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अध्याय १ : मोक्षमार्ग
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अनिवृत्तिकरणरूप आत्मा के तीव्र परिणामों की शक्ति से मिथ्यात्वमोह की ग्रन्थि टूट जाती है, साथ ही अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभइन चारों कषायों का क्षय अथवा उपशम हो जाता है । मिथ्यात्व की ग्रन्थि टूटते ही या तो उसका संपूर्ण क्षय हो जाता है अथवा उसके तीन खण्ड हो जाते हैं- (१) मिथ्यात्वप्रकृति (२) मिश्रप्रकृति (३) सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति । मिथ्यात्व की इन तीन और अनन्तानुबन्धी चार- इन सातों प्रकृतियों को 'दर्शन सप्तक' कहा जाता हैं ।
इस दर्शन सप्तक के क्षय, अथवा उपशम के अनन्तर सम्यक्त्व की उपलब्धि होती है ।
निसर्गज और अधिगमज सम्यक्त्व उपलब्धि की प्रक्रिया में अन्तर निसर्गज और अधिगमज दोनों ही प्रकार के सम्यक्त्व में अन्तरंग कारण तो समान हैं, दोनों में ही 'दर्शन सप्तक' का क्षय, क्षयोपशम अथवा उपशम होता है । यहाँ तक दोनों सम्यक्त्वों की प्राप्ति में समानता है I
किन्तु अन्तर है केवल परनिमित्त निरपेक्षता और सापेक्षता का । निसर्गज सम्यक्त्व में बाहरी निमित्त नहीं पड़ता जबकि अधिगमज सम्यक्त्व में बाहरी निमित्त - यथा गुरु-उपदेश आदि पड़ता है ।
इस तथ्य को एक उदाहरण द्वारा यो स्पष्ट किया जा सकता है कि जिस प्रकार नदी में बहता हुआ नुकीला पत्थर रगड़ खाते-खाते स्वयं गोल हो जाता है, उसी प्रकार अनादि मिथ्यादृष्टि जीव भी संसार के अनेकविध कष्ट और संकट भोगते हुए स्वंय ही उसके परिणाम सम्यक्त्व - प्राप्ति के योग्य हो जाते हैं और बिना किसी उपदेश के ही उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है
किन्तु यहां यह जिज्ञासा प्रबल रूप से उठती है कि जिस जीव ने अनादि काल से आत्मा, पुद्गल, पुण्य-पाप आदि शब्द सुने ही नहीं, वह आत्मा के स्वभाव को, स्वरूप को कैसे जानेगा, कैसे उस पर श्रद्धा करेगा ? अरिहंत, सिद्ध, साधु, धर्म-अधर्म कुछ भी तो नहीं सुना उसने ।
इस जिज्ञासा का समाधान आचार्य अमृतचन्द्र सूरि ने तत्वार्थसार नामक ग्रन्थ में इस प्रकार किया है ।
भेदः साक्षादसाक्षाच्च- अर्थात् निसर्गज और अधिगमज सम्यग्दर्शन की उपलब्धि में परोपदेश की अपेक्षा भेद केवल असाक्षात् और साक्षात् काह। इसका भाव यह है कि निसर्गज सम्यग्दर्शन की उपलब्धि के समय
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