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अध्याय १ : मोक्षमार्ग १७ (१) व्यवहार सम्यग्दर्शन और निश्चय सम्यग्दर्शन (२) सराग एवं वीतराग सम्यग्दर्शन (३) क्षायिक, क्षायोपशमिक, औपशमिक सम्यग्दर्शन (४) वेदक सम्यक्त्व (५) सास्वादन सम्यक्त्व (६) पौद्गलिक और अपौद्गलिक सम्यक्त्व (७) द्रव्यसम्यक्त्व और भावसम्यक्त्व (८) रुचि की अपेक्षा से निसर्गज आदि दस प्रकार का सम्यक्त्व (९) कारक, रोचक, दीपक सम्यक्त्व
सम्यक्त्व के कितने भी भेद हों; पर उनकी उत्पत्ति का मूल कारण दर्शनसप्तक का क्षय, क्षयोपशम या उपशम ही है ।
वीतराग और निश्चय सम्यग्दर्शन एक ही बात है । यह भेद आध्यात्मिक अथवा आत्मिक परिणामों की मुख्यता की अपेक्षा से है ।
इस वीतराग अथवा निश्चयसम्यग्दर्शन का लक्षण इस प्रकार है - शुद्ध जीवास्तिकायरुचिरूपस्य निश्चयसम्यक्त्वस्य ।
___ - नियमसार गा ३ टीका - शुद्ध आत्मा की ओर जीव की रुचि (निश्चयसम्यक्त्व है । .
इसी प्रकार के अन्य लक्षण भी अन्य आचार्यों ने दिये हैं किन्तु सभी का हार्द आत्मरुचि-शुद्धात्मरुचि है । - व्यवहार सम्यग्दर्शन के प्रमुख लक्षण दो हैं -
(१) तत्वार्थ श्रद्धान, जो स्वयं इसी ग्रन्थ का दूसरा सूत्र है और . (२) दूसरा लक्षण है - सच्चे देव-गुरू-धर्म पर दृढ़ श्रद्धा' ।
इनके अतिरिक्त और भी अनेक आचार्यों ने विभिन्न लक्षण दिये हैं, किन्तु सबका समावेश इन्हीं दो लक्षणों में हो जाता है ।
कारक सम्यक्त्व - इस सम्यग्दर्शन के प्रभाव से जीव स्वयं तो दृढ़
१. अरिहंतो मह देवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो । जिणपण्णत्तं तत्तं, इय समत्तं मए गहियं ॥ - आवश्यक सूत्र
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