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तस्वभावना
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स मित्र को कल्पना मिटती है, अमनोज्ञ व पदार्थ का भेद निकलता है, इष्ट व अनिष्ट का दूत मिट जाता है । यही दृष्टि वीतरागभाव को पैदा करती है। स्वामी नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती ने द्रव्य संग्रह में कहा है -
माणगणताडि य सनि वंति तद् असतणया । विष्णेया संसारीसक्ने सुद्धा हु सुखमया ।।
भावार्थ-व्यवहारनय से १४ मार्गणा के भेद कि यह अमुक गतिवाला है यह अमुक इन्द्रिय वाला है इत्यादि अथवा १४ गुण स्थान के भेद कि यह मिथ्याती है यह सम्यक्ती है, यह साघ है, यह केवली है इत्यादि संसारी जीवों में दिखते हैं परन्तु शद्ध निश्चयनय से देखते हुए सर्व ही जीव शुद्ध एक रूप परमात्मा है। समताभाव लाने के लिए हमको व्यवहारनय से देखना बन्द करके निश्चयनय से देखने का अभ्यास करना चाहिए। यही कारण है कि जो साधु या गृहस्थ सामायिक में तन्मय होते हैं वे उपसर्ग करने वाले पर व प्रशंसा करने वाले पर समताभाव रखते हैं। वीतराग भाव का साधक निश्चयनय के द्वारा अव. लोकन करता है । तत्व विचार के समय आत्मध्यान जगाने के लिए निश्चयनय का आश्रय हो कार्यकारी है। जैसा कि स्वामी अमतचन्द्र आचार्य ने समयसार कलश में कहा है
इवमेव तात्पर्य हेयः शुद्धनयो नहि ।।
नास्ति बन्धस्तदत्यागात् तत्यागाद्वन्ध एव हि ।। भावार्थ-मतलब यही है कि शुद्ध निश्चयनय भी छोड़ना न चाहिए क्योंकि जब तक इसका सहारा होगा तब तक कर्म का बंध न होगा तथा इस नय के त्याग होते हो कम का बंध होगा। दोनों श्लोकों में आचार्य ने निश्चयनय को प्रधान करके