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________________ ज, कुल काव्य रत परिच्छेदः ८५ अहंकारपूर्ण मूढ़ता सब से बड़ी दरिद्रता, विषय-दासता एक । मिट जासी धनहीनता, पाकर पन अनेक ।। स्वेच्छा से यदि मूढ़-नर, देता कुछ उपहार । अहोभाग्य तो पात्र का, समझो एक प्रकार ।।।। निज दोषों से मूर्खनर, लाते ऐसे कष्ट । अरि से भी दुःशक्य हैं, मिलने कैसे कष्ट ।।३।। जो नर निज को मानता, गर्वित हो मतिमान । सचमुच वह ही मूढ़ है, कहते यो धीमान ।।४।। ज्ञान, स्वयं-अज्ञात का, बतला कर यह मूढ़ । ज्ञात-विषय के ज्ञान में, करता प्रम आरूढ़ ।।५।। पटधारण से मूर्ख को, लाभ न होता खास । खुले हुये यदि दोषगण,करते मन में वास ।।६।। जो उथला, निजपेट में, सीमित कोई भेदरख न सके उस मूढ़ के, शिर पर सब ही खेद ।।७।। सुने नहीं समझे नहीं, जो जड़ हठ से नीति । व्यथित बन्धु उसके लिए, रखें निरन्तर भीति ।।८।। आत्म-विनिचित मार्ग ही, मूर्खदृष्टि में शुद्ध ।। फिर भी देता ज्ञान जो, वह है बुद्धि विरुद्ध ।।६।। सर्वमान्य भी वस्तु का, नहीं करे जो मान । पृथ्वीचारी भूत सा, होता है वह भान ।। १०॥ 37A....
SR No.090260
Book TitleKural Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG R Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2001
Total Pages332
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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