SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ------ -जा कुबल काव्य कुरल काव्य परिच्छेदः 85 अहंकारपूर्ण मूढ़ता ... 1-विषय दासता सबसे बड़ी गयी है और प्रकार की दरिद्रता को जगत दरिद्रता ही नहीं मानता है। 2-जब एक मुढ़ स्वेच्छापूर्वक कोई उपहार देता है तो वह लेने वाले का सौभाग्य है और कुछ नहीं। 3-मूढ़ आदमी स्वयं अपने शिर पर जैसी आपत्तियाँ लाता है वैसी उसके शत्रु भी नहीं पहुंचा सकते। 4-क्या तुम जानना चाहते हो कि बुद्धि का उथलापन किसे कहते हैं? बस उसी अहंकार को जिससे मनुष्य मनमें समझता है कि मैं बड़ा सयाना हूँ। 5.जो मूढ अज्ञात विषयों के ज्ञान का दिखावा करता है वह, ज्ञात विषयों के प्रति भी सन्देह उत्पन्न कर देता है। 6-मूद आदमी यदि अपने नंगे वदन को ढकता है तो इससे क्या लाभ ? जब कि उसके मन के एव ठेके हुये नहीं हैं। 7-बह ओछा व्यक्ति जो किसी भेद को अपने तक सीमित नहीं रख सकता यह अपने शिर पर बहुत सी आपत्तियों बुला लेता है। 8-जो आदमी न तो स्वयं भला बुरा पहिचानता है और न दूसरों की सलाह मानता है. वह जीवन भर अपने बन्धुओं के लिए दुःखदायी बना रहता है। -वह मनुष्य, जो कि मूर्ख की ऑखें खोलना चाहता है स्वयं मूर्ख है, क्योंकि मूर्ख केवल एक ही बाजू जानता है और वही उसकी समड़ा में सीधी और सच्ची है। ___10-वह भी एक मूर्ख है जो जगत मान्य वस्तु को मान्य नहीं मानता वह संसार के लिए एक पिशाच है। (279)
SR No.090260
Book TitleKural Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG R Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2001
Total Pages332
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy