Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh

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Page 692
________________ सुचरित्रम् 574 3. तीसरा चरण - हृदय दर्शन एवं भावयोग मन और बुद्धि को हृदय में डूबने दें, हृदयप्रवेश में स्वयं को स्थित करें और ध्यान की गहनता में उतर जावें । इससे सुशुप्त भावशक्ति का प्रफुल्लता दायक जागरण हो सकेगा। 4. चौथा चरण सहस्त्रार दर्शन एवं बोधियोग - हृदय की अवस्थिति तथा पुलक को मस्तक में ले आवें, जहाँ सहस्रार व ब्रह्मरंध्र होता है, मस्तिष्क को उच्च ऊर्जा शक्ति से भर दें और अपनी उच्च सत्ता के साथ विचरण करें। इससे चैतन्य स्वरूप का बोध साकार बनता है। - 5. पांचवां चरण - विदेह दर्शन तथा परमात्म योग - अन्तिम चरण में मुक्त अस्तित्त्व से अपनी तदाकारता स्थापित कर लें और परमात्म सत्ता से एकलय हो जावें । आत्मगत सम्पूर्ण शक्तियों की प्राप्ति इससे हो जाती है। यही ध्यान का ज्ञान है, विज्ञान है और सार है। आत्म-बोध, आत्म- आरोग्य तथा आत्म-पुरुषार्थ का आरंभ : चरित्र निर्माण अभियान का यह मौलिक धरातल है कि स्वयं के अस्तित्त्व का अनुभव किया - आत्म बोध हो, क्योंकि आत्म-स्मरण जीवन की सबसे बड़ी सम्पदा है तो आत्म-विस्मरण सबसे बड़ी विपदा है। 'मैं हूँ' - इसका बोध हर समय रहना चाहिए। हमारे मूल अस्तित्व की प्रत आत्मबोध है, अहंकार नहीं । सही स्थिति यह है कि जब अहंकार गलता है, तभी सम्यक् आत्मबोध होता है। हमारे आत्म-तत्त्व और जीवन तत्त्व की अनुभूति प्रतिक्षण होती रहनी चाहिए। जो आत्मस्थ रहता है, वही अपरिग्रही होता है चाहे परिग्रह याने सत्ता सम्पत्ति के अम्बार पर खड़ा हो। वह मूर्छा ममत्त्व से रहित होता है । आप कुछ भी करें-देखें, बोलें, चलें, बैठें, गावें, हंसें, खावें, पीवें, दौड़ें, कोई भी काम करें - 'मैं हूँ' की प्रतीति बनी रहे । यदि ऐसा करने का अभ्यास कर लेते हैं तो आपके व्यवहार में सौम्यता आएगी तथा स्वभाव शांत बन जाएगा। आत्म-बोध से जुड़कर आप जीवन के शाश्वत रूप से जुड़ जाते हैं और अमरता का अनुभव होने लगता है। इससे मृत्यु-भय क्षीण हो जाता है तथा जीवन की वृत्ति - प्रवृत्ति में उत्साह का संचार अनुभव में आता है। 'मैं हूँ'- यह मात्र सोचना ही नहीं है - इसका अनुभव करना है और अनुभव को स्थायी रूप देना है। दिन में जब भी अवसर लगे-अपने भीतर झांकें, 'मैं हूँ' को देखें तथा उसे सशक्त बनाने के बारे में सोचते रहें। यह ध्यान का उन्मुक्त स्वरूप है। अध्यात्म ने मनोस्वास्थ्य अर्थात् आत्मा के आरोग्य के लिए ध्यान-साधना का मार्ग प्रशस्त किया है। आत्म-बोध के बाद ही विदित होता कि भीतर की नाड़ी किस प्रकार चल रही है तथा तापअनुपात की दशा कैसी है। आप ध्यान के द्वारा मन के साक्षी बनते हैं और उसके स्वास्थ्य को जांचतेपरखते हैं। डॉ. बेच ने एक ऐसी चिकित्सा पद्धति का आविष्कार किया है, जिसमें मानसिक लक्षणों के माध्यम से शारीरिक रोगों का उपचार किया जाता है। हकीकत यह मानी गई है कि शरीर के रोगों की जड़ शरीर में नहीं, मन में होती है। मन की कमजोरी के लक्षण हाथ में आ जावें तो मानसिक अवसाद की चिकित्सा करके शारीरिक अवसाद के ज्वर को दूर किया जा सकता है। यह एक स्तर है और इसी स्तर की ऊँचाई पर ध्यान योग की चिकित्सा फलीभूत हो सकती है। वह आत्म को

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