SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुरल काव्य परिच्छेदः ७ सन्तान बुद्धिविभूषित जन्म ले कुल में यदि सन्तान । उस समान हम मानते, अन्य नहीं वरदान || १ || निष्कलंक, आचाररत जिस नर की सन्तान । सात जन्म होता नहीं, वह नर अघ से म्लान || २ || नर की सभी सम्पदा, उसकी ही उतार पुण्य उदय से प्राप्त हो, ऐसा सुखद निधान ||३|| स्वर्ग सुधा सा मिष्ट है, सचमुच वह रसघोल । शिशु जिसको लघुहस्त से, देते मचा घोल ||४|| शिशु का अंगस्पर्श है, सुख का पूर्ण निधान । उसकी बोली तोतली, कर्णसुधा रसपान ||५|| मुरली ध्वनि में माधुरी, वीणा में बहु स्वाद । कहते यों, जिनने नहीं, सुना न निज शिशुनाद || ६ || सभा बीच वरपंक्ति में आदृत बने विशेष । संतति प्रति कर्तव्य यह, योग्य पिता का शेष ।।७।। अपने से भी बुद्धि में, बढ़ी देख सन्तान । होता है इस लोक में, सबको हर्ष महान् ||८|| , जननी को सुत - जन्म से होता हर्ष अपार । उमड़ पड़े सुखसिन्धु जब, सुनती कीर्ति अगार ||६|| पुत्र वही जिसको निरख, कहें जनक से लोग । किस तप से तुमको मिला, ऐसे सुत का योग ||१०|| 122
SR No.090260
Book TitleKural Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG R Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2001
Total Pages332
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy