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________________ काव्य ज, कुन काव्य र परिच्छेदः । प्रेम प्रेम देव के द्वार को, कर देवे जो बन्द । ऐसी आगर हैं कहाँ, कहते आँसू मन्द ।।१।। जीवे निज ही के लिये, प्रेमशून्य नर एक । पर, प्रेमी के हाड़ भी, आवें काम अनेक १।२।। प्रेमामृत के चाखवे, रागी बना अतीव ।। राजी हो फिर भी बंधा, तन पिंजर में जीव ।।३।। होता है मन प्रेम से, स्नेही, साधु स्वभाव । मैत्री जैसा रत्न भी, उपजे शील स्वभाव ।।४।। जो कुछ भी सौभाग्य है, यहाँ तथा परलोक । पुरस्कार वह प्रेम का, कहते ऐसा लोग ।।५।। भद्र पुरुष के साथ ही, करो प्रेम व्यवहार । मूर्ख उक्ति, यह प्रेम ही, खलजय को हथियार ।।६।। जलता है रवि तेज से, अस्थिहीन ज्यों कीट । त्यों ही जलता धर्म से, प्रेमहीन नरकीट ।।७।। सूखा तरु मरुभूमि में, जब हो पल्लव युक्त । प्रेमहीन नर भी तभी, बने ऋद्धि संयुक्त ।।८।। जिसके मनमें प्रेम का, नहीं आत्म-सौन्दर्य । बाह्य रूप धन आदि का, व्यर्थ उसे सौन्दर्य ||६|| है जीवन, जीवन नहीं, सच्चा जीवन प्रेम । अस्थिभांस का पिण्ड ही, जो न रखे मन प्रेम ।।१०।। 124)
SR No.090260
Book TitleKural Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG R Jain
PublisherVitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP
Publication Year2001
Total Pages332
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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