Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh

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Page 694
________________ सुचरित्रम् 576 पाताल के अंतर जैसा होता है। आशय यह है कि ध्यान साधना से दायित्त्व का भाव पैदा होता है। जो भी कार्य या व्यवहार एक यानी करता है, वह उसे सेवा समझ कर करता है। वह समझता है कि किसी के भी काम आया तो वह उसकी सेवा है और कोई भी सेवा अन्ततः ईश्वर की सेवा होती है। ध्यान की यही श्रेष्ठता आत्म पुरुषार्थ में परिणत होकर स्व को सर्व में मिला देती है। महान ध्यान से चरित्र का वैश्वीकरण और मानव जीवन में महानता : बरसात कितनी ही मूसलाधार क्यों न बरसी हो, जमीन पर छितरा हुआ पानी सूख ही जाता है, लेकिन बांध में इकट्ठा हुआ पानी भरा रहता है। इस पानी से सिंचाई की जा सकती है, बिजली बनाई जा सकती है और पानी की कमी हो तो पीने के काम में भी लिया जा सकता है। यह अन्तर है बिखरी हुई शक्तियों और एकत्रित की हुई शक्तियों का । इसी प्रकार हमारी ज्ञान एवं आत्मिक शक्तियाँ भी अपार है, पर वे बिखरी हुई हैं, दबी हुई हैं और निष्क्रिय पड़ी हुई हैं। उन्हें संचित करने, परिष्कृत करने तथा कार्यक्षम बनाने की आवश्यकता है। जैसे पेंसिल को घिसने से वह नुकीली हो जाती है और तब उससे सुंदर हस्तलिपि निकलती है, वैसे ही एकत्रीभूत इन शक्तियों के मंथन से हमारी समग्र ऊर्जा प्रखर एवं प्रबल बन जाती है। यह एकजुट शक्ति पुंज ध्यान साधना से उपलब्ध होता है । यह जो उपलब्धि है, उसे चारित्रिक उपलब्धि का नाम दिया जा सकता है। आखिर, ध्यान से जो भावनात्मक प्राप्ति होती है, वह मानव- चरित्र का ही तो विकास करती है। इस शक्ति संचय से मनुष्य की अपनी पहचान बनती है, उच्च मानसिक क्षमताओं का विकास होता है तथा जीवन अधिकाधिक आनन्द एवं ऊर्जा से परिपूर्ण बनता है। यह परिपूर्णता ही उसे महानता की दिशा में आगे बढ़ाती है। जिन्हें लगता है कि उनकी स्मरण शक्ति कमजोर है, बुद्धि मन्द है, पढ़ने या काम करने में मन नहीं लगता, उन्हें ध्यान लगाना चाहिए। इससे पेंसिल की तरह उनकी मानसिकता घिसेगी और वह नुकीली होकर कार्यक्षम बन जाएगी। मानसिक एकाग्रता से गुजर कर ही बिखरी हुई आत्मिक शक्तियाँ एकरस, एकलय और लक्ष्योन्मुखी बनती हैं। आप जानते हैं कि जीवन विकास का सबसे बड़ा बाधक मन का बिखराव ही है । यह बिखराव एकत्रित होता और संवरता है मन के समीकरण से ध्यान मन को समीकृत करता है और ऐसे चरित्र का निर्माण करता है कि मन का वह समीकरण स्थायी रूप ले ले। ऐसा मनस्वी पुरुष साधारण से असाधारण हो जाता है तथा उसकी चरित्र निष्ठा उसे साध्य के प्रति प्रगतिशील बना देती है। प्रत्येक व्यक्ति के वश में है कि वह अपने सोए आत्मविश्वास जगावे, स्वयं को शक्ति पुंज बनावे तथा असाधारण विचारों का धनी बने । चरित्र सम्पन्नता की यही अवस्था मनुष्य को महान बनाती है। चरित्र निर्माण अभियान के प्रबुद्ध कर्मियों को यह निश्चय बना लेना चाहिए कि ध्यान जितना अपने आपसे जोड़ता है, उतना ही समस्त विश्व से भी जोड़ता है। ध्यान साधना हो या चरित्र विकास यह व्यक्ति तक ही नहीं ठहरता है - प्रगति के साथ वह व्यक्ति से समूह और समूहों तक फैलता है, सभी छोटे बड़े घटकों को प्रभावित करता है तथा सघन विस्तार के साथ ध्यान से चरित्र का

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