Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
वहीं दूसरी ओर सर्व सुख सुविधाहीन अभावग्रस्त वर्ग पशुवत् जीवन जीने को अभिशप्त है। इससे मानव समाज में संघर्ष और द्वन्द्व का वातावरण बना रहता है। तृष्णा की जाज्वल्यमान अग्नि ने अहिंसा का प्रकाश नहीं, अपितु हिंसा की ज्वाला ही भड़काई है। यह हिंसा, परिग्रह लालसा के ही कारण है और इस कारण को दूर करने के लिए अपरिग्रह एवं संविभाग से अहिंसा की भावना फैलाई जा सकती है। यही नहीं, परिग्रह संचय पर अंकुश लगा कर स्थापित समता को स्थाई एवं सर्वव्यापी भी बना सकते हैं। जिन धर्म का पंच व्रतात्मक प्रतिपादन हुआ है। ये व्रत-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, भिन्न-भिन्न नहीं बल्कि एक-दूसरे के पूरक हैं। अहिंसा के विकास बिन्दु से प्रारम्भ हुई जीवनयात्रा अपरिग्रह के शिखर पर पहुंच कर शोभायमान होती है तो अपरिग्रह से उद्गमित जीवन यात्रा अहिंसा के विराट सागर में महानता का वरण करती है। ___ वस्तु सत्य यह है कि अहिंसा, अपरिग्रह के बिना सफल नहीं हो सकती है, क्योंकि हिंसा का जन्म ही परिग्रह की भूमि पर होता है। यह अर्थ ही अनर्थ का मूल कारण है (अत्थोमूलं अणत्थाणं (ग्रन्थ मरणसमाधि) तथा हिंसा से पहले परिग्रह आता है (आरंभपूर्वको परिग्रह-सूत्रकृतांग सूत्र चूर्णि, 1-2-2)। अतः अहिंसक बनने की पहली शर्त है अपरिग्रही बनना। त्याग इसके मूल में है तथा त्याग के बल पर ही अशुभ से निवृत्ति लेकर शुभ में प्रवृत्ति संभव बनती है। यह परिग्रह बाहर की सत्ता-सम्पत्ति से भी बढ़ कर भीतर की मूर्छा रूप अधिक होता है। यह मूर्छा टूटे, आसक्ति मिटे तो फिर बाहर का परिग्रह महत्त्वहीन बन जाता है । मूर्छा होती है विचार-मूढ़ता कि विवेक विस्मृत हो जाता है। विवेकहीनता से कितना अहित हो सकता है, उसकी कोई सीमा नहीं। परिग्रह की प्राप्ति और परिग्रह का संचय सुखकारी लगता है, किन्तु वह वैसा होता नहीं है। परिग्रह अन्ततः दुःखदायी ही होता है। परिग्रही विमूढ़ होता है, विवेकहीन होता है और प्रमादी होता है तथा प्रमादी व्यक्ति सदा भय से ग्रस्त रहता है (सव्वओ पमत्तस्स भयं-आचारांग, 1-3-4) और ज्यों-ज्यों परिग्रह का संग्रह बढ़ता है त्यों-त्यों वैर, हिंसा और दुःख बढ़ता जाता है (परिग्गह निविट्ठाणं, वेरं तेसिं पवड्डइआचारांग, 1-9-3)। सूत्रकृतांग सूत्र की टीका में शीलंकाचार्य ने यहां तक कहा है कि परिग्रह (अज्ञानियों के लिए तो क्या) बुद्धिमानों के लिए भी ग्राह (मगर) के समान क्लेश एवं विनाश का कारण है (प्राज्ञस्थाऽिप परिग्रहों ग्राह-इव क्लेशाय नाशाय च-1-1-1)। परिग्रह के दो भेद हैंबाह्य एवं आभ्यन्तर । आभ्यन्तर भेद में मूर्छा, तृष्णा, आसक्ति आदि का समावेश होता है।
आभ्यन्तर परिग्रह अर्थात् तृष्णा या इच्छा इतनी बलवती होती है कि धन-धान्य से भरा हुआ यह समग्र विश्व भी किसी एक व्यक्ति को दे दिया जाए, तब भी वह उससे सन्तुष्ट नहीं होगा (जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवई-उत्तराध्ययन-8-17)। बाह्य परिग्रह का संचय भी कुकर्मकारी बनता है और तृष्णा को फैलाता है। ऐसे अनेक ऐतिहासिक उदाहरण है जब राज्य, धन और भूमि आदि के लिए विवाद और संघर्ष ही नहीं, विनाशकारी युद्ध हुए हैं। अतः अब अपरिग्रह की ओर व्यक्ति से लेकर विश्व तक की गति होनी ही चाहिए।
परिग्रह की समस्या की यह भावात्मक चर्चा हुई, किन्तु इसकी तथ्यात्मक चर्चा भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है। यह साफ हकीकत है कि सर्वत्र व्यक्तियों को जीवन जीने के जीवन निर्वाह की सामग्री
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