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१४ तत्त्वार्थ सूत्र
(नैसर्गिक रूप से) और दूसरा पर ( दूसरे ) के निमित्त से । प्रथम निसर्गजसम्यग्दर्शन कहलाता है और दूसरा अधिगमज। )
विवेचन निसर्ग का अर्थ है परिणाम मात्र जो सम्यग्दर्शन जीव को निमित्त से उत्पन्न होता है, वह निसर्गज उपदेश की अपेक्षा आवश्यकता नहीं
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स्वयं के परिणाम (आन्तरिक भाव ) के सम्यग्दर्शन कहलाता है । इसमें पर के
हो ।
अधिगमज सम्यक्त्व वह कहलाता है, जिसमें पर अर्थात् किसी अन्य साधु-साध्वी, शास्त्र स्वाध्याय आदि निमित्त की अपेक्षा रहती है । दूसरे शब्दों में, अधिगमज सम्यक्त्व किसी दूसरे का निमित्त पाकर उत्पन्न होता है ।
सम्यक्त्व प्राप्ति की प्रक्रिया - ( कर्मग्रन्थ के अनुसार) कर्म ग्रन्थों में, विशेष रूप से कर्मग्रन्थ ( रचयिता देवेन्द्रसूरि ) में विस्तार से सम्यक्त्व उत्पत्ति की प्रक्रिया समझाई गई है । इसके अनुसार, सम्यक्त्व - प्राप्ति के लिए पाँच लब्धियों का होना आवश्यक है ।
(१) क्षयोपशमलब्धि जब आयु कर्म के सिवाय शेष सात कर्मों की स्थिति घटकर एक अन्तः कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण रह जाती है, तब उन कर्मों के क्षयोपशम से आत्मा की वीर्यशक्ति प्रस्फुटित हो जाती है । संक्षेप में, आत्मा में सम्यक्त्व धारण की योग्यता उत्पन्न हो जाती है । यही क्षयोपशमूलब्धि कहलाती है ।
(२) विशुद्धिलब्धि - क्षयोपशमलब्धि के उपरान्त आत्मा के परिणामों में भद्रता होना, विशुद्धिलब्धि कहलाती है ।
(३), देशनालब्धि गुरु-उपदेश, शास्त्र-श्रवण आदि सुनने और समझने की क्षमता देशनालब्धि है / । (४) प्रायोग्यलब्धि संज्ञित्व, पर्याप्तता, आदि कर्म क्षयोपशम से उत्पन्न जीव की योग्यताएँ - क्षमाताएँ प्रायोग्यलब्धि हैं ।
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(५) करणलब्धि यह अन्तिम लब्धि है ।
आत्मा के परिणामों को 'करण' कहा जाता है । इन परिणामों के तीन क्रम हैं - (१) यथाप्रवृत्तिकरण (२) अपूर्वकरण और (३) अनिवृत्तिकरण । चारों लब्धियों और पाँचवीं लब्धि के यथाप्रवृत्ति तथा अपूर्वकरण; दो करण प्राप्त होने पर भी जीव को सम्यक्त्व नहीं प्राप्त हो पाता है किन्तु तीसरे करण - अनिवृत्तिकरण के प्राप्त होने पर जीव को अवश्य ही सम्यक्त्व की उपलब्धि होती है ।
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