Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh

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Page 695
________________ चरित्र के शिखर पर पहुंचने का रहस्य वैश्वीकरण हो जाता है। यह सत्य है कि किसी भी सद्गुण का प्रभाव सीमित नहीं होता। वह व्यक्ति वर्ग या धर्म-सम्प्रदाय तक ही नहीं टिकता और आगे से आगे बढ़ता रहता है। सद्गुण के समान ही चरित्र हो या कोई भी साधना अपनी अच्छाइयों के बल पर सम्पूर्ण विश्व तक फैल सकती है। इसे उसका स्वाभाविक विकास ही मानना होगा। ध्यान और चरित्र वास्तव में भिन्न-भिन्न नहीं हैं, दोनों अभिन्न हैं, बल्कि ध्यान को चरित्र का एक अति महत्त्वपूर्ण अंग मान सकते हैं। तो यही कहें कि मानव चरित्र संसार से पलायन करना नहीं सिखाता, बल्कि जीवनोत्थान की उच्चतर श्रेणियों में स्थितप्रज्ञ बनाता है और संसार को अधिकतम आनन्द एवं प्रेम प्रदान करने का पाठ पढ़ाता है। स्थितिप्रज्ञ पुरुष निस्पृह हो जाता है और स्वयं को सारे संसार का बना लेता है। चरित्रशील पुरुष उस आनन्द रस का पान अकेला नहीं करता, सारे संसार में उस सुख को बांटता है। सबको बांटकर ही वह स्वयं की संतुष्टि एवं आनन्दानुभूति मानता है। वह संसार को ऐसा सुख बांटता है, जो सबको चिर मुस्कान देता है और सबकी हर धूप-छांव में फैली हुई खशी को बिखरने नहीं देता। यही तो महानता का लक्षण है। क्या महापरुष अपने आपमें किसी वर्ग. समाज या धर्म-सम्प्रदाय में ही सिमटे हुए रहते हैं? कदापि नहीं। कोई पुरुष महान ही तब कहलाता है जब अपने आदर्श से उसका व्यक्तित्त्व पूरे संसार में विस्तारित हो जाता है। महानता समग्र मानवता की थाती होती है। प्रत्येक व्यक्ति संसार की इकाई है तथा सारा संसार उसका अपना है : ___चरित्र निष्ठा जब चरित्रलीनता की दिशा में अग्रसर होती है तो व्यक्ति के हृदय की विशालता एवं उदारता बढ़ती जाती है। एक ध्यान योगी या कि चरित्र निष्ठ पुरुष अपने मूल अस्तित्त्व के साथ इस तरह जुड़ जाता है कि सारे भेद समाप्त हो जाते हैं। आत्म तुल्यता का भाव उस अस्तित्त्व बोध में गहराई से समा जाता है। अस्तित्व की समग्रता में न स्व भिन्न रहता है पर से और न पर प्रतीत होता है स्व से भिन्न। पानी की बूंदें कितनी ही अलग-अलग क्योंस्त्र पड़ी हों या दिखाई देती हों, पर अस्तित्त्व की समग्रता के दौर में प्रत्येक बूंद सागरमय होती है-किसी के बीच कोई भेद नहीं रहता। अस्तित्त्व समग्र है और सबको समग्र अस्तित्त्व के प्रति संवेदनशील एवं करुणाशील बनना ही चाहिए तथा बने रहना चाहिए। ___ एक प्रश्न खड़ा करें कि क्या ऐसी समग्रता की बात करना वर्तमान विश्व के परिप्रेक्ष्य में उचित है? उत्तर है कि आज इसका औचित्य सर्वाधिक है। विश्व की दूरियाँ आज बहुत सिमटी हैं, किन्तु आज की विडम्बना है कि मनुष्य की आपसी दूरियाँ इतनी बढ़ गई हैं कि बड़े शहरों में वह अपने पड़ोसी से जय जिनेन्द्र या नमस्कार भी वार-त्यौहार को ही मुश्किल से करता है। सच यह है कि व्यक्ति का-दूसरों को तो छोड़ें, अपने आत्मीयों तथा पड़ोसियों के प्रति भी विश्वास नहीं रहा है। ऐसे में उसे विश्व बंधुत्व के प्रति आस्थावान बनाने का कार्य एक भगीरथ कार्य है और ऐसा ही भगीरथ कार्य है व्यक्ति-व्यक्ति के चरित्र का निर्माण तथा विकास कार्य, किन्तु यही कार्य आज पूरी निष्ठा, लगन और संकल्पितता के साथ करने का कार्य है। व्यक्ति को ऐसी जटिल शंकाशीलता से दूर हटाकर ही मानवीय मूल्यों की रक्षा की जा सकती है। आज समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है 577

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