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________________ जा कुबल काध्य र परिच्छेदः 900 सभ्यता -कहते है मिलनसार प्राः, न सोगों में पायी जाती है कि जो खुले हृदय से सब लोगों का स्वागत करते हैं। 2-करुणाबुद्धि और शुभ संस्कारों के मेल से ही मनुष्य में प्रसन्न प्रकृति उत्पन्न होती है। 3-शारीरिक आकृति तथा मुखमुद्रा के मिलान से ही मनुष्यों में सादृश्य नहीं होता, बल्कि सच्चा सादृश्य तो आचार-विचार की अभिन्नता पर निर्भर है। 4-जो लोग न्याय-निष्ठा और धर्म-पालन के द्वारा अपना तथा दूसरों का भला करते हैं संसार उनके स्वभाव का बड़ा आदर करता है। 5-हास्य-परिहास में भी कटुबचन मनुष्य के मन में लग जाते हैं, इसलिए सुपात्र पुरुष अपने चैरियों के साथ भी असभ्यता से नहीं बोलते। 6-सुसंस्कृत मनुष्यों के अस्तित्व के कारण ही जगत के सब कार्य निन्दरूप से चल रहे हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं, यदि ये आर्य पुरुष न होते तो यह अक्षुण्य-साम्य और स्वास्थ्य मृतप्राय होकर धूल में मिल जाता। 7-रेती तीक्ष्ण भी हो पर वह युद्ध में लाठी से बढ़कर नहीं हो सकती, ठीक इसी प्रकार आचरणहीन मनुष्य विद्वान भी हो फिर भी वह सदाचारी से बढ़कर नहीं। 8-अविनय मनुष्य को शोभा नहीं देती चाहे अन्यायी और विपक्षी पुरुष के प्रति ही उसका व्यवहार क्यों न हो। --जो लोग मन से प्रसन्न नहीं हो सकते, उन्हें इस विशाल लम्बे चौड़े ससार में, दिन के समय भी अन्धकार के सिवाय और कुछ दिखाई न देगा। - 10---निकृष्ट प्रकृति पुरुष के हाथमें जो सम्पत्ति होती है वह उस दूध के समान है जो अशुद्ध, मैले वर्तन में रखने से बिगड़ गया हो।
SR No.090260
Book TitleKural Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG R Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2001
Total Pages332
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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