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________________ जा कुबल काव्य । परिच्छेदः १२ न्यायशीलता न्यायनिष्ठ का चिन्ह यह, हो निष्पक्ष उदार । जिसका जिसको भाग दे, शत्रु मित्र सम धार ।।१।। न्यायनिष्ठ की सम्पदा, कभी न होती क्षीण । वंश-क्रम से दूर तक, चली जाय अक्षीण ।।२।। मत लो वह धन मूल से, जिसमें नीति-द्वेष । । हानि बिना उससे भले, होवें लाभ अशेष ।।३।। न्यायी या नयहीन की, करनी हो पहिचान । तो जाकर बुध देख लो, उसकी ही सन्तान ।।४।। स्तुति-निन्दा-द्वय से भरे, सब ही जीव समान । पर नयज्ञ मनका अहो, है अपूर्व ही मान ।।५॥ ___ नीति छोड़ मन दौड़ता, यदि कुमार्ग की ओर । तो समझो आया निकट, सर्वनाश ही घोर ।।६।। न्यायी यदि दुर्दैव से, हो जावे धनहीन । पर उसकी होती नहीं, कभी प्रतिष्टा क्षीण ।।७।। तुलादण्ड सीधा तथा, है सच्चा जिस रीति । हो ऐसी ही न्याय के, अधिकारी की नीति ।।।। जिसका मन भी. नीति से, डिगे न खाकर चोट । नित्य-सत्य बोलें वचन, उस न्यायी के ओठ ५६।। जो करता परकार्य भी, अपने कार्य समान । धन्य गृही, वह कार्य में, पाता सिद्धि महान् ।। १०।। 132
SR No.090260
Book TitleKural Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG R Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2001
Total Pages332
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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