Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh

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Page 688
________________ सुचरित्रम् उत्थान जीवन के उत्थान में ध्यान की भूमिका एवं शक्ति का रूपांतरण : ___ आचारांग सूत्र में यह शाश्वत प्रश्न उठाया गया है-मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? इसका उत्तर है 'सोऽहम्' सः अहम् याने वह मैं हूँ। जीव को यह बोध तीन कारणों से संभव है-1. स्वमति-सन्मति से, 2. पर व्याकरण से और 3. परेतर उपदेश से। बोध का भाव है कि द्रव्य एवं भाव दिशाविदिशाओं में परिभ्रमण करने वाली यह मेरी आत्मा ही है। जैन दर्शन में स्पष्ट किया गया है कि ध्यान साधना एवं चरित्र विकास की उच्चतर श्रेणियों में जब स्व में विचरण किया जाता है तो दो तथ्य उभरते हैं। एक, आत्मा का स्वरूप परमात्मा के स्वरूप से भिन्न नहीं है तथा दूसरे, फिर भी आत्मा ब्रह्म का अंश नहीं बनती, उसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व रहता है। 'सोऽहम्' के बोध का यह स्पष्टीकरण है कि हे आत्मन्, तू तू नहीं, तू वह है अर्थात् तू केवल संसार में परिभ्रमण करने वाली आत्मा ही नहीं है, अपितु अपने पुरुषार्थ के द्वारा कर्म बंधनों को काटकर परमात्मा भी बन सकती है, अतः तू अपने को उस रूप में देख। जीवन के चरम उत्थान का यही रहस्य है, जो ध्यान साधना एवं चरित्र विकास की भूमिका पर अंकुरित, पल्लवित एवं पुष्पित होता है। ____ध्यान साधना की सफलता के दो लक्षण कहे गए हैं। एक तो ध्यान-साधक वर्तमान समय के प्रति सजग रहे तथा दूसरे, वह अपने चित्त को मौन कर ले। वर्तमान के प्रति सजगता, चित्त की समाधि-दशा और प्रेम का सम्मिलन जब होता है, तभी साधक को परम आनन्द का अनुभव होता है। चित्तवृत्तियों के शांत हो जाने पर साधक को आंतरिक मौन की जो अनुभूति होती है, वह मौन ही ध्यान का रूप ले लेता है। ध्यान साधना का यही त्रिसूत्री मूलाधार है, जो कायोत्सर्ग सूत्र में वर्णित हैं-1. 'ठाणेणं' (कार्य स्थिरता), 2.'मोणेणं' (वचन स्थिरता) तथा 3.'झाणेणं' (आदि, व्याधि, उपाधि से हटकर समाधिलीन होकर मौन में स्थिर हो जाना)। मुनि पद ऐसे मौन का ही प्रतीक है। ध्यान कर्मबद्ध आत्मा तथा कर्ममुक्त आत्मा के बीच का वह सशक्त सेतु है, जिस पर सधे हुए कदमों से चलने की क्षमता ध्यान साधना से प्राप्त होती है। कर्मबद्ध आत्मा और कर्ममुक्त आत्मा के बीच का जो अंतर है, वह आत्मशुद्धि का ही मुख्य प्रश्न है। आत्मशुद्धि का अर्थ है स्वयं की शुद्धि। स्वयं को शुद्धि के पांच पहलू हो सकते हैं 1. काय शुद्धि - यह शुद्धि बाहरी से भीतरी अधिक महत्त्व की है। शरीर के भीतरी तंत्र निरोग रहें और शारीरिक सामर्थ्य सक्रिय हो तो शरीर धर्माचरण का सबल साधना बना रहता है। यह काय शुद्धि विभिन्न यौगिक क्रियाओं के माध्यम से बखूबी की जा सकती है। 2. वचन शुद्धि - वचनों के प्रयोग के प्रभाव के विषय में सब जानते हैं कि मधुरता तथा कठोरता की प्रतिक्रियाएँ कैसी होती हैं। वचनों की मधुरता सबको सुहाती है तो कठोरता इतना कलुष फैला देती है जिसकी कालिख लम्बे अर्से तक नहीं मिटती। अतः वचन शुद्धि अत्यावश्यक है। इसका उपाय है-संयमित वचन, मितभाषिता तथा मौन का अभ्यास। जितना आवश्यक है उतना ही बोलना, बल्कि उससे भी कम बोलना और अधिकतर मौन रहना वाणी पर अधिकार दिला देता है। 570

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