Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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चरित्र को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ले जाने हेतु सद्भाव जरूरी
प्रभावशाली सांस्कृतिक तत्त्व अवश्य ही एक विश्व संस्कृति के रूप में ढलते जाएंगे। जातीय स्वतंत्रताओं तथा धार्मिक परम्पराओं को आतंकवाद के विरोध में सहमत होना पड़ेगा और संभवतः यह सहमति यथार्थ में ढलती हुई नई विश्वस्तरीय सभ्यता का रूप ले लें। तब तो विश्व युद्ध के प्रतिमान भी बदल जाएंगे, क्योंकि राष्ट्रों की सीमाएं तब महत्त्वहीन होकर संघर्ष से दूर लुप्त हो जाएगी। सारे संघर्ष धीमे हो जाएंगे या उठ जाएंगे तथा साथ रह कर सबके लिए एक ही निशाना रह जायगा-आतंकवाद। इस कारण व्यापारिक सम्बन्धों तथा विश्वस्तरीय व्यापार व्यवस्था में भारी ब्दिलियां आ सकती हैं। अनुमान यह है कि काफी कशमकश और उलटफेर के बाद राष्ट्रीय पृथक्ता का युग समाप्त हो सकता है और हो सकता है नये अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों के माध्यम से एक विश्वस्तरीय व्यवस्था का समारंभ। परिवर्तन के इस चक्र में समय तो लगेगा और किसी अन्तर्राष्ट्रीय परिवर्तन के लिए एकाध शताब्दी का समय भी अधिक नहीं होता है। किन्तु इस प्रकार के अनुमानों के संदर्भ में जो विचारणीय विषय चरित्र निर्माण व विकास का है, उसको अति व्यापक पैमाने पर लेकर ही चिन्तन करना होगा तथा तदनुसार ही करना होगा उसके लिए साध्य एवं साधनों का निर्धारण । पूर्व भूमिका जितने गहरे सोच विचार के साथ यदि निश्चित की जाएगी तो आगे का काम उतना ही सुगम होगा। पहले सुलझानी होगी विचार संघर्ष की जटिल समस्या को : _ नीति वाक्य है-'वादे वादे जायते तत्त्वबोधः' अर्थात् विचार मंथन से तत्त्व ज्ञान सुबोध बनता है और विचार मंथन कैसा? विचार मंथन का अर्थ है विचारों का आलोड़ित होना, जैसे कि दही आलोड़ित होकर मक्खन रूप बनता है। बहुत सारे भिन्न-भिन्न विचारों पर जब वाद-विवाद यानी कि खंडन-मंडन होता है तब प्रत्येक विचार की सभी अपेक्षाओं से चर्चा होती है तथा निष्कर्ष-रूप में चर्चा का सार सामने आ जाता है। सार होता है वस्तु या तत्त्व के स्वरूप का सही दर्शन। वाद-वाद में तत्त्व बोध होने का यही विश्लेषण है कि भिन्न-भिन्न विचार भले हो और वे होंगे तथा होने चाहिए, लेकिन सभी अपेक्षाओं की आलोचना के बाद उसका समन्वित स्वरूप अवश्य स्पष्ट होना चाहिए जो सबको मान्य हो। इस प्रक्रिया के स्थान पर यदि अपने विचार के प्रति प्रारम्भ से हठी रूख अपनाया जाए और उसे एकान्त रूप से सत्य कहा जाए जिसका सीधा अर्थ निकलेगा कि अन्य सबके विचार मिथ्या हैं तो वहां एकान्तिकता के कारण विचार में जो सत्यांश रहा हुआ है, वह भी समग्र रूप से मिथ्या हो जाएगा। इस प्रकार एकान्तिक सत्य की हठ में सत्यांशों को लिए हुए होने पर भी सभी विचार मिथ्या के ही पोषक होंगे। इस प्रकार विचार संघर्ष किसी भी विचार को सत्य से बहुत दूर ले जाता है और अनजाने में भी हो, असत्य का पोषण करता है। __ किसी भी वस्तु अथवा तत्त्व के स्वरूप का सत्य ज्ञान करने के लिए उसके एक ही पहलू को जानकर सही निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है। कारण, प्रत्येक वस्तु या तत्त्व के अनेक पहलू होते हैं और उन सभी पहलुओं की जानकारी में लेकर सार रूप में समन्वित स्वरूप का ज्ञान करना चाहिए-वही सत्य के समीप होगा। एक होता है एकान्तवाद कि एक ही पहलू को हठपूर्वक सत्य कह दिया जाए तो दूसरा अनेकान्तवाद होता है अनेक पहलुओं की जानकारी के जरिए सत्यांशों का
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