Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh

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Page 698
________________ सुचरित्रम् किन्तु पानी की यात्रा समाप्त नहीं होती। वह फिर बाद में बादल बनता है, बरसता है और जल प्रवाह बन जाता है। इन सारे परिवर्तनों में पानी तो सदा अपने मूल अस्तित्त्व में ही रहता है। ___ वैसे ही देह जन्म लेती है, बाल-युवा-वृद्ध बनती है और नष्ट हो जाती है। लेकिन फिर नई देह पैदा होती है और परिवर्तन होते रहते हैं किन्तु जीवन का अस्तित्त्व रूप चेतना का प्रवाह तो बना रहता है। यह चेतना का प्रवाह ही हमें समझाता है कि हम कौन हैं और हमारा मूल स्वरूप क्या है? जो हम हैं, जो हमारा प्राण और महाप्राण है, जो हमारा मौलिक जीवन सत्त्व है, उसके प्रति ही हमारी ध्यान साधना और चरित्र-सम्पन्नता सार्थक बनेगी। हमारे निजत्त्व तक तो हमें ही पहुँचना है-अपने सच्चे स्वरूप के प्रति हमें ही उत्कंठित होना है। अपने प्रति बनने वाली सजगता ही हमें चरित्र निर्माण की ओर-ध्यान की ओर, आत्मा के परम ध्येय की ओर उन्मुख बनाती है और यही सजगता जीवन में संबोधि के मंगल कलश की स्थापना करती है। अन्तर्जगत के पथिक बन कर ही हम ध्यानलीन, आत्मलीन तथा चरित्रलीन हो सकते हैं। VO विजय - विचार - कण M अतीत से शिक्षा लो, वर्तमान का सदुपयोग करो, भविष्य में आरण रखो। 580

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