Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
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शासन-प्रशासन का वह अंग बनता है। आर्थिक, सामाजिक अथवा विविध विषयों से संबंधित संस्थाओं की सदस्यता है तो तत्संबंधी जिम्मेदारियां निभानी होती है। व्यापार या व्यवसाय में उसकी गति है तो वहां के उतार-चढ़ाव को उसे ध्यान में रखना होता है। इस प्रकार के अन्यान्य क्षेत्रों में एक ही व्यक्ति अपनी अलग-अलग हैसियतों में काम भी करता है तो संबन्धित जिम्मेदारियों को भी निभाता है।
यह हम जान चुके हैं कि सामूहिक शक्ति का पृथक् रूप से निर्माण होता है, फिर भी व्यक्ति की महत्ता तो रहती ही है। व्यक्ति-व्यक्ति के बीच मुक्त संपर्क हो, परिस्थितियों को समझने का विवेक हो तथा निजी स्वार्थों से ऊपर उठ कर बहुजनहिताय कार्य करने की निःस्वार्थ भावना हो तो उसका वर्चस्व सभी स्तर की संस्थाओं पर जम जाता है और तब वह जिम्मेदार व्यक्ति सर्वत्र किसी भी स्थिति को जनहित की दृष्टि से संभालने में सक्षम बन जाता है । अतः सभी परिस्थितियों में व्यवस्था को . सुचारु बनाये रखने में व्यक्ति की बड़ी भूमिका रहती है । यही भूमिका उसके हाथ में संतुलन व नवसर्जन की कुंजी भी थमा देती है । वर्चस्व वाला व्यक्ति ही किसी भी संघ या संगठन में संतुलन बनाये रख सकता है। किसी भी व्यवस्था को सफल सिद्ध होने में मुख्यतः संतुलन की ही दरकार होती है। संतुलित व्यवस्था सुचारु भी होती है तो स्थिर और सुदृढ़ भी ।
व्यक्तिगत जीवन हो अथवा सामूहिक जीवन - दोनों में संतुलन का विशिष्ट महत्त्व होता है । संतुलन बिठाना और चलाना किसी भी कला से कम नहीं। संतुलन है - सम+तुलन अर्थात बराबर तोलना । संतुलन का प्रतीक है तराजू, जो न्याय का चिह्न माना जाता है। जहां संतुलन है, वहां न्याय है और जहां न्याय है, वहां समृद्धि, सुख, शान्ति सब कुछ है। संतुलित जीवन जैसे श्रेष्ठ जीवन माना जाता है, वैसे ही संतुलित व्यवस्था जन-मन कल्याणकारी होती है।
वस्तुतः संतुलन की कुंजी वे ही हाथ सफलतापूर्वक थाम सकते हैं जो चरित्रबल के स्रोत से जुड़े होते हैं। संतुलन चरित्र की कसौटी भी है। जैसे किसी व्यक्ति का तापमान थर्मामीटर से मापा जाता है, उसी प्रकार चरित्र का थर्मामीटर लगाने से ही किसी भी संस्था तथा उसकी संतुलित व्यवस्था का आभास लिया जा सकता है। एक चरित्रशील नायक ही किसी भी संस्था की गतिशीलता में संतुलन की सुई को अपने नियंत्रण में रख सकता है तो उसे व्यापक हित की दृष्टि से घुमा भी सकता है। यों व्यक्ति का महत्त्व भी कम नहीं होता ।
तभी तो दिखते हैं प्रत्येक व्यक्ति के अपने-अपने सूर्यमुखी और अपने-अपने केक्टस
सामूहिक नियंत्रक शक्ति के उपरान्त भी व्यक्ति की अपनी अस्मिता एवं स्वतंत्रता की महत्ता सदा बनी रहती है। वह अपनी शक्ति अर्पित करके समूह का शक्ति-वर्धन करता है, किन्तु मूल में तो शक्तिस्रोत उसी का होता है। सामूहिक गतिविधियों के बावजूद भी उसका अपना व्यक्तिगत जीवन तथा उसकी सफलता-असफलता तो रहती ही है और उसे अपना कर्मफल भोगना ही होता है।
विश्व के इस विशाल प्रांगण में तभी तो दिखाई देते हैं प्रत्येक व्यक्ति के अपने-अपने सूर्यमुखी