Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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चरित्र के शिखर पर पहुंचने का रहस्य
जीवनचर्या रूप बन जानी चाहिए। इस साधना का मूल लक्ष्य है योगों की स्थिरता। इस स्थिरता हेतु समिति-गुप्ति का निर्देश है। इससे निरावलम्बन या स्वावलम्बन की प्राप्ति होती है। केवल स्व का, स्वात्मा का आलम्बन ग्रहण करने वाला साधक स्वावलम्बी कहलाता है।
इस प्रकार ध्यान को स्व की समीक्षा कहा गया है। इसमें पर के प्रति केवल दृष्टाभाव रह जाता है। दृष्टाभाव का अर्थ है मात्र देखना, ध्यान न देना। इससे स्व में स्थिरता की प्राप्ति होती है। अन्य व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति और उससे आगे हमारा मन, शरीर, विचार सब 'पर' है। अतः इनके प्रति उपेक्षा या दृष्टाभाव का अर्थ है-पूर्ण समत्त्व, समताभाव-यही ध्यान साधना का आधार भी है और शिखर भी। यह समता भाव ही चरित्र साधना का भी शिखर है। ध्यानलीनता ही चरित्रलीनता है तथा चरित्रलीनता ही ध्यानलीनता है। इन दोनों को मिलाकर आत्मलीनता का नाम दिया जा सकता है।
जैन परम्परा की ध्यान या समग्र साधना को केवल दो शब्दों में अभिव्यक्त कर सकते हैं। ये हैं संवर और निर्जरा अथवा समता एवं जागरूकता। समता और जागरूकता कारण हैं और संवर और निर्जरा कार्य। पाप कर्म का बंध नहीं होगा यतना से-'जयं चरे, जयं चिट्टे...' प्रतिपल यतनापूर्वक कार्य होगा तो पाप बंध नहीं होग। आस्रव नहीं होगा तो संवर व निर्जरा का ही क्रम चलेगा, जिनकी बहुलता ही साधना का लक्ष्य होता है। इस मूलभूत साधना के साथ समिति गुप्ति संयुक्त होती हैं तो ध्यान-साधना का स्वस्थ धरातल तैयार होता है, जो तीनों योगों की स्थिरता साधता हुआ चरम साध्य की ओर साधक को ले जाता है। मूलतः ध्यान को साधक जीवन का प्राण माना गया है। ध्यान के अन्य सहयोगी तत्व कहे गए हैं-आसन (कायक्लेश), स्थान (निरवद्य), काल (योगोत्तम), योग्यता (तन मन बल), ज्ञान, दर्शन, चरित्र, वैराग्य भावना जिनसे अतिशय निश्चलता मिलती है। __ अन्य ध्यान-धाराओं में बौद्ध, वैदिक आदि और आधुनिक युग की महर्षि रमण एवं योगी अरविन्द की ध्यान पद्धतियों को ले सकते हैं।
1.बौद्ध ध्यान धारा- बोधि प्राप्त हो जाने पर ध्यान साधना से सम्यक् संबुद्ध बना जाता है। यह मार्ग है आर्य-अष्टांगिक मार्ग। इसके ये विभाग हैं- अ. शील - सम्यक्वाणी, सम्यक् कर्म तथा सम्यक् आजीविका। ब. समाधि - मन का सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति, सम्यक् एकाग्रता। ये छः अंग हुए हैं और शेष दो अंग प्रज्ञा से संबंधित हैं-सम्यक् दर्शन एवं सम्यक् संकल्प। समाधि का अर्थ है कुशल चित्त की एकाग्रता (ध्यान)। यह समाधि लौकिक है और प्रज्ञा के साथ लोकोत्तर होती है। ध्यान के पांच अंग कहे हैं- अ. वितर्क (सम्यक् संकल्प), ब. विचार ( वितर्क की अपेक्षा सूक्ष्म), स. प्रीति (तृप्ति अनुभव), द.सुख (काय सुख एवं चित्त सख), य. उपेक्षा (एकाग्रतां.सम ध्यान के मूलतः दो भेद हैं- अ. आरंभण उपनिज्झान (आलंबन पर चिंतन) तथा ब. लक्खण उपनिज्झान (लक्षण पर चिंतन)। अन्य भेद हैं- अ. रूपावचर ध्यान (चार प्रकार), ब. अरूपावचर ध्यान तथा स.लोकोत्तर ध्यान, जिसका मार्ग है विपश्यनायान। विश्यना ध्यान पद्धति अधिक प्रचलित हुई है। बौद्ध परम्परा को ध्यान पद्धति क्रमबद्ध, व्यवस्थित व संयोजित है। साधक निरन्तर स्थूल से सूक्ष्म की ओर गति करता है। अन्त में वह लोकोत्तर ध्यान में पहुँच जाता है और निर्वाण का साक्षात्कार कर लेता है।
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