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१० तत्त्वार्थ सूत्र
यही वह बिन्दु है जहाँ भेदविज्ञान की जागृति होती है । आत्मानन्द के आस्वादन में निमग्न जीव के अन्तस्तल में "जीवोऽन्यद् शरीरमन्यद्' की धारणा यथार्थ रूप ग्रहण करती है । - ऐसा जीव जो स्वयं अपने साथ लगे हुए शरीर और पर-पदार्थाश्रित स्वयं अपने ही भावों (परिणामों) को भी अपने शुद्ध स्वभाव से पृथक् अनुभव करता है तो धन-धान्य, स्त्री-पुत्र-मित्र आदि तो उसे प्रत्यक्ष ही परपदार्थ दिखाई देते हैं, उन्हें वह बंधन समझने लगता है ।
सम्यग्दृष्टि की वृत्ति-प्रवृत्ति अब सम्यग्दर्शन का जीव की वृत्ति-प्रवृत्ति पर क्या प्रभाव पड़ता है? उसमें किस-किस प्रकार का परिवर्तन होता है? इस पर विचार करना आवश्यक है ।
सम्यग्दृष्टि जीव की वृत्ति-प्रवृत्ति के विषय में एक प्राचीन आध्यात्मिक कवि का दोहा प्रसिद्ध है -
जे समदृष्टि जीवड़ा, करे कुटुम्ब प्रतिपाल । अन्तर्गत न्यारा रहे, ज्यू धाय खिलावे बाल ।
धाय (बालक-शिशु का पालन-पोषण करने वाली स्त्री) जिस प्रकार सावधानी तथा जागरूकता के साथ बालक का लालन-पालन करती है, उसके और माता के व्यवहार में बाह्य रूप से कोई अन्तर नहीं दिखाई देता, लोग उसे माता ही समझ लेते हैं, लेकिन वह अपने हृदय में कभी भी स्वयं को उस शिशु की माता नहीं समझती, अपितु उसे पराया-पुत्र ही मानती है ।
___ इसी प्रकार सम्यक्त्वी जीव भी कुटुम्ब का पालन-पोषण करता है, अपने योग्य कर्तव्य का निर्वाह करता है, किन्तु करता है सब कुछ कर्तव्य भावना से ही; कुटुम्ब को अपना नहीं मानता, अपना तो वह सिर्फ आत्मा को ही मानता है ।
उसकी दृष्टि ऐसी ही विलक्षण हो जाती है, भेदविज्ञान जागृत होने स।
भेदविज्ञानी अथवा सम्यग्दृष्टि जीव में इन पर-पदार्थों और पर-भावों के प्रति अन्तरंग विरक्ति हो जाती है । पहली बात, तो वह उन्हें नाशवान क्षणभंगुर मानता है, इसलिए उनमें आसक्त ही नहीं होता, फिर उसकी लालसा आसक्ति को वह बन्धन भी मानता है, वह इन्हें बन्धन या पर-स्वरूप जानकर छोड़ देना चाहता है, इसके अन्तर् में इन समस्त बंधनों को तोड़ देने की तड़प होती है, उसे दृढ़ विश्वास हो जाता है कि यह सब तो पर हैं, वियोगधर्मा
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