________________
तत्त्वार्थ सूत्र
किन्तु अभी वह पति के घर जा नहीं सकती, क्योंकि गौना नहीं हुआ, पति लिवाने नहीं आया, निमित्त नहीं मिला ।
१२
बस यही स्थिति सम्यक्त्वी की होती है । इसकी अन्तर रुचि तो व्रत ग्रहण की, अणुव्रत - महाव्रत स्वीकार करने की, संयम - साधना की है; किन्तु उसके व्रत ग्रहण में कुछ बाधक तत्व आड़े आए हुए हैं जिससे रुचि क्रियान्वित नहीं हो पाती ।
इन तत्वों में प्रथम और सबसे प्रभावशाली है अप्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानी कषाय । जब तक इन कषायों का क्षयोपशम न हो तब तक वह अणुव्रत - महाव्रतों का पालन नहीं कर पता । यदि मौखिक रूप में स्वीकार भी कर ले तो भी आत्मा से उन गुणों का स्पर्श नहीं कर पाता ।
अन्य परिस्थितियाँ ऐसी हो सकती हैं जो सांसारिक अथवा सामाजिक दृष्टिकोण से आवश्यक हों । जैसे पारिवारिक उत्तरदायित्व, छोटे बच्चों का पालन-पोषण, सामाजिक तथा अन्य सभी प्रकार से दायित्व ।
अतः सम्यक् चारित्र क्रमभावी होता है ।
यह संभव है कि जीव सम्यक्त्व प्राप्त होते ही संयम-साधना के मार्ग पर चल पडे और यह भी संभव है कि संख्यात - असंख्यात वर्षों तक कोई भी व्रत - नियम ग्रहण न कर सके । किन्तु कभी न कभी संयम ग्रहण अवश्य करता है, क्योंकि सम्यक्त्व प्राप्त करते ही वह परीतसंसारी और शुक्लपक्षी बन जाता, अधिक से अधिक अर्द्धपुद्गल परावर्त काल तक संसार में रहता है और फिर अवश्य मुक्त हो जाता है ।
अतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्षमार्ग हैं । यही इस सूत्र का अभिप्रेत है ।
आगम वचन
-
तहियाणं तु भावाणं, सब्भावे उवएसेणं ।
भावेणं सद्दहंतस्स, सम्मत्तं तं वियाहियं ॥ ( - उत्तरा २९/१५) ( वास्तविक (तथ्यभूत) भावों से सद्भाव ( अस्तित्व) के निरूपण में उसी भाव से (जैसे वे तत्त्व उपस्थित है, जैसा उनका स्वरूप है, उसी प्रकार यथातथ्य रूप से) उन तत्त्वों का श्रद्धान ( रुचिपूर्वक विश्वास) करना, सम्यग्दर्शन हैं ।)
सम्यग्दर्शन का लक्षण
तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं । २ ।
अर्थ तत्व (वस्तु स्वरूप) का अर्थ सहित (निश्चयपूर्वक) श्रद्धान करना, सम्यग्दर्शन है ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org