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तत्वभावना
होता है तथा जिन पुरुषों से व स्त्रियों से अपने स्वार्थ साधन में हानि पड़ती है अथवा जो घर, वस्त्र, वर्तन या सामान अपने चित्त को कष्टप्रद भासते हैं उनसे द्वेष पैदा हो जाता है । व्यवहारनय की दृष्टि से देखते हुए अहंकार व ममकार पैदा होते हैं, मैं राजा हूं, मैं धनवान हूं, मैं बड़ा हूं, मैं दोन हूं, मैं दुखी हूं, मैं रोगी हूं, मैं निरोगी हूं, मैं सुन्दर हूं, मैं कुरूप हूं, मैं पुरुष हूँ मैं स्त्री
अहंबुद्धि होती है। यह तन मेरा है, यह धन मेरा है, यह वस्त्र मेरा है, यह घर मेरा है, यह राज्य मेरा है, यह खेत मेरा है, यह आभूषण मेरा है, यह भोजन मेरा है, यह ग्रन्थ मेरा है, यह मंदिर मेरा है, इत्यादि ममकार बुद्धि पैदा होती है। इस अहंकार ममकार के द्वारा वर्तन करते हुए चारों कषायों की प्रबलता हो जाती है। कषायों के द्वारा तीव्र कर्म का बंध हो जाता है और यह मोही प्राणी संसार के झंझटों में व सुख तथा दुःख में उलझा रहता है। कभी अपने सच्चे सुख को व अपनी सच्ची शांति को नहीं पाता है ।
निश्चय नय से देखते हुए ये सब ऊपर लिखित भेद नहीं दीखते हैं । ये सब भेद जीब और पुद्गल इन दो मूल द्रव्यों के निमित्त से हैं। बस जो निश्चय से देखता है उसे सवं ही जीव संसारो या सिद्ध, नारकी, देव, पशु, मनुष्य, छोटे, बड़े, राजा, 'रंक आदि एक रूप अपने शुद्ध केवल स्वभाव में ही दिखते हैं। सब ही पूर्ण ज्ञान दर्शन सुख वीर्य के धारी परमात्मारूप ही दिखते हैं। आप भी अपने को परमात्मारूप दिखता है, अन्य सब भी परमात्मारूप दिखते हैं । तथा सब पुद्गल स्पर्श, रस, गंधवान अजीवरूप एक से दिखते हैं। इस दृष्टि से देखते हुए ही समताभाव की जागृति होती है, रागद्वेष का अभाव होता है,