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जा कुभल काश्य पर
परिच्छेदः 29
पापकर्मों से भय जिस अनीतिमय रीत में, पाप कहें जनवृन्द । सज्जन उससे दूर ही, रहें निडर खलवृन्द ।।१।।
'बढ़े पाप से पाप ही', यह उक्ति ध्रुवसत्य ।
पाप बड़ा है आग से, भीत रहो बुध नित्य ।।२।। कहते ऐसा प्राज्ञगण, बुद्धि उसी के पास । वैरी की भी हानि को, जिसका चित्त उदास ।।३।।
मत सोचो तुम भूलकर, पर का नाश कदैव ।
कारण उसके नाश को, सोचे न्याय सदैव ।।४।। 'निर्धन हूँ' ऐसा समझ, करो न कोई पाप । कारण बढ़ती और भी, निर्धनता अघशाप ।।५।।
विपदाओं के दुःख से, यदि चाहो निज त्राण ।
हानि अन्य की छोड़कर, करो स्वपर कल्याण ।।६।। अन्य तरह के शत्रु से, बच सकता नर आप । नाश बिना पर जीव का, पिण्ड न छोड़े पाप ।।७।।
पाप फिरें पीछे लगे, छाया जैसे साथ ।
सर्वनाश के अन्त में, करते जीव अनाथ ।।८।। जिसको प्यारी आत्मा, करे नहीं वह पाप । जिसे न प्यारी आत्मा, वह ही करता पाप ।।६।।
रक्षित वह है सर्वथा, विपदा उसकी अस्त । पाप हेतु छोड़े नहीं, जो नर मार्ग प्रशस्त ।।१०।।
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