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उपासकाध्ययन
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कथन है । उपासकाध्ययनमें भी इन्होंका कथन विस्तारसे किया गया है। किन्तु ग्यारह प्रतिमाओंके तो नाम मात्र गिनाकर उनमें से आदिको छह प्रतिमाओंके धारकोंको गृहस्थ, तीनके धारकोंको ब्रह्मचारी और अन्तकी दो प्रतिमाओंके धारकोंको भिक्षक कहा है। रत्नकरण्डमें ग्यारह प्रतिमाओंका स्वरूप अलग-अलग बतलाया है। तथा उसमें सम्यग्दर्शनमें प्रसिद्ध आठ व्यक्तियोंके नाममात्र गिनाये हैं। किन्तु उपासकाध्ययनमें उन आठोंकी कथाएं सुन्दर संस्कृत गद्यमें बड़ी रोचक शैलीसे कही है।
जटासिंहनन्दी और सोमदेव-जटासिंह नन्दी ( ७वीं शती ) कावरांगचरित एक पौराणिक महाकाव्य है। उसमें ३१ सर्ग हैं। उनमें से लगभग १२ सगोंमें जैन सिद्धान्तका वर्णन है। सोमदेवके उपासका. ध्ययनमें उसका एक श्लोक तो उद्धृत है ही उसके सिवा भी प्रभाव है। वरांगचरितके सर्ग २२-२३ में जिनपजाका विस्तारसे वर्णन है तथा २५वें सर्गमें ब्राह्मणी क्रियाकाण्डकी समीक्षा है और अन्य देवताओंमें दोष बतलाकर जिनेन्द्रदेवको ही आप्त सिद्ध किया है। सोमदेवके उपासकाध्ययनमें भी उक्त सब विषयोंकी चर्चा है। गौकी पवित्रता, मृतोंका श्राद्ध, ब्रह्मभोज, हरि हर ब्रह्मा वगैरहका देवत्व, बुद्धको आप्तता आदि विषय दोनोंमें चचित है।
जिनसेन और सोमदेव-आचार्य जिनसेनके महापुराणके ३८-३९वें पर्वोमें श्रावकोंको क्रियाओंका वर्णन है। जिनसेनके द्वारा प्रतिपादित षटकर्मोंमें थोड़ा-सा संशोधन करके ही सोमदेवने श्रावकके षटकर्म स्थापित किये यह बात पहले लिख आये हैं।
गुणभद्र और सोमदेव-आचार्य जिनसेनके शिष्य गुणभद्र का आत्मानुशासन प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इस ग्रन्यका एक पद्य (२३) उपासकाध्ययन पृ० १५१ में तदुक्तं करके उद्धृत है। तथा सम्यक्त्वके दस भेदोंको बतलाने के लिए ११वां श्लोक 'दशविधं तदाह' करके मूल में अपना लिया है। इस तरह उपासकाध्ययन आत्मानुशासनका भी ऋणी है ।
देवसेन और सोमदेव-विमलसेन गणिके शिष्य देवसेनके द्वारा रचित एक भावसंग्रह नामक ग्रन्थ है । इस ग्रन्यके साथ सोमदेवके उपासकाध्ययनका तुलनात्मक अध्ययन करनेसे ऐसा प्रतीत होता है कि एकका दूसरेपर प्रभाव है। भावसंग्रहमें ७०१ गाथाओंके द्वारा चौदह गुणस्थानोंका वर्णन है। प्रथम गुणस्थानका वर्णन करते हुए मिथ्यात्वके पांच भेद बतलाये हैं। ब्रह्मवादियोंको विपरीत मिथ्यादृष्टि बतलाकर लिखा है कि ब्राह्मण जलसे शुद्धि मानते हैं, मांससे पितरोंको तृप्ति मानते है, पशुघातसे स्वर्ग मानते हैं और गौके स्पर्शसे धर्म मानते हैं ( १७) इन्हींका निरूपण करते हुए स्नानदूषण, मांसदूषण आदिका कथन किया है। उपासकाध्ययनके भी तीसरे कल्पमें मिथ्यात्वके पांच भेद बतलाकर उक्त विषयोंको आलोचना की है। किन्तु वह आलोचना भावसंग्रहसे बहुत अधिक सन्तुलित और संक्षिप्त है। उपासकाध्ययनमें लिखा है.
- "ब्रह्मचर्योपपमानामध्यात्माचारचेतसाम् ।
मुनीनां स्नानमप्राप्तं दोषे स्वस्य विधिर्मतः ॥" भावसंग्रहमें लिखा है,
"वयणियमसीलजुत्ता णिहयकसाया दयावरा जहणो ।
पहाणरहिया वि पुरिसा बंभचारी सया सुदा ॥२५॥" भावसंग्रहमें पांचों मिथ्यात्वोंको माननेवाले ब्राह्मण, बौद्ध तापस, श्वेताम्बर और मस्करिके मतोंका निराकरण करके चार्वाक सांख्य और कौल धर्मको आलोचना की है। उपासकाध्ययनके प्रथम कल्पमें हो सब
१. माणिकचन्द ग्रन्थमाला बम्बई ( वर्तमानमें वाराणसीसे प्रकाशित )। २. भारतीय ज्ञानपीठ वाराणसीसे प्रकाशित । ३. जीवराज ग्रन्थमाला शोलापुरसे प्रकाशित । ४. माणिकचन्द प्रन्थमाला बम्बई ( वर्तमानमें भा० शा. वाराणसी ) से प्रकाशित ।