Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh

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Page 684
________________ सुचरित्रम् योगों का निरोध। यह मोक्ष प्राप्ति का मुख्य द्वार है। शुक्ल ध्यान के चार चिन्ह हैं-अ. अव्यथ (व्यथा का अनुभव नहीं), ब. असम्मोह (सम्मोहन नहीं), स. विवेक (आत्मा-शरीर की भिन्नता) तथा द. व्युत्सर्ग-(निःसंग होकर देह व उपधि का त्याग)। शुक्ल ध्यान के चार आलम्बन हैं-अ. क्षमा, ब. मार्दव, स. आर्जव एवं द. मुक्ति। शुक्ल ध्यान की चार भावनाएँ-अ. अनन्तानुवर्तितानुप्रेक्षा-अनन्त पुद्गल परावर्तन पर चिंतन । ब. विपरिणामानुप्रेक्षा-वस्तु के परिणमन पर विचार । स. अशुभानुप्रेक्षासंसार की अशुभता का चिंतन। द. अपायानुप्रेक्षा-आस्रवगत दुष्परिणामों पर चिंतन। समुच्चय में आत्मशुद्धिपूर्वक समता का अभ्यास हो जाने पर धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान की सार्थकता है। जिन आगमों में ध्यान संबंधी मार्मिक एवं गूढ विवेचन हुआ है, उनमें मुख्य है-आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कंध), स्थानांग सूत्र, समवाय सूत्र, सूत्रकृतांग सूत्र, उववाई सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, समण सुत्तं (ध्यान सूत्र) आदि। जैन परंपरा की ध्यान साधना एवं अन्य ध्यान धाराएँ: समाज में सामान्यतया दो प्रकार के व्यक्ति होते हैं- 1. अनुस्रोतगामी अर्थात् प्रवाह के साथ बहने वाले-प्रवाह चाहे परम्परा का हो, ऐन्द्रिक विषयों का हो अथवा अन्य। 2. प्रतिस्रोतगामी-प्रवाह के विरुद्ध बहने वाले। प्रवाह होता है चित्तवृत्ति का केन्द्र। कोई किसी से मित्रता करे या शत्रुता-ये दो अवस्थाएँ हैं, जिन में 'पर' मन का केन्द्र बन जाता है। तीसरी विधा है उपेक्षा-न मित्रता, न शत्रुतासिर्फ साक्षी भाव। यह तीसरे प्रकार का व्यक्ति उक्त दोनों प्रकार से परे रह 'स्व' की समीक्षा करता है और अपने अस्तित्त्व को प्रकट करता है। वह स्वयं की अन्तर्दृष्टि और अन्तर्विवेक के आधार पर चलता है। सच में इस प्रकार को अन्त:गामी कह सकते हैं-न अनुस्रोतगामी, न प्रतिस्रोतगामी। उसका व्यक्तित्व हो जाता है अन्तर्मुखी। यह अन्तर्मुखता सधती है ध्यान साधना से। जैन परम्परा की ध्यान साधना सावलम्ब और निरावलम्ब दोनों प्रकार की रही है। ध्यान विधि का विस्तार से वर्णन मिलता है और यह वर्णन भी मिलता है कि भगवान् महावीर तथा त्रिपष्ठि पुरुष किस ध्यान विधि की पालना करते थे। आचारांग सूत्र में कहा है अदुपोरिसिं तिरियाभित्तिं चक्खुमाज्ज अंतसो झाति। अहयक्खुभीत सहिया ते हंता हंता बहवे कंदिसु। अर्थात् भगवान् महावीर एक-एक प्रहर तक तिरछी भीत पर आंखें जमा कर अंतरात्मा में ध्यान करते थे-लंबे समय तक अपलक झपके रहने से पुतलियाँ ऊपर उठ जाती थी। वह सावलम्ब त्राटक ध्यान था। भगवान् ने भद्रा, महाभद्रा व सर्वतोभद्रा प्रतिमा की साधना की। साधना की निरन्तरता ही साधक को साध्य तक पहुँचाती है। ध्यान साधना विशेष अनुष्ठान रूप मात्र न रहकर समग्र 566

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