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________________ कुरल काव्य परिच्छेदः 10 उत्साह उत्साही नर ही सदा, हैं सच्चे धनवान | अन्य नहीं निजवित्त के, स्वामी गौरववान ||१ सच्चा कल इस विश्व में, काही उत्साह | अस्थिर वैभव अन्य सब बहते काल - प्रवाह ||२|| सायन जिनके हाथ में, है अटूट उत्साह 1 क्या, निराश हों, धन्य वे भरते दुःखद आह || ३ || , 7 श्रम से भगे न दूर जो देख विपुल आयास । खोज सदन उस धन्य का, करता भाग्य निवास || ४ || तरुलक्ष्मी की साख ज्यों देता नीर प्रवाह । भाग्यश्री की सूचना, देता त्यों उत्साह ||५|| लक्ष्य सदा ऊँचा रखो, यह ही चतुर सुनीति । सिद्धि नहीं जोभी मिले तो भी मलिन न कीर्ति । ॥ ६ ॥ हतोत्साह होता नहीं, हारचुका भी वीर । पैर जमाता और भी, गज खा तीखे तीर ॥७॥ - हो जावे उत्साह ही, जिसका क्रम से मन्द । उस नर के क्या भाग्य में, वैभव का आनन्द || सिंह देख गजराज का, जब मन ही मरजाय । कौन काम के दन्त तब, और बृहत्तर - काय ||६ है अपार उत्साह ही, भू, में शक्ति महान । हैं पशु ही उसके बिना, आकृति में असमान ||१०|| 228 F 1 'i
SR No.090260
Book TitleKural Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG R Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2001
Total Pages332
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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