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________________ जकुबल काव्य चार परिकलेदः १ आलस्य-त्याग देखो है आलस्य भी, दूषित वायु प्रचण्ड । झोके से नृपवंश की, बुझती ज्योति अखण्ड ।।१।। कहने दो तुम आलसी, पर परख तजो स्त्यान । निज का और स्ववंश का, यदि चाहो उत्थान ।।२।। हत्यारे आलस्य की, जिस के मन में प्यास । देखेगा मतिमन्द वह, जीवित ही कुलनाश ।।३।। जिनके कर आलस्य से, करें न उन्नति-कार्य । क्षीणगृही बन भोगते, वे संकट अनिवार्य ।।४।। विस्मृति, निद्रा काल का यापन, ढील अपार । होती ये हतभाग्य की, उत्सव नौका चार ।।५।। नहीं समुन्नति साध्य है, नर को जब आलस्य । राजकृपा भी प्राप्त कर,भू में वह उपहास्य।।६।। करें न जिन के हाथ कुछ, उन्नति के व्यापार । सहते वे नर आलसी, नित्य घृणा धिक्कार ।।७।। जो कुटुम्ब आलस्य का, यहाँ बने आवास । शत्रुकरों में शीघ्र वह, पड़ता बिना प्रयास ।।८।। अहो मनुज आलस्यमय, त्यागे जब ही पाप । । आते संकट क्रूर भी, ठिटक जायें तब आप ।।६।। कर्मलीन हो भूप यदि, करे न रंच प्रमाद । छत्रतले वसुधा बसे, नपी त्रिविक्रम पाद 11१०|| 230;
SR No.090260
Book TitleKural Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG R Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2001
Total Pages332
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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