Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
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हैं और निहित स्वार्थी उनके नेता बन कर उनको मनचाही दिशा और गिरावट की दशा में हंकालते रहते हैं। ऐसे में बाहर की भूल भुलैया में किंकर्त्तव्यमूढ़ता फैल जाती है, कोई साध्य या कर्त्तव्य निश्चित नहीं हो पाता है तथा समूचे जीवन की व्यवस्था में नकारात्मक शून्यता पसर जाती है। तब भीतरी धर्म को खोजने अथवा वस्तुओं के सत्य स्वरूप का ज्ञान करने में सच्चे साधक को भी ऐसी बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जिनसे विरोधाभासों का जन्म हो जाता है और भ्रान्तियां बढ़ जाती है। इस संबंध में स्वामी विवेकानंद का कथन है-वस्तुओं का सत्य स्वरूप क्या है, यह जानने के लिए हम चाहे किसी दिशा में झुकें, गंभीर चिन्ता करने पर हमें दिखाई यही देगा कि अन्त में हम वस्तुओं की एक ऐसी अजीब अवस्था पर आ पहुंचते हैं, जो विरोधात्मक-सी प्रतीत होती है। हम उस अवर्णनीय धर्म को जा पहुंचते हैं, जो बुद्धि से ग्रहण तो किया नहीं जा सकता, परन्तु फिर भी सत्य है। हम ज्ञान प्राप्ति के लिए एक वस्तु लेते हैं, हम जानते हैं कि वह सान्त है, लेकिन ज्योंही हम उसका विश्लेषण करने लगते हैं, वह हमें एक ऐसे क्षेत्र में ले जाती है जो बुद्धि के अतीत है। उसके गुणधर्मों का, उसकी संभवनीय अवस्थाओं का, उसकी शक्तियों और उसके सम्बन्धों का हम अन्त नहीं पा सकते। वह अनन्त बन जाती है।... यही विचारों और अनुभवों के विषय में सत्य है, चाहे वह अनुभव भौतिक हो या मानसिक । आरंभ में हम वस्तुओं को छोटी समझ कर ग्रहण करते हैं, लेकिन शीघ्र ही वे हमारे ज्ञान को धोखा दे देती है और अनन्त के गर्त में विलीन हो जाती है। हमारे स्वयं के अस्तित्व के बारे में भी ऐसा ही है। हमारे इस अस्तित्व के विषय में भी वह विकट समस्या उपस्थित हो जाती है। इसमें संदेह नहीं कि हमारा अस्तित्व है। हम देखते हैं कि हम शान्त जीव हैं। हम जन्म लेते हैं और हमारी मृत्यु होती है। हमारे जीवन का क्षितिज परिमित है। हम इस विश्व में मर्यादित अवस्था में विद्यमान है। ...हम समुद्र में उठने वाली लहरों के समान हैं। लहर समुद्र से बिल्कुल ही पृथक् नहीं है, फिर भी वह स्वयं समुद्र नहीं है, लेकिन लहर का ऐसा कोई हिस्सा नहीं है, जिसे हम ऐसा कह सके कि यह समुद्र नहीं है । 'समुद्र' यह अभिधान उसे तथा समुद्र के प्रत्येक अंग को समान रूप से लागू है। इस प्रकार जब तक बाहर के धर्म को भीतर के धर्म के आधार पर प्रतिष्ठित नहीं किया जाएगा, तब तक भ्रान्तियां उठती रहेगी और सत्य स्वरूप का निर्णय संभव नहीं रहेगा। आज की यही पुकार है कि अब धर्म और सम्प्रदायों की नई, सकारात्मक छवि उभरनी चाहिए। इन्हें शायद पदाघात की सख्त जरूरत है।
कैसी होनी चाहिए धर्म और सम्प्रदायों की नई सकारात्मक छवि ? कृति, विकृति और प्रतिकृति का क्रम चलता रहता है, तदनुसार आज की विकृति को समाप्त करने के लिए प्रतिकृति के चरण की ओर बढ़ना होगा, जिसका मूल अभिप्राय यही होता है कि युगानुसार परिवर्तनों को अपनाते हुए कृति के मौलिक सिद्धान्तों की पुनर्स्थापना की जाए। आज धार्मिक क्षेत्र में विकृतियां फैल गई हैं, किन्तु धर्म के संबंध में प्राचीन काल से गहन चिन्तन होता आया है तथा उसे समत्व के रूप में सर्वशुभदायक मार्ग माना गया है। ऋषियों, आचार्यों, सन्त-संन्यासियों ने धर्म पर मनन भी किया और आचरण भी तथा साधना से सर्वहितकारी सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। जैनाचार्यों ने धर्म के दो रूप बताए हैंनिश्चय धर्म और व्यवहार धर्म । वस्तुतः धर्म दो नहीं होते, एक ही होता है। किन्तु धर्म का वातावरण तैयार करने वाली तथा उस प्रकार की साधन सामग्रियों को भी धर्म की परिधि में लेकर उसके दो