Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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सुचरित्रम्
2. वैदिक ध्यान धारा - वेद और उपनिषद् में योग के नाम से ध्यान का स्थान-स्थान पर उल्लेख है। कठोपनिषद् में कहा है-'तू आत्मा को रथी समझ, शरीर को रथ जान, बुद्धि को सारथी और मन को वल्गा (लगाम) समझ'। यह ध्यान का ही रूप है। ध्यान का प्रसिद्ध गायत्री मंत्र तीनों वेदों में मिलता है-'ओम् भूर्भुवः स्वः तत्वसवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदायात्' अर्थात् जो सविता हमारी बुद्धि को प्रेरित करता है और जो संपूर्ण श्रुतियों में ज्योतिर्मान परमेश्वर है, उसके अखंड तेज का हम ध्यान करते हैं। यहाँ 'वरेण्यं' व 'धीमहि' दोनों शब्द ध्यान और आलम्बन के प्रतीक हैं। अमर ज्योति के ध्यान के लिए प्रार्थना की गई है कि इन्द्रियाँ बहिर्मुखी न होकर अन्तर्मुखी हों और उनकी ऊर्जा मन में केन्द्रित हो। मन सदा विराटज्योति के दर्शन में अग्रगामी हो। उपनिषद् साहित्य में आसन विधि, प्राणायाम, ध्यान व अनुभव की चर्चा की गई है। वैसे वैदिक परम्परा में ध्यान का प्रस्तुतिकरण मुख्य रूप से योग के प्रवर्तक महर्षि पतंजलि ने किया है। उनके योगसूत्र में चित्तवृत्तियों के निरोध को योग तथा उससे प्राप्त एकरसता को ध्यान कहा है। योग के अष्ट क्रम रखे हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि। समाधि के दो प्रकार हैं-सम्प्रज्ञात व असम्प्रज्ञात । ध्यान को मन
और आत्मा के योग का मध्यमा बताया गया है। ___3. रमण महर्षि की ध्यान धारा - रमण महर्षि की ध्यान पद्धति के कुछ मुख्य बिन्दु इस प्रकार हैं- 1. स्थूल वास्तविकता से सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम वास्तविकता की विचार प्रक्रिया। 2. शरीर असत अनित्य है और 'मैं' नित्य हैं. सद्रप हैं। शरीर और आत्मा का भेद-अज्ञान दःख का कारण, जिसका निवारण है आत्मज्ञान । 3. उपाधियों का त्याग कर देने वाले पुरुष को आत्मदर्शन होता है और आत्मदर्शन ही ईश्वर दर्शन है। 4. वायुरोधन का अर्थ है प्राणनिरोध अथवा प्राणायाम और उसकी विधि बताई गई है-प्राणवीक्षण याने स्वाभाविक रूप से चलते हुए श्वास-प्रश्वास को केवल दृष्टाभाव से देखना। 5. उत्कृष्ट योगी वह जो एक चिन्तन द्वारा अज्ञान को नष्ट कर स्व स्वरूप में सम्यक् स्थिति प्राप्त कर लेता है। उसका बोध होता है-मैं स्वयं आनन्द स्वरूप हूँ। 6. वृत्तियों का प्रवाह मन है। सारी वृत्तियाँ एक अहं वृत्ति पर आश्रित होती है, इसलिए यह अहं वृत्ति को ही मन जानो। 7. व्यष्टि अहं एवं समष्टि अहं दोनों अहं लीन हो जाने पर 'अहम्' शब्द से निर्देशित शुद्धात्म स्वरूप प्रकट होता है। (ग्रंथ 'उपदेश-सार' से)
4. योगी अरविन्द की ध्यान-धारा - श्री अरविन्द के पत्र (द्वितीय भाग) के अनुसार आत्मा के साक्षात्कार के लिए योग ध्यान अपरिहार्य है। ध्यान साधना की पहली सीढ़ी है-अचंचल मन और दूसरी है निश्चल नीरवता, जिसके अभ्यास से शांत स्थिति आ जाती है। ध्यान का सही अर्थ है-अ. मेडिटेशन-मन को किसी एक ही विषय को स्पष्ट करने वाली किसी एक ही विचारधारा पर एकाग्र करना । ब. दूसरा रूप है कंटेम्प्लेशन-एकाग्रता की शक्ति से मन में स्वभावतः ही उस विषय का जो ज्ञान उदित हो जाता है वह ध्यान का दूसरा रूप है। ध्यान का तीसरा रूप है-आत्म निरीक्षण की
पद्धति तथा विचार श्रृंखला से मुक्ति-ये दोनों परिणाम की दृष्टि से विशान और महान हैं। सर्वोत्तम 568