Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh

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Page 651
________________ जीवन निरन्तर चलते रहने का नाम कुंठा और रिक्तता समाई हुई है, उसे दूर करने के लिए इन्द्रधनुषी रंगों की पहली जरूरत है। जब कोई व्यथित एवं हताश व्यक्ति अपनी व्यथा व हताशा से छुटकारा पाता है तभी उसकी तन-मन की अवस्था में हल्कापन आता है। वैसी अवस्था में ही उसे संयम और त्याग की बातें समझाई जा सकती है । इसलिए सबसे पहले मुस्कुराने और खिलखिलाने की बात कही गई है। आप मुस्कुराओगेखिलखिलाओगे तो निश्चित है कि चिन्ताओं का भार घटेगा और निश्चिन्तता की सांसें आने लगेगी। तब अपनी ताकत का अहसास होगा और अपना रास्ता खुद बनाने की उमंग पैदा होगी। रास्ता चाहिए तो उसकी मंजिल भी दिखाई देगी और जब उमंगें लहराती हैं तो पथ की बाधाओं-ठोकरों, कांटों की कौन परवाह करता है ? चरित्र सम्पन्नता की मंजिल की ओर बढ़ने वाला पथिक धन और स्वार्थ के चक्कर में कभी नहीं फंसेगा, वह तो अपने मन की अपार खुशियों को सबसे बांटते हुए खुशी-खुशी चलता जाएगा। वह सपने देखेगा, पर उन सपनों को साकार करने का साहस भी जुटा लेगा । उसका भले ही कोई अपमान करे वह अपमान पी जाएगा और सर्वसम्मान की सरसता फैला देगा। घृणा, ईर्ष्या, वैर, विरोध, राग, द्वेष की आग जहां भी उसे जलती हुई दिखाई देगी, उन लपटों को वह अपने प्यार के शीतल जल से बुझाता जाएगा। प्रेम के एक दीपक से वह हजारों-लाखों दीपक जलाते हुए प्रकाश के घनत्व को बढ़ाता ही जाएगा। वह अपने चरित्र बल से अनचाहों, असहायों और पीड़ितों की पीड़ा को दूर करेगा, उन्हें विकास की दिशा में आगे बढ़ाएगा। वह अविश्वास की आंधियों में विश्वास का फौलादी हाथ बन जाएगा और एक-एक को अपना संबल देकर निर्भय बनाएगा। वह त्याग का आदर्श बनेगा और मानवता के उत्थान के लिए अपना सब कुछ बलि वेदी पर चढ़ा देने में भी कभी नहीं हिचकिचाएगा। कौन है यह 'वह'? वही है जो चरित्र निर्माण से चरित्र सम्पन्नता की मंजिल की ओर आगे बढ़ते रहने के लिए संकल्पबद्ध हो जाता है अथवा यों कहिए कि जो अपने अमूल्य जीवन के सही मायने समझ लेता है और यह भली-भांति जान जाता है कि जीवन किसका नाम है और उसके अन्तःकरण से आवाज निकलती है-जीवन उसी का नाम । 'ऐ जिन्दगी, काश हमने भी तुझे जिया होता' यह कहकर बाद में पछताना न पड़े : जब कहें कि 'जीवन उसी का नाम है' तो उस जीवन की कला क्या होगी? छोटे में कहें तो हर काम को समझदारी और खूबसूरती से करना ही जीवन की कला है। यह कला हर क्षेत्र में उपयोग होती है। जीवन को हर समय निराशाओं, समस्याओं एवं नासमझी के साथ जीना, जीना नहीं, मात्र जीवन का बोझ ढोना ही कहा जा सकता है। जबकि जीवन की कला जीवन को 'सर्वसुखाय, सर्वहिताय' उपयोगी ही नहीं बनाती, बल्कि वह जीवन के हर पहलू को कलात्मक, गुणात्मक एवं सुरुचिसम्पन्न बना देती है। इसके विपरीत जीवन का दुरुपयोग करना, हर वक्त सच्चे-झूठे गिलेशिकवे करते रहना और जीवन में विषमताओं का अंधेरा भर देना जीवन को विनष्ट कर देने से कम नहीं। जीवन की कला नहीं सीखी तो जीवन के संध्या काल में ऐसा मौका आ सकता है जब पछतावे के साथ ये शब्द अनायास ही मुंह से फूट पड़े- 'ऐ जिन्दगी, काश हमने भी तुझे जिया होता!' ऐसा पश्चात्ताप करने का मौका कभी न आवे इसके लिए जीवन को इन्द्रधनुषी रंगों से सजाने की कला सीखें जिसकी प्रमुख भूमिका होगी कि आप मुट्ठी में बंद खुशियों को खोलें और उन्हें दूर 537

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