मर्म ।।३।। __ मत मारो बुध मूलकर, लघु से भी लघु जीव । वह ही उज्ज्वल मार्ग है, जिसमें दया अतीव।।४।। जिसने त्यागे विश्व के, पाप भरे सब कर्म । उन में भी वह मुख्य है, जिसे अहिंसा धर्म ।।५।। धन्य ! अहिंसा का व्रती, जिसमें करुणा भाव । उसके सुदिनों पर नहीं, काल बली का घाव।।६।। जीवन संकट ग्रस्त हो, पाकर विपवा-काल । तो भी पर के प्राण को, मत ले विज्ञमराल ।।७।। सुनते हैं बलिदान से, मिलतीं कई विभूति । वे भव्यों की दृष्टि में, तुच्छ घृणा की मूर्ति ।।८।। जिनकी निर्भर जीविका, हत्या पर ही एक । मृतभोजी उनको विबुध, माने, हो सविवेक ।।६।। सड़े गले उस देह को, देख सतत धीमान । घातक वह था पूर्व में, सोचें मन अनुमान।।१०।। 174 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काय परिच्छेदः 33 अहिंसा 3. अहिंसा सब धर्मों में श्रेष्ठ है। हिंसा से पीछे सब प्रकार के जाप लगे रहते हैं । 2- क्षुधावाधितों के साथ अपनी रोटी बाँट कर खाना और हिंसा से दूर रहना, यह सब धर्म उपदेष्टाओं के समस्त उपदेशों में श्रेष्ठतम उपदेश है । 3- अहिंसा सब धर्मों में श्रेष्ठ धर्म है । सचाई की श्रेणि उसके पश्चात् है । 4- सन्मार्ग कौन सा है ? यह वही मार्ग है जिसमें छोटे से छोटे जीव की रक्षा का पूरा ध्यान रक्खा जाये ! 5- जिन लोगों ने इस पापमय सांसारिक जीवन को त्याग दिया है उन सब में मुख्य वह पुरुष है जो हिंसा के पाप से डर कर अहिंसा मार्ग का अनुसरण करता है । ६–धन्य है वह पुरुष जिसने अहिंसा व्रत धारण किया है । मृत्यु जो सब जीवों को खा जाती है उसके सुदिनों पर हमला नहीं करती । 7- तुम्हारे प्राण संकट में भी पड़ जावें तब भी किसी की प्यारी जान मत लो । 8- लोग कहते हैं कि बलि देने से बहुत सारे वरदान मिलते हैं, परन्तु पवित्र हृदय वालों की दृष्टि में ये वरदान जो हिंसा करने से मिलते हैं जघन्य और घृणास्पद हैं । 9- जिन लोगों का जीवन हत्या पर निर्भर है, समझदार लोगों की दृष्टि में वे मृतक भोजी के समान हैं । 10- देखो, वह आदमी जिसका सड़ा हुआ शरीर पीवदार घावों से भरा हुआ है, वह पिछले भवों में रक्तपात बहाने वाला रहा होगा. ऐसा बुद्धिमान लोग कहते हैं । 175 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य - कुबल काव्य पर परिच्छेदः 38 संसार की अनित्यता इससे बढ़कर मोह क्या, अथवा ही अज्ञान । नश्वर को ध्रुव मानना, और न निज पहिचान ||१|| श्री का आना, खेल में जुड़ती जैसी भीड़ । श्री का जाना, खेल से हटती जैसी भीड़ ।।२।। ऋद्धि मिली लो शीघ्र ही, करलो कुछ शुभ कार्य । कारण किसी नहीं, अधिक समय यह आर्य ।।३।। यद्यपि दिखता काल है, सरल तथा निर्दोष । पर आरे सम काटता, सबका जीवन कोष ।।४।। शुभ कार्यों का प्राज्ञजन, करो लगे ही हाथ । क्या जाने जिव्हा रुके, कब हिचकी के साथ ।।५।। कल ही था इस लोक में, एक मनुज विख्यात । आज न चर्चा है कहीं, कैसी अद्भुत बात ।।६।। जीवित रहता या नहीं, पल भर भी सन्देह । कोटि कोटि संकल्प का, फिर भी यह मन गेह ।।७।। खग लगते ही पंख के, उड़ता अण्डा फोड़। उस सम देही कर्मवश, जाता काया छोड़ ।।६।। निद्रासम ही मृत्यु है, जीना जगना एक । निर्णय ऐसा प्राज्ञवर, करते हैं सविवेक ।।६।। लोगो ! क्या इस जीव का, निजगृह नहीं विशेष ।। जिससे निन्दित देह में, सहता दुःख अशेष ।। १०।। - - - - Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो कुल काव्य पर परिच्छेदः 38 संसार की अनित्यता 1-उस मोह से बढ़कर मूर्खता की बात और कोई नहीं है कि जिसके कारण अस्थायी पदार्थों को मनुष्य स्थिर और नित्य समझ बैठता है । 2-धनोपार्जन करना खेल देखने के लिए आयी हुई भीड़ के सदृश है और धन का क्षय उस भीड़ के तितर-बितर हो जाने के समान है । 3--समृद्धि क्षणस्थायी है । यदि तुम समृद्धिशाली हो गये हो तो ऐसे काम करने में देर न करो जिनसे स्थायी लाभ पहुँच सकता है । 4-समय देखने में भोला भाला और निर्दोष मालूम होता है, परन्तु वास्तव में वह एक आरा है जो मनुष्य के जीवन को बराबर काट रहा है । 5–पबित्र काम करने में शीघ्रता करो, ऐसा न हो बोली बन्द हो जाय और हिचकियाँ आने लगें । 6-कल तो एक आदमी विद्यमान था और आज वह नहीं है, संसार में यही बड़े अचरज की बात है । 7-मनुष्य को इस बात का तो पता नहीं कि पल भरे के पश्चात् यह जीवित रहेगा या नहीं, पर उसके विचारों को देखो तो वे करोड़ों की संख्या में चल रहे हैं । -पंख निकलते ही चिड़िया का बच्चा फूट हुए अण्डे को छोड़कर उड़ जाता है । शरीर और आत्मा की पारस्परिक मित्रता का यही दृष्टान्त है। g-मृत्यु नींद के समान है और जीवन उस निद्रा से जागने के तुल्य है। ___ 10-क्या आत्मा का अपना कोई निज घर नहीं है, जो वह इस निकृष्ट शरीर में आश्रय लेता है ? Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज कुबल कार - परिच्छेदाः 349 त्याग प्रण लेकर जिस वस्तु का, कर देता नर त्याग । मानो उसके दुःख से, बचता वह बेलाग ।।१।। आकर है सुखरत्न का, सागर जैसा त्याग । चिर सुख की यदि कामना, करो सदा तो त्याग।।२।। जीतो पाँचों इन्द्रियाँ, जिनमें भरा विकार । प्रिय से छोड़ो मोह फिर, त्याग यही क्रमवार ।।३।। सर्व परिग्रह-त्याग ही, आर्षव्रतों में सार । तजकर लेना एक भी, बन्धन का ही द्वार ।।४।। जब मुमुक्षु की दृष्टि में निज-तनु भी है हेय । तब उस को क्यों चाहिए, बन्धन भरे विधेय ११५।। 'मेरा' 'मैं' के भाव तो, स्वार्थ-गर्व के थोक । जाता त्यागी है वहाँ, स्वर्गोपरि जो लोक ।।६।। प्रिय संयम जिसको नहीं, फंसकर तृष्णाजाल । मुक्त न होगा दुःख से, घिरा रहे बेहाल |७|| मुक्ति पथिक वह एक जो, विषयविरक्त अतीव । अन्य सभी तो मोह में, फँसे जगत के जीव।।८।। लोभ-मोह को जीतते, पुनर्जन्म ही बन्द । फँसते वे भ्रमजाल में, कटें न जिनके फन्द ।।६।। शरण गहो उस ईश का, जिसने जीता मोह । आश्रय लो उस देव का, जिससे कटता मोह ।।१०।। 178 - .... Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुमक्ष अाच पर परिच्छेदः 3 त्याग १ --मनुष्य ने जो वस्तु छोड़ दी है उससे पैदा होने वाले दुःख से उसने अपने को मुक्त कर लिया है । त्याग से अनेको प्रकार के सुख उत्पन्न होते हैं, इसलिए यदि तुम उन्हें अधिक समय तक भोगना चाहते हो तो शीध्र त्याग करो। 3-अपनी पाँचों इन्द्रियों का दमन करो और जिन पदार्थों से तुम्हें सुख मिलता है उन्हें बिल्कुल ही त्याग दो । 4-अपने पास कुछ भी न रखना यही व्रतधारी का नियम है । एक वस्तु को भी अपने पास रखना मानों उन बन्धनों में फिर आ फँसना है जिन्हें मनुष्य एक बार छोड़ चुका है । जो लोग पुनर्जन्म के चक्र को बन्द करना चाहते हैं, उनके लिए यह शरीर भी अनावश्यक है । फिर भला अन्य बन्धन कितने अनावश्यक न होंगे ? 6-'मैं' और 'मेरे के जो भाव हैं, वे घमण्ड और स्वार्थ पूर्णता के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं । जो मनुष्य उनका दमन कर लेता है वह देवलोक से भी उच्च लोक को प्राप्त होता है । 7-देखो, जो मनुष्य लालच में फंसा हुआ है और उससे निकलना नहीं चाहता, उसे दुःख आकर घेर लेगा और फिर मुक्त न होगा । 8-जिन लोगों ने सब कुछ त्यागं दिया है, वे मुक्ति के मार्ग में हैं, परन्तु अन्य सब मोहजाल में फंसे हुए हैं ।। -ज्यों ही लोभ-मोह दूर हो जाते हैं त्यों ही उसी क्षण पुनर्जन्म बन्द हो जाता है । जो मनुष्य इन बन्धनों को नहीं काटते वे भ्रमजाल में फंसे रहते हैं । . 10-उस ईश्वर की शरण में जाओ जिसने सब मोहों को छिन्न भिन्न कर दिया है और उसी का आश्रय लो जिससे सब बन्धन टूट जायें । (1794 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा कुबल काव्य पर परिच्छेदः 38 सत्य का अनुभव क्षण भंगुर संसार में, कोई वस्तु न सत्य । दुःखित जीवन भोगते, वे जो समझें सत्य ॥१।। भ्रान्ति-भाव से मुक्ति हो, जो नर निर्मल दृष्टि । || दुःखतिमिर उसका हटे, और मिले सुख-सृष्टि ।।२।। जिसने छोड़ असत्य को, पाया सत्य प्रदीप । पृथ्वी से भी स्वर्ग है, उसको अधिक समीप ।।३।। कभी न चाखा सत्य यदि, जो है शाश्वत अर्थ । मनुजयोनि में जन्म भी, लेना तब है व्यर्थ ।।४।। इसमें इतना सत्य है, शेष मृषा व्यवहार । ऐसा निर्णय वस्तु का, करती मेधासार ।।५।। धन्य पुरुष, स्वाध्याय से, जिसके सत्य विचार । शिवपथ के उस पान्य को, मेले न फिर संसारा।६।। ध्यानाथिक से प्राप्त हो, जिसको सत्य अपार । भावी जन्मों के लिए, उसे न सोच विचार ।।७।। शुद्ध ब्रह्ममय आप हो, करे अविद्या दूर । जो जननी भवरोग की, वही बुद्धि गुणपूर ।।८।। शिव साधन का विज्ञ जो, मोह विजय संलग्न । उसके भावी दुःख सब, बिना यत्न ही भग्न ।।६।। काम क्रोधयुत मोह भी, ज्यों ज्यों होगा क्षीण । त्यो अनुगामी दुःख भी, होते अधिक विलीन ||१०|| -180P Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुल काव्य पर परिच्छेदः 38 सत्य का अनुभव 1--मिथ्या और अनित्य पदार्थों का सत्य समझने के भ्रम से ही मनुष्य को दुःखमय जीवन भोगना पड़ता है । 2-जो मनुष्य भ्रमात्मक भावों से मुक्त है और जिसकी दृष्टि निमल है उसके लिए दुःख और अंधकार का अन्त हो जाता है तथा आनन्द उसे प्राप्त होता है । --जिसने अनिश्चित बातों से अपने को मुक्त कर लिया है और सत्य अर्थात् आत्मा को पा लिया है, उसके लिए स्वर्ग पृथ्वी से भी अधिक समीप है । 4-मनुष्य जैसी उच्च योनि को प्राप्त कर लेने से भी कोई लाभ नहीं, यदि आत्मा न सत्य का आस्वादन नहीं किया । ___5-कोई भी बात हो, उसमें सत्य को झूठ से पृथक कर देना ही मेधा का कर्तव्य है। 6-यह पुरुष धन्य है जिसने गम्भीरता पूर्वक स्वाध्याय किया है और सत्य को पा लिया है । वह ऐसे मार्ग से चलेगा जिससे उसे इस संसार में न आना पड़ेगा । 1-निस्सन्देह जिन लोगों ने ध्यान और धारणा के द्वारा सत्य को पा लिया है उन्हें आगे होने वाले भवों का विचार करने की आवश्यकता नहीं। 8-जन्मों की जननी अविद्या से छुटकारा पाना और सच्चिदानन्द को प्राप्त करने की चेष्टा करना ही बुद्धिमानी है ।। 9-देनो, जो पुरुष मुक्ति के साधनों को जानता है और सब मोहों को जीतने का प्रयत्न करता है. भविष्य में आने वाले सब दुःख उससे दूर हो जाते हैं । 10-काम, क्रोध और मोह ज्यों ज्यों मनुष्य को छोड़ते जाते हैं. दुःख भी उनका अनुशरण करके धीरे धीरे नष्ट हो जाते हैं । 1814 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ३७ कामना का दमन एक वस्तु की कामना, बनती बीज समान । जन्म फसल जो जीव को, करती संतत दान || 9 || करनी हो यदि कामना, तो चाहो भव - पार | पर निष्कामी ही वहाँ, रखता है अधिकार ||२|| इच्छा-जय ही लोक में, वस्तु बड़ी निर्दोष । स्वर्गों में भी दूसरा, उस सम अन्य न कोष || ३ || नहीं कामना त्यागसम, उत्तम कोई शुद्धि । परब्रह्म में प्रीति हो, तो हो ऐसी बुद्धि || ४ || जिसने जीती कामना, वह ही मुक्त महान । अन्य बँधे भवपास में, दिखें स्वतंत्र समान ।। ५ ।। त्यागो तृष्णा दूर ही, जो चाहो शुभ काल । मिले निराशा अन्त में, तृष्णा केवल जाल ।। ६ ।। छोड़े जिसने सर्वथा, विषयों के सब कार्य । मुक्ति मिले उस मार्ग से कहे जिसे वह आर्य ॥७॥ जिसे न कोई कामना, उसे न कोई दुःख । आशा में मारा फिरे, उसको सब ही दुःख ||८|| मिल सकता नर को, यहाँ स्थायी सुख अनुरूप । तृष्णा यदि विध्वस्त हो, जो है विपदा रूप ||६|| भूतल में वह कौन है, जो हो इच्छातृप्त । जिसने ये ही त्याग दीं, वह ही पूरा तृप्त ||१०|| 182 1 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुरख व्हा परिच्छेदः 30 कामना का दमन 1- कामना एक बीज है जो प्रत्येक आत्मा को सर्वदा ही अनवरत कभी न चूकने वाली जन्म मरण की फसल प्रदान करता है । 2- यदि तुम्हें किसी बात की कामना करनी ही है तो पुनर्जन्म के चक्र से छुटकारा पाने की कामना करो और वह छुटकारा तभी मिलेगा जब तुम कामना को जीतने की इच्छा करोगे । 3. निष्कामवृत्ति से बढ़कर इस जगत में दूसरी और कोई सम्पत्ति नहीं है और तुम स्वर्ग में भी जाओ तो तुम्हें ऐसी अमूल्य निधि न मिलेगी जो इसकी तुलना करे 4- कामना से मुक्त होने के सिवाय पवित्रता और कुछ नहीं है और यह मुक्ति पूर्णसत्य (शुद्ध आत्मा) की इच्छा करने से ही मिलती है। 5- यही लोग मुक्त हैं जिन्होंने अपनी इच्छाओं को जीत लिया है, बाकी लोग देखने में स्वतंत्र मालूम पड़ते हैं, पर वास्तव में वे कर्मबन्धन से जकड़े हुए हैं । 6--यदि तुम भद्रता को चाहते हो तो कामना से दूर रहो, क्योंकि कामना एक जाल और निराशा मात्र है । 7- यदि कोई मनुष्य अपनी समस्त वासनाओं को सर्वथा त्याग दे तो जिस मार्ग से आने की वह आज्ञा देता है मुक्ति उसी मार्ग से आकर उससे मिलती है । 8- जो किसी बात की लालसा नहीं रखता, उसको कोई दुःख नहीं होता, पर जो वस्तुओं के लिए मारा मारा फिरता है उस पर आपत्तियों के ऊपर आपत्तियाँ आती हैं । 9- यहाँ भी मनुष्य को रियर सुख प्राप्त हो सकता है यदि वह अपनी इच्छा का ध्वंस कर डाले, क्योंकि इच्छा ही सबसे बड़ी आपत्ति है 10- इच्छा कभी तृप्त नहीं होती, किन्तु यदि कोई मनुष्य उसको त्याग दे तो वह उसी क्षण पूर्णता को प्राप्त कर लेता है । 183 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -जा कुबल काव्य और परिच्छेदः 36 भवितव्यता दृढ़प्रतिज्ञ होता मनुज, पाकर उत्तम भाग्य । वही पुरुष होता शिथिल, जब आवे दुर्भाग्य ।।१।। घटे मनुज की शक्ति भी, जब आवे दुर्भाग्य । प्रतिभा जागृत हो उठे, जब जागे सद्भाव ।।२।। ज्ञान तथा चातुर्य से, क्या हो लाम महान । कारण अन्तरब्रह्म ही, सर्वोपरि बलवान ।। ३।१ . भिन्न सर्वथा एक से, दो ही जग में वस्तु । एक वस्तु ऐश्वर्य है, साधुशील परवस्तु ।।४।। शुभ भी बनता अशुभ है, जब हो उलटा भाग्य । और अशुम भी शुभ बने, जब हो सीधा भाग्य ।।५।। ___ बचे नहीं वह यल से, जिसे न चाहे दैव । फेंकी वस्तु न नष्ट हो, जब हो रक्षक दैव ॥६॥ ऊँचे शासक दैव का, जो न मिले कुछ योग । तो कौड़ी भी कोटिपति, कर न सके उपभोग ।।७।। निर्थन भी करते कभी, त्यागी जैसे भाव । दैव दुःख भोगार्थ पर, देता उन्हें दबाव ।।८।। सुख में जो है फूलता, होकर हर्षित चित्त । दुःख समय वह शोक में, क्यों हो दुःखित्तचित्त ।।६।। दैव बड़ा बलवान है, कारण उससे ग्रस्त । करता जय का यत्न जब, तब ही होता पस्त ।।१०।। । (184 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिच्छेदः 38 मदितत्यता 1...मनुष्य दृढ़प्रतिज्ञ हो जाता है जब भाग्यलक्ष्मी उस पर प्रसन्न होकर कृपा करना चाहती है, परन्तु मनुष्य में शिथिलता आ जाती है जब भाग्यलक्ष्मी उसे छोड़ने को होती है । 2-दुर्भाग्य शक्ति को मन्द कर देता है. परन्तु जब भाग्यलक्ष्मी कृपा दिखाना चाहती हो तो पहिले बुद्धि में विस्फूर्ति कर देती है । 3-ज्ञान और सब प्रकार की चतुराई से क्या लाम ? जब कि भीतर जो आत्मा है उसका ही प्रभाव सर्वोपरि है । 4-जगत मे दो वस्तुएँ हैं, जो एक दूसरे से बिलकुल नहीं मिलती। धन सम्पत्ति एक वस्तु है और साधुता तथा पवित्रता दूसरी वस्तु । 5-जब किसी का भाग्य फिर जाता है तो भलाई भी बुराई में बदल जाती है, पर जब दैव अनुकूल होता है तो बुरे भी अच्छे हो जाते 6-भवितव्यता जिस बात को नहीं चाहती, उसे तुम अत्यन्त चेष्टा करने पर भी रख सकते, और तो वस्तुएँ तुम्हारी हैं, तुम्हारे भाग्य में वदी हैं उन्हें तुम इधर उधर फेंक भी दो, फिर भी वे तुम्हारे पास से नहीं जावेंगी। 7..उस महान शासक (दैव) के बिना करोड़पति भी अपनी सम्पत्ति का किंचित् भी उपभोग नहीं कर सकता । 8-गरीब लोग निस्सन्देह अपने मन को त्याग की ओर झुकाना चाहते हैं, किन्तु भवितव्यता उन्हे उन दुःखों के लिए रख छोडती है जो उन्हें भोगने है । 9-अपना भला देख कर जो मनुष्य प्रसन्न होता है उसे आपत्ति आने पर क्यो दुःखी होना चाहिए ? 10-होनी से बढ़कर बलवान् और कौन है ? क्योंकि जब से मनुष्य उसके फन्दे से छूटने का यत्न करता है तब ही वह आगे बढ़कर उसको पछाड देती है । 185 -- -- Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जकुमार काव्य र परिछन्दः 38 राजा राष्ट्र, दुर्ग, मंत्री, सखा, धन, सैनिक नरसिंह । ये है जिसके पार है, भूप में वह कि ! साहस, बुद्धि, उदारता, कार्यशक्ति आधार । आवश्यक ये सर्वथा, भूपति में गुण चार ।।२।। शासक में ये जन्म से, होते अतिशय तीन ।। छानवीन, विद्याविपुल, निर्णयशक्ति प्रवीन ।।३।। कभी न चूके धर्म से, पापों को अरि रूप । हट से रक्षक मान का, वीर वही सच भूप ।।४।। शासन के प्रति अंग में, कैसे हो विस्फूर्ति । और बुद्धि निज कोष की, क्योंकर होगी पूर्ति ।। धन का कैसा आय व्यय, क्या रक्षा कर्तव्य । निजहितकाँक्षी भृप को, ये सब हैं ज्ञातव्य [१५|| युग्मर) जिस भूपति के पास में, पहुँच सके सब राज्य । परुष वचन जिसके नहीं, उसका उन्नत राज्य ।।६।। जिसका शासन प्रेममय, तथा उचित प्रियदान । उस नृप की शुभ कीर्ति का, भूभर में सम्मान ।।७।। न्याय करे निष्पक्ष हो, पालन की रख टेव । ऐसा भूपति धन्य है, पृथ्वी में वह देव ।।।। कर्णकटुक भी शब्द जो, सुन सकता भूपाल । छत्रतले वसुधा बसे, उस नृपके सब काल ।।६।। | जो नृप न्याय, उदारता, सेवा, करुणाज्योति । भूपों में उस भूप की, सब से उज्ज्वल ज्योति ।।१०।। 186) Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुशल काव्य परपरिच्छेदः 38 राजा 1-जिसके सेनः, लोकसख्या, धन, मंत्रिमण्डल. सहायकमित्र, और दुर्ग थे ; स्थेष्ट रूप में है, वह नृपमण्डल में सिंह है । 2--राजा ने ताहसदारता, बुद्धिमानी और कार्यशक्ति, इन बातो क कभी अभाव नहीं होना चाहिए । -जो पुरुष इस पृथ्वी पर शासन करने के लिए उत्पन्न हुने उन्हें चौक सी. जानकारी और निश्चयबुद्धि. ये तीनों खूबियाँ कभी नहीं छोड़ती। 4 राजा को धर्म करने में कभी न चूकना चाहिए और अधर्म को सदी दूर करना चाहिए । उसे स्पर्धापूर्वक अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा करनी चाहिए. परन्तु वीरता के नियमों के विरुद्ध दुराचार कभी न करना चाहिए । राजा को इस बात का ज्ञान रखना चाहिए कि अपने राज्य के साधनों की विस्फूर्ति और वृद्धि किस प्रकार की जाय और खजाने की पूर्ति किस प्रकार हो. धन की रक्षा किस रीति से की जावे और किस प्रकार समुचित रूप से उसका व्यय किया जावे । 6-यदि समस्त प्रक्षा की पहुँच राजा तक हो और राजा कभी कठोर बचन न बोलं ता उसका राज्य सबसे ऊपर रहेगा । 7.-जो राजा प्रीति के साथ दान दे सकता है और प्रेम के साथ शारान करता है उसका यश जगत भर में फैल जायेगा ।। -धन्य है वह राजा. जो निष्पक्ष होकर न्याय करता है और अपनी प्रजा की रक्षा करता है । वह मनुष्यों में देवता समझा जायेगा। -देखो. जिस राजा मे कानों को अप्रिय लगने वाले वचनों को सहन करने का गुग है, पृथ्वी निरन्तर उसकी छत्रछाया में रहेगी । 10- जो राजा उदार, दयालु तथा न्यायनिष्ठ है और जो अपनी प्रजा । को प्रेमपूर्वक संवा करता है वह राजाओ के मध्य में तिरवरूप है। 187 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिच्छेद: ४० शिक्षा जो कुछ शिक्षा योग्य है, वह सब सीखो तात । शिक्षण के पश्चात् ही, चलो उसी विथ प्रात ।। १।। जीवित, मानव जाति के, दो ही नेत्र विशेष । अक्षर कहते एक को, संख्या दूजा शेष ।।२।। चक्षु सहित वह एक ही, जिसमें ज्ञान पवित्र । गड्ढे केवल अन्य के, मुख पर बने विचित्र ।।३।। प्राज्ञपुरुष आते समय, देते हर्ष महान । पर वे ही जाते समय,कर देते मन म्लान ।।४।। भिक्षुक सम यदि भर्त्सना, करते हों गुरुदेव । फिर भी सीखो अन्यथा, तजना अधम कुटेव ।।५।। खोदो जितना स्रोत को, उतना मिलता नीर । सीखो जितना ही अधिक, उतनी मति गम्भार ।।६।। शिक्षित को सारी मही, घर है और स्वदेश ।। फिर क्यों चूके जन्म भर, लेने में उपदेश ।।७।। ___ जो कुछ सीखा जीव ने, एक जन्म में ज्ञान । . उससे अग्रिम जन्म भी, होते उच्च महान ।।८।। मुझ सम ही यह अन्य को, देता मनमें मोद । इससे ही बुध चाव से, करते ज्ञान-विनोद ।।६।। विद्या ही नर के लिए, अविनाशी त्रुटिहीन । निधि है, जिससे अन्य धन, होते शोभाहीन ।।१०।। 1880 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -जा कुबल काव्य परपरिच्छन्दः ४० शिक्षा 1-माप्त करने योग्य जो ज्ञान है, उसे सम्पूर्ण रूप से प्राप्त करना चाहिए और पात करने के पश्चात् तदनुसार व्यवहार करना चाहिए । 2-47-14 जाति की जीती जागती दो आँखों हैं, एक को अंक करते है और दूसर को अक्षर । 3- शिक्षित लोग ही आँख वाले कहलाये जा सकते हैं. अशिक्षितों के शिर में केवल दो गड्ढे होते हैं । ___-विद्वान जहाँ कहीं भी जाता है अपने साथ आनन्द ले जाता है, लेकिन जब वह विदा होता है तो पीछे दुःख छोड़ जाता है । 5-यद्यपि तुम्हें गुरु या शिक्षक के सामने उतना ही अपमानित और नीचा बनना पड़े जितना कि एक भिक्षक को धनवान के समक्ष बनना पड़ता है. फिर भी तुम विद्या सीखो । मनुष्यों में अधम वे ही लोग हैं जो विद्या सीखने से विमुख होते हैं । 6--स्रोत को तुम जितना ही खोदोगे उतना ही अधिक पानी निकलेगा । लीक इसी प्रकार तुम जितना ही अधिक सीखोगे उतनी ही तुम्हारी विद्या में वृद्धि होगी । 7 विद्वान के लिए सभी जगह उसका घर है और सभी जगह उसका स्वदेश है । फिर लोग मरने के दिन तक विद्या प्राप्त करते रहने में असावधानी क्यों करते हैं । 8-मनुष्य ने एक जन्म में जो विद्या प्राप्त कर ली है वह उसे समस्त आगामी जन्मों में भी सच्च और उन्नत बना देगी। 9-विहान् देखता है कि जो विद्या उसे आनन्द देती है वह संसार को भी आनन्दप्रद होती है और इसीलिए वह विद्या को और भी अधिक चाहता है। 10. विद्या मनुष्य के लिए त्रुटिहीन एक अविनाशी निधि है. उसके सामने दूसरी सम्पत्ति कुछ भी नहीं है । - - - - -- -- - - - .....-1880-... ... ...... Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः 29 शिक्षा की उपेक्षा जो पूरी शिक्षा बिना, भाषण दे चढ़ मंच | पट बिन चौपड़ खेल का, मानो रचे प्रपंच || १ || वक्ता की त्यों कीर्ति को, चाहे विद्याक्षीण । युवकाकर्षणरागिणी, ज्यों नारी कुचहीन || २ || सब कार्य 1 बिबुधों में यदि धैर्य धर रहे मूर्ख चुपचाप । तो उसको भी यह जगत, गिनता बुध ही आप ।।३।। भले अशिक्षित दक्ष हो, करने में फिर की उसकी राय का, भूख न जो समझे बुध आप को, विद्या से मन खींच । खुलकर लज्जित हो वही बोल सभा के बीच ।।५।। एक अशिक्षित की दशा, ऊषर भूमि समान । जीवित वह इसके सिवा कह न सकें जन आन । । ६ । । प्राज्ञों की धनहीनता, मन को नहीं सुहात । मूर्खविभव उससे अधिक, अप्रिय लगता भ्रात ।।७।। सूक्ष्म तत्त्व जिसके नहीं, बनते प्रतिभागेह । सजी धजी भृण्मूर्ति सम, उसकी सुन्दर देह ||८|| विद्या बिना कुलीन भी, लघु ही होता भान । और सुशिक्षित निम्न भी, लगता गौरववान ||६|| आर्य ॥8॥ पशुओं से जितना अधिक, उत्तम नर है ताल । बस उतना ही मूर्ख से, शिक्षित वर विख्यात ||१०|| 190 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल करण्य परिच्छेदः ४१ शिक्षा की उपेक्षा 1 - बिना पर्याप्तज्ञान के सभा मंच पर जाना वैसा ही है जैसा कि बिना चौपड़ के पॉसे खेलना । 2- उस अनपढ व्यक्ति को देखो, जो प्रभावशाली वक्ता बनने की बछा कर रहा है । उसकी बाँछा वैसी ही है जैसी कि बिना उरोजवाली स्त्री का पुरुषों को आकर्षित करने की इच्छा करना । 3 - विद्वानों के सामने यदि अपने को मौन बनाये रख सके तो मूर्ख आदमी भी बुद्धिमान गिना जायेगा | 4- अनपढ़ व्यक्ति चाहे जितना बुद्धिमान् हो. विज्ञजन उसकी सलाह को कोई महत्व न देगे । 5-क्ति को स्टोनिसने शिक्षा की अवहेलना की है और जो अपने ही मन में बड़ा बुद्धिमान है सभा गोष्ठी में वह अपना भाषण देते ही लज्जित हो जायेगा । 6- अनपढ़ व्यक्ति की दशा उस ऊषर भूमि के समान है जो खेती के लिए अयोग्य है । लोग उसके बारे में केवल यही कह सकते हैं कि वह जीवित है, अधिक कुछ नहीं । 7- विद्वान का दरिद्र होना निस्सन्देह बहुत बुरा है, किन्तु मूर्ख हं I के अधिकार में सम्पत्ति का होना तो और भी बुरा 8- सूक्ष्म तथा शुभ तत्त्वो में जिसकी बुद्धि का पतंश नहीं, उसकी सुन्दर देह अलंकृत एक मिट्टी की मूर्ति के सिवाय और कुछ नहीं है । 9- उच्च कुल में जन्म लेने वाले मूर्ख का उतना आदर नहीं होता जितना निम्नकुलोद्भव विद्वान का ! 10- मनुष्य पशुओं से कितना उच्च है ? इसी प्रकार अशिक्षितो से शिक्षित उतना ही श्रेष्ठ है । 191 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , कुबल काव्य पर परिच्छेदः ४२ बुद्धिमानों के उपदेश निधियों में बहुमूल्य है, कानों का ही कोष । सबसे उत्तम सम्पदा, वही एक निर्दोष ।।१।। नहीं मिले जब भाग्य से, कर्ण-मधुर कुछ पेय । उदरतृप्ति के अर्थ तब, भोजन भव्य विधेय ।।२।। सन्तों के प्रवचन सुने, जिनने नित्य अनेक । पृथ्वी में हैं देवता, नर रूपी वे एक ।।३।। नहीं पढ़ा तो भी, सुनने दो उपदेश । कारण विपदाकाल में, वह ही शान्ति सुधेश ।।४।। धर्मवचन नर के लिए, दृढ़ लाटी का काम । देते विपदा काल में, कर रक्षा अविराम ।।५।। लधु भी शिक्षा धर्म की, सुनो सदा दे ध्यान । कारण यह है एक ही, उन्नति का सोपान ।।६।। श्रवण मनन जिसने किया, शास्त्रों का विधिवार 1। करे न वह बुध भूलकर, निन्द्य वचन व्यवहार ।।७।। श्रवणशक्ति होते हुए, बहरे ही वे कान । विज्ञवचन जिनको नहीं, सुनने की कुछ वान ।।८।। नहीं सुने चातुर्यमय, जिसने बुध-आलाप । भाषण की उसको कला, दुर्लभ होती आप ।।६।। ज्ञानामृत के पान को, बहरे जिसके कान । उस पेटू के सत्य ही, जीवन मृत्यु समान ।।१०।। 192 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिच्छन्दः ४२ बुद्धिमानों के उपदेश 1-सब से बहुमूल्य, निधियो में कानों की निधि है निस्सन्देह वह सब प्रकार की सम्पत्तियों से श्रेष्ठ सम्पत्ति है । 2- जब कानों को देने के लिए भोजन न रहेगा तो पंट के लिए? भी छि भोजन दे दिया जायेगा । 3-देखो, जिन लोगों ने बहुत से उपदेशो को सुना है वे पृथ्वी पर प्रत्यक्ष देवता स्वरूप हैं । 4-यदि कोई मनध्य विद्वान न हो तो भी उसे उपदेश सुनने दो . | क्योंकि जब उसके ऊपर संकट पड़ेगा तब उनसे ही उसं कुछ सान्चना मिलेगी। 5 घमात्माओं के उपदेश, एक दृढ़ लाठी के समान हैं क्योकि जो उनके अनुसार काग करते हैं उन्हें वे गिरने से बचाते हैं । 6- अच्छे शब्दों को ध्यानपूर्वक स्नो चाहे वे थोड़े से ही क्यों न हो, क्योंकि वे थोड़े शब्द भी तुम्हारी प्रतिष्ठा में समुचित वृद्धि करेंगे । 7-जिस पुरुष ने खूब भनन किया है और बुद्धिमानों के वचनों को सुन सुनकर अनेक उपदेशों को जमा कर लिया है. यह भूल से भी कभी निरर्थक तथा बाहियात बातें नहीं करता ।। -सुन राकने पर भी वे कान बहिरे ही हैं जिनको उपदेश सुनने का अभ्यास नहीं है । 9-जिन लोगो ने बुद्धिमानो के चातुरी भरे शब्दों को नहीं सुना है उनके लिए भाषण की नम्रता प्राप्त करना कठिन है । 10- जो लोग जिव्हा से तो चखते हैं. पर कानो की सुरसता से अनभिज्ञ हैं, वे चाहे जियें या मरें इससे जगत् का क्या आता जाता 193 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुपन काव्य और परिच्छेदः ४3 सहसा विपदा चक्र में, प्रतिभा कवच समान । बुद्धिदुर्ग को घेर कर, होते रिपु हैं म्लान ।। १11 यह सुबुद्धि ही रोकती, इन्द्रिय विषय विकार । और अशुभ से श्रेष्ठपथ,ले जाती विथिवार ।।२।। सच से मिथ्या बात को, कर देवे जो दूर ।। चाहे वक्ता कोई हो, वही बुद्धि गुणपूर ।।३।। सरल सदा बोले सुधी, वाणी गौरवपूर्ण । पर-भाषण का मर्म भी,समझे वह अतितूर्ण ।।४।। . सबसे करता प्रेममय, प्राज्ञ सदा व्यवहार । मैत्री जिसकी एकसी, चित्त व्यवस्था धार ।।५।। लोकरीति के तुल्य ही, करना सब व्यवहार । _सूचित करता बुद्धि को वृद्धकथन यह सार ।।६।। प्रतिभाशाली जानता, पहिले ही परिणाम । नहीं जानता अज्ञ पर, आगे का परिणाम ॥७।। विपदा ऊपर आप ही, पड़ना बुद्धि अनार्य । भीतियोग्य से भीत हो,रहना सन्मति कार्य ।।८।। दूरदृष्टि सब कार्य को, रहे प्रथम तैयार । इससे उस पर दुःख का, पड़े न कम्पक वार 11६।। प्रतिमा है यदि पास में, सब कुछ तब है पास । ' होकर भी पर मूर्ख के,मिले न कुछ भी पास ।।१०।। 194 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुशल काव्य र परिच्छेदः ४3 1 बुद्धि समस्त अचानक आक्रमणों को रोकने वाला कवच है. दह ऐसा दुर्ग है जिसे शत्रु भी घेर कर नहीं जीत सकते । 2 यह बुद्धि ही है जो इन्द्रियों को इधर उधर भटकने से रोकती है. उन्हे बुराई से दूर रखती है और शुभकर्म की ओर प्रेरित करती है। 3-समझदार बुद्धि का काम है कि हर एक बात मे झूठ को सत्य से पृथक कर दे. फिर उरस बात का कहने वाला कोई क्यों न हो। 4-बुद्धिमान मनुष्य जो कुछ कहता है इस तरह से कहता है कि उसे सब कोई समझा सके और दूसरों के मुख से निकले हुए शब्दों कं आतरिक भाव को वह शीघ्र समझ लेता है | बुद्धिमान् मनुष्य सबके साक्ष्य मिलनसारी से रहता है और उस की प्रकृति सदा एक सी रहती है. उसकी मित्रता न तो पहिले अधिक बढ़ जाती है और न एकदम घट जाती है । --यह भी एक बुद्धिमानी का काम है कि मनुष्य लोकरीति के अनुसार व्यवहार करे । -समझदार आदमी पहिले से ही जान जाता है कि क्या होने वाला है. पर मूर्ख आगे आने वाली बात को नहीं देख सकता । 8-संकट के स्थान में सहसा दौड़ पड़ना मूर्खता है । बुद्धिमानी का यह भी कहना है कि जिससे डरना चाहिए उससे डरता ही रहे । 9- जो दूरदर्शी आदमी हर एक विपत्ति के लिए पहिले से ही सचेत रहता है वह उस दार से बचा रहेगा जो अति भयंकर है । 10---जिसके पास बुद्धि है उसके पास सब कुछ है. पर मूर्ख के पास सब कुछ होने पर भी कुछ नहीं है । 195) Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, शुल: फाउदा - परिच्छेदः ४४ दोषों को दूर करना क्रोथ दपं को जीतकर, जिसमें हो वैराग्य । उसका एक अपूर्व ही, गौरवमय सौभाग्य ।। १।। दर्प तथा लालच अधिक, मन भी विषयाधीन । भूपति में ये दोष भी, होते बहुधा तीन ।।२।। राई सा. निजदोष भी, माने ताड़ समान । जिसको उज्जवल कीर्ति है, प्यारी-चन्द्रसमान ।।३।। दोषों का तुम नाश कर, बनो सदा निर्दोष । सर्वनाश ही अन्यथा, कर देंगे वे दोष ।।४।। भावी दुःखों के लिए, जो न रहे तैयार । अग्नि-पतित वह घाससम, हो जाता निस्सार ||५|| परविशुद्धि के पूर्व जो, स्वयं बने निर्दोष । योगितुल्य उस भूप को, छू न सके कोई दोष ।।६।। उचित कार्य में भी कभी, करे न दान-प्रकाश । उस मूंजी पर खेद है जिसका अन्त विनाश ।।७।। . निन्दा में सब एक से, दिखते यद्यपि दोष । जीपन पर भिन्न ही,उनमें अधिक सदोष ।।८।। सहसा कोई बात पर, करना अति अनुराग । और वृथा जो काम हैं, उन सब को बुध त्याग ।।६।। अपने मन की कामना, रखलो अरि से गुप्त । जिससे उसके यत्न ही,हो जावें सब लुप्त ।।१०।। (196 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुबरम काव्य और परिच्छेदः ४४ दोषों को दूर करना 1--जो मनुष्य, दर्प, क्रोध और विषय-लालसाओं से रहित है. उसमें एक प्रकार का गौरव रहता है. जो उसके सौभाग्य को भूषित करता है। 2-कंजूसी, अहंकार और अमर्यादित विषय -लम्पटता, ये राजा में विशेष दोष होते हैं। 3-जिन लोगों को अपनी कीर्ति प्यारी है. वे अपने दोष को राई के समान छोटा होने पर भी ताड़ वृक्ष के बराबर समझते है। 4-अपने को दुर्गुणों से बचाने में सदा सचेत रहो, क्योंकि वे ऐसे शत्रु हैं जो तुम्हारा सर्वनाश कर डालेंगे। ___5-जो आदमी अचानक आपडने वाली विपत्तियों के लिए पहिले से ही सज्जित नहीं रहता वह ठीक उसी प्रकार नष्ट हो जागेगा जिस प्रकार आग से सामने फूस का देर। 6-राजा यदि पहिले अपने दोषों को सुधार ले. तब दूसरों के दोषों को देखे. तो फिर कौन सी बुराई उसको छू सकती है। 7--खेद है उस कंजूस पर, जो व्यय करने की जगह व्यय नहीं करता. उसकी सम्पत्ति कुमागों में नष्ट होगी। 8-कंजूस मक्खीचूस होना ऐसा दुर्गुण नहीं है जिसकी गिनती दूसरी बुराईयों के साथ की जा सके. उसकी श्रेणि ही बिल्कुल अलग 9-किसी समय और किसी बात पर फूलकर आपे से बाहिर मत हो जाओ और ऐसे कामों में हाथ न डालो जिनसे तुम्हें कुछ लाभ न ___10-तुम जिन बातों के रसिक हो उनका पता यदि तुम शत्रुओ को न चलने दोगे तो तुम्हारे शत्रुओ की योजनायें निष्फल सिद्ध होंगी। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा, कुवर काव्य पर पारिच्छेदः । योग्य पुरुषों की मित्रता करते करते धर्म जो, हो गये वृद्ध उदार । उनका लेलो प्रेम तुम, करके भक्ति अपार ।। १।। आगे के या हाल के, जो हैं दुःख अथाह । से रक्षक के मा. ब्बलो सदा रत्साह ॥२।। जिसे मिली वर मित्रता, पा करके सद्भाग्य । निस्संशय उस विज्ञ का, हरा भरा सौभाग्य ।।३।। अधिकगुणी की मित्रता, जिसे मिली कर भक्ति । उसने एक अपूर्व ही, पाली अद्भुत शक्ति ।।४।। होते हैं भूपाल के, मंत्री लोचनतुल्य । इससे उनको राखिए, चुनकर ही गुणतुल्य ।।५।। सत्पुरुषों से प्रेममय, जिसका है व्यवहार । उसका वैरी अल्प भी,कर न सके अपकारा।६।। झिड़क सकें ऐसे सखा, प्रति दिन जिस के पास । गौरव के उस गेह में, करती हानि न बास ।।७।। मंत्री के जो मंत्रसम, वचन न माने भूप । बिना शत्रु उसका नियत, क्षय ही अन्तिम रूप ।।८।। जैसे पूंजी के बिना, मिले न धन का लाभ । प्राज्ञों की प्रतिभा बिना, त्यों न व्यवस्थालाम ।।६।। जैसे अखिल विरोध है, बुद्धिहीनता दोष । सन्मैत्री का त्याग पर, उससे भी अतिदोष।।१०।। 198 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ---, गुरू या रामप्र . परिच्छेदः ४५ योग्य पुरुषों की मित्रता 1-जो लोग करते करते वृद्ध हो गये हैं उनकी तुम भक्ति कर तथा मित्रता प्राप्त करने का यत्न करो। 2--तुम जिन कठिनाइयों में फंसे हुए हो. उनकी जो लोग दूर कर सकते हैं और आने वाली बुराइयों से जो तुम्हें बचा सकते हैं उत्साहपूर्वक उनके साथ मित्रता करने की चेष्टा करो। 3-यदि किसी को योग्य पुरुषो की प्रीति और भक्ति मिल जाय तो यह महान से महान सौभाग्य की बात है। 4--जो लोग तुम से अधिक योग्यता वाले हैं, वे यदि तुम्हारे मित्र ब। गये हैं तो तुमने ऐसी शक्ति प्राप्त कर ली है जिसके सामने अन्य सब शक्तियाँ तुच्छ है। ___-मंत्री ही राजा की आँखें हैं. इसलिए उनके चुनने में बहुत ही समझदारी और चतुराई से काम लेना चाहिए। 6-जो लोग सुयोग्य पुरुषों के साथ मित्रता का व्यवहार रख सकते हैं, उनके वैरी सनका कुछ बिगाड़ न सकेंगे । 7...जिस आदमी को ऐसे लोगो की मित्रता की गौरव प्राप्त है ! कि जो उसे डाट.. फटकर सकते हैं उसे हानि पहँचाने वाला कौन है? 8--जो राजा ऐसे पुरुषों की सहायला पर निर्भर नहीं रहता कि जो रामय पर उसको झिड़क सकें. शत्रुओं के न रहने पर भी उसका नाश होना अवश्यम्भावी है। 9- जिनके पास मूल धन नहीं है, उनको लाभ नहीं मिल सकता, ठीक इसी तरह प्रामाणिकता उन लोगों के भाग्य में नहीं होती। कि जो बुद्धिमानों की अविचल सहायता पर निर्भर नहीं रहते। 10-बहुत से लोगों को शत्रु बना लेना मुरवता है कना सजन परुषां की मंडता को होना उससे भी कही आप बन .: (199) Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करम काव्य जा कुबल काव्य - परिच्छेदः ४९. कुसंग से दूर रहना उत्तम नर दुःसंग से, रहें सदा शमशीन । ओछे पर ऐसे मिलें, यथा कुटुम्बी मीत ।।१।। बहता जैसी भूमि में, बनता वैसा नीर । संगति जैसी जीव की, वैसा ही गुणशील ।।२।। मस्तक से ही बुद्धि का, है सम्बन्ध विशेष । पर यश का सम्बन्ध तो, गोष्ठी पर ही शेष ।।३।। नरस्वभाव का बाह्य में, दिखता मन में बास 1 पर रहता उस वर्ग में, बैठे जिसके पास ।।४।। चाहे मन की शुद्धि हो, चाहे कर्मविशुद्धि । इन सबका पर मूल है, संगति की ही शुद्धि ।।५।। संतपुरुष को प्राप्त हो, संतति योग्यविशेष । और सदा फूले फले, जब तक वय हो शेष ।।६।। नर की एक अपर्व ही, निथि है मन की शुद्धि । सत्संगति देती तथा, गौरव गुणमय बुद्धि ।।७।। यद्यपि होते प्राज्ञजन, स्वयं गुणों की खान । सत्संगति को मानते, फिर भी शक्ति महान ।।८।। पुण्यात्मा को स्वर्ग में, लेजाता जो धर्म । मिलता वह सत्संग से, करके उत्तम कर्म ।।६।। , परमसखा-सत्संग से, अन्य न कुछ भी और । और अहित दुःसंग से,जो देखो कर गौर ।।१०।। 200 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ४६ कुसंग से दूर रहना सोय पुष्प पुनं ते उसने हैं, पर छुद्र प्रकृति के आदमी दुर्जनों से इस रीति से मिलते जुलते हैं कि मानों वे उनके कुटुम्ब के ही हों । 2 - पानी का गुण बदल जाता है, वह जैसी धरती पर बहता है वैसा ही गुण उसका हो जाता है। उसी प्रकार मनुष्य की जैसी संगति होती है उसमें वैसे ही गुण आ जाते हैं। 3- आदमी की बुद्धि का सम्बन्ध तो उसके मस्तक से है, पर उसकी प्रतिष्ठा तो उन लोगों पर पूर्ण अवलम्बित है जिनकी कि संगति में वह रहता है। 4- मालूम तो ऐसा होता है कि मनुष्य का स्वभाव उसके मन में रहता है, किन्तु वास्तव में उसका निवास स्थान उस गोष्ठी में है कि जिनकी संगति वह करता है। 5- मन की पवित्रता और कर्मों की पवित्रता आदमी की संगति की पवित्रता पर निर्भर है। 6- पवित्र हृदय वाले पुरुष की सन्तति उत्तम होगी और जिसकी संगति अच्छी है वे हर प्रकार से फूलते फलते है। 7- अन्तःकरण की शुद्धता ही मनुष्य के लिए बड़ी सम्पत्ति है और सन्त संगति उसे हर प्रकार का गौरव प्रदान करती है। 8 - बुद्धिमान् यद्यपि स्वयंमेव सर्वगुण सम्पन्न होते हैं, फिर भी वे पवित्र पुरुषों के सुसंग को शक्ति का स्तम्भ समझते हैं। 9- धर्म मनुष्य को स्वर्ग ले जाता है और सत्पुरुषों की संगति उसको धर्माचरण में रत करती है। 10- अच्छी संगति से बढ़कर आदमी का सहायक और कोई नहीं है। और कोई वस्तु इतनी हानि नहीं पहुँचाती जिनती कि दुजंग की संगति । 201 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ४७ विचार पूर्वक काम करना व्यय क्या अथवा लाभ क्या ? क्या हानि इस कार्य । ऐसा पहिले सोच कर करे उसे फिर आर्य ||१|| ऐसों से कर मंत्रणा, जो उसके आचार्य । राज्य करे उस भूप को, कौन असम्भव कार्य ||२|| लालपदे बहुलाभ का करदे क्षय ही मूल । बुध ऐसे उद्योग में, हाथ न डालें भूल || ३ || हँसी जिसे भाती नहीं करवानी निजनाम । बिना विचारे वह नहीं करता बुध कुछ काम ||४|| स्वयं न सज्जित युद्ध को, पर जूझे कर टेक । करता वह निज राज्य पर, मानों अरि अभिषेक ||५|| अनुचित कार्यों को करे, तब हो नर का नाश । योग्यकर्म यदि छोड़दे, तो भी सत्यानाश || ६ | बिना विचारे प्राज्ञगण, करे न कुछ भी काम । करके पीछे सोचते, उनकी बुद्धि निकाम ||७|| नीतिमार्ग को त्याग जो करना चाहे कार्य । पाकर भी साहाय्य बहु, निष्फल रहे अनार्य ||६|| नरस्वभाव को देखकर, करो सदा उपकार 1 चूक करे से अन्यथा, होगा दुःख अपार ||६|| निन्दा से जो सर्वथा शून्य, करो वे काम । कारण निन्दित काम से, गौरव होता श्याम ||१०|| 2OZ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ४७ विचार पूर्वक काम करना 1. - पहिले यह देखलो कि इस काम में लागत कितनी लगेगी. कितना माल खराब जायेगा और लाभ इसमें कितना होगा, पीछे उस काम को हाथ में लो । 2- देखो, जो राजा सुयोग्य पुरुषों से सलाह करने के पश्चात् ही किसी काम को करने का निर्णय करता है उसके लिए ऐसी कोई बात नहीं है जो असम्भव हो । 3 - ऐसे भी उद्योग हैं जो नफे का हरा भरा बाग दिखाकर अंतमें मूलधन को नष्ट कर देते हैं. बुद्धिमान लोग उनमें हाथ नहीं लगाते। 4- जो लोग यह नहीं चाहत कि दूसरे आदमी उन पर हँसे वे पहिले अच्छी तरह से विचार किये बिना कोई काम प्रारम्भ नहीं करते। 5 ... सब बातों की अच्छी प्रकार मोर्चाबन्दी किये बिना ही लड़ाई छेड़ देने का अर्थ यह है कि तुम शत्रु को पूरी सावधानी के साथ तैयार की हुई भूमि पर लाकर खड़ा कर देते हो । 6- कुछ काम ऐसे हैं कि जिन्हें नहीं करना चाहिए और यदि तुम करोगे तो नष्ट हो जाओगे तथा कुछ काम ऐसे हैं कि जिन्हें करना ही चाहिए, यदि तुम उन्हें न करोगे तो भी मिट जाओगे । 7 भली रीति से पूर्ण विचार किये बिना किसी काम को करने का निश्चय मत करो । वह मूर्ख है जो काम प्रारम्भ कर देता है और मन में कहता है कि पीछे सोच लेंगे I 6- जो योग्यमार्ग से काम नहीं करता उसका सारा परिश्रम व्यर्थ जावेगा, चाहे उसकी सहायता के लिए कितने ही आदमी क्यों न आ जाये। 9- जिसका तुम उपकार करना चाहते हो उसके स्वभाव का यदि तुम ध्यान न रक्खोगे तो तुम मलाई करने में भी भूल कर सकते हो । 10- तुम जो काम करना चाहते हो वह सर्वथा अपवाद रहित होना चाहिए, क्योंकि जगत में उसका अपमान होता है जो अपने पद के अयोग्य काम करने पर उतारू हो जाता है। 203 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ४८ शक्ति का विचार विधनों को सोचे प्रथम, निज पर की फिर शक्ति 1 देखे पक्ष विपक्ष बल, कार्य करे फिर व्यक्ति ||१|| बना सुशिक्षित और जो रखता निजबल - ज्ञान । अनुगामी हो बुद्धि का, सफल उसी का यान || २ || मानी निजबल के बहुत, हुए नरेश अनेक । शक्ति अधिक जो कार्य कर, मिटे वृथा रख टेक || ३ || , बहुमानी अथवा जिसे नहीं बलाबलज्ञान । या अशान्त जीवन अधिक तो समझो अवशान ।।४।। दुर्बल भी दुर्जय बने, पाकर सब का संग । मोरपंख के भार से, होता रथ भी भंग ||५|| क्रिया, शक्ति को देखकर करते बुद्धिविशाल । तरु की चोटी अज्ञ चढ़, शिरपर लेता काल ॥६॥ वैभव के अनुरूप ही, करो सदा बुध दान । यह ही योगक्षेम का, कारण श्रेष्ठ विधान ||७| क्या चिन्ता यदि आय की नाली है संकीर्ण । व्यय की यदि नाली नहीं, गृह में अति विस्तीर्ण ॥ ८ ॥ द्रव्य तथा निजशक्ति के, लेखे का जो काम । रखे नहीं जो पूर्व से, रहे न उसका नाम || खुले हाथ जो द्रव्य को, लुटवाता क्षय में मिलता शीघ्र ही, उसका कोष महान ||१०|| अंज्ञान । !. 204 1 1 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करल काव्य कुपन काव्य पर परिच्छेदः ४४ शक्ति का विचार 1 -जिस साहस से कर्म को तुम करना चाहते हो उसमें आने वाले सकटों को योग्य रीति से देख भाल लो, उसके पश्चात अपनी शक्ति, अपने विरोधी की शक्ति तथा अपने और विरोधी के सहायकों की शक्ति को देखो पीछे उस काम को प्रारम्भ करो। 2-जो अपनी शक्ति को जानता है और जो कुछ उर्स सीखना चाहिए वह सीख चुका है तथा तो अपनी शक्ति और ज्ञान की सीमा के बाहिर पाँव नहीं रखता, उसके आक्रमण कभी व्यर्थ नहीं जायेंगे। 3-ऐसे बहुत से राजा हुए जिन्होंने आवेश में आकर अपनी शक्ति को अधिक समझा और काम प्रारम्भ कर बैठे. पर बीच में ही उनका काम तमाम हो गया। 4-जो आदमी शान्तिपूर्वक रहना नहीं जानते, जो अपने बलाबल का ज्ञान नहीं रखते और जो घमण्ड में चूर रहते हैं. उनका शीघ्र ही अन्त हो जाता है। 5-हद से अधिक मात्रा में रखने से मोरपंख भी गाड़ी की धुरी को तोड़ डालेंगे। 6-जो लोग वृक्ष की चोटी तक पहुँच गये हैं वे यदि अधिक ऊपर चढ़ने की चेष्टा करेंगे तो अपने प्राण गवायेंगे। 7-तुम्हारे पास कितना धन है इस बात का विचार रक्खो और उसके अनुसार ही तुम दानदक्षिणा दो, योगक्षेम की बस यही रीति है। 8-भरने वाली नाली यदि संग है तो कोई पर्वाह नहीं, परन्तु व्यय करने वाली नाली अधिक विस्तीर्ण न हो। 9-जो अपने धन का हिसाब नहीं रखता और न अपनी सामर्थ्य को देखकर काम करता है, वह देखने में वैभव भरा 'मले ही लगे पर वह इस तरह नष्ट होगा कि उसका नामोल्लेख भी न रहेगा। 10-जो आदमी अपने धन का लेखाजोखा न रखकर खुले हाथों से उसे लुटाता है, उसकी सम्पत्ति शीघ्र ही समाप्त हो जायेगी। (205) Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्र कात्म्य ज, करन कारला घर-- परिच्छेदः. ४ अवसर की परख उल्लू पर पाला विजय, जैसे दिन को काक । वैसे अरि पर भूप भी, विजयी अवसर ताक ।। १।। करलेना निजसाधना, देख समय को खास । मानो देना प्रेममय, भाग्यश्री को पास ।।२।। साधन अवसर प्राप्त कर, करले जो व्यवहार्य । , कार्य कुशल उस आर्य को, कौन असम्भव कार्य ॥३।। साधन अवसर की अहो, रखते परख विशेष । जीतोगे निजशक्ति से, यह ही विश्व अशेष ।।४॥ जय-इच्छुक हैं देखते, अवसर को चुपचाप । विचलित हो करते नहीं, सहसा कार्यकलाप ।।५।। हटकर मेढ़ा युद्ध में, करता जैसे चूर । कर्मठ भी वैसा दिखे, अकर्मण्य कुछ दूर ।।६।। क्रोध प्रगट करते नहीं, तत्क्षण ही धीमान । अवसर उसका ताकते, करके मनमें पान ।।७।। तब तक पूजो शत्रु को, जब तक उसका काल । जब हो अवनतिचक्र में, भू में मारो भाल ||८|| शुभ अवसर जब प्राप्त हो, करलो तब ही आर्य । निस्संशय हो शीघ्र ही, जो भी दुष्कर कार्य ।।६॥ अक्रिय बनता प्राज्ञनर, देख समय विपरीत । बकसम वह ही टूटता, जब देखे निजजीत।। १०। । - - - (206) Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुरल काव्य कुबल काव्य परपरिच्छेदः ४९ अवसर की परख 1-दिन में कोआ उल्लू पर विजय पाता है । जो राजा अपने शत्रु को हराना चाहता है उसके लिए अवसर भी एक बड़ी वस्तु है। 2. सदैव समय को देखकर काम करना यह एक ऐसी डोरी है जो सौभाग्य को दृढ़ता के साथ तुम से आबद्ध कर देगी। -यदि उचित अवसर और साधनों का ध्यान रखकर काम प्रारम्भ किया जाय और समुचित साधनों को उपयोग में लिया जाये तो ऐसी कौन सी बात है जो असम्भव हो। 4-यदि तुम योग्य अवसर और उचित साधनों को चुनोगे तो सारे जगत को जीत सकते हो। . 5-जिनके हृदय में विजय कामना है वे चुपचाप मौका देखते रहते हैं, वे न तो गड़बड़ाते हैं और न उतावले ही होते हैं। 6-चकनाचूर कर देने वाली चोट लगने के पहिले, मेढ़ा एक !! बार पीछे हट जाता है । कर्मवीर की निष्कर्मण्यता भी टीक इसी भाँति ।। की होती है। -.. 7-बुद्धिमान लोग उसी क्षण अपने क्रोध को प्रगट नहीं करते । वे उसको मन ही मन में रखते हैं और अवसर की प्रतीक्षा में रहते हैं। 8-अपने वैरी के सामने झुक जाओ, जब तक उसकी अवनति का दिन नहीं आता । जब वह दिन आयेगा तब सुगमता के साथ उसे सिर के बल नीचे फेंक दे सकोगे। 9-जब तुम्हें असाधारण अवसर मिले तो तुम हिचकिचाओ मत. बल्कि उसी क्षण काम में जुट जाओ, फिर चाहे वह असम्भव ही क्यों न हो। ___ 10-जब समय तुम्हारे प्रतिकूल हो तो बगुला की तरह निष्कर्मण्यता का बहाना करो. लेकिन जब वह अनुकूल हो तो बगुले के समान ही झपट कर तेजी के साथ हमला करो। ... ... .... . .207 -. --......... Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न कुबल काव्य पर परिच्छेदः ५० . स्थान का विचार बिना विचारे क्षेत्र के, या रिपु को लघु मान । कार्य तथा संग्राम को, करे नहीं सज्ञान ।।१।। . चाहे नर हो पूर्ण भट, और प्रतापी आर्य ।। दुर्गाश्रय फिर भी उसे, है आवश्यक कार्य ॥२।। जो लड़ता है युति से, चुकर पोय पान । दुर्बल होकर भी अहो, जीते, वह बलवान ।।३।। जमकर उत्तम भूमि पर, लेकर जो वर शस्त्र । लड़ता उसके शत्रुगण,युक्ति-विफल गतिशस्त्र।।४॥ भयदाई होता मगर, जलमें सिंह समान । बने खिलौना शत्रु का, जब आवे मैदान ।।५।। उत्तम रथ भी सिन्धु में, करे न कुछ भी काज । । वैसे ही भू पर नहीं, चलता कभी जहाज ।।६।। लड़े जो उत्तम क्षेत्र पर, साज सजा युद्धार्थ । आवश्यक उसको नहीं, पर-बल भी विजयार्थ ।।७।। दुर्बल भी वरक्षेत्र को, पा ले यदि निरपाय । - हो जाते जब शत्रु के, निष्फल सर्व उपाय ।।८।। अन्नादिक जिस जाति को, दुर्लभ है रक्षार्थ । फिर भी उसको देश में, जय करना कठिनार्थ ।।६।। भालों के जिसने सहे, बिना निमेष प्रहार । उस ही गज को पंक में, गीदड़ देता हार ।। १०।। 08 -.----- Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुमाल काव्य र परिच्छेदः ५० स्थान का विचार 1-युद्धक्षेत्र की गली-भाँति जॉच किये बिना लडाई न छेडो और न कोई काम प्रारम्भ करो तथा शत्रु को छोटा मत समझो। 2-दुर्गवेष्टित स्थान पर खड़ा होना शक्तिशाली और प्रतापी पुरुष के लिए भी अत्यन्त लाभदायक है। ____-यदि समुचित रणभूमि को चुन लें और सावधानी के साथ युद्ध करें तो दुर्बल भी अपनी रक्षा करके शक्तिशाली शत्रु को जीत सकते हैं। -यदि तुम पहिले ही सुदृढ बनाये हुए स्थान पर खड़े हो और वहाँ डटे हो तो तुम्हारे वैरियों की सब युक्तियों निष्फल सिद्ध होगी। 5-पानी के भीतर मगर शक्तिशाली है, किन्तु बाहिर निकलने पर वह वैरियों के हाथ का खिलौना है। ___6-नीचट पहियों वाला स्थ समुद्र के ऊपर नहीं दौड़ता है और न सागर गामी जहाज भूमि पर तैरता है। 7-देखो, जो राजा सब कुछ पहिले से ही निर्धारित कर रखता है और समुचित स्थान पर आक्रमण करता है. उसको अपने बल के अतिरिक्त दूसरे सहायकों की आवश्यकता नहीं है। 8-जिसकी सेना निर्बल है वह राजा यदि रणक्षेत्र के समुचित भाग में जाकर खड़ा हो तो उसके शत्रुओ की सारी चेष्टायें व्यर्थ सिद्ध होंगी। ____-यदि रक्षा के साधन और अन्य सुभीते न भी हो तो भी किसी को उसके देश में हराना कठिन है। 10- देखो, उस गजराज को, जिसने पलक मारे बिना, भाले बरदारों की सारी सैन्य का सामना किया, लेकिन जब वही दलदली भूमि में फंस जाता है तो एक गीदड़ भी उसके ऊपर विजय पा लेता है। ............(209) Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - छुतर काव्य - परिच्छेद: ५५ विश्वस्त पुरुषों की परीक्षा धन से, भय से, काम से, और धर्म से भूप । जाँचों नर के सत्य को, मान कसौटी रूप ।। 911 जिसे प्रतिष्ठा भंग का, भय रहता स्वयमेव ।। उस कुलीन निर्दोष को, रखो सदा नरदेव ।।स, ज्ञानविभूषित प्राज्ञ नर, ऋषिसम शीलाधार । दोषशन्य वे भी नहीं, जो देखो सुविचार ।।३।। सद्गुण देखो पूर्व में, फिर देखो सब दोष । उनमें जो भी हो अधिक, प्रकृति उसीसम घोष ।।४।। इसका मन क्या क्षुद्र है, अथवा उच्च उदार । . एक कसौटी है इसे, देखो नर-आचार ।।५।। . आशु-प्रतीति न योग्य वे, जो नर हैं गृहहीन । कारण एकाकी मनुज, लज्जा-ममताहीन ।।६।। मूर्ख मनुज से प्रेमवश, करके यदि विश्वस । करे मंत्रणा भूप तो, विपदायें शिर-पास ।।७।। अपरीक्षित नर का अहो, जो करता विश्वास । दुःखबीज बोकर कुधी, देता संतति त्रास ||८|| करो परीक्षित पुरुष का, मन में नृप विश्वास । जाँच अनन्तर योग्यपद, दो उसको सोल्लास ।।६।। बिना ज्ञान कुल शील के, करना परविश्वास । अप्रतीति फिर ज्ञात की, दोनों देते बास ।।१०।। । 210 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुक्ल काश्य यूर___ परिच्छेदः ५५ विश्वस्त पुरुषों की परीक्षा 1-धर्म, अर्थ, काम और प्राणों का भय, ये चार कसौटियाँ हैं जिन पर कस कर मनुष्य को चुनना चाहिए। 2-जो अच्छे कुल में उत्पन्न हुआ है, दोषों से रहित है और अपयश से डरता है वहीं तुम्हारे लिए योग्य मनुष्य है। ___3-जब तुम परीक्षा करोगे तो देखोगे कि अत्यन्त ज्ञानवान और शुद्ध--मन वाले लोग भी हर प्रकार के अज्ञान से सर्वथा अलिप्त न निकलेंगे। 4-मनुष्य की भलाइयों को देखो और फिर उसकी बुराईयों पर दृष्टि डालो। इनमें जो अधिक हैं, बस समझ लो वैसा ही उसका स्वभाव है। 5- क्या तुम जानना चाहते हो कि अमुक मनुष्य उदारचित्त है या सुद हृदय ? स्मरण रक्खो कि आचार-व्यवहार चरित्र की कसौटी है। 6-सावधान ! उन लोगों का विश्वास देखभाल कर करना कि जिनके आगे पीछे कोई नहीं है. क्योंकि उन लोगों का हृदय ममताहीन और लज्जारहित होता है। -यदि तुम किसी मूर्ख को अपना विश्वास पात्र सलाहकार बनाना चाहते हो, केवल इसलिए कि तुम उसे प्यार करते हो. तो सोच रक्खो कि वह तुम्हें अनन्त मूर्खताओं में ला पटकेगा। 8-जो आदमी परीक्षा लिए बिना ही दूसरे मनुष्य का विश्वास करता है, वह अपनी संतति के लिए अनेक आपत्तियों का बीज बो रहा है। g-परीक्षा किये बिना किसी का विश्वास न करो और अपने आदमियों की परीक्षा लेने के अनन्तर हर एक को उसके योग्य काम दो। 10-अनजाने मनुष्य पर विश्वास करना और जाने हुए योग्य पुरुष पर सन्देह करना, ये दोनों ही बातें एक समान अगणित आपत्तियों की जननी हैं। -.. 211 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्य कुरल काव्य परिच्छेद: १२ पुरूष परीक्षा और नियुक्ति गुण दुर्गुण जाने उभय, चलता पर, शुभचाल । ऐसे को ही कार्य में, कर नियुक्त नरपाल ।। १५१ जिसकी प्रतिभा से रहे, शासन में विस्फूर्ति । और हटे विपदा वही, करे सचिवपद-पूर्ति ।।२।। । निर्लोभी, करुणाभरा, कर्मठ, बुद्धिविशाल । राज्यकार्य को राखिए, ऐसा नर भूपाल ।।३।। ऐसे भी नर हैं बहुत, जिनका पौरुष ख्याल । वे भी नर कर्तव्य से, अवसर पर हटजात ।।४।। प्रीतिमात्र से कार्य का, भार न दो नरनाथ । कार्यकुशल हो शान्तिमय, यह भी देखो साथ ।।५।। जिसकी जैसी योग्यता, वैसा दो अनुरूप। . कार्य उसे फिर काम को, करवाओ मनरूप ।।६।। पहिले देखो शक्ति को, फिर उसके सब कार्य । तब दो सेवक हाथ में, गतसंशय हो, कार्य ।।७।। उस पद को उपयुक्त यह, हो यदि यह ही भाव । तब उसके अनुरूप ही, करो व्यवस्था राव (१८|| भक्त कुशल भी मृत्यपर, रुष्ट रहे जो देव । भाग्यश्री उस भूप की, फिरजाती स्वयमेव ।।६।। भृत्यवर्ग के कार्य को, प्रतिदिन देखो भूप । शुद्ध भृत्य हो राज्य में, फिर विपदा किसरूप ।।१०।। -- ----(212)---- Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुबल काव्य पर परिच्छेदः ५२ पुरूष परीक्षा और नियुक्ति --जो आदमी नेकी को भी देखता है और बदी को भी देखता है. लेकिन पसन्द उसी बात को करता है कि जो नेक है. बस उसी आदमी को अपनी नौकरी में लो। 2-जो मनुष्य तुम्हारे राज्य के साधनों की विस्फर्त कर सके और उस पर जो आपत्ति पड़े उसे दूर कर सके, ऐसे ही आदमी के हाथ में अपने राज्य का प्रबन्ध सोंपो। 3-उसी आदमी को अपना कर्मचारी चुनो कि जिसमें दया. बुद्धि और द्रुत-निम्ताय है अथवा लो. लालन से परे है। . 4-बहुत से आदमी ऐसे हैं जो सब प्रकार की परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो जाते हैं, फिर भी ठीक कर्तव्य पालन के समय वे बदल जाते हैं। 5. आदमियों के तद्विषयक ज्ञान और उसकी शान्तिपूर्ण कार्य कारिणी शक्ति का विचार करके ही उनके हाथों में काम सौंपना चाहिए. इसलिए नहीं कि वे तुमसे प्रेम करते हैं। 6-प्रवीण मनुष्य को चुनकर उसे वही काम दो जिसके वह योग्य है, फिर जब काम करने का ठीक समय आवे तो उससे काम प्रारम्भ करवा दो 1 7-पहिले सेवक की शक्ति और उसके योग्य काम का पूर्ण विचार करलो तब उसकी जवाबदारी पर वह काम उसके हाथ में दो। 8-जंब तुम निश्चय कर चुकी कि यह आदमी इस पद के योग्य है तब तुम उसे उस पद को सुशोभित करने योग्य बना दो। ____-जो व्यक्ति अपने भक्त और कार्यनिष्णात कर्मचारी पर रुष्ट् होता है, भाग्यशाली उससे फिर जायेगी। 10-राजा को चाहिए कि वह प्रतिदिन हर एक काम की देखभाल करता रहे, क्योंकि जब तक किसी देश के कर्मचारियों में दूषण न होंगे तब तक उस देश पर कोई आपत्ति न आयेगी। 213 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - मुस्ल काव्य परिच्छेद 3 बन्धुता स्नेहस्थिरता दुःख में, दृष्ट न हो अन्यत्र । वह तो केवल बन्धु में, दिखती है एकत्र ।।१।। घटे नहीं जिस व्यक्ति से, बन्धुजनों का प्यार ।। उसकी वैभववृद्धि का, रुद्ध न होता द्वार ।।२।। सहृदय हो जिसने नहीं, लिया बन्धु अनुराग । बाँध बिना वह सत्य ही, रीता एक तडाग ।।३।। वैभव का उद्देश्य क्या, कौन तथा फलरीति । स्वजनों को एकत्र कर, लेना उनकी प्रौति ।।४।। वाणी जिसकी मिष्ट हो, कर हो पूर्ण उदार । पंक्ति बाँध उसके यहाँ, आते बन्धु अपार ।।५।। __ अमितदान दे विश्व को, तथा न जिसको क्रोध । विश्वबन्धु वह एक ही, जो देखो भू सोध ।।६।। काक स्वार्थ से बन्धु को, नहीं छिपाये भक्ष्य । वैभव भी उसके यहाँ जिसका ऐसा लक्ष्य ।।७।। राजा गुण अनुसार ही, करे बन्धु-सन्मान । दिखें बहुत से अन्यथा, ईर्ष्या की ही खान ।।।।। हटे उदासी-हेतु तो, मिटजावे अनमेल । होते मनकी शुद्धि ही, बन्धु करे फिर मेल ॥६॥ __ एक बार तो तोड़ फिर, जो जोड़े सम्बन्ध ।। ___ हो सहर्ष उससे मिलो, रखकर तर्क प्रबन्धा। 11 : 214 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, शुक्ल काव्य र परिच्छेदाः 3 बत्ता 1-केवल बन्धुता में ही विपत्ति के दिनों में भी स्पेह में स्थिरता रहती है। 2-यदि मनुष्य बन्धुगणों से सौभाग्यशाली है और बन्धुगणों का प्रेम उसके लिए घटता नहीं है तो उसका ऐश्वर्य कभी बढ़ने से नहीं रुक सकता। 3-जो मनुष्य अपने सम्बन्धियों के साथ सहृदयतापूर्वक नहीं मिलता है और उनका स्नेह नहीं पाता है वह उस सरोवर के समान है जिसमें उँटा न हो और बढ़ती रूपी पानी उससे दूर बह जाता है। 4-अपने नातेदारों को एकत्रित कर उन्हें अपने स्नेह बन्धन में बाधना ही ऐश्वर्य का लाभ और उददेश्य है। 5-यदि एक आदमी की वाणी मधुर है और उदारहस्त है तो उस के संबंधी उसके पास पंक्ति बांधकर एकत्रित हो जायेंगे। 6-जो मनुष्य बिना रोक के खूब दान करता है और कभी क्रोध नहीं करता. उससे बढ़कर जगत बन्धु कौन है ? 7-कौआ अपने भाइयों से अपने भोजन को स्वार्थ से छिपाता नहीं है, बल्कि प्यार से उसको बाँटकर खाता है । ऐश्वर्य ऐसे ही प्रकृति के लोगों के साथ रहेगा। 8-यह अच्छा है यदि राजा अपने सभी संबंधियों के साथ एक सा व्यवहार नहीं करता परन्तु प्रत्येक के साथ उसकी योग्यतानुसार भिन्न भिन्न व्यवहार करता है, क्योंकि ऐसे भी बहुत से हैं जो विशेषाधिकार को एकाकी रूप से भोगना पसन्द करते हैं। -एक संबंधी का मनमुटाव सरलता से दूर हो जाता है। यदि उदासीनता का कारण हटा दिया जाय लो वह तुम्हारे पास वापिस आ जायेगा। ___10--जब एक संबंधी जिसका संबंध तुम से टूट गया हो और तुम्हारे पास किसी प्रयोजन के कारण वापिस आता है तो तुम उसे स्वीकार करो, परन्तु सतर्कता के साथ। ....----215 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ५४ निश्चिन्तता से बचाय अमित कोप से निंद्य वह, बेखटकी हैं तात । अमिट अल्प सन्तोष से, मन में जो जमजात ||१|| जैसे दुष्ट दरिद्रता, करती प्रतिभानाश । वैसे ही निश्चिन्तता करती वैभवनाश ||२|| कभी नहीं निश्चिन्त को होती धन की आय । ऐसा करते अन्त में, निर्णय सब आम्नाय ||३|| दुर्गाश्रय का कौन सा कायर को उपयोग । बहुसाधन से सुस्त के, क्या बढ़ते उद्योग ||४|| निजरक्षा के अर्थ भी, करता सुस्त प्रमाद । पीछे संकटग्रस्त हो, करता वही विषाद १५॥ पर से शुभ वर्ताव को सजग मनुज यदि तात । भूतल में फिर कौन है, इससे बढ़कर बात || ६ || ध्यान लगा जो चित्त से, कर सकता सब कार्य । नहीं अशक्य उस आर्य को, भी कार्य ।। ७ ॥ भू में कुछ विज्ञप्रदर्शित कार्य को करे तुरंत ही भूप । शुद्धि न होगी अन्यथा, जीवन भर अनुरूप ||८|| सुस्ती का जब चित्त में, होवे भी भान कुछ मिटे उसीसे लोग जो, उनका कर तब ध्यान ||६|| रखता है निज़ ध्येय पर, दृष्टि सदा जो आर्य । सहज सिद्धि उसके यहाँ मनचाहे सब कार्य ||१०|| 216 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुभव काव्य पर परिच्छदः ४ निश्चिन्तता से बचाव 1-अत्यन्त रोष से भी अचेत अवस्था बहुत बुरी है जो कि अहंकार पूर्ण अल्प सन्तोष से उत्पन्न होती है। 2-निश्चिन्तता के भ्रमात्मक विचार कीर्ति का भी नाश करते हैं । जैसे दरिद्रता बुद्धि को कुचल देती है। 3-वैभव असावधान लोगों के लिए नहीं है, ऐसा संसार के सभी विज्ञजनों का निश्चय है। 4-कापुरुष के लिए दुर्गों से क्या लाभ है 1 और असावधान के लिए पर्याप्त सहायक उपायों का क्या उपयोग ? 5-जो पहिले से अपनी रक्षा में प्रमादी रहता है. तब वह अपनी निश्चिन्तता पर पीछे से विलाप करता है, जब कि वह विपत्ति से विस्मित हो जाता है। 6-यदि तुम अपनी सावधानी में हर समय और हरेक प्रकार के आदमियों से रक्षा करने में सुस्ती नहीं करते तो इसके बराबर और क्या बात है। 7-उस मनुष्य के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है जो कि अपने काम में सुरक्षित और सजग रहने का विचार रखता है। 8. राजा को चाहिए कि विद्वानों द्वारा प्रशंसित कार्यो म भापन को परिश्रमपूर्वक जुटा दे । यदि वह उनकी उपेक्षा करता है । दुःख उठाने से कभी भी नहीं बच सकता ।। -जब तुम्हारी आत्मा अहंकार और उत्संक से मोहित होने का हो तब मस्तक में उनका स्मरण रक्खो जो कि लापरवाही और वेसुधधन से नष्ट हो गये हैं। 10-निश्चय ही एक मनुष्य के लिए यह सरल है वह जो कुछ इच्छा करे उसको प्राप्त करले. लेकिन वह अपने उद्देश्य को निरन्तर अपने मस्तिष्क के सामने रखे। ....................... (217..--- Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जकुत्र काव्य परपरिच्छेदः ५ न्याय-शासन न्याय समय निष्पक्ष हो, करलो भूप विचार । लो सम्मति नीतिज्ञ की, फिर दो न्याय उदार ।। १।। देख्ने जीवनदान को, भू ज्यों बारिद ओर । त्यों ही जनता न्यायहित, तकती नृप की ओर ।।२।। राजदण्ड ही धर्म का, जैसे रक्षक मुख्य ।। वैसे ही वह लोक में, विद्यापोषक मुख्य 1।३।। शासन में जिस भूप के, प्रीतिसुधा भरपूर । राजश्री उस भूप से, होती कभी न दूर ।।४।। कर में लेता न्याय को, यथा शास्त्र जो भूप । होती उसके राज्य में, वर्षा धान्य अनूप ।।५।। तीखा भाला है नहीं, जय में कारण एक । धर्म-न्याय ही भूप के, जय में कारण एक।।६।। राजा गुणमय तेज से, रक्षक भू का एक। नृप का रक्षक धर्ममय, अनुशासन ही एक ।।७।। जिसका ध्यान न न्याय में, दर्शन कष्टनिधान । वह नृपपद से भ्रष्ट हो, बिना शत्रु हतमान।।८।। भीतर के या वाह्य के, रिपु को देकर दण्ड । करता नृप कर्तव्य फिर, दूषण कौन प्रचण्ड ।।६।। सुजनत्राण को दुष्ट का, बध भी है शुभकर्म ।। धान्यवृद्धि को खेत में,तृण का छेदन धर्म।।१०।। --218) Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - –कुवल काव्य परिच्छेदः ५ न्याय-शासन 1-पूर्ण विचार करो और किसी की ओर मत झुको, निष्पक्ष होकर नीतिज्ञ जनों की सम्मति लो, न्याय करने की यही रीति है। 2-संसार जीवनदान के लिए बादलों की ओर देखता है. ठीक इसी प्रकार न्याय के लिए लोग राजदण्ड की ओर निहारते हैं। 3-राजदण्ड ही ब्रह्म विद्या और धर्म का मुख्य संरक्षक है। 4-जो राजा अपने राज्य की प्रजा पर प्रेम पूर्वक शासन करता है उससे राज्यलक्ष्मी कभी पृथक् न होगी। 5- जो नरेश नियमानुसार राजदण्ड धारण करता है उसका देश समयानुकूल वर्षा और शस्य श्री का घर बन जाता है। 6-राजा की विजय का कारण उसका भाला नहीं होता है बल्कि यों कहिये कि वह राज-दण्ड है जो निरन्तर सीधा रहता है और कभी किसी की ओर को नहीं झुकता। 7-राजा अपनी समस्त प्रजा का रक्षक है और उसकी रक्षा करेगा उसका राज-दण्ड, परन्तु वह उसे कभी किसी की ओर न || झुकने दे। ____8--जिस राजा की प्रजा सरलता से उसके पास तक नहीं पहुँच सकती और जो ध्यानपूर्वक न्याय--विचार नहीं करता, वह राजा अपने पद से भ्रष्ट हो जायेगा और वैरियों के न होने पर भी नष्ट हो जायेगा। 9-जो राजा आन्तरिक और बाह्य शत्रुओं से अपनी प्रजा की रक्षा करता है, वह यदि अपराध करने पर उन्हें दण्ड दे तो यह उसका दोष नहीं है, किन्तु कर्तव्य है। 10-दुष्टों को मृत्युदण्ड देना अनाज के खेत से घास को बाहिर । निकालने के समान है। 219 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ५६ अत्याचार जो शासक अतिदुष्ट है, प्रजावर्ग के बीच । वह भूपति नृप ही नहीं, घातक से भी नीच ||१| निर्दय शासक के लगें, ऐसे मीठे बोल । डाकू जैसे बोलता, देदे जो हो खोल ||२|| जो नरेश देखे नहीं, प्रतिदिन शासनचक्र | राजश्री इस दोष से होती उससे वक्र ||३|| , विचलित हो जो न्याय से, उस नृप पर बहुलोक 1 राज्य सहित वह मूढ़वी, खोता धन अस्तोक ||४| त्रस्त प्रजा जब दुःख से, रोती आँसू ढार 1 वह जाती जब भूप की, सारी श्री उस धार ||५| शासन यदि हो न्यायमय, तो नृपकी वरकीर्ति । न्याय नहीं यदि राज्य में, तो उसकी अपकीर्ति ॥६॥ विनावृष्टि नभके तले, पृथ्वी का जो हाल । निर्दयनृप के राज्य में, वही प्रजा का हाल ॥ ७ अन्यायी के राज्य में, दुःखित सब ही लोग । पर कुदशा भोगें अधिक, धनिकवर्ग के लोग ॥८॥ न्यायधर्म को लाँघ कर चलता नृप जब चाल । स्वर्गनीर वर्षे बिना पड़ता तब दुष्काल ॥६॥ 2 तजदे शासन न्यायमय, नृप करके अज्ञान । पय सूखे तब धेनु का, द्विज भूलें निज ज्ञान ||१०|| 220 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जकुरम काव्य और परिच्छेदः ५६ अत्याचार 1-जो राजा अपनी प्रजा को सताता है और उस पर अन्याय व अत्याचार करता है वह हत्यारे से भी बढ़कर बुरा है। 2-जो राज-दण्ड धारण करता है, उसकी प्रार्थना ही हाथ मे तलवार लिए हुए डाकू के इन शब्दों के समान है "खड़े रहो और जो कुछ है रख दो'। 3-जो राजा प्रतिदिन राज्य-संचालन की देखरेख नहीं रखता और उसमें जो त्रुटियाँ हैं उन्हें दूर नहीं करता उसकी प्रमुता दिन दिन क्षीण होती जायेगी। ____4-शोक है उस विचारहीन राजा पर, जो न्यायमार्ग से चल विचल हो जाता है, वह अपना राज्य और विपुल धन सब खो देगा। 5-निस्सन्देह ये, अत्याचार-दलित दुःख से कराहते हुए लोगों के आँसू ही हैं, जो राजा की समृद्धि को धीरे-धीरे बहा ले जाते हैं। 6-न्याय-शासन द्वारा ही राजा को यश मिलता है और अन्याय-शासन उसकी कीर्ति को कलंकित करता है। 7. वर्षाहीन आकाश के तले पृथ्वी की जो दशा होती है, ठीक वही दशा निर्दयी राजा के राज्य में प्रजा की होती है। 8-अत्याचारी नरेश के शासन में गरीबों से अधिक दुर्गति धनिकों की होती है। _g.-यदि राजा न्याय और धर्म के मार्ग से पराड.मुख हो जायेगा तो आकाश से ठीक समय पर वर्षा की बौछारें आना बन्द हो जायेंगी। 10-यदि राजा न्याय-पूर्वक शासन नहीं करेगा तो गाय के थन सूख जायेंगे और द्विज अपनी विद्या को भूल जायेंगे। 221 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -जा कुमल काव्य र परिच्छेदः ५७ भयप्रद कृत्यों का त्याग दोषी को नृप दण्ड दे, सीमा में अनुरूप । करे न दोषी दोष फिर, हो उसका यह रूप ।। १।। शक्ति रहे मेरी अटल, यह चाहो यदि तात ।। तो कर में वह दण्ड लो, जिसका मृदु आघात ।।२।। असि ही जिसका दण्ड वह, बड़ा भयंकर भूप । कौन बसका यहाँ, भय ही अन्तिम रुप !'३!! निर्दय शासन के लिए, जो शासक विख्यात । असमय में पदभृष्ट हो, खोता तन वह तात ॥४॥ भीम अगम्य नरेश की, श्री यों होती भान । राक्षस रक्षित भूमि में, ज्यों हो एक-निधान ।।५।। क्षमारहित जो क्रूर नृप, बोले बचन अनिष्ट । बढ़ाचढ़ा उसका विभव, होगा शीघ्र विनष्ट ।।६।। कर्कश वाणी और हो, सीमा बाहिर दण्ड । काटें तीखे शस्त्र ये, नृप की शक्ति प्रचण्ड ।।७।। प्रथम नहीं ले मंत्रणा, सचिवों से जो भूप । क्षोभ उसे वैफल्य से, श्री उसकी हतरूप ।।८।। रहा अरक्षित जो नृपपि, पाकर भी अवकाश । चौंक उठेगा कांप कर, रण में लख निज नाश ।।६।। मूर्ख मनुज या चाटुकर, देते जहाँ सलाह । ऐसे कुत्सित राज्य में, पृथ्वी भरती आह ।।१०।। . . ... - -222 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुबल काव्य पर परिच्छंद: ७ भयप्रद कृत्यों का त्याग 1-राजा का कर्तव्य है कि वह दोषी को नापतौल कर ही दण्ड देवे, जिससे कि वह दुवारा वैसा कर्म न करे, फिर भी यह दण्ड सीमा के बाहिर न होना चाहिए। 2-जो अपनी शक्ति को स्थायी रखने के इच्छुक हैं उन्हें चाहिए कि वे अपना शासनदण्ड तत्परतासे चलावें, परंतु उसका आघात कठोर न हो। 3-उस राजा को देखो, जो अपने लोहदण्ड द्वार ही शासन करता है और अपनी प्रजा में भय उत्पन्न करता है । उसका कोई भी मित्र न रहेगा और शीघ्र ही नाश को प्राप्त होगा। 4-जो राजा अपनी प्रजा में अत्याचार के लिए प्रसिद्ध है वह असमय में ही अपने राज्य से हाथ धो बैठेगा और उसका आयुष्य भी घट जायेगा। ___5. जिस राजा का द्वार अपनी प्रजा के लिए सदा बन्द है उसके हाथ में सम्पत्ति ऐसी लगाती है मानों किसी राक्षस के द्वारा रखाई हुई कोई धनराशि हो। 6-जो राजा कोर वचन बोलता है और क्षमा जिसकी प्रकृति में नहीं, वह चाहे वैभवमें कितना ही बढ़ाचढ़ा हो तो भी उसका अंत शीघ्र होगा। 7-कठोर शब्द और सीमातिक्रान्त–दण्ड वे अस्त्र हैं जो सत्ता की प्रतिष्ठा को छिन्न-भिन्न कर देते हैं। -उस राजा को देखो, जो अपने मंत्रियों से तो परामर्श नहीं करता और अपनी योजनाओं के असफल होने पर आवेश में आ जाता है, उसका वैभव क्रमशः विलीन हो जायेगा। --समय रहते, जो अपनी रक्षा के साधनों को नहीं देखता उस राजा को क्या कहें ? जब उस पर सहसा आक्रमण होगा तो वह धैर्य खो बैठेगा और पकड़ा जावेगा तथा अन्त में उसका सर्वनाश शीघ्र ही होगा। 10-उस कठोर शासन के सिवाय, जो मूर्ख और चापलूसों के परामर्श पर निर्भर है और कोई बड़ा भारी भार नहीं है जिसके कारण पृथ्वी कराहती है। (223).... 223 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुबल काव्य र परिच्छेदः ५८ विचार शीलता कौन यहाँ है शीलसम, सुन्दर सुख का धाम । इससे ही इस सृष्टि के, चलें उचित सब काम ।।१।। नर के केवल शील में, जीवन का शुभसार । कारण बनता अन्यथा, मानव पृथ्वी भार ।।२।। गायन जिसका ही नहीं, कैसी यह है लि । निर्मोही वे नेत्र क्या, दिखे न जिनमें प्रीति ।।३।। पर आदर जिनमें नहीं, मात्रा के अनुसार । नहीं नयन वे आस्य में, बने एक आकार ।।४।। सच मुच ऐसे नेत्र तो, शिर में केवल घाव 1 जिन में भूषण शील का, दिखे नहीं सद्भाव ।।५।। आँखों में जिसकी नहीं, मान तथा संकोच । भला नहीं जड़मूर्ति से, वह देखो यदि सोच।।६।। सच मुच वे ही अन्य हैं, जिन्हें न पर का ध्यान । सहन करें पर दोष को, वे ही लोचनवान ।।७।। नहीं छिपा कर्तव्य को, जो करता पर-मान । भू भरके सब राज्य का, वारिस वह गुणवान ।।८।। अहित करे उसको क्षमा, देकर करदे मुक्त।। स्नेह करे यदि साथ तो, बड़ी उच्चता युक्त ।।६।। शीलनेत्र यदि विश्व में, बनने का है ध्यान । जिसे मिलाया सामने, पीले वह विषतान ।।१०।। - 22411 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ५८ विचार शीलता 1-उस परम आनन्ददायक सुन्दरता को देखो, जिसे लोग शील कहते हैं। यदि यह जगत सुचारु रूप से चल रहा है तो इसमें कारण एक शीलता ही है। 2 - जीवन की मनोहरताओं का शील में अस्तित्व रहता है, जो इसको नहीं रखते वे पृथ्वी के लिए भार हैं। 3- उस गीत का क्या महत्व है जो गाया नहीं जाता और उस आँख का क्या महत्व है जो प्रेम नहीं दर्शाती ? 4- उन आँखों से क्या लाभ जो चेहरे में केवल दीखतीं हैं, यदि वे दूसरों के लिए मात्रा के अनुसार आदर नहीं दर्शातीं । 5- शील आँख का भूषण है । जिस आँख में यह नहीं होता वह केवल एक घाव ही समझा जायेगा । 6- उन लोगों को देखो जिनके आँखें हैं पर जो दूसरों के प्रति बिल्कुल शील ( लिहाज ) नहीं रखते, निश्चय ही उन मूर्तियों से अच्छे नहीं हैं जो काठ व मिट्टी की बनी हुई हैं। 7- सचमुच ही वे अन्धे हैं जो दूसरों के प्रति आदर नहीं रखते और केवल वे ही वास्तव में देखते हैं जो दूसरों की गलतियों के प्रति दयालु रहते हैं । 8- उस आदमी को देखो जो दूसरों के प्रति बिना अपने किसी - कर्तव्य को कम किये लिहाजदार रह सकता है, वह पृथ्वी को उत्तराधिकार में पा लेगा । 9- यह उच्चता है कि जिसने तुमको दुःख दिया हो उसे तुम छोड़ दो और उसके साथ क्षमा का व्यवहार करो। 10- जो सत्य ही सुशील नेत्र वाला बनना चाहते हैं उनको वह विष भी पीना होगा जो उनकी आँखों के सामने ही मिलाया गया हो। 225 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -जा कुबल काव्य को परिच्छेदः ॥ गुप्तचर राज्यस्थिति के ज्ञान को, भूपति के दो नेत्र । पहिला उनमें 'नीति' है, दूजा 'चर' है नेत्र ।।१।। राजा के कर्तव्य में, यह भी निश्चित काम । देखे नृप चरचक्षु से, नरचर्या प्रतियाम ॥२॥ चर से या निज दूत से, घटनायें विज्ञात । जिस नृप को होती नहीं, उसे विजय क्या तात ।।३।। रिपु, बान्धव या मृत्य की, गति मति के बोधार्थ । रक्खे घर को नित्य नृप, जो दे बात यथार्थ ।।४।। जिसकी मुखमुद्रा नहीं, करती कुछ सन्देह । वाक्यचतुर, निजमर्म का, रक्षक चर गुणगेह ।।५।। साधु तपस्वीवेश में, रक्षित करके मर्म । __ भाँति-भाँति के यत्न से, साधे चर निजकर्म ।।६।। लेने में परमर्म को, जो है सहज प्रवीण । जिसकी खोजें सत्य हों, वह ही प्रणिधि-धुरीण ||७|| पूर्व प्रणिथि की सूचना, करे नृपति तब मान्य । उसमें परचर-उक्ति से, जब आवे प्रामाण्या।। आपस में अज्ञात हों, ऐसे चर दें कार्य । तीन कहें जब एक से, तब समझो सच आर्य ।।६।। पुरस्कार निजराज्य के,चर का करो न ख्यात । सर्वराज्य ही अन्यथा,होगा पर को ज्ञात 11१०।। (226) Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , कुरल काव्य परिच्छेद ५९ गुप्तचर 1- राजा को यह ध्यान में रखना चाहिए कि राजनीति और गुप्तचर ये दो आँखें हैं जिनसे वह देखता है । 2- राजा का काम है कि कभी कभी प्रत्येक मनुष्य की प्रत्येक बात को प्रतिदिन खबर रक्खे। 3. जो राजा गुप्तचरों और दूतों के द्वारा अपने चारों ओर होने वाली घटनाओं की खबर नहीं रखता उसके लिए दिग्विजय नहीं हैं । 4- राजा को चाहिए कि अपने राज्य के कर्मचारियों अपने बन्धु बान्धवों और शत्रुओं की गतिभति को देखने के लिए गुप्तचर नियत कर रक्खे | 5--जो आदमी अपनी मुखमुद्रा का ऐसा भाव बना सके कि जिससे किसी को सन्देह न हो और किसी भी आदमी के सामने गड़-बड़ाये नहीं तथा जो अपने गुप्त भेदों को किसी तरह प्रगट न होने दे, भेदिया का काम करने के लिए वहीं ठीक आदमी है। 6- गुप्तचरों और दूतों को चाहिए कि वे साधु-रान्तों का देश धारण करें और खोजकर सच्चा भेद निकाल लें, किन्तु चाहे कुछ भी हो जाय वे अपना भेद न बतावें । 7. जो मनुष्य दूसरों के पेट से भेद की बातें निकाल सकता है और जिसकी गवेषणा सदा शुद्ध तथा निस्सन्दिग्ध होती है वही भेद लगाने का काम करने लायक हैं। 8- एक गुप्तचर के द्वारा जो सूचना मिलती है, उसको दूसरे चर की सूचना से मिलाकर जांचना चाहिए । 9- इस बात का ध्यान रक्खो कि कोई गुप्तचर उसी काम में लगे हुए दूसरे गुप्तचर को न जानने पावे और जब तीन घरों की सूचनाऐं एक दूसरे के मिलती हों, तब उन्हें सच्चा मानना चाहिए । 10- अपने गुप्तचरों को उजागर रूप में पुरस्कार मत दो, क्योंकि यदि तुम ऐसा करोगे तो अपने सारे राज्य का गुप्त रहस्य खोल दोगे । 227 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः 10 उत्साह उत्साही नर ही सदा, हैं सच्चे धनवान | अन्य नहीं निजवित्त के, स्वामी गौरववान ||१ सच्चा कल इस विश्व में, काही उत्साह | अस्थिर वैभव अन्य सब बहते काल - प्रवाह ||२|| सायन जिनके हाथ में, है अटूट उत्साह 1 क्या, निराश हों, धन्य वे भरते दुःखद आह || ३ || , 7 श्रम से भगे न दूर जो देख विपुल आयास । खोज सदन उस धन्य का, करता भाग्य निवास || ४ || तरुलक्ष्मी की साख ज्यों देता नीर प्रवाह । भाग्यश्री की सूचना, देता त्यों उत्साह ||५|| लक्ष्य सदा ऊँचा रखो, यह ही चतुर सुनीति । सिद्धि नहीं जोभी मिले तो भी मलिन न कीर्ति । ॥ ६ ॥ हतोत्साह होता नहीं, हारचुका भी वीर । पैर जमाता और भी, गज खा तीखे तीर ॥७॥ - हो जावे उत्साह ही, जिसका क्रम से मन्द । उस नर के क्या भाग्य में, वैभव का आनन्द || सिंह देख गजराज का, जब मन ही मरजाय । कौन काम के दन्त तब, और बृहत्तर - काय ||६ है अपार उत्साह ही, भू, में शक्ति महान । हैं पशु ही उसके बिना, आकृति में असमान ||१०|| 228 F 1 'i Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः 10 उत्साह 1- वे ही सम्पत्तिशाली कहे जा सकते हैं जिनमें उत्साह है और जिनमें यह उत्साह नहीं हैं ये क्या वास्तव में अपने धन के स्वामी हैं ? 2 - पुरुषार्थ ही यथार्थ में मनुष्य की सच्ची सम्पत्ति है, क्योंकि दूसरी सम्पत्ति तो स्थायी नहीं रहती वह तो मनुष्य के हाथ से एक दिन अवश्य ही चली जावेगी । 3- वे मनुष्य धन्य हैं, जिनके हाथ में अटूट उत्साह रूपी साधन है, उनको यह कहकर कभी निराश न होना पड़ेगा कि हाय ! हाय ! हमारा तो सर्वनाश हो गया। 4- धन्य है वह पुरुष जो परिश्रम से कभी पीछे नहीं हटता. भाग्य - लक्ष्मी उसके घर की राह पूछती हुई आती है। 5- झाड़ तथा पौधों को सींचने के लिए जो पानी दिया जाता है उससे जिस प्रकार अच्छी बहार का पता लगता है, उसी प्रकार आदमी का उत्साह उसके भाग्यशीलता का परिचायक है। 6- अपने उद्देश्यों को उदात्त बनाये रहो, कारण यदि वे विफल रहे तो भी तुम्हारे यश को कलक न लगेगा | 7- साहसी पुरुष पराजित होने पर भी निरुत्साहित नहीं होते। हाथी तीखे बाणों के गहरे आघात होने पर अपने पैरों को और भी दृढ़ता से जमा देता है । 8- उन पुरुषों को देखो जिनका उत्साह शनैः शनैः क्षीण हो रहा है। अपार उदारता के वैभव का आनन्द उनके भाग्य में नहीं है। 9-- जब हाथी सिंह को अपने ऊपर आक्रमण के लिए तैयार देखता है तब उसका हृदय बैठ जाता है । बताइये इतना बड़ा शरीर और उसके सुतीक्ष्ण लम्बे दाँत किस काम के ? 10- अपार उत्साह ही शक्ति है । जिसमें उत्साह नहीं वे तो निरे पशु हैं, उनका मानव शरीर तो एक मात्र शारीरिक विशेषता को ही प्रगट करने वाला है। 229 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जकुबल काव्य चार परिकलेदः १ आलस्य-त्याग देखो है आलस्य भी, दूषित वायु प्रचण्ड । झोके से नृपवंश की, बुझती ज्योति अखण्ड ।।१।। कहने दो तुम आलसी, पर परख तजो स्त्यान । निज का और स्ववंश का, यदि चाहो उत्थान ।।२।। हत्यारे आलस्य की, जिस के मन में प्यास । देखेगा मतिमन्द वह, जीवित ही कुलनाश ।।३।। जिनके कर आलस्य से, करें न उन्नति-कार्य । क्षीणगृही बन भोगते, वे संकट अनिवार्य ।।४।। विस्मृति, निद्रा काल का यापन, ढील अपार । होती ये हतभाग्य की, उत्सव नौका चार ।।५।। नहीं समुन्नति साध्य है, नर को जब आलस्य । राजकृपा भी प्राप्त कर,भू में वह उपहास्य।।६।। करें न जिन के हाथ कुछ, उन्नति के व्यापार । सहते वे नर आलसी, नित्य घृणा धिक्कार ।।७।। जो कुटुम्ब आलस्य का, यहाँ बने आवास । शत्रुकरों में शीघ्र वह, पड़ता बिना प्रयास ।।८।। अहो मनुज आलस्यमय, त्यागे जब ही पाप । । आते संकट क्रूर भी, ठिटक जायें तब आप ।।६।। कर्मलीन हो भूप यदि, करे न रंच प्रमाद । छत्रतले वसुधा बसे, नपी त्रिविक्रम पाद 11१०|| 230; Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुबल काव्य । परिच्छेदः ६१ आलस्य-त्याग 1-आलस्य रूपी अपवित्र वायु के झोके से राजवंश की अखण्ड ज्योति बुझ जायेगी। 2-लोगों को आलसी कहकर पुकारने दो ! पर जो अपने धराने को दृढ़ पाये पर उन्नत करना चाहते हैं उन्हें आलस्य के खरे स्वरूप को समझ कर उसका त्याग कर देना चाहिए। 3-जो लोग इस हत्यारे आलस्य को हृदय से लगाते है उन मूर्यों का वंश उनके जीवन काल में ही नष्ट हो जायेगा। 4. जो लोग आलस्य में डूबकर उच्च तथा महान कार्यों की ओर अपना हाथ नहीं बढ़ाते उनका धर क्षयकाल में पडकर संकट ग्रस्त हो जायेगा। ___5-विनाश होना जिनके भाग्य में बदा है उनकी टालमटूल, विस्मृति सुस्ती, और निद्रा, ये चार उत्सव-नौकायें हैं। 6-राजकृपा भी हो तो भी आलसी की उन्नति सम्भव नहीं है। 7-जो लोग आलसी हैं और महत्त्वपूर्ण कार्यों में अपना हाथ नहीं बटाते उनको संसार में निन्दा और धिक्कार सुनने ही पड़ेंगे। H-जिस कुटुम्ब में आलस्य घर कर लेता है वह कुटुम्ब शीघ्र ही शत्रुओं के हाथ में पड़ जायेगा। 9-कभी किसी मनुष्य पर कुछ संकट आते हों और यदि वह । उसी समय आलस्य का त्याग कर देवे तो वे संकट भी वहीं ठिटक जावेंगे। ____10-जिस राजा ने आलस्य को सर्वथा त्याग दिया है वह एक दिन त्रिविक्रम से नपी हुई इस विशाल पृथ्वी को अपने अधिकार में ले आयेगा । 231 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ६२ पुरुषार्थ हटो न पीछे कर्म से, कहकर उसे अशक्य है समर्थ पुरुषार्थ जब करने को सब शक्य ॥ | १ || अहो सयाने भूलकर, करो न आधा कार्य । देगा तुम्हें न अन्यथा, आदर कोई आर्य ||२|| दुःख समय भी साथ दे, वह नर गौरववान । सेवानिधि गिरवी धरे, तब पाता वह मान ||३|| पौरुष बिना उदारता, क्लीव कृपाण समान । कारण अस्थिर एक से, खोते दोनों मान ।।४।। जिसे न सुख की कामना, चाहे कर्म उदार । मित्रों का आधार वह, आँसू पोंछनाहार ||५|| क्रिया शीलता विश्व में, वैभव - जननी ख्यात | और अलस दारिद्र्यसम, दुर्बलता का तात || ६ || सचमुच ही आलस्य में है दारिद्र्यनिवास । पर करती उद्योग में, कमला नित्य निवास ||७|| क्षीण विभव हो दैववश, क्या लज्जा की बात ! श्रम से भगना दूर ही है लज्जा की बात ||८|| भाग्य भले ही योगवश, चाहे हो प्रतिकूल । देता है पुरुषार्थ पर, सत्फल ही अनुकूल || ६ || रहे न निर्भर भाग्य पर, जो नर कर्म धुरीण । विधि भी रहते वाम यह होता जयी प्रवीण ||१०|| 232 i Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ६२. पुरुषार्थ 1 - यह काम अशक्य है, ऐसा कहकर किसी भी काम से पीछे न हटो, कारण पुरुषार्थ अर्थात् उद्योग प्रत्येक काम में सिद्धि देने की शक्ति रखता है। 2-- किसी काम को अधूरा छोड़ने से सावधान रहो. कारण अधूरा काम करने वालों की जगत में कोई चाह नहीं करता । 3- किसी के भी कष्ट के समय उससे दूर न रहने में ही मनुष्य का बड़प्पन है और उसको प्राप्त करने के लिए सभी मनुष्यो की हार्दिक सेवा रूप निधि ( धरोहर ) रखनी पड़ती है । 4- पुरुषार्थ हीन की उदारता नपुंसक की तलवार के समान है, कारण वह अधिक समय तक टिक नहीं सकती। 5- जो सुख की चाह न कर कार्य को चाहता है वह मित्रों का ऐसा आधार स्तम्भ है जो उनके दुःख के आँसुओं को पोंछेगा। 6- उद्योग शीलता ही वैभव की माता है, पर आलस्य दारिद्र्य और दुर्बलता का जनक है । 7- कंगाली का घर निरुद्योगिता है, लेकिन जो आलस्य के फेर में नहीं पड़ता उसके परिश्रम में लक्ष्मी का नित्य निवास है । 3-- यदि मनुष्य कदाचित वैभवहीन हो जाये तो कोई लज्जा की बात नहीं है, परन्तु जानबूझकर मनुष्य श्रम से मुख मोड़े यह बड़ी ही लज्जा की बात है । 9- भाग्य उल्टा भी हो तो भी उद्योग श्रम का फल दिये बिना नहीं रहता । 10- जो भाग्यचक्र के भरोसे न रहकर लगातार पुरुषार्थ किये जाता है वह विपरीत भाग्य के रहने पर भी उस पर विजय प्राप्त करता है 1 233 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय कुमार काव्य परपरिच्छेदः ॥3 संकट में धैर्य करो हैंसी से सामना, जब दे विपदा त्रास । विपदाजय को एक ही, प्रवल सहायक हास ।।१।। अस्थिर भी एकाग्र हो, ले लेता जब चाप । क्षुब्ध जलधि भी दुःख का, दबजाता तब आप ॥२॥ विपदा को विपदा नहीं, माने जब नर आप । विपदा में पड़ लौटती, विपदाएं तब आप ।।३।। करे विपद का सामना, भैंसासम जी-तोड़ । तो उसकी सब आपदा, हटती आशा छोड़।।४।। विपदा की सैना बड़ी, खड़ी सुसज्जित देख । नहीं तजै जो धैर्य को, डरे उसे वे देख ।।५।। किया न उत्सव गेह में, जब था निजसौभाग्य । तब कैसे वह बोलता, हा आया 'दुर्भाग्य' ॥६।। विज्ञ स्वयं यह जानते, विपदागृह है देह । विपदा में पड़कर तभी, बने न चिन्ता गेह ।।७।। अटल नियम में सृष्टि के, गिनता है जो दुःख । उस अविलासी थीर को, बाधा से क्या दुःख ।।८।। वैभव के वर-लाभ में, जिसे न अति आल्हाद । होगा उसके नाश में, क्योंकर उसे विषाद ।।६।। श्रम दबाब या वेग में, माने जो नर मोद । फैलाते उस धीर की, अरि भी गुण-आमोद ।।१०।। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा कुबल काव्य पर परिच्छेदः 3 संकट में धैर्य 1-जब तुम पर कोई आपदा आ पड़े तो तुम हँसते हुए उसका सामना करो क्योंकि मनुष्य को आपत्ति का सामना करने के लिए सहायता देने में मुस्कान से बढ़कर और कोई वस्तु नहीं है। 2-अनिश्चित मन का पुरुष भी मन को एकाग्र करके जच सामना करने को खड़ा होता है तो आपत्तियों का लहराता हुआ सागर भी दबकर बैठ जाता है। 3-आपत्तियों को जो आपत्ति नहीं समझते, वे आपत्तियों को ही आपत्ति में डालकर वापिस भेज देते हैं। 4.-भैंसे की तरह हर एक संकट का सामना करने के लिए जो जी तोड़कर श्रम करने को तैयार है, उसके सामने विघ्न-बाधा आयेंगी पर निराश होकर अपना सा मुँह लेकर वापिस चली जायेंगी। 5--आपत्ति की एक समस्त सेना को अपने विरुद्ध सुसज्जित खड़ी देखकर भी जिसका मन बैठ नहीं जाता, वाधाओं को उसके पास आने में स्वयं वाधा होती है। 6-सौभाग्य के समय जो हर्ष नहीं मनाते क्या वे कभी इस प्रकार का दुखौना कहते फिरेंगे कि हाय ! हम नष्ट हो गये। 7-बुद्धिमान् लोग जानते हैं कि यह देह तो विपत्तियो का घर है और इसीलिए जब उन पर कोई संकट आ जाता है तो वे उसकी कुछ पर्वाह नहीं करते। -जो आदमी भोगोपभोग की लालसा में लिप्त नहीं और जो जानता है कि आपत्तियाँ भी सृष्टि-नियम के अन्तर्गत हैं वह वा।। पड़ने पर कभी दुःखित नहीं होता। 9-सफलता के समय जो हर्ष में मग्न नहीं होता, असफलता के समय उसे दुःख से घवसना नहीं पड़ता। 10-जो आदमी परिश्रम के दुःख, दवाब और आवेग को सच्चा सुख समझता है उसके वैरी भी उसकी प्रशंसा करते हैं। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ६४ मंत्री 1 जाने सब ही कार्य के अवसर और उपाय । तीक्ष्णबुद्धि वह भूप को, देवे मंत्रसहाय 11911 ; दृढनिश्तर स्टुता पौरुष ज्ञान - अगार । प्रजोत्कर्ष को नित्यरुचि, सचिव गुणों का सार ||२|| भेद करे रिपुवर्ग में, मित्रों से अतिसख्य । सन्धिकला में दक्ष जो, वही सचिव है भव्य || ३|| साधन चुनने में कुशल, उद्यमप्रीति अपार । सम्मति दे सुस्पष्ट जो, मंत्री गुणमणिसार ||४|| नियम, क्षेत्र, अवसर जिसे हों उत्तम विज्ञात । भाषाणपटु हो प्राज्ञतम, योग्य सचिव वह ख्यात ||५|| प्राप्त जिसे स्वाध्याय से, प्रतिभा का आलोक । उस नर को दुर्ज्ञेय क्या, वस्तु अहो इस लोक ||६|| विद्या पढ़ कर भी बनी, अनुभव से भरपूर । और करो व्यवहार वह, अनुभव जहाँ नं दूर ||७|| बाधक अथवा अज्ञ भी, नृप हो यदि साक्षात | तो भी मंत्री भूप को, बोले हित की बात ॥८॥ मंत्रभवन में मंत्रणा, जो दे नाश स्वरूप | सप्तकोटि रिपु से अधिक, वह अरि मंत्री रूप ||६|| बिना विचारे बुद्धि से, मनसूर्वे निस्सार । इग मग चंचल चित्तका, कर न सके व्यवहार || १०|| 236 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी, कुबल काव्य परपरिच्छेदः ६४ मंत्री 1-देखो, जो मनु महत्वपूर्ण छ. . ..पूर्ग:: समाद! करने के मागों और साधनों को जानता है तथा उनको आरम्भ करने के समुचित समय को पहिचानता है सलाह देने के लिए वही योग्य पुरुष है। 2-स्वाध्याय, दृढ़-निश्चय, पौरुष. कुलीनता और प्रजा की भलाई के निमित्त सप्रेम चेष्टा ये मन्त्री के पाँच गुण हैं। 3-जिसमें शत्रुओंके अन्दर फूट डालने की शक्ति है जो वर्तमान मित्रता के संबंधों को बनाये रख सकता है और जो वैरी बन गये हैं उनसे सन्धि करने की सामर्थ्य जिसमें है बस यही योग्य मंत्री है। 4-उचित उद्योगों को पसन्द करने और उनको कार्यरूप में परिणत करने के साधनों को चुनने की योग्यता तथा समाति देते समय निश्चयात्मक स्पष्टता ये परामर्शदाता के आवश्यक गुण हैं। 5-जो नियमों को जानता है तथा विपुल ज्ञान से भरा है जो समझ बूझकर बात करता है और जिसे प्रत्येक प्रसंग की परख है बस बही तुम्हारे योग्य मंत्री है। 6-जो पुस्तकों के ज्ञान द्वारा अपनी स्वाभाविक बुद्धि की अभिवृद्धि कर लेते हैं, उनके लिए कौन सी बात इतनी कठिन है जो उनकी समझ में न आ सके। 7-पुस्तक ज्ञान में यद्यपि तुम सुदक्ष हो फिर भी तुम्हें चाहिए कि || तुम अनुभव जन्य ज्ञान प्राप्त करो और उसके अनुसार व्यवहार करो। -सम्भय है कि राजा मूर्ख हो और पग पग पर उसके काम में अड़चने डाले फिर भी मंत्री का कर्तव्य है कि वह सदा वही राह उसे दिखावे कि जो नियग संगत और समुचित हो। 9-देखो. जो मंत्री मंत्रणा-गृह में बैठकर, अपने राजा का सर्वनाश करने की युक्ति चिता है, वह सप्तकोटि बैरियों से भी अधिक भयंकर है। 10-चंचलचित्तं का पुरुष सोचकर ठीक रीति निकाल भी ले पर उसे व्यावहारिक रूप देते हुए यह डगमगादेगा और अपने अभिप्राय को कभी पूरा न कर सकेगा। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुबल कात्र र परिच्छतेन्दः ६५ वाक-पटुता वाक्पटुता भी एक है, बड़ी मधुर वरदान । नहीं किसी का अंश वह, है स्वतंत्र वरदान १५१५४ जिव्हा में करते सदा, जीवन मृत्यु निवास । इससे बोलो सोचकर, वाणी बुध सोल्लास ।।२।। बढ़े और भी मित्रता, सुन जिसका परमार्थ । शत्रु हृदय भी खींचले, वाणी वही यथार्थ ।।३।। पूर्व हृदय में तौल ले, वाणी पीछे बोल । धर्म वृद्धि इससे मिले, होवें लाभ अमोल ।।४।। वाणी वह ही बोलिए, जो सब की हितकार । कटे नहीं जो अन्य से, पाकर वाद-प्रहार ।।५।। मन खीचे दे वक्तृता, द्रुत समझे परभाव 1 वह नर ही नृपनीति में,रखता अधिक प्रभाव ।।६।। व्याप्त न होता वाद में, जिसको भीति-विकार । सद्वक्ता उस धीर की, कैसे सम्भव हार ।।७।। वाणी जिसकी ओजमय, परिमार्जित विश्वास्य । उस नर के संकेत पर, करती वसुधा लास्य 1।८।। परिमित शब्दों में नहीं, जिसे कथन का ज्ञान । उस में ही होती सदा, बहुभाषण की वान ।।६।। समझा कर जो अन्य को, कह न सके निजज्ञान । गन्धहीन वह फूलसम,होता नर है भान ।।१०।। -........ ...........(238 ..-.--.. ........ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुकूरल काव्य परिच्छेदः ६५ वाक्पटुता १. वाक्शक्ति निःसन्देह एक बड़ा वरदान है, क्योंकि वह अभ्य वरदानों का अंश नहीं किन्तु एक स्वतन्त्र वरदान है। 2-1 - जीवन और मृत्यु जिव्हा के वश में है, इसलिए ध्यान रक्खो कि तुम्हारे मुँह से कोई अनुचित बात न निकले । 3- जो बक्तृता मित्रों को और भी घनिष्टता के सूत्र में आबद्ध करती है और विरोधियों को भी अपनी ओर आकर्षित करती है, बस वही यथार्थ वक्तृता है । 4- हर एक बात को ठीक तरह से तौल कर देखो और फिर जो उचित हो वही बोली, धनवृद्धि तथा लाभ की दृष्टि से इससे बढ़कर उपयोगी बात तुम्हारे पक्ष में और कोई नहीं है । 5- तुम ऐसी वक्तृता दो कि जिसे दूसरी कोई वक्तृता चुप न कर सके। 6- ऐसी वक्तृता देना कि जो श्रोताओं के हृदय को खींचले और दूसरों की वक्तृता के अर्थ को शीघ्र ही समझ जाना यह पक्के राजनीतिज्ञ का कर्तव्य है । 7- जो आदमी सुवक्ता है और जो गड़बड़ाना या डरना नहीं जानता, विवाद में उसको हरा देना किसी के लिए संभव नहीं । 8- जिसकी वक्तृता परिमार्जित और विश्वासोत्पादक भाषा से सुसज्जित होती है सारी पृथ्वी उसके संकेत पर नाचेगी। 9- जो लोग अपने मन की बात थोड़े से चुने हुए शब्दों में कहना नहीं जानते वास्तव में उन्हीं को अधिक बोलने की आदत होती है I 10- जो लोग अपने प्राप्त किये हुए ज्ञान को समझा कर दूसरों को नहीं बता सकते वे उस फूल के समान हैं जो खिलता है परन्तु सुगन्ध नही देता । 239 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुभव काव्य चोरपरिच्छेदः ६६ शुभाचरण सफल बनें तब कार्य सब, जब होवें वर मित्र । फलती पर सब कामना, जब आचार पवित्र ।।१।। कीर्ति नहीं जिस काम से,और न कुछ भी लाभ । ऐसे से रह दूर ही, बड़ी इसी में आभ ।।२।। यदि चाहो संसार में, अपनी उन्नति तात । त्यागो तब उस कार्य को, करता जो यशघात ।।३।। संकट में भी शुद्ध है, जिनकी बुद्धि ललाम । ओछे और आकीर्तिकर, करें नहीं वे काम।।४।। जिस पर पश्चाताप हो, करे नहीं वह आर्य ।। और किया तो भूल से, करे न फिर वह कार्य ॥५॥ भद्रपुरुष की दृष्टि में, जो हैं निन्दा-थाम । जननी के रक्षार्थ भी,करो न बुध वे काम ।।६।। न्यायी का दारिद्रय भी, होता शोभित तात । वैभव भी नयहीन का, रुचे नहीं पर भात ।।७।। त्याज्य कहे भी शास्त्र में, जो नर करे अकार्य । शान्ति नहीं उसको मिले, यद्यपि हो कृतकार्य |८|| रुला रुला कर द्रव्य जो, होती संचित तात । क्रन्दनध्वनि के साथ वह, चपला सी छिप जात ।। धर्म मूल जो सम्पदा, पुण्यहेतु विख्यात । कृश भी यदि हो मध्य में, अन्त फने वह तात ।।६।।थुम) कच्चे घट में नीर का, भरना ज्यों है व्यर्थ । माया से कर वंचना, जोड़ा त्यों ही अर्थ ।।१०।। ] ------------- -- -(240 -.-.-- - Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाकुचल काव्य - परिच्छेदः ६६ शुभाचरण 1-मित्रता द्वारा मनुष्य को सफलता मिलती है किन्तु आचरण की पवित्रता उसकी प्रत्येक्ष इच्छा को पूर्ण कर देती है। 2--उन कामों से सदा विमुख रहो कि जिनसे न सुकीर्ति मिलती है और न लाभ होता है। 3-जो लोग संसार में उन्नति करना चाहते हैं उन्हें ऐसे कार्यों से सदा दूर रहना चाहिए जिनसे कीर्ति में कलक लगने की संभावना हो। 4-बुरा काल आने के पश्चात् भी जो लोग सत्य को नहीं छोड़ते उन मनुष्यों को देखो, वे छुद्र और अकीर्तिकारक कर्मों से सदा दूर रहते हैं। 5-यह मैने क्या किया । इस प्रकार परतावा देने वाले कर्म मनुष्य को कभी नहीं करने चाहिए और यदि किये हों तो भविष्य में वैसे | कर्म करना उसे श्रेयस्कर नहीं। -भले आदमी जिन बातों को बुरा बललाते हैं. मनुष्य को चाहिए कि जननी की रक्षा के लिए भी उन्हें न करे। 7-निन्धकर्मों द्वारा एकत्र की हुई सम्पत्ति की अपेक्षा तो सदाचारी पुरुष की निर्धनता कहीं अच्छी है। 8-धर्मशास्त्र में जो काम हेय बताये गये हैं उनको भी जो नहीं छोड़ते ऐसे मनुष्यों को देखो, वे चाहे सफल मनोरथ भी हो गये हों तो भी उन्हें शान्ति नहीं मिलती। 9.. लोगों को रुलाकर जो सम्पत्ति इकट्टी की जाती है, वह क्रन्दन ध्वनि के साथ ही विदा हो जाती है, पर जो धर्म द्वारा संचित की जाती है वह बीच में क्षीण हो जाने पर भी अन्त में खूब फूलती फलती है। ___ 10-छल छिद्र द्वारा संचित किया हुआ धन ऐसा ही है जैसे कि मिट्टी के कच्चे घर्ड में पानी भरकर रखना। (241) Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुनाम काव्य परपरिच्छेद: ६७ स्वभावनिर्णय इच्छाबल से भिन्न क्या, यश में दिखे महत्व । पहुँचे उसके अंश तक, और न कोई तत्व ।।१।। कार्यविनिश्चय के लिए, विज्ञ करें दो भाग । दृढ़ रहना उद्देश्य में, कर अशक्य का त्याग ।।२। कर्मठ कहें न ध्येय को, कार्यसिद्रि के पूर्व ।। आते नर पर अन्यथा, संकट अटल अपूर्व ॥३॥ वस्तुकथन तो लोक में, अहो सरल विख्यात । विधिक्त करना हाथ से, किन्तु कठिन है बात ।।४।। अति महत्व के कार्य कर, जिन की कीर्ति विशाल । महिमा उन की विश्व में, सेवा में भूपाल 11५!! पूर्णशक्ति के साथ में, यदि सच्चा संकल्प । तो मिलती उस भाँति ही, वस्तु यथासंकल्प ।।६।। आकृति को ही देखकर, मत समझो वेकाम । चलते रथ में अक्षसम, करते वे ही काम ।।७।। जो तुमने सद्बुद्धि से, ठानलिया है कार्य । सिद्ध करो रिश्शंक वह, पूर्ण शक्ति से आर्य 11८।। हर्षोत्पादक कार्य में, जुटजाओ धर टेक । डटे रहो तुम अन्त तक, जो भी कष्ट अनेक ।।६।। चरित्र गठन के अर्थ जो, रखें न कुछ भी सत्व । लोकमान्य होते न वे, रखकर अन्य महत्व ।। १०।। 247 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ६७ स्वभावनिर्णय 1- यश का महान और कुछ नहीं बल्कि उस इच्छाशक्ति की महत्ता है जो उसके लिए प्रयास करती है और अन्य बातें उस अंश तक नहीं नहुँचती । 2- ऐसे सभी कामों से बचाव रखना जो निश्चय असफल होगे और अपने उद्देश्य से बाधाओं के कारण विचलित न होना, ये दोनों सिद्धान्त विद्वानों के पथप्रदर्शक हैं। 3 - कर्मठ पुरुष अपने उद्देश्य को तभी मालूम होने देता है जब अपने ध्येय को प्राप्त कर लेता है, क्योंकि असमय में ही भेद खुल जाने से ऐसी बाधायें आ सकती हैं जिनका कि पीछे उल्लंघन कठिन हो जायेगा । 4- किसी मनुष्य के लिए एक वस्तु के विषय में कहना सरल है परन्तु उसको अपने हाथ से करना वास्तव में कठिन है। 5. जिस मनुष्य ने महान कार्यों को करने का यश कमा लिया है उसकी सेवाओं के लिए राजा भी विनती करेगा और वह सबके द्वारा प्रशंसित होगा । 6- मनुष्य जो जो इच्छायें करता है उन्हें अपने इष्टरूप में ही पा सकता है. यदि वह शुद्ध अन्तःकरण से उनका सच्चा संकल्प करे । 7- किसी आदमी की आकृति से ही घृणा नहीं करनी चाहिए क्योंकि ऐसे भी आदमी हैं जो भरी गाड़ी में धुरा की कील के समान हैं। 8- जब आपने अपनी सारी बुद्धिमत्ता से एक काम करने की ठान ली है तब डगमगाना नहीं चाहिए बल्कि लक्ष्य को शक्ति से प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए । 9- ऐसे कार्यों के करने में जुट जाओ जो प्रसन्नता बढ़ाते हैं चाहे तुम्हें ऐसा करने में अनेक कठोर दुःखों की पीड़ा उठानी पड़े अपने हृदय को कड़ा करो और अन्त तक दृढ़ रहो । 10- जिन लोगों में चरित्र के निर्णय करने की शक्ति नहीं होती उन्होंने अन्य दिशाओं में चाहे कितनी ही महत्ता प्राप्तकर ली हो संसार उसकी कुछ परवाह नहीं करेगा। 243 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करल काम्य -जा कुबल काव्य पर परिचछेदः ६८ कार्य-संचालन निश्चय की ही प्राप्ति को, करते विज्ञ विचार । निश्चय ही जब हो चुका, फिर विलम्ब निस्तार' ।।१।। शीघ्र कार्य को शीघ्र ही, विबुध सज्ञान । पर विलम्ब सहकार्य तब, जब मन शान्तिविधान ।।२।। लक्ष्य ओर सीधे चलो, देख समय अनुकूल । चलो सहज वह भार्ग तब, जब हो वह प्रतिकूल ।।३।। अपराजित वैरी बुरा, और अधूरा काम । शेष-अग्निसम वृद्धि पा, बनते विपदा-धाम ।।४।। द्रव्य, क्षेत्र, साधन, समय, और स्वरूप विचार । करले पहिले, कार्य फिर, करे विबुध विधिवार ।।५।। श्रम इस में कितना अधिक, कितना लाभ अपूर्व । बाधा क्या क्या आयेंगी, सोचे नर यह पूर्व ।।६।। मर्मविज्ञ के पास जा, पूछो पहिले मर्म । कार्यसिद्धि के अर्थ यह, कहते विज्ञ सुकर्म ॥७॥ गज को गज ही फाँसता, वन में जैसे एक ।। एक कार्य वैसा करो, जिससे सथें अनेक ||८|| मित्रों के भी मान से, यह है अधिक विशुद्ध 1 करलो रिपु को शीघ्र ही, क्षोभ रहित मन शुद्ध ।।६11 भला नहीं चिरकाल तक, दुर्बल संकट ग्रस्त । इससे दुर्बल काल पा, करले सन्धि प्रशस्त ।।१०।। 42444 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - -- जा कुलल काव्य परपरिच्छेदः ६८ कार्य-संचालन 1-किसी निश्चय पर पहुँचना यही विचार का उददेश्य है और जब किसी बात का निश्चय हो गया व उसको कार्यरूप में परिणत करने में विलम्ब करना भूल है। 2-जिन कामों को सावकाश होकर कर सकते हो उनको तुम्न पूर्णरीति से सोच विचार कर करो, किन्तु तत्कालोचित कार्यों के लिए तो क्षण भर भी देर न करो। 3--यदि परिस्थिति अनुकूल हो तो सीधे अपने लक्ष्य की ओर चलो. किन्तु परिस्थिति अनुकूल न हो तो उस मार्ग का अनुसरण कर्स जिसमें सबसे कम वाधाएं आने की सम्मावना हो। 4-अधूरा काम और अराजित शनी दोनों मित झी आग की चिनगारियों के समान हैं, वे समय पाकर बढ़ जायेंगे और उस असावधान आदमी को आ दटोचेंगे। 5---प्रत्येक कार्य को करते समय पाँच बातों का पूरा ध्यान रक्खो अर्थात् उपस्थित साधन. औजार. कार्य का स्वरूप, समुचित समय और कार्य करने का उपयुक्त स्थान। ___6-काम करने में कितना परिश्रम पडेगा, भाग में कितनी बाधाएँ आयेंगी और फिर कितने लाभ की आशा है, इन बातों को पहिले सोच लो. पीछे किसी काम को हाथ में लो। 7-किसी भी काम में सफलता प्राप्त करने या यही मार्ग है कि जो मनुष्य उस काम में दक्ष है उससे उस काम का रहस्य मालूम कर लेना चाहिए। 8-लोग एक हाथी के द्वारा दूसरे हाथी को फँसाते हैं. ठीक इसी प्रकार एक काम को दूसरे काग का साधना बना लेना चाहिए। 9-मित्रों को पारितोषिक देने से भी अधिक शीधता के साथ वैरियों को शान्त कर लेना चाहिए। ___ 10 दुर्बलो को सदा संकट की स्थिति में नहीं रहना चाहिए. बलि एक अवसर मिले तब उन्हें बलदान के साः संधि कर लेनी चाहिए। (245) Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा कुबत्य काव्य परत परिच्छेदः ६५ राज-दूत जन्मा हो वर-वंश में, मन से दयानिधान । नृपमण्डल को मोद दे दूत वही गुणवान 1111 स्वामि-भक्ति, प्रज्ञाप्रखर, भाषण कलाअधान । दूतों में ये तीन गुण, होते बहुत महान ।।२।। प्रभुहित का जिसने लिया, नृपमण्डल में भार । प्राज्ञों में वह प्राज्ञ हो, वचन सुधामय सार ।।३।। मुखमुद्रा जिसकी करे, नर पर अधिक प्रभाव । उस बुध का दूतत्व पर, दिखता योग्य चुनाव ।।४।। दूत सदा संक्षेप में, कहकर साधे काम ।। अप्रिय-वाणी त्याग कर, बोले वचन ललाम ।।५।। विद्वत्ता समयज्ञता, वाणी भरी-प्रभाव । आशुबुद्धि ये दूतमें, गुण रखते सद्भाव ।।६।। स्थान समय कर्तव्य की, जिसकी है पहिचान । बोले पहिले सोचकर, वह ही दूत महान ।।७।। जो स्वभाव से लोक में, हृदयाकर्षक आर्य । दृढ़प्रतिज्ञ वह विज्ञ ही, करे दूत के कार्य ।।८।। कहे न अनुचित बात जो, पाकर भी आवेश । ले जावे परराष्ट्र में, वह ही नृपसन्देश ।।६।। नहीं हटे कर्तव्य से रख संकट में प्राण । लाख यत्न से दूतवर; करता प्रभुहित त्राण ।।१०।। -246)--- Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न कुबत्य काव्य र परिच्छेदः ६ राज-दूत 1. दयालु हृदय, उच्च कुल और राजओं को प्रसन्न करने की रीतियों ये सब राजदूतों की विशेषताएं हैं। 2-स्वामिभक्ति सुतीक्ष्णबुद्धि और वाक-पटुता ये तीनों बातें । राज-दूत के लिए अनिवार्य हैं। 3-जो मनुष्य राजाओं के समक्ष अपने स्वामी को लाभ पहुंचाने वाले शब्दों को बोलने का भार अपने शिर लेता है उसे विद्वानों में परमविद्वान होना चाहिए। ___4-व्यावहारिक ज्ञान, विद्वत्ता और प्रभावोत्पादक मुखमुद्रा ये बातें जिसमें हों उसी को राज-दूत के नाम पर बाहिर जाना चाहिए। 5-संक्षिप्त वत्कृता, वाणी की मधुरता और सावधानी के साथ अप्रिय भाषा का त्याग, ये ही साधन हैं जिनके द्वारा राजदूत अपने स्वामी को लाभ पहुंचाता है ! 6-विद्वत्ता, प्रभावोत्पादक वक्तृता शान्तवृत्ति और समय सूचकता प्रगट करने वाली सुसंयत प्रत्युत्पन्नमति, ये सब राजदूत के आवश्यक गुण हैं। 7. वही सबसे योग्य राजदूत है जिसको समुचित क्षेत्र और समुचित समय की परख है, जो अपने कर्तव्य को जानता है तथा जो बोलने से पहिले अपने शब्दों को जांच लेता है। 8-जो मनुष्य दूत कर्म के लिए भेजा जाय वह दृक-प्रतिज्ञ. पवित्र- हृदय और चित्ताकर्षक स्वभाव वाला होना चाहिए। -जो दृढ़प्रतिज्ञ पुरुष अपने मुख से हीन और अयोग्य वचन कभी नहीं निकलने देता विदेशी दरवारों में राजाओं के सन्देश सुनाने के लिए वहीं योग्य पुरुष है। 10-मृत्यु का सामना होने पर भी सच्चा राजदूत अपने कर्तव्य से विचलित नहीं होता बल्कि अपने स्वामी के कार्य की सिद्धि के लिए पूरा यत्न करता है। 247 .......... . Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुभत्य काव्य धर परिच्छेदः ७० राजाओं के समक्ष व्यवहार नहीं निकट अति ही रहो, और न अति ही दूर । नृप को सेवो अग्नि सम, जो चाहो सुख पूर ।।१।। नृप चाहे जिस वस्तु को, करो न उसकी साध ! उससे वैभवप्राप्ति का, यह ही मंत्र अबाध ।।२।। इष्ट नहीं टि भूप का, बनना कोणधार । . तो कुदोष सब त्याग दो, कारण प्रम दुर ॥३॥ __ नृपके जब हो पासमें,करो न तब कुछ हास्य । कानाफूसी भी नहीं,और न विकृत आस्य ।।४।। छुपकर सुनो न भूलकर, नृप की कोई बात । और गुह्य के ज्ञान को, करो प्रयल न तात ।।५।। नृप की कैसी वृत्ति है, कैसा अवसर तात 1 बोलो यह सब सोचकर, मोदजनक ही बात ।।६।। नृप को जिससे हर्ष हो, बोलो वह ही बात । पूछे तो भी बोल मत, कभी निरर्थक बात ।।७।। नववय या सम्बन्ध से, तुच्छ न मानो भूप । कारण वह, नरदेव है,उससे भय हितरूप ।।६।। न्यायी निर्मलवृत्ति के, नर से नृप जब तुष्ट ।। करे न ऐसा कार्य तब,जिससे नृप हो रुष्ट ॥६।। नृप से मानघनिष्ठता, समझ उसे या मित्र । जो नर करें कुकर्म वे, मिटते बड़े विचित्र ।।१०।। 248 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ७0 राजाओं के समक्ष व्यवहार 1- जो कोई राजाओं के साथ रहना चाहता है, उसको बाहिएक वह जरा आदमी के समान व्यवहार करे, जो आग के सामने बैठकर तापता है. उसको न तो अति समीप जाना चाहिए न अति दूर 1 2- राजा जिन वस्तुओं को चाहता है उनकी लालसा न रखो, शही उसकी स्थायी कृपा प्राप्त करने और उसके द्वारा समृद्धिशाली बनने का मूल मंत्र है। 3- यदि तुम राजा की अप्रसन्नता में पड़ना नहीं चाहते तो तुमको चाहिए कि हर प्रकार के गम्भीर दोषों से सदा शुद्ध रहो, क्योंकि यदि एक बार भी सन्देह पैदा हो गया तो फिर उसे दूर करना असम्भव हो जाता है। 4- राजा के सामने लोगों से कानाफूसी न करो और न किसी दूसरे के साथ हँसो या मुस्कराओ ! 5. छिपकर राजा की कोई बात सुनने का प्रयत्न न करो और जो बात तुम्हें नहीं बताई गयी है उसका पता लगाने की चेष्टा भी न करो। जब तुम्हें बताया जाये तभी उस भेद की जान | 6. राजा की मनोवृत्ति इस समय कैसी है, इस बात को समझ लो और क्या प्रसंग है इस को भी देखलात ऐसे शब्द बोलो जिनसे वह प्रसन्न हो । 7 राजा के सामने उन्हीं बालों की चर्चा करो जिनसे ग्रह प्रसन्न हो, पर जिन बातों से कुछ लाभ नहीं है उन निरर्थक बातों की वर्षा राजा के पूछने पर भी न करें । 8- राजा नवयुवक है और तुम्हारा सम्बन्धी अथवा नातेदार है इसलिए तुम उसको तुच्छ मत समझो, बल्कि उसके अन्दर जी ज्योति विराजमान है उसके सामने भय मान कर रहो। 9 जिनकी दृष्टि निर्मल और निर्द्वन्द हैं वे यह समझकर कि हम राजा के कृपणनात हैं कभी कोई ऐसा काम नहीं करते जिरासे रांगा असतुष्ट हो । 10अयोग्य काम करके राजा की और मित्रता पर भरोसा रखकर वे नष्ट हो जाते है । 249 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुबरम काव्य 17 परिच्छेदः ७१ मुखाकृति से मनोभाव समझना मनोभाव जो जानले, भाषण के ही पूर्व । मेधावी वह धन्य है पृथ्वी तिलक अपूर्व ।।१।। प्रतिभा-बल से जानले,जो मन के सब भेद । पृथ्वी में वह देवता, मानो यही प्रभेद ।।२।। आकृति से ही भाँप ले, जो नर पर के भाव । बहुयत्नों से मंत्रणा, लो उसकी रख चाव ।।३।। अज्ञ मनुज जो उक्त ही, जाने चतुर अनुक्त । आकृति यद्यपि एक सी, फिर भी भिन्न प्रयुक्त ।।४।। जो आँखें जाने नहीं, नर के हृद्गत भाव । ज्ञानेन्द्रिय में व्यर्थ ही, है उनका सद्भाव ।।५।। ___ पड़ती जैसे स्फटिक पर, वर्ण वर्ण की छाप । त्यों ही हार्दिक भाव भी,झलकें मुख पर आप ।।६।। भावपूर्ण मुख से नहीं, बढ़कर कोई वस्तु । हर्ष कोप सब से प्रथम, कहती यह ही वस्तु ।।७।। बिना कहे ही जान ले, जो नर पर के भाव । दर्शन उसका सिद्धि दे, ऐसा पुण्यप्रभाव ||८|| निपुण पारखी भाव का, यदि होवे नर आप । तो केवल वह चक्षु से, राग घृणा ले भाँप ।।६।। जो नर हैं इस विश्व में, भद्र धूर्त विख्यात । उनकी आँखें आप ही, कहतीं उनकी बात 119011 ---- ------(250) - --- Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुबप काव्य पर परिच्छेदः ७१ मुखाकृति से मनोभाव समझना 1-जो मनुष्य दूसरे के मुख से निकलने के पहिले ही उसके मन की बात को जान लेता है वह जगत के लिए अलंकार स्वरूप है। 2. हार्दिक भान को विश्वस्त जाम से जाने जाने मा को देवता समझो। 3-जो लोग किसी आदमी की आकृति देखकर ही उसके अभिप्राय को ताड़ जाते हैं ऐसे लोगों को चाहे बने वैसे अपना सलाहकार बनाओ। 4-जो मनुष्य बिना कहे ही मन की बात समझ लेते हैं उनकी आकृति तथा मुखमुद्रा वैसी ही हो सकती है जैसी कि न समझ सकने बालों की होती है फिर भी उन लोगों का वर्ग दूसरा ही है। 5-जो आँखें एक ही दृष्टि में दूसरे के मनोगत भावों को नहीं भाँप सकतीं उनकी इन्द्रियों में विशेषता ही क्या? 6-जिस प्रकार स्फटिक मणि अपना रंग बदल कर पास वाले पदार्थ का रंग धारण कर लेता है, ठीक उसी प्रकार मनोगत भाव से मनुष्य की मुखमुद्रा भी बदल जाती है और हृदय में जो बात होती है उसी को प्रगट करने लगती हैं। 7-मुखचर्या से बढ़कर भावपूर्ण वस्तु और कौन सी है। क्योंकि अन्तरंग क्रुद्र है या अनुसगी. इस बात को सबसे पहिले वह ही प्रगट करती है। ___8-यदि तुम्हें ऐसा आदमी मिल जाय जो बिमा कहे ही चित्त की बात परख सकता हो, तो बस इतना ही पर्याप्त है कि तुम उसकी ओर एक दृष्टि भर देख लो, तुम्हारी सब इच्छाएं पूर्ण हो जाएंगी। -यदि ऐसे लोग हों जो उसके हाव भाव और रंग दंग को समझ सकें तो अकेली आँख ही यह बात बतला सकती है कि हृदय में घृणा है अथवा प्रेम 10-जो लोग जगत में धूर्त या भद्र प्रसिद्ध हैं उनका माप और कुछ नहीं केवल उनकी आँखें ही हैं। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, खुमन काव्य परिच्छेदः ७२ श्रोताओं का निर्णय बचनकला सीखी प्रथम, रखो सुरुचि का ध्यान । श्रोताओं का भाव लख, दो वैसा व्याख्यान ।।१।। हे शब्दों के पारखी, सद्वक्ता आचार्य । पहिले देखो श्रोतृमन, फिर दो भाषण आर्य ।।२।। श्रोताओं के चित्त जो, नहीं परखता योग्य । वचनकला-अनभिज्ञ वह, नहीं किसी के योग्य ।।३।। प्राज्ञों में ही ज्ञान की, चर्चा उत्तम तात । मूों में पर मूर्खता,समझ करो तुम बात।।४।। मान्यजनों के सामने, करो न बढ़कर बात । वाणी-संयम धन्य है, उज्ज्वल गुण विख्यात ।।५।। जो मनुष्य यदि हो नहीं, वक्ता सफल समर्थ । तो सभ्यों में भ्रष्टसम, रखे नहीं कुछ अर्थ ।।६।। गुणियों के दरबार में, गुणमणि का भण्डार । विद्वज्जन हैं खोलते, रुचि रुचि के अनुसार ।।७।। प्राज्ञों को निजज्ञान का, देना मानो दान । जीवित-तरु को सींचकर, करना और महान ।।८।। भाषण से निजकीर्ति के, इच्छुक हे गुणवान । कभी न दो तुम भूलकर, अज्ञों में व्याख्यान ॥६॥ भिन्नपक्ष के सामने, भाषण का है अर्थ । मानों मलिन प्रदेश में, सुधा-वृष्टि सा व्यर्थ ।। १०।। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुबल काव्य परिचयः 52 श्रोताओं का निर्णय 1 जिसने वक्तृता का उत्तम अभ्यास किया है और सुरुचि प्राप्तकर ली है उसे प्रथम श्रोताओ की पूरी परख करनी चाहिए पीछे उनके अनुरूप भाषण देना चाहिए। 2- ए ! शब्दों का मूल जानने वाले पवित्र पुरुषो । पहिले अपने श्रोताओं की मानसिक स्थिति को समझ लो और फिर उपस्थित जनसमूह की अवस्था के अनुसार अपनी वक्तृता देना आरम्भ करो। 3- जो व्यक्ति श्रोतृवर्ग के स्वभाव का अध्ययन किये बिना भाषण देते हैं वे भाषणकला जानते ही नहीं और न वे किसी अन्य कार्य के लिए उपयोगी हैं। 4- बुद्धिमान् और विद्वान् लोगों की सभा में ही ज्ञान और विद्वत्ता की चर्चा करो, किन्तु मूर्खों को उनकी मूर्खता का ध्यान रखकर ही उतर दो। 5-धन्य है वह आत्म-सयम जो मनुष्य को वृद्ध जनों की सभा में आगे बढ़कर नेतृत्व ग्रहण करने से मना करता है ! यह एक ऐसा गुण है जो अन्य गुणों से भी अधिक समुज्ज्वल है 6- बुद्धिमान् लोगों के सामने असमर्थ और असफल सिद्ध होना धर्ममार्ग से पतित हो जाने के समान है। 7- विद्वानों की विद्वत्ता अपने पूर्ण तेज के साथ सुसम्पन्न गुणियों की सभा में ही चमकती है। 8- बुद्धिमान लोगों के सामने उपदेशपूर्ण व्याख्यान देना जीवित पौधों को पानी देने के समान है । 9- ए ! वक्तृता से विद्वानों को प्रसन्न करने की इच्छा रखने वाले लोगो ! देखो कभी भूलकर भी मूर्खों के सामने व्याख्यान न देना । 10 अपने से मतभेद रखने वाले व्यक्तियों के समक्ष भाषण करना ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार अमृत को मलिन स्थान पर डाल देना । 253 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 कुबल काव्य - परिच्छेदः ७३ सभा में प्रौढ़ता वाक्कला को सीखकर, सद्रुचि जिसके पास । विज्ञों में खुलकर वही, करता बचन-विलास ।।१।। सुदृढ़ रहे सिद्धान्त पर, विज्ञों में जो विज्ञ । विबुध उसे ही मानते, प्राज्ञों में सद्विज्ञ ।।२।। बड़े बड़े गम्भीर भट, मिलते शूर अनेक । सभा बीच निर्भीक हो वक्ता कोई एक ।।३।। खुलकर दो विज्ञानधन, विज्ञों को हे विज्ञ । सीखो जो अज्ञात हो, उनसे जो हों विज्ञ ।।४।। संशयछेदक तर्क का, भलीभाँति लो ज्ञान । कारण दे तर्कज्ञ ही, निर्भय हो व्याख्यान ।।५।। शक्तिहीन के हाथ ज्यों, शस्त्र न आवे काम । ___ विज्ञों में भयभीत की, त्यों विद्या वेकाम ।।६।। श्रोताओं से भीत का, लगे उसी विध ज्ञान । जैसे रण में क्लीव के, कर में दिखे कृपाण ।।७।। कह न सके निजज्ञान जो,विबुधों में विधिवार । सर्वमुखी पाण्डित्य भी,तो उसका निस्सार ।।८।। प्राज्ञों में आते अहो, जिनकी गाति हो बन्द । ऐसे ज्ञानी हैं अधिक, अज्ञों से भी मन्द ।।६।। जाते ही जन संघ में, होकर भीति विशिष्टकह न सके सिद्धांत,वे जीवित मृतक अशिष्ट।।१०।। 254 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुबल काव्य परपरिच्छेदः ७3 सभा में प्रौढ़ता 1--जिन व्यक्तियों ने भाषणकला का अध्ययन किया है और सुरचि प्राप्त की है ये जानते हैं कि भाषण किस प्रकार देना चाहिए और च बुद्धिमान् श्रोताओ के समक्ष भाषण देने में किसी प्रकार की चूक नहीं करते। 2-जो व्यक्ति ज्ञानी मनुष्यों के समुदाय में अपने सिद्धान्तों पर दृढ़ रह सकता है वही विद्वानों में विद्वान् माना जाता है। 3--रणक्षेत्र में खड़े होकर वीरता के साथ मृत्यु का सामना करने वाले लोग तो बहुत हैं परन्तु ऐसे लोग बहुत ही थोड़े हैं जो बिना काँपे श्रोताओं के समक्ष सभामंच पर खड़े हो सकें। 4-तुमने जो ज्ञान प्राप्त किया है. उसको विद्वानों के सामने खोलकर रक्खो और जो बात तुम्हें मालूम नहीं है वह उन लोगों से सीख लो जो उसमें दक्ष हों। 5-तर्कशास्त्र को तुम भली प्रकार सीख लो जिससे मानव समुदाय के सामने बिना भयातुर हुए बोल सको। 6-उन व्यक्तियों के लिए कृपाण की क्या उपयोगिता है जिनमें शक्ति ही नहीं है, इसी प्रकार उन मनुष्यों के लिए शास्त्र का क्या उपयोग जो कि विद्वानों के समक्ष आने में ही काँपते हैं? ___7--- श्रोताओं के सामने आने में भयभीत होने वाले व्यक्ति का ज्ञान उसी प्रकार है जैसे युद्धक्षेत्र में नपुंसक के साथ कृपाण । 8-जो लोग विद्वानों की सभा में अपने सिद्धान्त श्रोताओं के हृदय में नहीं बिठा सकते उनका अध्ययन चाहे कितना ही विस्तृत हो फिर भी वह निरुपयोगी ही है। - जो मनुष्य ज्ञानी हैं लेकिन विज्ञजनों के सामने आने में डरते हैं वे अज्ञानियों से भी गये वीते है। 10-जो व्यक्ति मानव समुदाय के सामने आने में डरते हैं और अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने में असमर्थ हैं वे जीवित होकर मृतकों से भी गये वीते हैं। .......-(255 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुभल काव्य च परिच्छन्दः ७४ देश बढ़ी चढ़ी कृषि हो जहाँ, धार्मिक हों धनवान । ज्ञानमूर्ति ऋषिवर्ग हो, वह ही देश महान ।।१।। धन से मोहे विश्व को, होवे स्वास्थ्य निदान । अन्नवृद्धि को ख्यात जो,वह ही देश महान ।।२।। । सहे धैर्य से बार को, कर को पूर्ण निधान । वीरों की जो भूमि हो, वह ही देश महान ।।३।। रोग-मरी-दुर्भिक्ष का, जहाँ न आता ध्यान : रक्षित हो सब ओर से,वह ही देश महान ।।6।। बटा नहीं जो फूट से, खण्ड-खण्ड में देश । विपलवकारी क्रूरजन, बसें नहीं जिस देश ।। और न देशद्रोह ही, होता हो कुछ भान । जिस में ऐसी श्रेष्ठता, वह ही देश महान ।।५।। (युग्म) नहीं लुटा जो शत्रु से, वह ही रत्न समान । लुटकर भी या भाग्यवश, रखता आय महान ।।६।। आवश्यक ज्यों देश को, कूप नदी नदनीर । त्यों ही उसको चाहिए, पर्वत दुर्ग सवीर ||७|| स्वास्थ्य विभव उत्तम मही, रक्षा हर्षप्रभात । ये पाँचों प्रतिदेश को, भूषणसम हैं ख्यात ।।८।। सहज जहाँ आजीविका, वह ही उत्तम देश ।। तुलना में उसकी नहीं, जुड़ते अन्य प्रदेश ।।६।। यद्यपि होवें देश में, अन्य सभी वरदान । पर उत्तम नृपके बिना,नहीं रखें वे मान ।।१०।। --- -256) Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा, कुभरम कालय पर परिच्छन्दः ७४ देश -यह महान देश है जो फसल की पैदावार में कभी नहीं चूकता और जो ऋषि-मुनियों तथा धार्मिक धनिकों का निवास स्थान हो। 2-वही श्रेष्ठ देश है जो धन की विपुलता से जनता का | प्रीतिभाजन हो और घृणित रोगों से मुक्त होकर समृद्धिशाली हो। 3--उस महान् राष्ट्र की ओर देखो, उस पर कितने ही बोझ के । ऊपर बोझ पड़ें वह उन्हें धैर्य के साथ सहन करेगा और साथ ही सारे कर अर्पण करेगा। __4-वही देश उच्च है जो अकाल और महामारी जैसे रोगों से उन्मुक्त है तथा तो शत्रुओं के आक्रमणों से सुरक्षित है। 5-वही उत्तम देश है जो परस्पर युद्ध करने वाले दलों में विमक्त नहीं है, जो हत्यारे क्रान्तिकारियों से रहित है और जिसके भीतर राष्ट्र का सर्वनाश करने वाला कोई देश द्रोही नहीं है। 6-जो देश शत्रुओं के हाथ से कभी विध्वस्त नहीं हआ और यदि कदाचित हो भी गया तो भी जिसकी पैदावार में थोड़ी सी भी कमी नहीं आती, वह देश जगत के सब देशों में रत्न माना जायेगा। 7-पृथ्वी के ऊपर और भीतर बहने वाला जल, वर्षाजल, उपयुक्त स्थान को प्राप्त पर्वत और सुदृढ़ दुर्ग ये प्रत्येक देश के लिए अनिवार्य हैं। 8-धन सम्पत्ति, उर्वराभूमि, प्रजा को सुख, निरोगिता और शत्रुओं के आक्रमणों से सुरक्षा. ये पाँच बातें राष्ट्र के लिए आभूषण-स्वरूप हैं। -वही अकेला, देश कहलाने योग्य है जहाँ मनुष्यों के परिश्रम किये बिना ही प्रचुर पैदावार होती है। जिसमें आदमियों के परिश्रम करने पर ही पैदावार हो वह इस पद का अधिकार नहीं है। 10-यदि किसी देश में ये सब उत्तम बातें विद्यमान भी हो फिर । भी वे किसी काम की नही यदि उस देश का राजा ठीक न हो। (27 - . Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुबल काव्य ___ टिकटः ७५ - दुर्ग निर्बल की रक्षार्थ गढ़, यदि है प्रवल सहाय । तो पाते बलवान भी, न्यून नहीं सदुपाय ।।१।। अद्रि,नीर,मरुभूमि,वन, और परिधि के दुर्ग । रक्षक ये हैं राष्ट्र के, सब ही सीमा दुर्ग ।।२।। दृढ़ ऊँचा विस्तीर्ण हो, रिपु से और अजेय । दुर्गों के निर्माण में, ये सब गुण हैं ज्ञेय ।।३।। दुर्ग प्रवर वह ही जहाँ, हो यथेष्ट विस्तार । __ दृढ़ता में अन्यून हो,करे विफल रिपुवार ।।४।। रक्षा और अजेयता, सब बिध वस्तु प्रबन्ध । ये गुण रखते दुर्ग से, आवश्यक सम्बन्ध ।।५।। है यथार्थ वह ही किला, रक्षक जिसके वीर । धान्यादिक से पूर्ण जो, रखता उत्तम नीर ।।६।। धावा कर या घेर कर, या सुरंग से खण्ड । करके, जिसे न जीतते, वह ही दुर्ग प्रचण्ड ।।७।। घेरा देकर भी जिसे, थकजाते अरि वीर । बल देते निज सैन्य को, गढ़ के दृढ़ प्राचीर ।।८।। वह ही सच्चा दुर्ग है, जिसके बलपर वीर । सीमा पर ही शत्रु को, करदें भिन्न-शरीर ।।६।। पूर्ण सुसज्जित दुर्ग भी, हो जाता बेकाम । रक्षक फुर्ती त्यागकर,करते यदि विश्राम ।।१०।। 258 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा, कुरम काव्य कुरत्म काव्य - परिच्छेदः ७५ दुर्ग 1-दुर्बलों के लिए, जिन्हें केवल अपने बचाव की ही चिन्ता होती है. दुर्ग बहुत ही उपयोगी होते हैं, परन्तु बलता और प्रतापी के लिए भी वे कम उपयोगी नहीं है। 2-जल, प्राकार, मरुभूमि, पर्वत और सघन, ये सब नान, प्रकार के रक्षणात्मक सीमा--दुर्ग हैं। 3-ऊँचाई, मोटाई, मजबूती और अजेयपन ये चार गुण हैं, जो निर्माण केला की दृष्टि से किलों के लिए अनिवार्य हैं। 4-वह गढ़ सबसे उत्तम है. जो थोड़ी भी जगह भेद्य न हो. साथ ही विस्तीर्ण हो और जो लोग उसे लेना चाहें उनके आक्रमणों को रोकने की जिसमें क्षमता हो। 5-अजेयत्व, दुर्गस्थ सैन्य के लिए रक्षणात्मक सुविधा, रसद तथा अन्य सामग्री का प्रचुर मात्रा में संग्रह. ये सब दुर्ग के लिए आवश्यक बातें हैं। ___6..वही सच्चा किला है जिसमें हर प्रकार का सामान पर्याप्त परिमाण में विद्यमान हो और जो ऐसे लोगों के संरक्षण में हो कि जो किले को बचाने के लिए वीरतापूर्वक लड़ें। 1- निस्सन्देह वह सच्चा गढ़ है कि जिसे न तो कोई घेरा डालकर जीत सके, न अचानक हमला करके और न कोई जिसे सुरंग लगाकर ही तोड़ सके। 8-वही बास्तविक दुर्ग है जो अपने भीतर लड़ने वालों को पूर्ण बलशाली बनाता है और घेरा डालने वालों के अटूट उद्योगों को विफल कर देता है। ___-वही खरा दुर्ग है जो नाना प्रकार के विकट साधनों द्वारा अजेय बन गया है और जो अपने संरक्षकों को इस योग्य बनाता है कि वे बैरियों को किले की सुदूर सीमा पर ही मार कर गिरा सकें। 10-यदि रक्षक सैन्यवर्ग समय पर फुर्ती से काम न ले तो चाहे दुर्ग कितना ही सुदृढ़ हो किसी काम का नहीं। ₹259 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जा दक्ष काव्य परिच्छेदः ७६ धनोपार्जन थन भी अद्भुत वस्तु है, उस सम अन्य न द्रव्य । बनता जिससे रंक भी, धन्य प्रतिष्ठित भव्य ॥१।। निर्धन का सर्वत्र ही, होता है अपमान । धनशाली पर विश्व में, पाता है सन्मान ।।२।। धन भी है इस लोक में, एक अखण्ड प्रकाश । तम में वह भी चन्द्रसम, करता नित्य उजाश ।।३।। शुद्ध रीति से आय हो, न्याय तथा हो प्रोत । तो धन से बहाते सदा, पुण्य सुखद वर स्रोत ।।४।। जिस धन में करुणा नहीं, और न प्रेम निवास । उसका छूना पाप है, इच्छा विपदा ग्रास ।।५।। दण्ड,मृतक,कर,युद्ध,धन, विविध शुल्क की आय । भूप-कोष की वृद्धि में, ये हैं पाँच सहाय ।।६।। है दयालुता प्रेम की, संतति स्वर्ग-उपा- 1 पालन को करुणा भरी, सम्पद उसकी थाय 11७।। धनिक न होवे कार्य रच, चिन्ता में अवरुद्ध । वह देखे गिरिशृंग से,मानो गज का युद्ध ।।८।। रिपुजय की यदि चाह तो, करलो संचित अर्थ । कारण जय को एक ही, यह है शस्त्र समर्थ ।।६।। संचित है जिसने किया, पौरुष से प्रचुरार्थ । करयुग में उसके धरे,शेष युगल पुरुषार्थ।। १०।। .-.-. . -.-(260) Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुन काव्य परपरिच्छेदः ७६ धनोपार्जन 1-अप्रसिद्ध और अप्रतिष्ठित लोगो को प्रसिद्ध तथा प्रतिष्ठित बनाने में धन जितमा समर्थ है, उतना और कोई पदार्थ नहीं। 2-गरीबों का सभी अपमान करते हैं. पर धन समृद्ध की सभी जगह अभ्यर्थमा होती है। 3-वह अविश्भान्त ज्योति जिसे लोग धन कहते हैं. अपने स्वामी के लिए सभी अन्धकारमय स्थानों को ज्योत्स्नापूर्ण बना देती है। ___4-जो धन पाप रहित निष्कलंक रूप से प्राप्त किया जाता है. उससे धर्म और आनन्द का स्रोत बह निकलता है। 5-जो धन, दया और ममता से रहित है. उसकी तुम कभी इच्छा मत करो और उसको कभी अपने हाथ से छुओ भी मत। ___-दण्ड द्रव्य, बिना वारिस का धन, कर का माल, लगान की सम्पत्ति और युद्ध में प्राप्त धन ये सब राजकोष की वृद्धि करने वाले हैं। ___7-दयालुता, जो प्रेम की सन्तति है. उसका पालन पोषण करने के लिए सम्पत्ति--रूपिणी दया हदया धाय की आवश्यकता है। B-देखो धनवान आदमी जब अपने हाथ में काम लेता है तो वह उस मनुष्य के समान मालूम होता है कि जो एक पहाड़ की चोटी पर से हाथियों की लड़ाई देखता है। 9- धन का संचय करो क्योंकि शत्रु का गर्व चूर करने के लिए उससे बढकर दूसरा हथयार नहीं है। 10-देखो जिसने बहुत सा धन एकत्रित कर लिया है. शेष दो पुरुषार्थ धर्म और काम उसके करतलगत हैं। 267 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ७७ सेना के लक्षण ** शिक्षित, दृढ़, अतिकष्ट ने, जिसे न व्यापे देख | नृपसंग्रह में श्रेष्ठ जो, वह है उत्तम सैन्य || १|| अनगिनते अरि-वार हों, हो नैराश्य महान । फिर भी रखते चूर्णभट, रक्षा का अवधान ||२|| गर्जे यदि वे सिन्धु सम, तो गर्जो क्या हानि । भगते अहि-फुंकार से, सब मूँसे धर ग्लानि || ३ || भ्रष्ट न हो कर्तव्य से, जिसे न परिचित हार दिखा चुकी जो वीरता, वह ही सेना सार ||४|| कुपितकाल से युद्ध का, रखते हैं जो मान । वे ही रखते वीरवर, सेनापद का मान || ५ | लोकप्रतिष्ठा, वीरता, पूर्वरणों का ज्ञान । बुद्धि विभव ये सैन्य के, रक्षक कवच समान ||६|| ढूँढ़त फिरते वीरगण, वैरी को सब ओर । समझें वे अरि, वार कर हारेगा कर जोर ||७|| सज्जित यदि सेना नहीं, या धावे की स्फूर्ति । ओज तेज विद्या विभव, करते उसकी पूर्ति ॥ ८॥ न्यून नहीं संख्या जहाँ, और न अर्थाभाव । उस सेना के पथ में, रक्षित जय - सद्भाव ॥ ६ ॥ नायक बिना न कोई भी बनती सेना एक । यद्यपि उसमें हों भले, सैनिक वीर अनेक ||१०|| 262 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न कुन काव्य पर परिच्छेदः ७७ सेना के लक्षण 1-राजा के संग्रहों में सर्वश्रेष्ठ वस्तु, वह ,सेना है जो कि । सुशिक्षित बलवान और संकट में निर्भीक रहने वाली हो। 2.अनेकों आक्रमणों के होते हुए. भयंकर निराशा-जनक स्थिति की रक्षा. मॅजे हुए वीर सिपाही ही अपने अटल निश्चय के द्वारा कर सकते हैं। 3-यदि वे समुद्र के समान गर्जते भी हों तो इससे क्या हुआ? काले नाग की एक ही कार में चूहों का सारा झुण्ड का झुण्ड विलीन हो जायेगा। ___4-जो सेना हारना जानती ही नहीं और जो कभी कर्तव्य भ्रष्ट नहीं की जा सकती तथा जिसने बहुते से अवसरों पर वीरता दिखाई है वास्तव में वही, 'सेना' नाम की अधिकारिणी है। 5-यथार्थ में सेना का नाम उसी को शोभा देता है कि जो वीरता के साथ यमराज का भी सामना कर सके. जबकि वह अपनी पूर्ण प्रचण्डता के साथ आवे। 6-शूरता, प्रतिष्ठा. शिक्षित मस्तक और पिछले समय की लड़ाइयों का इतिहास, ये चार बातें सेना की रक्षा के लिए कवच स्वरूप हैं। 7-जो सच्ची सेना है यह सदा शत्रुओं की खोज में रहती है. क्योंकि उसको पूर्ण विश्वास है कि जब कोई वैरी लड़ाई करेगा तो वह उसे अवश्य जीत लेगी। B..जब सेना में मुस्तैदी और एकाएक प्रचण्ड आक्रमण करने की शक्ति नहीं होती तब प्रतिष्ठा, तेज और विद्या सबंधी योग्यतायें उसकी कमी को पूर कर देती हैं। -जो सेना संख्या में कम नहीं है और जिसको वेतन न पाने के कारण भूखों नहीं मरना पड़ता वह सेना विजयी होगी। ___10-सिपाहियों की कमी न होने पर भी कोई सेना नहीं बन सकती, जब तक कि उसका संचालन करने के लिए सेनापति न हो। --- - -(263) --------- Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुचल काध्य । परिच्छेदः ७४ वीर योद्धा का आत्मगौरव रे रे प्रभु के वैरियो, मत अकड़ो ले वान । बहुतेरे अरि युद्ध कर, पड़े चिता-पाषान ।।१।। भाला यदि है चूकता, गज पर, तो भी मान । लगकर भी शश पर नहीं, देता शर सन्मान ।।२।। साहस ही है वीरता, रण में वह यमरूप । शरणागत वात्सल्य भी, दूजा सुभग स्वरूप ।।३।। भाला गज में घूस निज, फिरे ढूँढता अन्य । देख उसे निजगात्र से खींचे वह भट धन्य ।।४।। रिपु भाले के बार से, झपजाते यदि दृष्टि । इससे बढ़कर वीर को, क्या हो लज्जा-दृष्टि ।।५।। जिन दिवसों में वीर को, लगें न गहरे घाव ।। उन दिवसों का व्यर्थ ही, मानें वे सद्भाव ।।६।। प्राणों का तज मोह जो, चाहे कीर्ति अपार । पग की बेड़ी भी उसे, बनती शोभागार ।।७।। युद्ध समय जिसको नहीं, अन्तक से भी भीति । नायक के आतंक से,तजे न वह भटनीति ।।। करते करते साधना, जिसका जीवन मौन । हो जाये, उस वीर को, दोषविधायक कौन ।।६।। स्वामी जिसको देखकर, भरदे आँखों नीर । भिक्षा से या चाटु से,लो वह मृत्यु सुवीर ।। १०॥ 264 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुरष काव्य । परिच्छेदः ७८ वीर योद्धा का आत्मगौरव 1-अरे ए वैरियो ! मेरे स्वामी के सामने युद्ध मे खड़े न होओ म्योंकि पहिले भी उसे बहुत से लोगो ने युद्ध के लिए ललकारा था. पर आज वे सब चिता के पाषाणो में गई हुए है। 2-हाथी के ऊपर चलाया 13 III पति चूक भी जाय तब भी उसमें अधिक गौरव है अपेक्षा उस AT F ...माया ७२ चलाया गया हो और यह उस को लग भी गया है! 3-वह प्रचण्ड साहस जो प्रबल आक्रमण करता है. उसी को लोग वीरता कहते हैं, लेकिन उसका गौरव उस हार्दिक औदार्य में है कि जो अधः पतित शत्रु के प्रति दिखाया जाता है। ____4--एक योद्धा ने अपना भाला हाथी के ऊपर चला दिया और वह दूसरे भाले की खोज में जाक था कि छाने में उनका सपने, शरीर में ही घुसा हुआ देखा और ज्यों ही उसने उसे बाहिर निकाला वह प्रसन्नता से मुस्करा उठा। 5-वीर पुरुष के ऊपर भाला 'चलाया जाये और उसकी आँख तनिक भी झपंक मार जावे तो क्या यह उसके लिए लज्जा की बात नहीं है। 6-शूरवीर सैनिक जिन दिनों अपने शरीर पर गहरे घाव नहीं खाता है, वह समझता है कि वे दिन व्यर्थ नष्ट हो गये। ___7-देखो, जो लोग अपने प्राणों की परवाह नहीं करते बल्कि पृथ्वी भर में फैली हुई कीर्ति की कामना करते हैं, उनके पाँव की बेड़ियाँ भी आँखों को आल्हाद कारक होती हैं। B-जो वीर योद्धा, युद्धक्षेत्र में मरने से नहीं डरते वे अपने सेनापति की कड़ाई करने पर भी सैनिक नियमों को नहीं छोड़ते। 9-अपने हाथ में लिए काम को सम्पादन करने के उद्योग में जो लोग अपने प्राण गवाँ देते हैं उनको दोष देने का किसको अधिकार हैं? 10-यदि कोई आदमी ऐसा मरण पा सके कि जिसे देखकर उसके मालिक की आँख से ऑसू निकल पड़ें तो भीख मांगकर तथा विनय प्रार्थन्ग करके भी ऐसी गृत्यु को प्राप्त करना चाहिए। 1265) Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -जी, कुमरल काव्य परपरिच्छेदः ७९ मित्रता सन्मैत्री की प्राप्तिसम, कौन कठिन है काम । उस समान इस विश्व में, कौन कवच बलधाम ।।१।। मैत्री होती श्रेष्ठ की, चढ़ते चन्द्र समान । ओछे की होती वही, घटते चन्द्र समान ।।२।। सत्पुरुषों की मित्रता, है स्वाध्याय समान ।। प्रति दिन परिचय से जहाँ, झलके सद्गुणखान 11३।। केवल मनोविनोद को, नहीं करें बुध प्रीत । भर्सित कर भी मित्र को, ले आते शुभरीति ।।४।। सदा साध चलना नहीं, और न बारम्बार । मिलना, मैत्री हेतु है, मन ही मुख्याधार ।।५।। 'मैत्रीगृह' गोष्ठी नहीं, होता जिस में हास्य । मैत्री होती प्रेम से, जो हरती औदास्य ।।६।। अशुभमार्ग से दूर कर, करदे कर्म पवित्र । दुःख समय भी साथ जो, वही मित्र सन्मित्र ।।७।। उड़ते पट को शीघ्र ही, ज्यों पकड़ें कर दौड़ । मित्रकष्ट में मित्र त्यों, आते पल में दौड़ ।।८।। मैत्री मन की एकता, वहीं प्रीति दरवार । निज-पर के उत्कर्ष को, जहाँ विवेक-विचार ॥६॥ . मैत्री या वाह रंकता, जिस में कार्य-हिसाब । मैत्री का फिर गर्व भी, रखे नहीं कुछ भाव ।। १०।। 1266 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुभल काव्य - परिच्छेदः ७६ मित्रता 1-जगत में ऐसी कौन सी वस्तु है जिसका प्राप्त करना इतना कठिन है जितना कि मित्रता का ? और शत्रुओं से रक्षा करने के लिए मित्रता के समान अन्य कौन सा कवच है ? 2--योग्य पुरुष की मित्रता बढ़ती हुई चन्द्रकला के समान है, पर मूर्ख की मित्रता घटते हुए चन्द्रमा के सदृश्य है। 3-सत्पुरुषों की मित्रता दिव्यग्रन्थों के स्वाध्याय के समान है। जितनी ही उनके साथ तुम्हारी घनिष्टता होती जायेगी उतने ही अहि. क रहस्य तुम्हें उनके भीतर दिखाई पड़ने लगेंगे। 4. मित्रता का उद्देश्य हँसी-विनोद करना नहीं है, बल्कि जब कोई बहक कर कुमार्ग में जाने लगे तो उसको रोकना और उसकी भर्त्सना करना ही मित्रता का लक्ष्य है। 5- चार बार मिलना और सदा साथ रहना इतना आवश्यक नहीं है. यह तो हृदयों की एकता ही है कि जो मित्रता के सम्बन्ध को स्थिर और । सुदृढ़ बनाती है। 6-हँसी--मरकरी करने वाली गोष्ठी का नाम मित्रता नहीं है. मित्रता तो वास्तव में वह प्रेम है जो हृदय को आल्हादित करता है। 7-जो मनुष्य तुम्हें बुराई से बचाता है. सुमार्ग पर चलाता है और जो संका के समय तुम्हारा साथ देता है बस वही मित्र है। दखो. उस आदमी के हाथ कि जिसके कपड़े हवा से उड़ गये है, कितनी तेजी के साथ फिरसे अपने अंग को ढकने के लिए फुर्ती करता है ? यह सन्चे मित्र का आदर्श है जो विपत्ति में पड़े हुए मित्र की सहायता के लिए दौड़कर आता है। -मित्रता का दरबार कहाँ पर लगता है 1 बस वहीं पर कि जहाँ दो हृदयों के बीच में अमन्य प्रेम और पूर्ण एकता है तथा दोनों मिलकर हर एक प्रकार से एक दूसरे को उच्च और उन्नत बनाने की चेष्टा करें। __10-जिस मित्रता का हिसाब लगाया जा सकता है उसमें एक प्रकार का कालापन होता है । वे चाहे कितने ही गर्वपूर्वक कहें कि मैं उसको इतना प्यार करता हूँ और वह मुझे इतना चाहता है। 267-..-..-- --.- - - - -.. Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुबल काव्य - परिच्छेदः ८० मित्रता के लिए योग्यता की परख बिना विचारे अन्य से, मैत्री सरना पल ! कारण करके त्यागना, भद्रों के प्रतिकूल ||१|| बिना विवेक विचार की, मैत्री विपदा रूप । प्राणक्षय के साथ यह, मिटे असाता कूप ।।२।। कैसा कुल, कैसी प्रकृति, किन किन से सम्बन्ध । देखो उसकी योग्यता, यही प्रीति अनुबन्ध ।।३।। जन्मा हो वर-वंश में, और जिसे अघभीति । देकर के कुछ मूल्य भी, करलो उससे प्रीति ।।४।। झिड़क सके जो चूक पर, जाने शुभ आचार । ऐसे नर की मित्रता, खोजो सर्वप्रकार ।।५।। विपदा में माना हुआ, गुण है एक अनूप । विपदा जैसा नापगज, नापे मित्र स्वरूप ।।६।। इसमें ही कल्याण है, हे नर तेरा आप । मत कर मैत्री मूर्ख से, दूर्गति को जो शाप 11७।। निरुत्साह औदास्य के, करो न कभी विचार । और तजो दे बन्धु जो, दुःख समय निस्सार ।।८।। सब सुख भोगे साथ पर, दुःख समय छलनीति । मृत्यु समय भी दाह दे, ऐसे शठ की प्रीति ।।६।। शुद्धहृदय के आर्य से, करलो मैत्री आर्य । तज दो मैत्री भेंट धर, यदि झे मित्र अनार्य ।।१०।। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुत्रत्य काव्य परिच्छेदः ८० मित्रता के लिए योग्यता की परख 1-इससे बढकर अप्रिय बात और कोई नहीं है कि बिना परीक्षा किये किसी के साथ मित्रता करली जाय, क्योंकि एक बार मित्रता हो जाने पर सहृदय पुरुष फिर उसे छोड़ नहीं सकता। 2-जो पुरुष पहिले आदमियों की जांच किये बिना ही उनको मित्र बना लेता है वंह अपन शि पर ऐसी आपत्तियों को बुलाता है कि जो केवल उसकी मृत्यु के साथ ही समाप्त होंगी। 3-जिस मनुष्य को तुम अपना मित्र बनाना चाहते हो उसके कुल का उसके गुणदोषों का, कौन-2 लोग उसके साथी हैं और किन किनके साथ उसका संबंध है इन बातों का अच्छी तरह से विचार कर लो और उसके पश्चात् यदि वह योग्य हो तो उसे मित्र बना लो। ___4-जिस पुरुष का जन्म उच्च कुल में हुआ है और जो अपयश से डरता है उसके साथ, आवश्यकता पड़े तो मूल्य देकर मी मित्रता करनी चाहिए। 5-ऐसे लोगों को खोजो और उनके साथ मित्रता करो कि जो सन्मार्ग को जानते हैं और तुम्हारे बहक जाने पर तुम्हें झिड़क कर तुम्हारी भर्त्सना कर सकें। 6-आपत्ति में एक गुण है. वह एक नापदण्ड है जिससे तुम अपने मित्रों को नाप सकते हो। 7-निस्सन्देह मनुष्य का लाभ इसी में है कि वह मूर्यो से मित्रता न करे। 8-ऐसे विचारों को मत आने दो जिनसे मन निरुत्साह तथा उदास हो और न ऐसे लोगों से मित्रता करो कि जो दुःख पड़ते ही तुम्हारा साथ छोड़ देंगे। 9-जो लोग संकट के समय धोखा दे सकते हैं उनकी मित्रता की स्मृति मृत्यु के समय भी हृदय में दाह पैदा करती है। 10 -पवित्र लोगों के साथ बड़े चावसे मित्रता करो, लेकिन जो अयोग्य है उनका साथ छोड़ दो, इसके लिए चाहे तुम्हें कुछ भेंट भी देना पड़े। 269) Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुल काव्य र परिच्छेदः ८१ घनिष्ट मित्रता मैत्री वही घनिष्ट है, जिस में दो अनुरूप । आत्मा को अर्पण करें, प्रेमी को रुचिरूप ।।१।। बुध सम्मत वह मित्रता, जिसमें यह वर्ताव । स्वाश्रित दोनों पक्ष हों,रखें न साथ दवाव।।२।। मित्र वस्तु पर मित्र का, दिखे नहीं कुछ स्वत्व । तो मैत्री किस मूल्य की, और रखे क्या तत्व ।।३।। बिना लिये ही राय कुछ, कर लेवे यदि मित्र । तो प्रसन्न होता विक, सचमुन गादः मित्र !!": कष्ट मिले यदि मित्र से, तो उसका भावार्थ । या तो वह अज्ञान है, या मैत्री सत्यार्थ ।।५।। एक हृदय सन्मित्र का, सच्चे तजें न साथ । नाश हेतु होवे भले, चाहे उसका साथ ||६|| जिस पर है चिरकाल से, मन में अति अनुराग । कर दे यदि वह हानि तो, होता नहीं विराग ।।७।। मित्र नहीं सन्मित्र पर, सहता दोषारोप । फूले उस दिन मित्र जब, हरले अरि आरोप ॥८॥ जिसके हृदय हिमाद्रि से, प्रेमसिन्धु की धार । . बहे निरन्तर एक सी, उसे विश्व का प्यार ।।६।। चिर मित्रों के साथ भी, शिथिल न जिसका प्रेम । ऐसे मानव रत्न को,अरि भी करते प्रेम ।।१०।। -------------------(270--- Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - छुअल काव्य परपरिच्छेदः ८१ घनिष्ट मित्रता - 1-वही मैत्री घनिष्ट है जिसमें अपने प्रीतिपात्र की मर्जी के अनुकूल व्यक्ति अपने को समर्पित कर दे। 2-सच्ची मित्रता वही है जिसमें मित्र आपस में स्वतत्र रहें और एक दूसरे पर दबाव न डालें । विज्ञजन ऐसी मित्रता का कभी मी विरोध नहीं करते। 3-वह मित्रता किस काम की. जिसमें मित्रता के नाम पर ली गई किसी काम की स्वतंत्रता में सहमति न हो। 4-जब कि दो व्यक्तियों में प्रमाद मैत्री है उनमें से एक दूसरे की अनुमति के बिना ही कोई काम कर लेता है तो दूसरा मित्र आपस के प्रेम का ध्यान करके उससे प्रसन्न ही होगा। 5-जब कोई मित्र ऐसा काम करता है जिसमें तुम्हें कष्ट होता है तो समझ लो कि वह मित्र तुम्हारे साथ या तो परिपूर्ण मैत्री का अनुभव करता है या फिर अज्ञानी है। .....6-सच्चा मित्र अपने अभिन्न मित्र को नहीं छोड़ सकता, भले ही वह उसके विनाश का कारण क्यों न हो। ___7-जो व्यक्ति किसी को हृदय से और दीर्घकाल से प्रेम करता है वह अपने मित्र को घृणा नहीं कर सकता. भले ही वह उसे बार-बार हानि क्यों न पहुँचाता हो। -उन व्यक्तियों के लिए जो अपने अभिन्नमित्र के विरुद्ध किसी प्रकार का आरोप सुनने से इनकार कर देते हैं, वह दिवस बड़ा आनन्द प्रद होता है, जबकि उसका मित्र आरोपकों को हानि पहुंचाता है। -जो व्यक्ति दूसरे को अटूट प्रेम करता है उसे सारा संसार प्रेम करता है। ___ 10-जो व्यक्ति पुराने मित्रों के प्रति भी अपने प्रेम में अन्तर नहीं आने देते उन्हें शत्रु भी स्नेह की दृष्टि से देखते हैं। ....-----(271 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - न शुक्ल काव्य परिच्छेदः ८२ विघातक मैत्री करे प्रगट तो वाह्य में, हम में प्रीति अपार । पर भीतर कुछ भी नहीं, है अनिष्ट आसार ||१|| ___पाँव पड़े जब स्वार्थ हो, स्वार्थ बिना अति दूर। मैत्री ऐसे धूर्त की, क्या होती गुणपूर ||२|| लाभ दृष्टि से सख्य कर, बोले मृदुलालाप । तो वेश्या या चोर की, अधम श्रेणि में आप ॥३।। भगता ज्यों है दुष्ट हय, पटक सुभट रणखेत । विपदा में त्यो झोंक कर, भगता शठ तज हेत ।।४।। वह निकृष्ट, जो छोड़ता, विश्वासो सन्मित्र । संकट के खोटे समय, कपटी बने अमित्र ।।५।। जड़ मैत्री से प्राज्ञ का, दिखता भला विरोध । कारण तुलना के लिए,गुण करते उपरोथ ।।६।। स्वार्थी और खुशामदी, इनकी प्रीति असाधु । शत्रु घृणा उससे कहीं, है उसय भी साधु ।।७।। ___ जो तेरे सत्कार्य में, करे विघ्न बन आग । मत कह उससे धीर कुछ,धीरे मैत्री त्याग ।।८।। कहता तो कुछ अन्य है, करे और ही रूप । स्वप्ने में भी मित्रता, ऐसे की विषरूप ॥६॥ सावधान उससे कभी, मैत्री करो न तात । भीतर जोड़े हाथ पर, बाहिर निन्दक ख्यात ।। १०।। -- .-.-. -272 - --- ---- Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल करण्य परिच्छेदः ८२ विघातक मैत्री 1- उन व्यक्तियों को मैत्री विद्यालक ही होती हैं जो दिखाने को तो यह दिखाते हैं कि वे न जाने कितना प्रेम करते हैं, लेकिन उनके हृदय में प्रेम नहीं होता । 2- उन अभागे नराधमों से सजग रहो कि जो अपने लाभ के लिए तुम्हारे पैरों पर पड़ने के लिए तैयार हैं, पर जब तुम से उनका कुछ स्वार्थ न निकलेगा तो वे तुम्हें छोड़ देंगे। भला ऐसों की मैत्री रहे या न रहे इससे क्या आता जाता है ? 3 - देखो, जो लोग यह सोचते हैं कि हमें उस मित्र से कितना मिलेश वर श्रेणी के लोग हैं कि जिनमें चोरों और बाजारू औरतों की गिनती हैं। 4- कुछ आदमी उस अक्कड़ घोड़े की तरह होते हैं कि जो युद्धक्षेत्र में अपने संवार को गिराकर भाग जाता है। ऐसे लोगों से मैत्री रखने की अपेक्षा तो अकेले रहना ही हजार गुना अच्छा है । 5- जो निकृष्ट व्यक्ति अपने विश्वास पात्र मित्र को उसकी आवश्यकता के समय छोड़ देता है, ऐसे व्यक्ति से मित्रता करने की अपेक्षा न करना कहीं अच्छा है। 8 - बुद्धिमानों से शत्रुता मूर्खों की मित्रता की अपेक्षा लाखगुनी अच्छी है। 7 - चाटुकार और स्वार्थी लोगों की मित्रता से शत्रुओं की घृणा सौगुनी अच्छी है। 8- जिस समय तुम कोई ऐसा काम करने में लगे हो जिसे तुम पूरा कर सकते हो उस समयं यदि कोई तुम्हारे मार्ग में रोड़े अटकाता हो तो उससे तुम एक शब्द भी न कहो, बल्कि धीरे धीरे उससे संबंध छोड़ दो। 8- जो व्यक्ति कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं उनकी मित्रता की 'कल्पना स्वप्न में भी करना बुरा है। 10- सावधान ! उन लोगों से जरा भी मित्रता न करना कि जो पास में बैठकर तो मीठी मीठी बातें करते हैं पर बाहिर जन-समाज में निन्दा करते हैं। 273 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ज, कुबल काव्य मारिदः 43 कपट-मैत्री मित्रभाव तो शत्रु का, अहो 'निहाई' जान । पीटेगा वह काल पा, तुमको धातु समान ।।१।। भीतर जिस के द्रोह हो, पर ऊपर अनुराग। नारी-मनसम शीघ्र ही, होता उसे विराग ।।२।। नर में चाहे शुद्धि हो, चाहे ज्ञान प्रगाढ़ । फिर भी यह संभव नहीं, शत्रु घृणा दे काढ़ ।।३।। हँसकर बोले सामने, पर भीतर है नाग । डरो सदा उस दृष्ट से, यदि हो जीवन-राग ।।४।। हृदय नहीं हो सर्वथा, जिनका तेरे पास। मनमोहक बातें कहें, करो न पर, विश्वास ॥५।। मित्रतुल्य मीठे बचन, बोले बारम्बार । फिर भी पल में शत्रु तो, खुलजाता विधिवार ।।६।। झुकजावे फिर भी कभी, करो न रिपु-विश्वास । कारण धनुष विनम्रता, करे अधिक ही त्रास ।।७।। कर जोड़े रोवे अधिक, फिर भी क्या इतवार । छुपा हुआ रिपु के निकट, संभव ह्ये हथियार ।।८।। बाहिर मैत्री, चिन्त से, करे घृणा उपहास । मीठे बन, मौका मिले, करलो अरि को दास ||६|| कपट मित्र वैरी बने, बली न तुम भरपूर । तो बन माया-मित्र पर, रहो सदा ही दूर ।।१०।। 274 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो लुभाष काल्या पर परिच्छेदः ८3 कपट-मैत्री 1-जो मित्रता. शत्रु दिखाता है वह केवल निहाई है जिसके आश्रय से मौका मिलने पर वह तुम्हें लोहे के समान पीट देगा। 2-जो लोग ऊपर से तो स्नेह दिखाते हैं परन्तु मन में वैर रखते हैं उनकी मित्रता कामिनी के हृदय समान थोड़ी सी अवधि में बदल जायेगी। 3-चाहे उसका ज्ञान कितना ही महान और पवित्र हो, शत्रु के लिए यह फिर भी असम्भव है कि उसके प्रति जो घृणा है उसे हृदय से निकाल दें। .:. . 4-उन दुष्ट चालबाजों से डरते रहो कि जो सब के सामने ऊपरी मन से हँसते हैं पर भीतर ही भीतर हृदय में भारी विद्वेष रखते हैं। 5-उन आदमियों को देखो जिनका हृदय तुम्हारे साथ बिल्कुल नहीं है परन्तु जिनके वचन तुम्हें आकर्षित करते हैं ऐसे लोगों में सर्वथा विश्वास न रखो। 6-एक वैरी पलभर में ही खुल जायेगा यद्यपि वह मित्रता की बड़ी मृदुल माषा बोलता हो। -यदि वैरी विनम्र वचन बोले तो भी उसका विश्वास न करो क्योंकि धनुष जितना ही अधिक झुकेगा उतना ही अधिक अनिष्ट सूचक होगा। 8-शत्रु यदि हाथ जोड़े और आँसू भी बहावे तो भी उसकी प्रतीति न करो सम्भव है कि उसके हाथों में कोई हथियार छुपा हो। g-ऐसे आदमी को देखो, जो जन समाज में तुम्हारा आदर करता है परन्तु एकान्त में घृणा करने के लिए हँसता है उसकी प्रत्यक्ष रूप में चाटुकारी करो लेकिन उसे समय मिलत ही कुचल दो चाहे वह मित्रता के आलिंगन में ही क्यों न हो। 10-यदि शत्रु तुमसे मित्रता का ढोंग करता है और तुम भी अभी उससे खुला वैर नहीं कर सकते हो तो तुम भी उससे मित्रता का ढोंग रचो पर मन से उसे सदा दूर रक्खो । (275 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुकरम काव्य । परिच्छेदः ८४ मूर्खता कहें किसे हम मूर्खता, तो सुनलो परिचान । लाभप्रद का त्यागना, हानि हेतु आदान ।।१॥ खोटे अनुचित कृत्य में, फँसना बिना विवेक । प्रथमकोटि की मूर्खता,समझो यह ही एक ||२|| धर्म अरुचि निर्दयपना, कहना निन्दित बात । विस्मृत कर कर्तव्य को, बने मूढ़ प्रख्यात ।।३।। शिक्षित होकर दक्ष हो, हो गुरुपद आरूढ़ । फिर भी इन्द्रयलम्पटी, उस सम और न मूढ़ ||४|| जीवन में ही पूर्व से, कहे स्वयं अज्ञान । अहो नरक का, क्षुद्रबिल, मेरा भावी स्थान ।।५।। उच्चकार्य को मूढ़ नर, लेकर अपने हाथ । करे न उसका नाश ही,बन्दी बनता साथ ।।६।। मूर्ख मनुज की द्रव्य का, करें और ही भोग। . क्षुधा शान्ति के अर्थ पर, तरसें परिजन लोग ।।७।। कारण वश बहुमूल्य कुछ, पाजावे यदि अज्ञ । चेष्टायें उन्मत्त सी, तो करता सावज्ञ ।।८।। मूढजनों की मित्रता, मन को बड़ी सुहात । कारण टूटे से अहो, दुःख न हो कुछ झात ।।६।। बुधमण्डल में अज्ञ नर,त्यों ही दिखता हीन । पयसम धवल पलंग पर,ज्यों हो पैर मलीन ।।१०।। 2761 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , कुमम काय - मूर्खता 1-क्या तुम जानना चाहते हो कि मूर्खता किसे कहते हैं ? जो वस्तु लामदायक है उसको फेंक देना और हानिकारक पदार्थ को पकड रखना, बस यही मूर्खता है। 2-मूर्खता के सब भेदों में सबसे प्रमुख मूर्खता यह है कि ऐसे काम में आने मन को प्रवृत्त करना जो कि अधम और अयोग्य है।। 3-मूर्ख मनुष्य अपने कर्तव्य को भूल जाता है और मुख से निन्दित तथा कर्कष बातें बोलता है, यह उद्धत और निर्लज्ज हो जाता है तथा उसे कोई भी अच्छी बात नहीं सुहाती है। 4-एक आदमी खूब पढ़ा लिखा और चतुर है, साथ ही दूसरों का गुरु है, फिर भी वह इन्द्रिय-लिप्सा का दास बना रहता है । उससे बढ़कर मूर्ख और और कोई नहीं है। 5-मूर्ख अपने विषय में अपने जीवन में स्वयं ही आगे से कह देता है कि उसका स्थान नरक के एक तुच्छ दिल में है। 6-उस मूर्ख को देखो जो एक महान कार्य को करने के लिए अपने हाथ में लेता है, वह उस काम को विगाड़ ही न देगा किन्तु अपने को भी येड़ियाँ पहिनने के योग्य बना लेगा। 7--यदि मूर्ख को सौभाग्य से बहुत सी सम्पत्ति मिल जाये तो उससे पराये लोग ही चैन उड़ाते हैं, किन्तु उसके बन्धुबान्धव तो भूखों ही मरते हैं। 8-यदि एक मूर्ख कोई बहुमुल्य वस्तु प्राप्त करले तो वह एक पागल और उन्मत्त की तरह व्यवहार करेगा। g-मूर्ख लोगों की मित्रता घड़ी सुहावनी होती है, क्योंकि जब वह टूट जाती है तो कोई दुःख नहीं होता। 10-योग्य पुरुषों की सभा में किसी मूर्ख मनुष्य का जाना ठीक वैसा ही है जैसा कि साफ सुथरे पलंग के ऊपर मैला पैर रख देना। . . -- ..-. -. -. - - -277) १ १ - .. -. .- .- . .. Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुल काव्य रत परिच्छेदः ८५ अहंकारपूर्ण मूढ़ता सब से बड़ी दरिद्रता, विषय-दासता एक । मिट जासी धनहीनता, पाकर पन अनेक ।। स्वेच्छा से यदि मूढ़-नर, देता कुछ उपहार । अहोभाग्य तो पात्र का, समझो एक प्रकार ।।।। निज दोषों से मूर्खनर, लाते ऐसे कष्ट । अरि से भी दुःशक्य हैं, मिलने कैसे कष्ट ।।३।। जो नर निज को मानता, गर्वित हो मतिमान । सचमुच वह ही मूढ़ है, कहते यो धीमान ।।४।। ज्ञान, स्वयं-अज्ञात का, बतला कर यह मूढ़ । ज्ञात-विषय के ज्ञान में, करता प्रम आरूढ़ ।।५।। पटधारण से मूर्ख को, लाभ न होता खास । खुले हुये यदि दोषगण,करते मन में वास ।।६।। जो उथला, निजपेट में, सीमित कोई भेदरख न सके उस मूढ़ के, शिर पर सब ही खेद ।।७।। सुने नहीं समझे नहीं, जो जड़ हठ से नीति । व्यथित बन्धु उसके लिए, रखें निरन्तर भीति ।।८।। आत्म-विनिचित मार्ग ही, मूर्खदृष्टि में शुद्ध ।। फिर भी देता ज्ञान जो, वह है बुद्धि विरुद्ध ।।६।। सर्वमान्य भी वस्तु का, नहीं करे जो मान । पृथ्वीचारी भूत सा, होता है वह भान ।। १०॥ 37A.... Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ------ -जा कुबल काव्य कुरल काव्य परिच्छेदः 85 अहंकारपूर्ण मूढ़ता ... 1-विषय दासता सबसे बड़ी गयी है और प्रकार की दरिद्रता को जगत दरिद्रता ही नहीं मानता है। 2-जब एक मुढ़ स्वेच्छापूर्वक कोई उपहार देता है तो वह लेने वाले का सौभाग्य है और कुछ नहीं। 3-मूढ़ आदमी स्वयं अपने शिर पर जैसी आपत्तियाँ लाता है वैसी उसके शत्रु भी नहीं पहुंचा सकते। 4-क्या तुम जानना चाहते हो कि बुद्धि का उथलापन किसे कहते हैं? बस उसी अहंकार को जिससे मनुष्य मनमें समझता है कि मैं बड़ा सयाना हूँ। 5.जो मूढ अज्ञात विषयों के ज्ञान का दिखावा करता है वह, ज्ञात विषयों के प्रति भी सन्देह उत्पन्न कर देता है। 6-मूद आदमी यदि अपने नंगे वदन को ढकता है तो इससे क्या लाभ ? जब कि उसके मन के एव ठेके हुये नहीं हैं। 7-बह ओछा व्यक्ति जो किसी भेद को अपने तक सीमित नहीं रख सकता यह अपने शिर पर बहुत सी आपत्तियों बुला लेता है। 8-जो आदमी न तो स्वयं भला बुरा पहिचानता है और न दूसरों की सलाह मानता है. वह जीवन भर अपने बन्धुओं के लिए दुःखदायी बना रहता है। -वह मनुष्य, जो कि मूर्ख की ऑखें खोलना चाहता है स्वयं मूर्ख है, क्योंकि मूर्ख केवल एक ही बाजू जानता है और वही उसकी समड़ा में सीधी और सच्ची है। ___10-वह भी एक मूर्ख है जो जगत मान्य वस्तु को मान्य नहीं मानता वह संसार के लिए एक पिशाच है। (279) Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ८६ उद्धतता उद्धतता से अन्य का, जो करता उपहास | उसमें इस ही दोष से, लोकघृणा का वास ॥१॥ कोई पड़ौसी जानकर, कलह- दृष्टि से त्रास । देवे तो, उत्तम यही, मत जूझो दे त्रास ||२|| कलहवृत्ति भी एक है, दुःखद बड़ी उपाधि । उसकी कीर्ति अनन्त जो, छोड़सका यह व्याधि || ३ || दुःखभरा औद्धत्य यह, जिसने त्यागा दूर । उसका मन आल्हाद से, रहे सदा भरपूर ||४|| मुक्त सदा विद्वेष से, जिनका मनोनियोग । सर्वप्रिय इस लोक में, होते वे ही लोग ||५| जिसे पड़ोसी द्वेष में आता है आनन्द । अधःपतन उसका यहाँ, होगा शीघ्र अमन्द ।। ६ ।। जो नृप मत्सर - भाव से, सब को करे विरुद्ध 1 झगड़ालू उस भूप की, राज्यवृद्धि अवरुद्ध ॥ ७ ॥ टाले से विग्रह सदा, ऋद्धि बड़े भरपूर । और बढ़ाने से अहो, नहीं पतन अतिदूर ||८|| | बचे सभी आवेश से, जब हो पुण्य विशेष । और वही हतभाग्य नर करे पड़ोसी द्वेष ।।६। मानव को विद्वेष से फल मिलता विद्वेष । शिष्टवृत्ति में शान्तियुत, रहे समन्वय शेष 1190 || 280 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ८६ उगतता दूसरों की हँसी उड़ाना ऐसा दुगुर्ण है जिससे 1- उजड्डपन से सभी व्यक्तियों को भीतर घृणा पैदा होती है। 2- यदि तुम्हारा पडौसी जानबूझकर झगड़ा करने की भावना से तुम्हें सताता है तो भी सर्वोत्तम बात यही है कि तुम अपने हृदय में बदले की भावना न रक्खो और न उसे बदले में चोट पहुँचाओ। 3- दूसरों से झगड़ा करने की आदत वास्तव में एक दुःखद व्याधि है। यदि कोई व्यक्ति अपने को उससे मुक्त करले तो उसे शाश्वत प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। 4 -- यदि तुम अपने हृदय से सबसे बड़ी बुराई अर्थात् उजड्डपन की भावना को दूर कर दो तो तुम्हें सर्वोच्च आनन्द प्राप्त होगा । 5- ऐसे व्यक्ति को कौन न चाहेगा, जिसमें विद्वेष की भावना को दूर करने की योग्यता है? 6- जो आदमी अपने पड़ोसियों के प्रति विद्वेष करने में आनन्द प्राप्त करता है उसका कुछ ही दिनों में अधःपतन हो जायेगा । 7- वह झगड़ालू स्वभाव का राजा जो सदा झगड़े में लिप्त रहता है उस नीति पर आचरण नहीं कर सकता जिससे राष्ट्र का अभ्युत्थान होता है। 8- झगड़े से बचने से समृद्धि प्राप्त होती है और यदि तुम झगड़े को बढ़ाने का मौका दोगे तो शीघ्र ही तुम्हारा पतन हो जायेगा | 9- जब भाग्यदेवी किसी आदमी पर प्रसन्न होती है तो वह सब प्रकार की उत्तेजनाओं से बचता है, परन्तु उसके भाग्य में यदि विनाश होना बदा है तो वह अपने पड़ोसियों के प्रति विद्वेष की भावना पैदा करने में नहीं चूकता । 10 - विद्वेष का फल बुरा होता है, लेकिन भलाई का परिणाम शान्ति और समन्वयकार्य होता है। 281 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ८७ की परख शत्रु बलशाली के साथ तुम, मत जूझो मतिधाम । किन्तु भिड़ो बलहीन से, बिना लिये विश्राम ||१|| जो अशक्त असहाय नृप, रखे तया निठुराई । कौन भरोसे वह करे, अरि पर कहो चढ़ाई || २ || धैर्य, बुद्धि, औदार्यगुण, और पड़ोसी - मेल । मिलें नहीं जिस भूप में, उसका जय अरिखेल || ३ || कटुक प्रकृति के साथ में, जो नृप बिना लगाम । अधोदृष्टि सर्वत्र वह, सर्वघृणा का धाम ||४|| दक्ष न हो कर्तव्य में, रक्षित रखे न मान । राजनीति से शून्य नृप, अरि का हर्षस्थान ||५|| लम्पट या क्रोधान्ध नृप, होता प्रतिभाहीन । वैरी उसके पैर के स्वागत को आसीन || ६ || P कार्य पूर्व में ठान जो, करे उलट सब काम । चैर करो उस भूप से, चाहे देकर दाम ||७|| मिले न सद्गुण एक भी, जिसमें दोष अनेक । अरि-मुद-वर्धक भूप यह, रखे मित्र क्या एक ॥८॥ भूढ़ तथा भयभीत से, शत्रु करे यदि युद्ध । उसका हर्ष समुद्र तब, रहे न सीमारुद्ध || ६ || · मूढ़-पड़ोसी राज्य से लड़े नहीं जो भूप । करे नहीं जय यत्न भी मिलता उसे न रूप ||१०|| 282 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ता, कुभल काव्य यूर परिच्छेदः ८७ शत्रु की परख 1--जो तुग से शमित्तशाली हैं उनके विरुद्ध तुम प्रयत्न मत करो लेकिन जो तुम से कमजोर हैं उनके विरुख चिना एक क्षण विश्राम किये निरन्तर युद्ध करते रहे। 2- RT जो निर्दयी है और जिसके कोई सगी साथी नही है साथ ह. ऐसी शक्ति भी नहीं कि अपने पैरों पर खड़ा हो सके वह अपने ५५ का कैसे सामना कर सकता है। 3-वह राजा जिसमें न तो साहस है. न बुद्धिमत्ता, और न उदारत इनके सिवाय जो अपने पड़ोसियों से मेल नहीं रखता उसके वैरी सरल।। . रो उसे जीत लेंगे। 4. वह राजा जो कि सदा कटु स्वभाट का है और अपनी वाणी पर नियत्रर नहीं रख सकता, वह हर आदमी रो, हर स्थान पर हर समय नीचा देखेगा। 5-लिरा राजा में चतुराई नहीं है. जो अपनी मान प्रतिष्ठा की परवाह नहीं करता और जो राजनीति शास्त्र तथा उस संबंधी अन्य विषयों में दुर्लक्ष्य रखता है यह अपने शत्रुओं के लिए आनन्द का कारण होता है। 6-जो भूपाल अपनी लिप्सा का दारा है और क्रोधावेश में अन्धा होकर अपनी सर्कबुद्धि खो बैठता है उसके बैरी उसके बैर का स्वागत करेंगे। 7- गुपति 'कसी काम को उटा तो लेता है पर अमल ऐसा करता हैं कि जिससे कार में सफलता मिलनी संभव नहीं होती ऐसे राजा की शत्रुत।। मौन रखने जे लिए दि कुछ मूल्य भी देना पड़े तो उसे देकर ले लेना चाहिए -यदि किसी राजा में गुण त कोई है नहीं, और दोष बहुत से हैं तो उसका कोई भी संगी साथी नहीं होगा तथा उसके शत्रु घी के दीपक जलायेंगे। 8-यदे मूख और कायरों के साश्य युद्ध करने का अवसर आता है तो शत्रुओ को निस्सीम आनन्द होता है। 10-वह रेश । जो अपने मूर्ख पड़ोसियों से लड़ने और आसानी से विन्य प्राप्त करने का यत्न नहीं करता उसे कभी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होती। 283 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जा, कुबत्य काव्य परिच्छेद: ८८ शत्रुओं के साथ व्यवहार मत छोड़ो बुध जानकर, चाहे हो भी हास्य । हत्यारे उस वैर को, जो है यम का आस्य ||१|! शस्त्रपाणि के साथ में, चाहे करलो वैर । वाणी जिसकी शस्त्र पर, मतकर उससे वैर ।।२।। नहीं सहायक एक भी, फिर भी रण-आलाप ।। करता, जो रिपुसंघ में, वह नृप पागल आप ।।३।। अरि को जो चातुर्य से, करले मित्र उदार । श्री स्थिर उस भूप की, कर भी जय आधार ।।४।। दो रिपु यदि हों सामने, हो असहायी आप । संधि करो तब एक से, पर से लड़ ले चाप ।।५।। जब हो अपने राज्य पर, वाह्यशक्ति का बार । सजग पड़ौसी से रहो,मध्यस्थिति हितकार ।।६।। बाधाएं अनजान से, बोलो कभी न भूल । जान सकें त्रुटियाँ नहीं, वे जो हो प्रतिकूल ।।७।। दृढ़साधन, दृढ़युक्तियाँ, दृढ़रक्षा, दृढ़तंत्र । यदि हों तो रिपु-गर्व का, मिले धूलि में मंत्र १८il वृक्ष कटीले काट दो, उगते ही लख दाव । छेदक कर में अन्यथा, देंगे पीछे घाव ।।६।। अरिमद-भज्जन की नहीं, जिनमें शक्ति अनल्प । अधम पुरुष वे लोकमें,जीवन उनका स्वल्प ।।१०।। (284 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा कुबल काव्य र परिच्छेदः ८८ शत्रुओं के साथ व्यवहार 1--उस हत्यारी बात को कि जिसे लोग शत्रुता कहते हैं. जान-बूझकर कभी न छेड़ना चाहिए, चाहे वह परिहास्य के लिए ही क्यों न हो। 2-तुम उन लोगो को भले ही शत्रु बना लो कि जिनका हथियार धनुष बाण है. परन्तु उन लोगों को कभी मत छेड़ो जिनका हथियार जिव्हा 3-जिस राजा के पास सहायक तो कोई भी नहीं है पर जो देर के ढेर शत्रुओं को युद्ध के लिए ललकारता है वह पागलं से भी बढ़कर पागल । 4-जिस राजा में शत्रुओं को मित्र बना लेते की कुशलता है उसकी शक्ति सदा स्थिर रहेगी। 5–यदि तुमको बिना किसी सहायक के अकेले दो शत्रुओं से लड़ने का अवसर आए तो उनमें से किसी एक को अपनी ओर मिला लेने की चेष्टा करो। 6-तुमने अपने पडौसी को मित्र या शत्रु बनाने का कुछ भी निश्चय कर रक्खा हो, बाह्य आक्रमण होने पर उसे कुछ भी न बनाओ, बस यों ही छोड़ दो। 7-अपनी कठिनाइयों का हाल उन लोगों में प्रगट न करो कि जो अभी तक उनसे अनजान हैं और अपनी दुर्बलतायें बैरियों को ज्ञात होने दो। 8-चतुरता पूर्वक एक युक्ति सोचो, अपने साधनों को सुदृढे और सुसंगठित बनाओ तथा अपनी रक्षा का पूर्ण प्रबन्ध कर लो। यदि तुम यह सब कर लोगे तो तुम्हारे शत्रुओं का गर्व चूर्ण होकर धूल में मिलते कुछ देर न लगेगी। 9. काँटेदार वृक्षों को छोटेपन में ही काट देना चाहिए, क्योंकि जब वे बड़े हो जाएँगे तो स्वय ही उस हाथ को घायल कर देंगे जो उन्हें काटने जावेगा। 10. जो लोग अपना अपमान करने वालों का गर्व पूर्ण नहीं करते वं वाररुव में बहुत समय तक नहीं टिकेंगे। (285 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - छुअन काव्य - परिच्छेदः ८१ घर का भेदी फब्बारा या कुंजवन, ज्यों हों बर्धक रोग ! अप्रिय होते बन्धु त्यों, रखकर अरि से योग ।।१।। खुले खंगसम शत्रु से, क्या है डरकी बात । कपट मित्र से नित्य ही, भीत रहो हे तात ।।२।। सजग रहो उस दुष्टि से, जिसका हृदय न पूत । घात करे वह काल पा, ज्यों कुंभार का सूत ।।३।। मित्ररूप से पास में, जो अरि करता वास । भेदबुद्धि वह डालकर, सजता विपद-निवास ।।४।। निजजन ही यदि क्रुद्ध हो, स्वयं करें विद्रोह । जीवन के लाले पड़ें, बढ़े विपद-सन्दोह ।।५।। कपटवृत्ति का राज्य हो, जिस नृप के दरवार । होगा वह भी एक दिन, उसका स्वयं शिकार ।।६।। भेद पड़े फिर ऐक्य क्या, मिलता है अनुरूप । ढक्कन वर्तन से सदा, रखता भिन्न स्वरूप ।।७।। मिल जाते वे भूमि में, जिनके घर में फूट । रेती से ज्यों लोह के, गिरते कणकण टूट 11८।। तिलसम भी यदि हो जहाँ, आपस का संघर्ष । सर्वनाश शिर पर नचे, हटे वहाँ उत्कर्ष ।।६।। द्वेषी से जो रीति तज, बोले स्वजन रामान । बसें एक ही झोंपड़ी, विषधर साथी मान ।।१०।। 286 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुशल काव्य शरत परिच्छेदः ८९ घर का भेदी 1-कुंजवन और पानी के फुब्बारे भी कुछ आनन्द नहीं देते यदि उनसे बीमारी पैदा होती है. इसी प्रकार अपने नातेदार भी विट्वेय योग्य हो जाते हैं जब कि वे उसका सर्वनाश करना चाहते हैं। 2-उस शत्रु से अधिक डरने की जरूरत नहीं है कि जो नंगी तेलवार की तरह है किन्तु उस शत्रु से सावधान रहो कि जो गित्र बनकर तुम्हारे पास आता है। 3-अपने गुप्तवैरी से सदा सजग रहो क्योंकि संकट के समय वह तुम्हें कुम्हार की डोरी के समान बड़ी सफाई से काट डालेगा। 4-यदि तुम्हारा कोई ऐसा शत्रु ई कि जो भित्र के रूप में घूमता फिरता है तो वह शीघ्र ही तुम्हारे साथियों में फूट के बीज बो देगा और तुम्हारे शिर पर सैकड़ों बलाऐं ला डालेगा। 5. जब कोई भाई बन्धु तुम्हारे प्रतिकूल विद्रोह करे तो वह तुम पर अनगिनते संकट ला सकता है यहाँ तक कि उनसे स्वयं तुम्हारे प्राण सकट मे पड़ जादेंगे। -जब किसी राजा के दरबार में छल कपट प्रवेश कर जाता है तो फिर यह असंभव हैकि एक न एक दिन वह उसका स्वयं भक्ष्य न बन जाय। 7-जिस घर में भेदवृत्ति पड़ गई वह उस वर्तन के समान है जिसमें दक्कन लगा हुआ है, यद्यपि वे दोनों देखने में एक से मालूम होते हैं फिर भी चे एक कभी नहीं हो सकते। __B- देखो जिस घर में फूट पड़ी हुई है वह रेली से रेले हुए लोहे के समान कण कण होकर धूल में मिल जायेगा। 9--जिस घर मे पारस्परिक कलह है सर्वनाश उसके शिर पर लटक रहा है फिर वह कलह चाहे तिन में पड़ी हुई दरार की तरह ही छोटा क्यो न हो। 10-देखो जो मनुष्य ऐसे आदमी के साथ बिना मान सम्मान के व्यवहार करता है कि जो मन ही मन में उससे द्वेष रखता है, वह उस मनुष्य के समान है जो काले नाग को साथी बनाकर एक ही झोपड़ी में रहता है। 1287.................... Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः १० बड़ों के प्रति दुर्व्यवहार न करना सन्तों के अपमान से, निज रक्षा का कार्य । करलो यदि हो कामना, क्षेम - कुशल की आर्य 11911 सत्पुरुषों की अज्ञ यदि, करे अवज्ञा हास । टूटे उनकी शक्ति से, शिर पर विपदाकाश ||२|| * हितजनों को लाँघकर जाओ करलो नाश । करो बली से वैर जो, करदे सत्तानाश ||३|| शक्ति सहित बलवान का, करता जो अपमान । वह क्रोधी निजनाश को, करता यम आह्वान ||४|| बलशाली या भूप का, करके क्रोध उभार । पृथ्वी पर नर को नहीं, सुख का कुछ आधार ॥५॥ पूर्ण भयंकर आग से बच सकते नर- प्राण | पर मान्यों से द्वेष रख कैसे उनका त्राण || ६ || आत्मबली योगीष जो, करें कोप की वृद्धि । जीवन में फिर हर्ष क्या, क्या हो वैभव- सिद्धि ||७|| गिरिसमान ऋषि उच्च हैं, उनकी शक्ति असीम | उखड़े उनके कोप से सुदृढ़ राज्य निस्सीम ||८|| व्रत से जिन का शुद्ध मन, वे ऋषि यदि हो रुष्ट । स्वर्गाधिप तब इन्द्र भी, होता पद से भ्रष्ट ॥६॥ आत्मशक्ति के देवता, ऋषि का कोप महान । बचे नहीं बलवान का, नर ले आश्रयदान ||१०|| 288 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो कुभल काञ्च पर परिच्छेदः 0 बड़ों के प्रति दुर्व्यवहार न करना 1-जो आदमी अपनी भलाई वास्ता है, उसे राबरो अधिक सावधानी इस बात की रखनी चाहिए कि वह महान पुरुषों का अपमान करने से अपने को बचावे। 2-यदि कोई मनुष्य, महात्माओं का निरादर करेगा तो उनकी शक्ति से उसके शिर पर अनन्त आपत्तियों आ टूटेंगी। 3-क्या तुम अपना सर्वनाश करना चाहते हो? तो जाओ किसी के सदुपदेश पर ध्यान न दो और जाकर उन लोगों के साथ छेड़ाखानी करो कि जो जब चाहें तुम्हारा नाश करने की शक्ति रखते हैं। -जो दुर्बल मनुष्य, बलवान और सत्ताधारी पुरुषों का अपमान करता है वह मानो यमराज का अपने पास आने के लिए संकेत करता है। ___5-जो लोग, पराक्रमी राजा के क्रोध को उभारते हैं. वे चाहे कहीं जावें कभी सुख समृद्ध न होंगे। 6-दावाग्नि में पड़े हुए लोग चाहे भले ही बच जायें पर उन लोगों की रक्षा का कोई उपाय नहीं है कि जो शक्तिशाली पुरुषों के प्रति दुर्व्यवहार करते हैं। -यदि आत्मबलशाली ऋषिगण तुम पर क्रुद्ध हैं तो विविध प्रकार के आनन्द से उल्लसित तुम्हारा भाग्यशाली जीवन और समस्त ऐश्वर्य से पूर्ण तुम्हारा धन फिर कहाँ होगा ? 8-जिन राजाओं का अस्तित्व शाश्वतरूप से स्थायी भित्ति पर स्थापित है वे भी अपने समस्त बन्धुबान्धवों सहित नष्ट हो जायेंगे यदि पर्वत के समान शक्तिशाली महर्षिगण उनके सर्वनाश की कामना भर करें। -और तो और स्वयं देवेन्द्र भी अपने स्थान से भ्रष्ट हो जाय और अपना प्रभृत्य गवाँ बैठे, यदि पवित्र प्रतिज्ञा पाले सन्त लोग क्रोध भरी दृष्टि से उसकी ओर देखें। 10-यदि आध्यात्मिक ऋद्धि रखने वाले महर्षिगण रुष्ट हो जायें तो वे मनुष्य भी नहीं बच सकते कि जो सुदृढ़ से सुदृढ आश्रय के ऊपर निर्भर हैं। ...........-.-289)........ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुबल काव्य पर कुरल काव्य । परिच्छन्दः ११ स्त्री की दासता नारी की पद-अर्चना, करने में जो लीन । उच्च नहीं वह आर्यजन, बने न विषयाधीन ।।918 जो विषयी निशदिन रहे, भरा मदन-सन्ताप । ऋद्धि सहित भी निन्ध हो,लज्जित होता आप ।।२।। नारी से दब कर रहे, सचमुच वह है क्लीव । भद्रों में वह लाज से, चले न हो उद्ग्रीव ।।३।। प्रिया-भीत कामार्त को, देखे होता खेद । उस अभव्य हतभाग्य के, गुण रहते यश-भेद ।।४।। नारी की सेवार्थ ही, कामी का पुरुषार्थ । क्या क्षमता साहस करे, गुरुजन की सेवार्थ ।।५।। प्रिया सुकोमल बाहु से, जो धूजे भय मान । मान नहीं उनका कहीं,जो हों देवसमान ।।६।। जिसपर चोली-राज्य की, प्रभुता का अधिकार । उससे कन्या ही भली, लज्जाभूषित सार ११७।। प्रियाबचन ही कार्य में, जिनको नित्य प्रमाण । मित्रकार्य या और कुछ, करें न वे कल्याण ||८|| धर्म तथा धन से रहे, कामी को वैराग्य । प्रेमामृत के पान का, नहीं उसे सौभाग्य ।।६।। कर्ता उत्तम कार्य के, भाग्य उदय के धाम । करें न विषयाशक्ति सी, दुर्मति का वे काम || १०||| 1290) Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुबल काव्य पर परिचट p: : स्त्री की दासता 1-जो लोग अपनी स्त्री के श्री चरणों की अर्चना में ही लगे रहते हैं वे कभी महत्त्व प्राप्त नहीं कर सकते और जो महान कार्यो के करने की उ||शा रखते हैं वे ऐसे निकृष्ट प्रेम के पाश में नहीं फंसते। 2-जो आदमी अपनी स्त्री के असीम मोह में पड़ा हुआ है, वह अपनी समृद्धिशाली अवस्था में भी लोगों में हास्यास्पद हो जायेगा और लज्जा से उसे अपना मुँह छिपाना पड़ेगा। 3- वह नामर्द जो अपनी स्त्री के सामने झुककर चलता है. सत्पात्र पुरुषों के सामने वह सदा शरमावेगा। 4-शोक है उस मुक्ति-विहीन अभागे पर जो अपनी स्त्री के सामने काँपता है, उसके गुणों का कभी कोई आदर न करेगा। -जो आदमी अपनी स्त्री से डरता है वह गुरुजनों की सेवा करने का भी साहस नहीं कर सकता। -जो लोग अपनी स्त्री की कोमल भुजाओं से भयभीत रहते हैं | वे यदि देवों के समान भी रहें तब भी उनका कोई मान न करेगा। 7-जो मनुष्य चोली-राज्य का आधिपत्य स्वीकार करता है, उसकी अपेक्षा एक लजीली कन्या में अधिक गौरव है। 8-जो लोग अपनी स्त्री के कहने में चलते हैं वे अपने मित्रों की आवश्यकताओं को भी पूर्ण न कर सकेंगे और न उनसे कोई शुभ काम ही हो सकेगा। -जो मनुष्य स्त्री-राज्य का शासन स्वीकार करते हैं उन्हें न तो धर्म मिलेगा और न धन, इनके सिवाय उन्हें अखण्ड प्रेम का आनन्द ही मिलेगा। 10-जिन लोगों के विचार महत्त्वपूर्ण कार्यो में रत हैं और जो सौभाग्य लक्ष्मी के कृपापात्र हैं वे अपनी स्त्री के मोहजाल में फंसने की कुबुद्धि नहीं करते। 291) Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिच्छेदः १२ वेश्या जिन्हें न नर से प्रेम है, धन से ही अनुकूल । कपट मधुर उनके बचन, बनते विपदा-मूल ।। ११॥ वेश्या मधुसम बोलती, धन की आय विचार । चाल ढाल उसकी समझ, दूर रहो यह सार ।।२।। गणिका उर से भेंटती, धनिक देख निज जार । ऊपर से कर धूर्तता, दिखलाती अति प्यार ।। लगे उसे पर चित्त में, प्रेमी की यह देह । बेगारी तम में छुए, ज्यों कोई मृतदेह ।।३।।(योग्य) व्रतभूषित नररत्न जो, होते मन्द-कषाय । करें न वेश्यासंग से, दूषित वे निज काय ||४| जिनके ज्ञान अगाध है, अथवा निर्मल बुद्धि । रूप-हाट से वे कभी, लेते नहीं अशुद्धि ।।५।। रूप अपावन बेचती, वेश्या चपल अपार । छुऐं ने उसका हाथ वे, जो हैं निजहितकार ।।६।। खोजें असती नारियाँ, नर ही अधम जघन्य । गले लगाती एक वे, सोचें मन से अन्य ।।७11 अविवेकी गुनते यही, पाकर वेश्या संग ।। स्वर्गसुधा सी अप्सरा, मानो लिपटी अंग ।।८।। बनी ठनी श्रृंगार से, वेश्या नरक समान । नाले जिसके बाहु हैं, डूबें कामी आन ।।६।। द्यूतचाट वेश्यागमन, और सुरा का पान । भाग्यश्री जिनकी हटी, उनके सुख सामान ।।१०।। ....... ... . --(292 . .. Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ९e वेश्या 1 जो स्त्रियाँ प्रेम के लिए नहीं बल्कि धन के लोभ से किसी पुरुष की कामना करती हैं, उनकी मायापूर्ण मीठी बातें सुनने से दुःख ही दुःख होता है 2 - जो दुष्ट स्त्रियाँ मधुमयी वाणी बोलतीं हैं पर जिनका ध्यान अपने नफे पर रहता है, उनकी चाल-ढाल को विचार कर उनसे सदा दूर रहो । 3- वेश्या अपने प्रेमी का दर्द-आलिंगन करती है तो वह ऊपर से यह प्रदर्शन करती है कि वह उससे प्रेम करती है परन्तु मनमें तो उसे ऐसा अनुभव होता है जैसे कोई वेगारी अन्धेरे कमरे में किसी अज्ञात लाश को छूता है । 4 - जिन लोगों के मन का झुकाव पवित्र कार्यों की ओर हैं, वे असती स्त्रियों के स्पर्श से अपने शरीर को कलंकित नहीं करते। 5 - जिन लोगों की बुद्धि निर्मल है और जिनमें अगाध ज्ञान है वे उन औरतों के स्पर्श से अपने को अपवित्र नहीं करते कि जिनका सौन्दर्य और लावण्य सब लोगों के लिए खुला है। 6- जिनको अपने कल्याण की चाह है वे स्वैरिणी गणिका का हाथ नहीं छूते कि जो अपनी अपवित्र सुन्दरता को बेचती फिरती हैं। 7. जो ओछी तबियत के आदमी हैं वे ही उन स्त्रियों को खोजेंगे कि जो केवल शरीर से आलिंगन करती हैं, जबकि उनका मन दूसरी जगह रहता है। B- जिनमें सोचने समझने की बुद्धि नहीं है उनके लिए चालाक कामनियों का आलिंगन ही अप्सराओं की मोहिनी के समान है। 9- भरपूर साज - सिंगार किये और बनी उनी स्वैरिणी के कोमल बाहु नरक की अपवित्र नाली के समान हैं जिसमें घृणित भूर्ख लोग अपने को जा डुबोते हैं। 10- चंचल मन वाली स्त्री, मद्यपान और जुआ, ये उन्हीं के लिए आनन्द वर्द्धक हैं कि जिन्हें भाग्यलक्ष्मी छोड़ देती है। 293 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुबल काव्य पर मध का त्याग प्रेमी यदि हो मद्य के, फिर क्यों अरि हो भीत । और उसी से पूर्व के, मिटते गौरव-गीत ।।१।। यदि हो हित की कामना, करो न मदिरापान । माने नहीं अनार्य तो, पीए तज वर मान ।। २१॥ मदिरापायी की दशा, माता ही जब देख ।। ग्लानि करे तब भद्र का, क्या करना उल्लेख ।।३।। नर को देख कुसंग में, मधु लेवे जब घेर । लज्जा सी तब सुन्दरी,जाती मुख को फेर ।।४।। कैसी यह है मूर्खता, कैसा प्रतिभा द्रोह । मूल्य चुकाकर आप ले, विस्मृति, विभ्रम मोह ।।५।। किसी तरह के मद्य का, पीना विष का पान । सोता ऐसी नींद वह,ज्यों होता मृत भान ।।६।। छिप कर भी घर में पियी, करती मदिरा हानि । भेद पड़ौसी जानकर, करते अति ही ग्लानि ।।७।। 'नहीं जानता मद्य में', मतकर यों अपलाप । कारण झूठ कुटेव में, और बढ़ावे पाप ।।८।। व्यसनी को उपदेश दे, खोना ही है काल । डूबे नरी की खोज में, जल में व्यर्थ मसाल ।।६।। स्वयं शराबी होश में, देखे मद के दोष । पर सोचे निज के नहीं, यह ही दुःखद रोष ।।१०।। 294) Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना कुबल काव्य पर परिच्छेदः १३ मद्य का त्याग 1-देखो, जिन लोगों को मद्य पीने का व्यसन लगा हुआ है उनके शत्रु उनसे कभी न करेंगे और जो कुछ उन्हें गान प्रतिष्ठा प्राप्त है वह गी जाती रहेगी। 2-कोई भी शराड न पिये, यदि कोई पीना ही चाहे तो लोगों । को पीने दो कि जिन्हें आप पुरुषों से मानमर्यादा मिलने की परवाह नहीं है। ____ 3-जो आदमी नशे में चर है उसकी आकृति वा उसको जन्म देने . वाली माता को ही दुरी लगती है । फिर भला वह सत्पात्र पुरुषों को कैसी लगेगी? 4-जिन लोगों को मदिरापान को घणित आदत पड़ी हुई है लज्जारूपिणी सुन्दर सनरो अपना मुंह फेर लेती है। 5-यह तो असीम मूर्खता और अपात्रता है कि अपना धन खर्च करे और बदले में विस्मति तथा रिभ्रम को मोल लेवे । जो लोग प्रतिदिन उस विष का पान करते हैं कि जिसे ताड़ी या मद्य कहते हैं वे मानो महानिन्द्रा में ग्रस्त हैं। उनमें और मृतक में कोई अन्तर नहीं होत:: ___7-0ो लेग चोरी से मदिरा पीते है और अपने समय को देत अवस्था में तथा त्शूि-यता में गमाते हैं. उनके पड़ोसी शीघ्र ही इस बात को जान जायेगे और उन्हें घृणा की दृष्टि से देखेंगे। 8-मापायी व्यर्थ ही यह कहने का ढोंग न करे कि मैं तो मदिरा को जानता ही नहीं, क्योंकि ऐसा कहने से वह उस दुष्कृत्य के साथ झूठ बोलने का पाप और अधिक शामिल करता है। 9-जो रा-रासे को सीख देने का प्रयत्न करता है, वह उस म/ के समान है जो पानी में डूबे हुए आदमः को मसाल लेकर दूँढ़ता है। 10...जो आदमी अपनी सचेत अवस्था में किसी दूसरे दारूकुट्टे की दुर्गति को नाय बेखो से देखता है तो क्या वह निज का अनुमान नहीं लगा सकहा कि जब ताहाशे में होता है तो उसकी भी यही दशा होती होगी। 295 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुभत्य काव्य - परिच्छेदः १४ जुआ जीतो तो भी द्यूत को, मतखेलो धीमान । व्यक्ति-मत्स्य को धूतजय, बनसीमाँस समान ।।१।। __ जिसमें सौ को हार कर, कभी जीतले एक । उसी जुआ से ऋद्धि की,कैसी आशा नेक ।।२।। पैसा रखकर दाव पर, जिसे जुआ की चाट । हरलेते अज्ञातजन, उसका सारा ठाट ।।३।। द्यूत अथम जैसा करे, करे न वैसा अन्य । पापअर्थ मन को सजा, यश को करे जघन्य ।।४।। मानें निज को धूतपटु, ऐसे लोग अनेक । पछताया जो ही नहीं, पर क्या उनमें एक ॥५।। द्यूतअन्थ दुर्दैव से, भोगे कष्ट अनन्त । व्यसनी इसका मूढ़ नर, मरे क्षुधा से अन्त ।।६।। जाता द्यूतागार में, प्रायः जिसका काल । पैतृक धन के साथ वह, खोता कीर्ति विशाल 11७।। स्वाहा करदे सम्पदा, साख मिटे चहुंओर । विपदा-साथी द्यूत यह,करदे हृदयं कठोर ।।८।। छोड़ें घूतासक्त को, कीर्ति-सम्पदा-ज्ञान । यही नहीं वह मांगता, अन्न वस्त्र का दान ।।६।। ज्यों ज्यों हारे द्यूत में, त्यो त्यों बढ़ता राग । दुःखित होकर जन्म भर,जलती तृष्णा आग ।।१०।। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुबल काव्य परिच्छेदः ९४ जुआ 1- जुआ मत खेलो भले ही उसमें जीत क्यों न होती हो, क्योंकि तुम्हारी जीत ठीक उस काँटे के माँस के समान है जिसे मछली निगल जाती है। 2 - जो जुआरी सौ हारकर एक जीतते हैं उनके लिए जगत में उत्कर्ष शाली होने की क्या सम्भावना हो सकती है ? 3 -- जो आदमी प्रायः दाव पर बाजी लगाता है उसका सारा धन दूसरे लोगों के ही हाथ में चला जाता है। 4 - मनुष्य को जितना अधम जुआ बनाता है उतना और कोई नहीं, क्योंकि इससे उसकी कीर्ति को बट्टा लगता है और उसका हृदय कुकर्म करने की प्रेरणा पाता है। 5- ऐसे आदमी बहुतेरे हैं जिन्हें पाँसा डालने की अपनी चतुराई का घमण्ड हैं और जो जुआ के पीछे पागल हैं, लेकिन उनमें से एक भी मनुष्य ऐसा नहीं है, जिसने अन्त में पश्चाताप न किया हो I 6-- जो आदमी जुआ के व्यसन मे अन्धे हुए हैं ये भूखों मरते हैं और हर प्रकार के संकटों में पड़ते हैं। 7- यदि तुम अपना समय जुआ घर में नष्ट कर दोगे तो तुम्हारी पैतृक सम्पत्ति समाप्त हो जायेगी और तुम्हारी कीर्ति को भी धब्बा लगेगा | 8- जुआ में तुम्हारी सम्पत्ति स्वाहा होगी और प्रामाणिकता नष्ट होगी, इसके सिवाय हृदय कठोर बनेगा और तुम पर दुःख ही दुःख आयेंगे । 8- जो आदमी जुआ खेलता है उसकी कीर्ति, विद्वत्ता और सम्पत्ति से सब उसका साथ छोड़ देते हैं, इतना ही नहीं, उसे खाने और कपड़े तक के लिए भीख माँगनी पड़ती है। 10- ज्यों ज्यों आदमी जुआ में हारता है त्यों त्यों उसके प्रति उसकी प्रवृत्ति बढ़ती ही जाती है । इससे उसकी आत्मा को जो कष्ट उठाना पड़ता है उससे जीवन भर के लिए उसकी आत्मा की तृष्णा और अधिक बढ़ जाती है। 297 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुशल काव्य र परिच्छेदः ६५ औषधि ऋषि कहते इस देह में, वातादिक गुण तीन । और विषम जब ये बनें, होते रोग नवीन ।।१।। पचजावे जब पूर्व का, जब जीमें जो आर्य । ___ आवश्यक उसको नहीं, औषधि सेवन-कार्य ।२।। दीर्घवयी की रीति यह, जीमों बनकर शान्त । और पचे पश्चात फिर, जीमों हो निन्ति ।।३।। जबतक पचे न पूर्व का, तब तक छुओ न अन्न । पचने पर जो सात्म्य हो, खा लो उसे प्रसत्र ।।४।। पथ्य तथा रुचिपूर्ण जो, भोजन करे सुपुष्ट । उस देही को देह की, व्यथा न धेरै दुष्ट ।।५।। जीमें खाली पेट जो, उसको ढूँढ़े स्वास्थ्य । खाता यदि मात्रा अधिक, तो ढूँढ़े अस्वास्थ्य ।।६।। जठरानल को लाँघ कर, खाते हतधी-लोग । अनगिनते बहुभाँति के, धेरै उनको रोग ।।७।। रोग तथा उत्पत्ति को, सोचो और निदान । पीछे उसके नाश का, करो प्रयत्न महान ।।८।। कैसा रोगी रोग क्या, क्या ऋतु का व्यवहार । सोचे पहले वैद्य फिर, करे चिकित्सा सार II || रोगी, भेषज, वैद्यवर, औषधि-विक्रयकार । चार चिकित्सा सिद्धि में, साधन ये हैं सार ।।१०।। 798) Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -, कुवप काव्य पर परिच्छेदः ९५ औषधि 1-बात्त आदि जिन तीन गुणों का वर्णन ऋषियों ने किया है उनमें से कोई भी यदि अपनी सीमा से घट बढ़ जावे तो वह रोग का कारण हो जाता है। 2-शरीर के लिए औषधि की कोई आवश्यकता न हो यदि खाया हुआ भोजन परिपाक हो जाने के पश्चात् खाया जावे। 3-भोजन सदैव शान्ति के साथ करो और जीमें हए अन्न के पच जाने पर ही फिर भोजन करो, बस दीर्घायु होमे का यही सर्वोत्तम मार्ग 4-जब तक तुम्हारा खाया हुआ अन्न न पच जावे और जब तक कड़क कर भूख न लगे तब तक भोजन के लिए तहरे रहो और उसके पश्चात् शान्ति के साथ वह खाओ जो तुम्हारी प्रकृति के अनुकूल है। -यदि तुम शान्ति के साथ ऐसा भोजन करो जो तुम्हारी प्रकृति के अनुकूल है तो तुम्हारे शरीर में किसी प्रकार की व्यथा न होगी। 6-जिस प्रकार आरोग्य उस मनुष्य को ढूँढता है जो पेट खाली होने पर भोजन करता है. ठीक उसी प्रकार रोग उस आदमी को ढूंढता हुआ आता है तो मात्रा से अधिक खाता है। जा आदी मखता से अपनी जठराग्नि से परे खूब दूंस ढूँस कर खाता है उसको अनगिनते रोग घेरे ही रहेंगे। 8-रोग उसकी उत्पत्ति और ससका निदान इन सबका प्रथम विचार कर लो, पीछे तत्परता के साथ उसको दूर करने में लग जाओ। 9-वैद्य को चाहिए कि वह रोगी, रोग और ऋतु का पूर्ण विचार करले. तब उसके पश्चात औषधि प्रारम्भ करे। 10--रोगी. औद्य. औषधि और औषधि- विक्रेता. इन चारों पर ही चिकित्सा निर्भर है और उनमें से हर एक के फिर चार चार गुण हैं। 299 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा कुबल काव्य परपरिच्छेदः १E कुलीनता उत्तम कुल के व्यक्ति में, दो गुण सहजप्रत्यक्ष । प्यारी 'लज्जा' एक है, दूजा सच्चा ‘पक्ष' ||१|| सदाचार लज्जा मधुर, और सत्य से प्रीति । इनसे कभी न चूकना, यह कुलीन की रीति ।।२।। सद्वंशज में चार गुण, होते बहुत अमोल । कर उदार, पर गर्वबिन, हँसमुख, मीठे बोल ।।३।। कोटिद्रव्य का लाभ हो, चाहे कर अघ काम । बड़े पुरुष तो भी नहीं, करते दूषित नाम ।।४।। देखो वंशज श्रेष्ठजन, जिनका कुल प्राचीन । त्यागें नहीं उदारता, यद्यपि हो धनहीन ॥५५॥ कुल के उत्तम कार्य का, ध्यान जिन्हें प्रतियाम । करें न वंचकवृत्ति वे, और न खोटे काम ।।६।। वरवंशज के दोष को, देखें सब ही लोग । ज्यों दिखता है चन्द्र का, सब को लांछन योग ।।७।। उच्चवंश का निंद्य, यदि, करता वाक्य प्रयोग । . करते उसके जन्म में, आशंका तब लोग ।।८।। तरु कहता ज्यों भूमिगुण, पाकर फल का काल । वाणी त्यों ही बोलती, नर के कुल का हाल ।।६।। चाहो सद्गुण शील तो, करो यत्न लज्जार्थ । और प्रतिष्ठित वंश तो, आदर कसे परार्थ ।। १०। .. - - 300 -- - - - Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -ज, कुमल काव्य चारपरिच्छेन्दः ९६ कुलीनता 1-न्याय-प्रियता और लज्जाशीलता स्वभावतः उन्हीं लोगो में होती है जो अच्छे कुल में जन्म लेते हैं। 2-सदाचार, सत्यप्रियता और सलज्जता, इन तीन बातों से कुलीन पुरुष कभी पद-स्खलित नहीं होते। 3-सच्चे कुलीन सज्जन में ये चार गुण पाये जाते हैं-हँसमुख चेहरा, उदार हाथ, मृदुभाषण और स्निग्ध-निरभिमान। 4-कुलीन पुरुष को करोड़ों रुपये मिलें तब भी वह अपने नाम को कलंकित न होने देगा। 5-उन प्राचीन कुलों के वंशजों की ओर देखो. जो अपने ऐश्वर्य के क्षीण हो जाने पर भी अपनी उदारता नहीं छोड़ते। 6-देखो, जो लोग अपने कुल के प्रतिष्ठित आचारों को पवित्र रखना चाहते हैं, वे न तो कभी धोखेबाजी से काम लेंगे और न कुकर्म करने पर उतारूँ होंगे। 7-प्रतिष्ठित कुल में उत्पन्न हुए मनुष्य के दोष पर चन्द्रमा के कलंक की तरह विशेष रूप से सबकी दृष्टि पड़ती है। 8-अच्छे कुल में उत्पन्न हुए मनुष्य के मुख से यदि फूहड़ और निकम्मी बातें निकलेंगी तो लोग उसके जन्म के विषय तक में शंका करने लगेंगे। 9-भूमि की विशेषता का पता उसमें उगने वाले पौधे से लगता है, ठीक इसी प्रकार मनुष्य के मुख से जो शब्द निकलते हैं उनसे उसके कुल का हाल मालूम हो जाता है। 10-यदि तुम नेकी और सदगुणों के इच्छुक हो तो सुमको चाहिए कि सलज्जता के भाय का उपार्जन करो और तुम अपने वंश को सम्मानित बनाना चाहते हो तो तुम सब लोगों के साथ आदरमय व्यवहार करो। (301 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा कुवस्त्र काव्य - परिच्छन्दः १७ प्रतिष्ठा आत्मा का जिससे पतन, करो न वह तुभ कार्य । प्राणों की रक्षार्थ भी, चाहे हो अनिवार्य । 1911 ___ पीछे भी जो चाहते, कीर्ति सहित निज नाम । गौरव के भी अर्थ वे, करें न अनुचित काम ।।२।। करो ऋद्धि में भव्य वर, विनयश्री की वृष्टि । क्षीणदशा में मान की, रखो सदा पर दृष्टि ।।३।। दूषित गौरव से मनुज, त्यों ही लगता हीन । वालों की कटकर लटें,ज्यों हो मानविहीन ।।४।। रत्ती सा भी स्वल्प यदि, करे मनुज दुष्कर्म । गिरि सम उच्च प्रभाव का, क्षुद्र बने वेशर्म ।।५।। स्वर्ग कीर्ति के स्थान में, जो दे धृणा विरक्ति । जीना फिर क्यों चाहते, करके उसकी भक्ति ।।६।। मृतरुचि की पदभक्ति से, उत्तम यह ही एक । निर्विकल्प, निजभाग्य को, भोगे नर रख टेक ।।७।। ऐसी कौन अमूल्य निधि, रे नर ! यह है खाल । गौरव को भी बेच जो, रखता इसे सम्भाल ।।८।। केशों की रक्षार्थ ज्यों, तजती चमरी प्राण । करे मनस्वी मानहित, त्यों ही महा प्रयाण ।।६।। देख मिटा निजरूप जो, जीवित रहे न तात । वेदी पर उसकी चढ़े, भक्ति-पुष्प दिनरात ।।१०।। माल ||211 302 Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ज, कुचल काव्य परिच्छेदः १७ प्रतिष्ठा 1-उन बातों से सदा दूर रहो कि जो तुम्हें नीचे गिरा देंगी, चाई के.ाण र के लिए अनिका कम से ही आवश्यक क्यों न हों।। 2-जो लोग अपने पीछे यशस्वी नाम छोड़ जाना चाहते हैं, वे अपने गौरव बढ़ाने के लिए भी वह काम न करें कि जो उचित नहीं है। 3-समृद्धि की अवस्था में तो नम्रता और विनय की विस्फर्ति करो, लेकिन हीन स्थिति के समय मान-मर्यादा का पूरा ध्यान रक्खो। 4-जिन लोगों ने अपने प्रतिष्ठित नाम को दूषित बना डाला है, वे बालों की उन लटों के समान हैं कि जो काटकर फेंक दी गयी हैं। 5-पर्वत के समान उच्च प्रभावशाली लोग भी बहुत ही क्षुद्र दिखाई पड़ने लगेंगे यदि वे कोई दुष्कर्म करेंगे, फिर चाहे वह कर्म घुघची के समान ही छोटा क्यों न हो। 6-न तो जिससे यशोवृद्धि ही होती है और न स्वर्ग प्राप्ति, फिर मनुष्य ऐसे आदमी की शुश्रूषा करके क्यों जीना चाहता है कि जो उससे घृणा करता है। 7-अपने तिरस्कार करने वाले के सहारे रहकर उदरपूर्ति करने की अपेक्षा तो यही अच्छा है कि मनुष्य बिना हीला हवाला किये अपने भाग्य में लिखे हुए को भोगने के लिए पूरा तैयार हो जाये। 8-अरे ? यह खाल क्या ऐसी अमूल्य वस्तु है कि जो अपनी प्रतिष्ठा बेंच कर भी इसे बचाये रखना चाहते हैं। ___-चमरी गौ अपने प्राण त्याग देती है जबकि उसके बाल काट लिये जाते हैं कुछ मनुष्य भी ऐसे ही मानी होते हैं कि जब वे अपनी मानमर्यादा नहीं रख सकते तो अपनी जीवन लीला का अन्त कर डालते हैं। ___10-जो मनस्थी अपने शुभनाम के नष्ट हो जाने पर जीवित नहीं रहता सारा संसार हाथ जोड़कर उसकी सुयश-मयी वेदी पर भक्ति की भेंट चढ़ाता है। ........- 303)........ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुजलन काव्य - परिच्छेदः ९८ महत्त्व उच्चकार्य की चाह को, कहते विबुध महत्व : और क्षुद्रता है वही, जहाँ नहीं यह तत्त्व ।।१।। सब ही मानव एक से, नहीं जन्म में भेद । कीर्ति नहीं पर एकसी, कारण, कृति में भेद ।।२।। नहीं वंश से उच्च नर, यदि हो प्रष्टचरित्र ।। और न नीचा जन्म से, यदि ही शुद्धचरित्र ।।३।। आत्मशुद्धि के साथ में, जब हो सद्व्यवहार । सतीशील सम उच्चता, तब रक्षित विधिवार ||४|| साधन के व्यवहार में, हैं जो बड़े धुरीण । वे अशक्य भी कार्य में, होते सहज प्रवीण ।।५।। क्षुद्रों में ऐसी अहो, होती एक कुटेव । आर्य-विनय उनकी कृपा, नहीं रुचे स्वयमेव ।।६।। ओछों को यदि दैव बस, मिलजावे कुछ द्रव्य । इतराते निस्सीम तो, बनकर पूर्ण अभव्य ।।७।। बिना दिखावट उच्चनर, सहज विनय के कोष ।। क्षुद्र मनुज पर विश्व में, करते निजगुण घोष ।।८।। लघुजन से भी उच्चनर, करें सदय व्यवहार । क्षुद्र दिखें, पर गर्व के, मूर्तमान अवतार ।।६।। ठाँके पर के दोष को, सज्जन दिया-निधान । छिद्रों को पर ढूँढते, दुर्जन ही अज्ञान ।।१०।। 304 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -जा कुबरम काव्य पर परिच्छेदः १४ महत्व 1-महान कार्यों के सम्पादन करने की आकांक्षा को ही लोग महत्त्व के नाम से पुकारते हैं और ओछापन उस भावनां का नाम है जो कहती है कि मैं उसके बिना ही रहूँगी। 2-उत्पत्ति तो सब लोगों की एक ही प्रकार की होती है परन्तु । उनकी प्रसिद्धि में विभिन्नता होली है, क्योंकि उनके जीवन में महान अन्तर होता है। -उत्तम कुल में उत्पन्न होने पर भी यदि कोई सच्चरित्र नहीं है तो वह उच्च नहीं हो सकता और हीन वंश में जन्म लेने मात्र से कोई पवित्र आचार वाला नीच नहीं हो सकता। 4-रमणी के सतीत्व की तरह महत्त्व की रक्षा भी केवल अन्तरात्मा की शुद्धि से ही की जा सकती है। 5-महान पुरुषों में समुचित साधनों को उपयोग में लाने और ऐसे कार्यों के सम्पादन करने की शक्ति होती है कि जो दूसरों के लिए असाध्य होते हैं। 6-छोटे आदमियों के बीज का ही यह विशेष दोष है कि जो वे महान पुरुषों की प्रतिष्ठा, उनकी कृपादृष्टि और अनुग्रह को प्राप्त करने की चेष्टा नहीं करते। 7-ओछी प्रकृति के आदमियों के हाथ यदि कहीं कोई सम्पत्ति लग जाय तो फिर उनके इतराने की कोई सीमा ही न रहेगी। 8-महत्ता सर्वथा ही विनयशील और आडम्बर रहित होती है, परन्तु क्षुद्रता सारे संसार में अपने गुणों का दिढोरा पीटती फिरती है। 9-महत्ता सदैव अपने से छोटों के प्रति भी सदय और नम्र व्यवहार ही करती है, परन्तु क्षुद्रता को तो घमण्ड की मूर्ति ही समझो। । 10-बड़प्पन सदैव ही दूसरों के दोषों को देंकने के यत्न में रहता है. पर ओछापन दूसरों के दोषों को खोजने के सिवाय और कुछ करमा ही जानता। ......-.. -..- ... - -.--...- - 1305 A E .. ... Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुबत्य काव्य परपरिच्छेदः ११ योग्यता ईप्सित, जिसको योग्यता, देख वृहत्तर कार्य । वे उसके कर्तव्य में, जो दें गुण का कार्य ।।१।। . सभ्यों का सौन्दर्य है, उनका पुण्य-चरित्र । रूप जिसे कुछभी अधिक, करता नहीं विचित्र ।।२।। सब से उत्तम प्रोति हो, सब से सद्व्यवहार । आच्छादन पर-दोष का, लज्जा उच्च उदार ।। पक्ष सदा हो सत्य का, सब गुण हो निर्दम्भ । सदाचार के पाँच ही, ये होते हैं स्तम्भ ||३||(युग्म) ऋषियों को ज्यों धर्म है, करना करुणा-भाव । भद्रों का त्यों धर्म है, तजना निन्दक-भाव ११४।। लघुता और विनम्रता, सबल शक्ति असमान । शत्रुविजय में भद्र को, ये हैं कवच-समान ।।५।। जाँचन को नर योग्यता, यही कसौटी एक । लघु का भी आदर जहाँ, होता सहित विवेकः ।।६।। बढ़ी चढ़ी भी योग्यता, दिखती तब है व्यर्थ । सभ्य नहीं वर्ताव जब, वैरी के भी अर्थ ।।७।। निर्धनता के दोष से, होते सब गुण मन्द । फिर भी शुभ आचार से, बढ़ता गौरवकन्द ।।८।। त्यागें नहीं सुमार्ग जो, पाकर विपदा-कार्य । सीमा हैं योग्यत्व की, प्रलयावधि वे आर्य ।।६।। भद्रपुरुष जब त्याग दें, हा हा भद्राचार । तब ही मानव-जाति का, धरिणी सहे न भार ।। १०।। ... ... ... 300 ... ... . Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फुरल काव्य परिच्छेदः ९९ योग्यता 1- जो लोग अपने कर्तव्य को जानते हैं और अपनी योग्यता बढ़ाना चाहते हैं उनकी दृष्टि में सभी सत्कृत्य कर्तव्य स्वरूप हैं। 2 -- लायक लोगों के आचरण की सुन्दरता ही वास्तविक सुन्दरता है, शारीरिक सुन्दरता उसमें कुछ भी अभिवृद्धि नहीं करती। 3 - सार्वजनिक प्रेम, सलज्जता का भाव, सबके प्रति सद्व्यवहार, दूसरों के दोषों को ढाँकना और सत्य-प्रियता, ये पाँच शुभाचरण रूपी भवन के आधार स्तम्भ हैं । 4 - सन्त लोगों धर्म है अहिंसा पर योग्य पुरुषों का धर्म है पर निचा से परहेज करना । 5- नम्रता बलवानों की शक्ति है और वह वैरियों का सामना करने के लिए सदगृहस्थ को कवच का काम भी देती है । 6- योग्यता की कसौटी क्या है ? यही कि दूसरों में जो बड़प्पन और श्रेष्ठता है उसको स्वीकार कर लिया जाय, फिर चाहे वह श्रेष्ठता ऐसे ही लोगों में क्यों न हो जो कि तुमसे अन्य बातों में हीन हों । 7- लायक पुरुष की लायकी तब किस काम की जबकि वह अपने को क्षति पहुँचाने वालों के साथ भी सद्वर्ताय नहीं करता ? B - निर्धनता मनुष्य के लिए अपमान का कारण नहीं हो सकती यदि उसके पास वह सम्पत्ति विद्यमान हो कि जिसे लोग सदाचार कहते हैं। 9. जो लोग सन्मार्ग से कभी विचलित नहीं होते, चाहे प्रलय काल में और सब कुछ बदलकर इधर का उधर हो जाय पर वे योग्यता रूपी समुद्र की सीमा ही रहेंगे। 10- निस्सन्देह स्वयं धरती भी मनुष्य के जीवन का बोझ न सम्भाल सकेगी यदि लायक लोग अपनी लायकी को छोड़कर पतित हो जावें । 307 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरम काव्य परिच्छेदः १०० सभ्यता प्रायः हँसमुख लोक में, होते ये ही लोग । मिलें हृदय को खोल जो बोलें मिष्ट प्रयोग || १ || ज्ञानमूल संस्कार हो, मन हो करुणागार । तब दोनों के मेल से उपजें हर्ष - विचार ||२|| आकृति के ही साम्य को, प्राज्ञ न माने साम्य । भाव तथा आचार का होता सच्चा साम्य || ३ || धर्म तथा शुभनीति से, जो करता उपकार । उसके पुण्यस्वभाव के, सब ही श्लाघाकार ||४|| कटुक वचन छेदे हृदय, जो भी हो परिहास । अरि से भी तब शब्द वे, कहो न जो दें त्रास ||५|| जगत सुखी निर्द्वन्द यदि, कारण आर्य निवास 1 दया शान्ति का अन्यथा, क्या होवे आभास ||६|| नहीं विज्ञ भी श्रेष्ठ है, यदि आचार विहीन । काष्ठदण्ड से तीक्ष्ण भी, रेती रण में क्षीण ||७|| गर्हित है सर्वत्र ही, अविनय की तो बात । अन्यायी या शत्रु में, हो प्रयुक्त भी तात ॥ ८ ॥ जिसका मुख मुसकान से, खिले नहीं इस लोक । दिन में भी हतभाग्य वह, देखे तम ही शोक || ६ || ज्यों ही मलिन कुपात्र में, पय होता बेकाम । त्यों ही दुर्जन गेहमें, वैभव बड़ा निकाम ||१०|| 308 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा कुबल काध्य र परिच्छेदः 900 सभ्यता -कहते है मिलनसार प्राः, न सोगों में पायी जाती है कि जो खुले हृदय से सब लोगों का स्वागत करते हैं। 2-करुणाबुद्धि और शुभ संस्कारों के मेल से ही मनुष्य में प्रसन्न प्रकृति उत्पन्न होती है। 3-शारीरिक आकृति तथा मुखमुद्रा के मिलान से ही मनुष्यों में सादृश्य नहीं होता, बल्कि सच्चा सादृश्य तो आचार-विचार की अभिन्नता पर निर्भर है। 4-जो लोग न्याय-निष्ठा और धर्म-पालन के द्वारा अपना तथा दूसरों का भला करते हैं संसार उनके स्वभाव का बड़ा आदर करता है। 5-हास्य-परिहास में भी कटुबचन मनुष्य के मन में लग जाते हैं, इसलिए सुपात्र पुरुष अपने चैरियों के साथ भी असभ्यता से नहीं बोलते। 6-सुसंस्कृत मनुष्यों के अस्तित्व के कारण ही जगत के सब कार्य निन्दरूप से चल रहे हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं, यदि ये आर्य पुरुष न होते तो यह अक्षुण्य-साम्य और स्वास्थ्य मृतप्राय होकर धूल में मिल जाता। 7-रेती तीक्ष्ण भी हो पर वह युद्ध में लाठी से बढ़कर नहीं हो सकती, ठीक इसी प्रकार आचरणहीन मनुष्य विद्वान भी हो फिर भी वह सदाचारी से बढ़कर नहीं। 8-अविनय मनुष्य को शोभा नहीं देती चाहे अन्यायी और विपक्षी पुरुष के प्रति ही उसका व्यवहार क्यों न हो। --जो लोग मन से प्रसन्न नहीं हो सकते, उन्हें इस विशाल लम्बे चौड़े ससार में, दिन के समय भी अन्धकार के सिवाय और कुछ दिखाई न देगा। - 10---निकृष्ट प्रकृति पुरुष के हाथमें जो सम्पत्ति होती है वह उस दूध के समान है जो अशुद्ध, मैले वर्तन में रखने से बिगड़ गया हो। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी कुल काव्य पर परिच्छेदः १०१ पिण्यायोगी पल खाय न खचे एक छदाम । तृष्णा छाई आठों याम । रक्खा यद्यपि अधिक निधान । मूजी मुर्दा एक समान ।।१।। धन ही भू में सब कुछ सार । करके ऐसा अटल विचार । लोभी जोड़े द्रव्य महान । राक्षस होवे तजकर प्राण ।।२।। जिसको धनमें अति अनुराग । यश में रहता किन्तु विराग । उसका जीवन है निस्सार । दुःखद उसका भू को भार ।।३।। पायी नहीं पड़ोसी प्रीति । कारण वर्ती नहीं सुरीति । फिर क्या आशा रखते तात । छोड़ सको जो निज पश्चात्।।४।। नहीं किसी को देवे दान । और न भोगे आप निधान । सचमुच वह है रंक खवीश । चाहे होवे कोटि अधीश ।।५।। भू में ऐसे भी कुछ लोग । वैभव का जो करें न भोग । और न देखें पर को दान । लक्ष्मी को वे रोग समान ।।६।। उचित पात्र को उचित न दान । तो धन होता ऐसा मान । सुभग सलौनी तरुणीरूप । बन में खोती आप जनूप ।।७।। कौन अर्थ का वह है कोष । नहीं गुणी को जिससे तोष । दुर्गुण की है एक खदान । ग्राम वृक्ष वह विष फलवान ।।८।। नहीं विचारा धर्माधर्म । काटा पेट हुए बेशर्म । जोड़ा वैभव विपदा धाम । आता सदा पराये काम ।।६।। दान से खाली जो भण्डार । निधि का बनता वही अगार । वर्षा से जो रीता मेघ । वह ही भरता फिर से मेघ ।। १०।। -310 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्लुरल काव्य परिच्छेदः १09 निरूपयोगी धन 1- जिस आदमी ने अपने घरमें ढेर की ढेर सम्पति जमा कर रक्खी है पर उसे उपयोग में नहीं लाता उसमें और मुर्दे में कोई अन्तर नही है, क्योंकि वह उससे कोई लाभ नहीं उठाता हैं ! 2- यह कंजूस आदमी जो समझता है कि धन ही संसार में सब कुछ है और इसलिए बिना किसी को कुछ दिये ही उसे जमा करता है वह अगले जन्म में राक्षस होगा । 3- जो लोग धन के लिए सदा ही हाय हाय करते फिरते हैं पर यशोपार्जन करने की परवाह नहीं करते उनका अस्तित्व पृथ्वी के लिए केवल भार स्वरूप है । 4- जो मनुष्य अपने पडोसियों के प्रेम को प्राप्त करने की चेष्टा नहीं करता वह मरने के पश्चात् अपने पीछे कौन सी वस्तु छोड़ जाने की आशा रखता है 5- जो लोग न तो दूसरों को देते हैं और न स्वयं ही अपने धन का उपभोग करते हैं वे यदि करोडपति भी हों तब भी वास्तव में उनके पास कुछ भी नहीं है। 6. संसार में ऐसे भी कुछ आदमी हैं जो धन को न तो स्वयं भोगते हैं और उदारता पूर्वक योग्य पुरुषों को प्रदान करते हैं, वे अपनी सम्पत्ति के लिए रोग स्वरूप है। 7 ... जो धनिक आवश्यकता वाले को दान देकर उसकी आवश्यकता को पूर्ण नहीं करता उसकी स्मति उस लावण्यमयी ललना के समान है जो अपने यौवन को एकान्त निर्जन स्थान में व्यर्थ गँवाये देती है। B- उस आदमी की सम्पत्ति, कि जिसे लोग प्यार नहीं करते गाँव के बीचों बीच किसी विष-वृक्ष के फलने के सम्मान है : 9- धर्माधर्म का विचार न रखकर और अपने को भूखों मार कर जो धन जमा किया जाता है वह केवल दूसरों के ही काम में आता है । 10-- उस धनवान मनुष्य की क्षीणस्थिति कि जिसने दान दे देकर अपने खजाने को खाली कर डाला है, और कुछ नहीं, केवल जल वर्षाने वाले बादलों के खाली हो जाने के समान है। यह स्थिति अधिक समय तक न रहेगी ! W 311 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा कुबल काव्य और परिच्छेदः १०२ लज्जाशीलता होती लज्जा चूक से, भद्रों को सब ठौर । नारी लज्जा और है, यह लज्जा कुछ और ।।। १। अन्न वस्त्र सन्तान में, सब ही मानव एक । करती लज्जा किन्तु है, उनमें भेद अनेक ।।२।। यद्याप सारी देह में, प्राषों का आवास . लज्जा में नर योग्यता, करती किन्तु निवास ।।३।। लज्जा की शुभभावना, निधि है रत्न समान । ऐंठ भरे निर्लज्ज को, देखत कष्ट महान ।।४।। अन्य अनादर देख जो, लज्जित आत्म समान । शील तथा संकोच की, वह है मूर्ति महान ।।५।। मिलता यदि है राज्य भी, करके निन्दित काम । नहीं करें फिर उसे, कीर्तिप्रिया के श्याम ।।६।। बचने को अपमान से, तजते तन भी आर्य ।। डाल विपद में प्राण भी, तजें न लज्जा आर्य ॥७॥ लज्जित जिससे अन्य घर, जिसे न उसमें छेव । लज्जित होती भद्रता, देख उसे स्वयमेव ।।८।। भूले कुल आधार तो, कुल से होता भ्रष्ट 1 लज्जा यदि हो नष्ट तो, सब ही सुगुण विनष्ट ।।६।। निकल गये जिस आँख से, लज्जा जीवन प्राण । कठपुतली के तुल्य वह, जीवन मरण समान ।।१०।। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ना कुबल काय परिच्छेदः १०२ लज्जाशीलता 1--योग्य पुरुओं का ल्जान्दा उन कामों के लिए होता है कि जो उनके अयोग्य होते हैं, इसलिए वह सुन्दरी स्त्रियों की लज्जा से सर्वथा 2. आहार, वस्त्र और सन्तान इन चारतों में तो सभी मनुष्य समा। हैं. यह तो एक लज्जा की ही गावना है जिससे मनुष्य मनुष्य में अन्तर पगट होता है। 3-शरीर तो समसा प्राणों का निवास स्थान है, पर यह सालिक लज्जा' है जिसमें लायकी और योग्यता वास करती है। 4-लज्जापीलता त्या लायक लोगों के लिए रत्न के रामान नहीं हैं और जाब वह उसरो रहित होता है तब उसकी शेखी और ऐंल या देखने वाली आंख को पीड़ा पहुँचाने वाली नहीं होती ? 5 जो लोग दूसरों का अपमान देखकर भी उतने ही लज्जित होते हैं जितने कि स्वयं अपने अपमान से, उन्हें तो लोग 'लज्जा और संकोच की मूर्ति ही समझेंगे। ऐसे साधों के सिदाय कि जिनसे उन्हें लज्जित न होना बसे अन्य साधनों केलारा. लायक लोग राज्य तक पाने के लिए नाहीं कर देगे। 7--जिन लोगों में लज्ज: की सुकामल मानना है में अपने को अपमान से पाने के लिए अपनी जान तक दे देंगे और प्राणों पर आ बनने घर भी लज्जा को नहीं त्यागेंगे। 8. यदि कोई आदमी उन बातों से लज्जित नहीं होता है कि जिनसे दूसरों को नndi आती है, तो उसे देखकर भद्रता भी शरमा जायेगी 9ी भूल जाने से मनुष्य केवल अपने कुल से ही भ्रषः होता है. लेकिन जब वह लज्जा को भूल कर निर्लज्ज हो जाता है तब सब प्रकार को मालाईयाँ उसे छोड़ देती हैं। 10--जिन लोगो की आँख क, पानी मर गया है ये जीवित होकर भी मरे के समान हैं। डोरी के द्वार चलने डाली कठपुतलियों की तरह उनमें भी एक प्रकार का कृत्रिम जीवन ही होता है। 313 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुबल काव्य घर परिच्छेदः 903 कुलोन्जति नहीं थकूँगा हाथ से, करके श्रम दिन-रात । नर का यह संकल्प ही, कुल का पुण्य-प्रभात ।। १।। पूर्ण कुशल सद्बुद्धि हो, श्रम हो पौरुषरूप । वंश समुन्नति के लिए, दो ही हेतु स्वरूप ।।२।। वंशोन्नति के अर्थ जब, नर होता सद्ध । उसके आगे देव तब, चलते हो कटिवद्ध ।।३।। उच्चदशा पर वंश हो, ऐसा मन में ठान । उठारखे नहिं शेष जो, बनकर उद्यमवान ।। श्रेष्ठमनस्वी वीर वह, कृति उसकी गुणवान । चाहे यद्यपि अल्प हो, तो भी सिद्धि महान ।।४।।(युग्म) वंशोन्नति का हेतु है, जिसका पुण्य चरित्र । सदा मान्य वह उच्चनर, उसका जग है मित्र ।।५।। धन में बल में ज्ञान में, कुल पावे उच्चार्थ । नर के जिस ही यत्न से, सत्य वही पुरुषार्थ ॥६॥ ज्यों पड़ते हैं वीर पर, रण में रिपु के बार । त्यों ही आता लोक में, कर्मठ पर कुलभार ॥७॥ उन्नति-रागी को सभी, भले लगें दिन-रात । चूक करे से अन्यथा, होता वंश-विधात ॥ कुलपालक की काय लख, उठता एक विचार । विपदा या श्रम अर्थ क्या, दैव रचा आकार ।।६।। जिस घर का उत्तम नहीं, रक्षक पालनहार । जड़ पर विपदा-चक्र पड़, मिटता वह परिवार ।। १०।। .....---.-.... .-314).......... .. Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः 903 कुलोम्मति 1 - मनुष्य की यह प्रतिज्ञा कि "मैं अपने हाथों से मेहनत करने में कभी न थकूँगा ।" उसके परिवार की उन्नति में जितनी सहायक होती है उतनी और कोई वस्तु नहीं । 2- श्रम भरा हुआ पुरुषार्थ और कार्यकुशल सदबुद्धि इन दोनों की परिपक्वपूर्णता ही परिवार को ऊँचा उठाती है। 3- जब कोई मनुष्य यह कहकर काम करने पर उतारू होता है कि मैं अपने कुल की उन्नति करूँगा तो स्वयं देवता लोग अपनी अपनी कमर कसकर उसके आगे आगे चलते हैं। 4- जो लोग अपने कुटुम्ब को ऊँचा उठाने में कुछ उठा नहीं रखते वे इसके लिए यदि कोई सुविस्तृत युक्ति न भी निकालें तो भी उनके हाथ से किये हुए काम में सिद्धि होगी। 5- जो आदमी बिना किसी अनाचार के अपने कुल को उन्नत बनाता है, सारा जगत उसको अपना मित्र समझेगा। 6- पुरुष का सच्चा पुरुषत्व तो इसी में है कि जिसमें उसने जन्म लिया है उस वंश को धन में बल में और ज्ञान में ऊँचा बनादे । 7- जिस प्रकार युद्धक्षेत्र में आक्रमण का प्रकोप शूरवीर पर पड़ता है ठीक इसी तरह परिवार के पालन-पोषण का भार उन्हीं कन्धों पर आता है कि जो उसके बोझ को सम्भाल सकते हैं। 8- जो लोग अपने कुल की उन्नति करना चाहते हैं उनके लिए कोई समय बे समय नहीं है और यदि वे असावधानी से काम लेंगे तथा अपनी झूठी शान पर अड़े रहेंगे तो उनके कुटुम्ब को नीचा देखना पड़ेगा। 9- क्या सचमुच उस आदमी का शरीर कि जो अपने परिवार को हर प्रकार की विपत्ति से बचाना चाहता है, सर्वथा परिश्रम और कष्टों के लिए ही बना है ? 10- जिस घर में सम्भालने वाला कोई योग्य आदमी नहीं है. आपत्तियाँ उसकी जड़ को काट डालेंगी और वह मिट्टी में मिल जायेगा । 315 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ f, कुभल काव्य र परिच्छेदः १०४ खेती रहे मनुज मू में कहीं, उसे अपेक्षित अन्न । वह मिलता कृषि से अतः, कृषि रखिए आसत्र ।।१।। देशरूप रथ के धुरा, कृषकवर्ग ही ख्यात । - कारण पलते अन्य सब, उनसे ही दिन-रात ।।।। उनका जीवन सत्य जो, करते कृषि उद्योग । और कमाई अन्य की, खाते बाकी लोग ।।३।। सोते साखा छाँह में, खेत जहाँ सर्वत्र । उस जनपद के छत्र को, झुकते सब ही छ्त्र ।।४।। कृषि जीवी के भाग्य पर, लिखा न भिक्षावेथ । यह ही क्यों वह दान भी, देता बिना निषेध ॥५॥ निजकर को यदि खींचले, कृषि से कृषक समाज । ___ गृहत्यागी तब साधु तक, टूटे शिर पर गाज ।।६।। आर्द्रभूमि के धूप में, शुष्क करो बहु अंश । खाद बिना उपजाऊ हो, बच कर चौधा अंश ।।७।। __जोतो नीदो खेत को, खाद बड़ा पर तत्व । सींचे से रक्षा उचित, रखती अधिक महत्व ।।८।। नहीं देखता भालता, कृषि को रह कर गेह । गृहिणी सम तब रूठती, कृषि भी कृश कर देह ।।६।। खाने को कुछ भी नहीं, यो जो करे विलाप । हँसती उस मतिमन्द पर, धरिणी-लक्ष्मी आप ।।१०।। (316)- - - Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुनाल काव्य - पदिन्द्ध : g. खेती 1-आदमी जहाँ चाहे घूमें, पर अन्त में अपने भोजन के लिए उसे हान का सहारा लेना ही पड़ेगा। इसलिए हर तरह की सस्ती होने पर भी कृर्षि सर्वोत्तम उद्यग है। 2-किसान लोग देश के लिए धुरी के समान हैं, क्योंकि जोतने खोदने की शक्ति न होने के कारण जो लोग दूसरे काम करने लगते हैं उनको रोजी देने वाले वे ही लोग हैं। 3-जो लोग हल के सहारे जीते हैं वास्तव में वे ही जीते हैं और सब लोग तो दूसरे की कमाई हुई रोटी खाते हैं। 4-जहाँ के खेत लहलहाती हुई शस्य की श्यामल छाया के नीचे सोया करते हैं वहाँ के राजा के छत्र के सामने अन्य राजाओं के छत्र झुक जाते हैं। 5-जो लोग खेती करके जीविका चलाते हैं, वे केवल यही नहीं, कि स्वयं कभी भीख न माँगेंगे. बल्कि दूसरे भीख माँगने वालो को कभी नाहीं किये बिना दान भी दे सकेंगे। 6-किसान यदि खेती से अपने हाथ को रवींच लेवें तो उन लोगों को भी कष्ट हुए बिना ना रहेगा कि जिन्होंने समस्त वासनाओं का परित्याग कर दिया है। 7-यदि तुम अपने खेत की धरती को इतना सुखाओं कि एक सेर मिट्टी सूखकर चौथाई अंश रह जाय तो मुट्ठी भर खाद की भी आवश्यकता न होगी और फसल की पैदावार भरपूर होगी। -जोतने की अपेक्षा खाद डालने से अधिक लाभ होता है और जब निदाई हो जाती है तो सिचाई की अपेक्षा रखवाली अधिक महत्व रखती है। -यदि कोई आदमी खेत देखने नहीं जाता है और अपने घरपर ही दैत- रहता है तो पतिव्रता परनी की तरह उसकी कृषि भी रुष्ट हो जायेगी। 10-ग्रह सुन्दरी जिसे लोग धरिणी कहते हैं, अपने मन ही मन में हैंसा करती है जबकि वह किसी काहिल को ग्रह कह रोते हुए देखती है कि "हाय मेरे पास खो को कुछ भी नहीं है।" --- - -- 317 --- --- Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कुभल काव्य शुर-- परिच्छेदः १०५ दरिद्रता निर्धनता से अन्य क्या, बढ़कर दुःखद वस्तु । तो सुनलो दारिद्र ही, सबसे दुःखद वस्तु ।। ११ इसभव के सब हर्ष ज्यों, हरता शठ दारिद्र । पर भव के भी भोग त्यों, हनता है दारिद्र ।।२।। तृष्णाभरी दरिद्रता, सचमुच बड़ी बलाय । वाणी कुल की उच्चता, हनती क्षण में हाय ।।३।। हीनदशा नर को अहो, देती कष्ट महान 1 बोले वंशज हीन सम, तजकर कुल की आन ।।४।। सचमुच है दारिद्र भी, विधि का ही अभिशाप । छिपे हजारों हैं जहाँ, विपदामय सन्ताप ।।५।। निर्धन जनके श्रेष्ठ भी, गुण हैं कीर्तिविहीन । प्रवचन भी रुचता नहीं, उसका गुण से भीन ।।६।। पहिले ही धनहीन हो, साथ धर्म की हानि ।। उसकी जननी ही उसे, करती मन से म्लानि ।।७।। क्या मुझ से दारिद्र तू, आज न होगा दूर । अर्थमृतक सम था किया, कल ही तो हे क्रूर ।।८।। तपे हुए भी शूल हों, उनपर सम्भव नींद ।। निर्धन को सम्भव नहीं, आनी सुख की नींद ।।६।। नहीं रंकता नाश को, रंक करें उद्योग । अन्नादिक पर द्रव्य की, तो हत्या का योग ।।१०।। 318 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुबत्य काव्य र परिच्छेदः १०५ दरिद्रता 1.-क्या तुम जानना चाहते हो कि दरिद्रता से बढ़कर दुःखदायी वस्तु और क्या है ? तो सुना दरिद्रता ही दरिद्रता से बढ़कर दुःखदायी है। 2-सत्तानाशिन दरिद्रता इस जन्म के सुखों की तो शत्रु है ही पर साथ ही साथ दूसरे जन्म के सुखोपभोग की भी घातक है।। 3-ललचाती हुई कंगाली वंश-मर्यादा और उसकी श्रेष्ठता के साथ वाणी के माधुर्य तक की हत्या कर डालती है। 4-गरज, ऊँचे कुल के आदमियों तक की आन छुड़ाकर उन्हें अत्यन्त निकृष्ट और हीनदासता की भाषा बोलने के लिए विवश करती है। ___5-उस एक अभिशाप के नीचे कि "जिसे लोग दरिद्रता कहते हैं हजार तरह की आपत्तियों और उपद्रव छिपे हए हैं। -निर्धन आदमी, कुशलता और प्रौढ़ पाण्डित्य के साथ अगाध तत्त्वज्ञान की भी विवेचना करे तो भी उसके शब्दों की कोई कीमत नहीं होती। 7-एक तो कंगाल हो और फिर धर्म से शून्य, ऐसे अभागे दरिद्री से तो उसको जन्म देने वाली माता का भी मन फिर जायेगा। -क्या नादारी आज भी मेरा साथ न छोडेगी ? कल ही तो उसने मुझे अधमरा कर डाला था। 9-जलते हुए शूलों के बीच में सो जाना भले ही संभव हो पर निर्धनता की दशा में आँख का झापना भी असम्भव है। 10-गरीब लोग दरिद्रता से अपना पिण्ड छुड़ाने के लिए यदि उद्योग नहीं करते हैं तो इससे केवल दूसरों के भात. निमक पानी की ही मृत्यु होती है। (319) Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र जज, कुबल काव्य परिच्छेद: 90 भिक्षा माँगो उनसे तात तुम, जिनका उत्तम कोष । कभी बहाना वे करें, तो उनका ही दोष ।।१।। जो मिलती है भाग्यवश, बिना हुए अपमान । वह ही भिक्षा चित्त को, देती हर्ष महान ।।२।। जो जाने कर्तव्य को, नहीं बहानेबाज । ऐसे नर से मांगना, रखता शोभा-साज ।। ३.५ . जहाँ न होती स्वप्न में, विफल कभी भी भीख । कीर्ति बढ़े निज दान सम, लेकर उससे भीख ।।४।। भिक्षा से ही जीविका, करते लोग अनेक । कारण इसमें विश्व के, दानशूर ही एक ।।५।। नहीं कृपण जो दान को, वे है धन्य धुरीण । उनके दर्शन मात्रसे, दुःस्थिति होती क्षीण ।।६।। बिना झिड़क या क्रोध के, दें जो दया-निधान । याचक उनको देख कर, पाते हर्ष महान ।।७।। दानप्रवर्तक भिक्षुगण, जो न धरे अवतार । कठपुतली का नृत्य ही, तो होवे संसार ।।८।। भिक्षुकगण भी छोड़ दें, मिक्षा का यदि काम । तब वैभव औदार्य का, बसे कौन से धाम ||६|| भिक्षुक करे न रोष तब, जब दाता असमर्थ । कारण स्थिति एक सी, कहती नहीं समर्थ ।।१०।। (320) --- Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुलत्व काठ्य परपरिच्छेदः 906 भिक्षा 1-यदि तुम ऐसे साधन सम्पन्न व्यक्ति देखते हो कि जो तुम्हें दान दे सकते हैं तो तुम उनसे मांग सकते हो, यदि वे न देने का बहाना करते हैं, इसमें उनका दोष है तुम्हारा नहीं । 2. यदि तुम बिना किसी तिरस्कर के जो पाना चाहते हो वह पा सको तो मॉगना आनन्ददायी होता है। 3- जो लोग अपने कर्तव्य को समझते है और सहायता न देने का झूठा बहाना नहीं करते उनसे माँगना शोभनीय है। 4-जो मनुष्य स्वाला में भी किसी की याचना को अमान्य नहीं करता उस आदमी से माँगना उतना ही सम्मानपूर्ण है जितना कि स्वयं देना। 5-यदि हमारी, भीख को जीविका का साधन बनाकर निस्संकोच मांगते हैं तो इसका कारण यह है कि संसार में ऐसे मनुष्य हैं जो मुक्तहस्त होकर दान देने से विमुख नहीं होते। 6-जिन सज्जनों में दान देने के लिए क्षुद्र कृपणता नहीं है उनके दर्शन मात्र से ही दरिद्रता के सब दुःख दूर हो जाते हैं। -जो सज्जन याचक को बिना झिड़क या क्रोध के दान देते हैं उनसे मिलते ही गायक आनन्दित हो उठते हैं । 8-यदि दान धर्म प्रवर्तक याचक न हों तो इस सारे संसार का अर्थ का पुतली के नाच से अधिक नहीं होगा। -यदि इस संसर में कोई मॉगने वाला न हो तो उदारतापूर्वक दान देने की शान कहाँ रहेगी? ___ 10-याचक को चाहिए कि यदि दाता देने में असमर्थता प्रगट करता है तो उस पर क्रोध न करे, कारण कि उसकी आवश्यकताएं ही यह दिखाने के लिए पर्याप्त होनी चाहिए कि दूसरे की स्थिति उस जैसी ही हो सकती है। (321) Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुरल काव्य परिच्छेदः १०० भीख माँगने से भय भिक्षुक और अभिक्षु में, कोटि गुणा का फेर । हो वदान्य दाता भले, धन में पूर्ण कुवेर ||१|| नर होकर भिक्षा करे, ऐसा जिसको इष्ट । सृष्टि-विधाता वह मरे, भव में अमें अनिष्ट ||२|| निर्लज्जों में सत्य वह, सर्वाधिक निर्लज्ज । जो कहता मैं भीख से, करदूँ श्री को सज्ज ||३|| अतिनिर्धन होकर नहीं, याचे पर से द्रव्य । निज गौरव से धन्य वह, भू भी उसे अद्रव्य ||४|| निज कर के श्रम से मिले, भोजन बिना विषाद । पतला भी यह नीर सम, देता अति ही स्वाद ||५|| एक शब्द से याचना, है निन्दार्थ समर्थ । माँगों चाहे नीर भी, गौ के ही तुम अर्थ ||६|| भिक्षुकगण से एक मैं, माँगू भिक्षा प्रात । मत माँगो उनसे कभी, हीला जिनकी बात ॥७॥ दाता का हीला लगे, भिक्षुक का विषघूँट । मानो वाणीपोत ही, गया शिला से टूट ||८|| भिक्षुक - जन के भाग्य को, सोच कँपे यह जीव । और अवज्ञा देख फिर, मरता तात अतीव ॥६॥ कहाँ निषेधक के छिपे, क्या जाने ये प्राण मिलते ही धिक्कार पर निकलें याचक प्राण ।।१०।। 322 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - कुश्य काव्य परिच्छेन्दः १०७ भीख माँगने से भय 1-जो आदमी भीख नहीं माँगता वह भीख माँगने वाले से करोड गुना अच्छा है. फिर वह गाँगने वाला चाहे ऐसे ही आदमियों से क्यों न मोंगे कि जो बड़े उत्साह और प्रेम से दान देते हैं। 2--जिसने इस सृष्टि को पैदा किया है. यदि उसने यह निश्चय किया था कि मनुष्य भीख माँगकर भी जीवन निर्वाह करें तो वह भव सागर में मारा मारा फिरे और नष्ट हो जाये। . . . १-उस निर्लनता से बड़सर और कोई निर्लज्जता नहीं है कि जो यह कहती है कि मैं माँग माँग कर अपनी दरिद्रता का अन्त कर डालूँगी। 4-बलिहारी है उस आन की, कि जो नितान्त कंगाली की हालत मे भी किसी के सागर्ने हाथ फैलाने के लिए राम्मति नहीं देती। यह सार जगात उस महान मानव के रहने के लिए बहुत ही छोटा और अपर्याप्त है। 5-जो भोजन अपने परिश्रम से कमाया हुआ होता है, वह पानी की तरह पतला ही क्यों न हो, तब भी उससे बढ़कर स्वादिष्ट और कोई वस्तु नहीं हो सकती। 6-तुम चाहे गाय के लिए पानी ही क्यो न माँगो, फिर भी जिल्हा के लिए याचना सूचक शब्दों को सच्चारण करने से बढ़कर अपमान जानक बात और कोई नहीं है। -जा लोग गाँगते हैं उन सबसे मैं भी एक मिक्षा मांगता हूँ के यदि तुम्हें गौमा ही है तो उन लोगो से न भोंगो कि जो देने कि लिए हीला हवाला करते हैं। 8-याचना का अभागा जहाज उसी क्षण टूटकर टुकड़े टुकडे हो जायेगा कि जिस समय वह हीलासाजी की चट्टान से टकरायेगा ! 9-शिखारी के दुर्भाग्य का विचार करते ही हृदय कोंग रखता है परन्तु जब वह उन झिड़कियों पर गौर करता है कि जो भिखारी को सहनी पड़ती हैं तब तो लह मर ही जाता है। 10-मना करने वाले की जान उस समय कहाँ जाकर छिप जाती है कि जो वह "नाहीं कहता है ? भिखारी को जान तो झिड़को की आधारला सुनते ही तन से निकल जाती है। 323 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज, कुबल काव्य र परिच्छेदः १०८ क्षष्ट जीवन अहो पतित ये भ्रष्ट जन, नर से दिखें अनन्य । हमने ऐसा साम्य तो, कहीं न देखा अन्य ।।१।। __ आर्य विवेकी से अधिक, सुखयुत होते भ्रष्ट । कारण भानस-दुःख का, उन्हें न व्यापे कष्ट ।।२।। अहो जगत में भ्रष्ट भी, लगते ईश समान । रहें स्वशासित नित्य चे, इससे वैसा भान ।।३।। महादुष्ट जब अन्य में, देखें न्यून अधर्म । रना वह तन गर्व से. पाण. भरे निज कर्म ।।४।। भय से अथवा लोभ से, चलते दुष्ट सुमार्ग । चलते हैं वे अन्यथा, सदा अशुभ ही मार्ग ।।५।। अधम पुरुष पुर ढोल सम, खोलें पर की सैंन । बिना कहे पर भेद को, मिले न उनको कैन ।।६।। घूसे से मुख तोड़ दे, उसके वश में नीच । गूंठा कर भी अन्यथा, नहीं झटकता नीच ।।७।। एक वाक्य ही योग्य को, होता है पर्याप्त । गन्ने सम ही क्षुद्र दें, पीड़ित हो पर्याप्त ।।८। सुखी पड़ोसी देख खल, होता अधिक सरोष । लाता उसपर कोई सा, निन्दित भारी दोष ।। ६11 क्षुद्र मनुजपर आपदा, आजावे यदि टूट । तो आत्मा को शीघ्र ही, बेच करे निज छूट ॥१०।। 324 - .. Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो कुचल काठ्य पर परिच्छेदः 108 धष्ट जीवन 1-ये भ्रष्ट और पतित जीव मनुष्यों से कितने मिलते जुलते हैं हमने ऐसा पूर्ण सादृश्य और कहीं नहीं देखा / 2..शुद्ध अन्तःकरण वाले लोगोंसे ये हेयजीव कहीं अधिक सुखी हैं क्योंकि उन्हें मानसिक विकारों की धुवियों नहीं पहनी पड़र्स। 3-जगत में भ्रष्ट और पतित जन भी प्रत्यक्ष ईश्वरतुल्य हैं. कारण वे भी उसके समान ही स्वशासित अर्थात अपनी मर्जी के पावन्द होते हैं। 4-जब कोई दुष्ट मनुष्य ऐसे आदमी से मिलता है जो दुष्टता में उससे कम है तो वह अपने बड़े चढ़े दुष्कृत्यों का वर्णन उसके सामने बड़े मान से करता है। _____5-दुष्ट लोग केवल भय के मारे ही सन्मार्ग पर चलते हैं और या फिर इसलिए कि ऐसा करने से उन्हें कुछ लाभ की आशा हो। B–पतित जन ढिंढोरे के दोल के समान हैं क्योंकि उनको जो गुप्त बातें विश्वास रखकर बताई जाती हैं. उन्हें दूसरों में प्रगट किये बिना उनको चैन ही नहीं पड़ती। 7-नीच प्रकृति के आदमी उन लोगों के सिवाय कि जो घूसा मार कर उनका जबड़ा तोड़ सकते हैं, और किसी के आगे भोजन से सने हुए हाथ झटक देने में भी आना कानी करेंगे। ४-लायक लोगों के लिए तो केवल एक शब्द ही पर्याप्त है, पर नीचलोग गन्ने की तरह खूब कुटने पिटने पर ही देने को राजी होते हैं। १-दुष्ट मनुष्य ने अपने पड़ौसी को जरा खुशहाल और खाते-पीते देखा नहीं कि वह तुरन्त ही उसके चाल चलन में दोष निकालने 'लगता है। 10-क्षुद्र मनुष्य पर जब कोई आपत्ति आती हैं तो बस उसके लिए एक ही मार्ग खुला होता है और वह यह कि जितनी शीघ्रता से हो सके वह अपने आपको बेच डाले। (325