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कुभत्य काव्य
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परिच्छेदः १४
जुआ जीतो तो भी द्यूत को, मतखेलो धीमान । व्यक्ति-मत्स्य को धूतजय, बनसीमाँस समान ।।१।।
__ जिसमें सौ को हार कर, कभी जीतले एक ।
उसी जुआ से ऋद्धि की,कैसी आशा नेक ।।२।। पैसा रखकर दाव पर, जिसे जुआ की चाट । हरलेते अज्ञातजन, उसका सारा ठाट ।।३।।
द्यूत अथम जैसा करे, करे न वैसा अन्य ।
पापअर्थ मन को सजा, यश को करे जघन्य ।।४।। मानें निज को धूतपटु, ऐसे लोग अनेक । पछताया जो ही नहीं, पर क्या उनमें एक ॥५।।
द्यूतअन्थ दुर्दैव से, भोगे कष्ट अनन्त ।
व्यसनी इसका मूढ़ नर, मरे क्षुधा से अन्त ।।६।। जाता द्यूतागार में, प्रायः जिसका काल । पैतृक धन के साथ वह, खोता कीर्ति विशाल 11७।।
स्वाहा करदे सम्पदा, साख मिटे चहुंओर ।
विपदा-साथी द्यूत यह,करदे हृदयं कठोर ।।८।। छोड़ें घूतासक्त को, कीर्ति-सम्पदा-ज्ञान । यही नहीं वह मांगता, अन्न वस्त्र का दान ।।६।।
ज्यों ज्यों हारे द्यूत में, त्यो त्यों बढ़ता राग । दुःखित होकर जन्म भर,जलती तृष्णा आग ।।१०।।