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कुल काव्य पर परिच्छेदः १५
परस्त्री त्याग धर्म तथा धन से अहो, जिसको है अनुराग । करे नहीं वह भूलकर, पर-नारी से राग ॥१॥
पापबुद्धि से मूर्ख ही, तके पड़ौसी-द्वार ।
पतितों में वह अग्रणी, अधों का सरदार ।।२।। निर्धम मित्रों के यहाँ, जो करते हैं घात । वे कामी बस मृत्यु के, मुख में ही साक्षात ।।३।।
कैसे वह नर श्रेष्ठ है, जो करता व्यभिचार ।
लज्जा जैसी वस्तु भी. तज देता जब जार ।।४।। गले लगाता कामवश, बैठाकर निज अंक। सुलभ पड़ौसिन को, मनुज लेता नाम कलंक ।।५।।
छुटकारा पाता नहीं, इन चारों से जार ।
घृणा पाप के साथ में, प्रान्ति कलंक अपार ।।६॥|| रूप तथा लावण्यमय, देख पड़ौसिन अंग । होता जिसे विराग है, वही गृही अव्यंग ।।७।।
धन्य पुरुष जो शील में, है पूरा श्रीमन्त ।
केवल धर्मी ही नहीं, भूतल में वह सन्त ।। ८11 पर-रमणी मेंटे न जो, डाल गले भुजपाश । भूभर के वह पुण्य सब, भोगे नृप संकाश ।। ६11
और पाप को त्याग तू, चाहे मत भी त्याग । जो चाहे सुश्रेय तू, त्याग पड़ौसिन राग ।।१०।।
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