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तत्वभावना ____[ २७ ऊध्वं यान्ति सुधागृहं विवधतः कूप खनंतस्त्वधः । कुर्वन्तीसि विबुध्य पापविमुखा धर्म सवा कोविवाः ।।८।।
अन्वयार्य-(ये) जो (भाषा:) नीच लोग (निंद्यम )निन्दा के लायक खराब (कार्य) काम (रचयन्ति) करते हैं (त) वे (निद्यां) निदनीय या बुरी (गतिम्) गतिको (यांति) पहुंचते हैं (पुनः) परन्तु (ये) जो (बंद्यमतयः) प्रशंसनीय बुद्धिधारी (वा) प्रशंसा के लायक उत्तम कार्य को (रचयनिस) करते हैं तो वे (वंद्यां) माननीय या उत्तम गति को (यांति) जाते हैं जैसे (सुधागह) राजमहल को (विदधतः) बनाने वाले (ऊर्व) ऊपर को (तु) परन्तु(कूप) कुएंको (खनंतः)खोदनेवाले (अध:) नीचेको (यांति) जाते हैं (इति) ऐसा(बिबुध्य ) भले प्रकार जानकर (पापविमुखा: पापोंसे मुंह मोड़नेवाले (कोविदा:द्धिमान पुरुप (सदा) निरन्तर (धर्म)धर्म को (कुर्वन्ति) साधते रहते हैं ।
भावार्थ-इस श्लोक में आचार्य ने दिखलाया है कि हरएक जीव अपने भले या बुरे का जिम्मेदार है। जो जैसा कार्य करता है वह वसा हो जाता है । इस संसारी जी के पास मन वचन काय से तीन पाप तथा पुण्य कर्मके आने के द्वार हैं। जब ये शभ कार्यों में वर्तते हैं तब मस्यतासे पुण्य कर्म आते हैं और जब ये अशुभ कार्यों में वर्तते हैं तब पाप कर्म आते हैं । यह जीव हर समय अपने शुभ या अशुभ भावों के अनुसार पुण्य तथा पाप कर्मों को बांधता रहता है । साधारण रूप से आयुक्रम को छोड़ कर ज्ञानावरणादि सात कमों को नित्य बांधता रहता है । आयु कर्म को विशेष काल में अपनी भोगने वाली आयु के आठ त्रिभागों में से किसी में या मरण के पहले बांधता है । आयुकर्म के अनुसार ही यह जीव चार गतियों में से किसी गति में जाता