Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh

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Page 687
________________ चरित्र के शिखर पर पहुंचने का रहस्य ध्यान वह है जो सहज स्वाभाविक रूप से घटित होता है। वस्तुतः ध्यान एक पद्धति, साधन और उपाय है जो क्रिया सतत चलनी चाहिए। ध्यान प्रक्रिया तीन प्रकार की है- अ. दोनों भोहों के बीच मन को एकाग्र करना, ब. मस्तक में मनोमय केन्द्र में सारी चेतना को ले जाकर एकाग्र करना तथा स. हृदय केन्द्र पर ध्यान करना। आचार्य नानेश द्वारा प्रवर्तित आत्म-समीक्षण ध्यान साधना : ___ आचार्य नानेश मात्र एक साधक ही नहीं, बल्कि अपने आप में विकसित चेतना एवं उदात्त ध्यान के प्रतीक बन गए थे। 'आत्म समीक्षण' नाम से जो उनके द्वारा उपदेशित ग्रंथ का प्रकाशन हुआ है, उनकी ध्यान साधना का साकार चित्रण है। सम्पूर्ण ग्रंथ उत्तम पुरुष में लिखा गया ताकि आरंभ से अंत तक पाठक सारी वस्तुस्थिति को निजात्मा पर आरोपित करता हुआ चले और स्वाभाविक रूप से आत्म ध्यान के प्रवाह में बहने लगे। मूल रूप से आत्म-समीक्षण के नव सूत्र निरूपित किए गए- 1. मैं चैतन्य देव हूँ। मुझे सोचना है कि मैं कहाँ से आया हूँ, किसलिए आया हूँ? 2. मैं प्रबुद्ध हूँ, सदा जागृत हूँ। मुझे सोचना है कि मेरा अपना क्या है और क्या मेरा नहीं है? 3. मैं विज्ञाता हूँ, दृष्टा हूँ। मुझे सोचना है कि मुझे किन पर श्रद्धा रखनी है और कौनसे सिद्धांत अपनाने हैं? 4. मैं सुज्ञ हूँ, संवेदनशील हूँ। मुझे सोचना है कि मेरा मानस, मेरी वाणी और मेरी कार्य विधि तुच्छ भावों से ग्रस्त क्यों है? 5. मैं समदर्शी हूँ, ज्योतिर्मय हूँ। मुझे सोचना है कि मेरा मन कहाँ-कहाँ घूमता है, वचन कैसा-कैसा निकलता है और काया किधर-किधर बहकती है? 6. मैं पराक्रमी हूँ, पुरुषार्थी हूँ। मुझे सोचना है कि मैं क्या कर रहा हूँ और मुझे क्या करना चाहिए? 7.मैं मौलिक रूप से परम प्रतापी हूँ, सर्व शक्तिमान हूँ। मुझे सोचना है कि मैं अपने बंधनों को कैसे तोड़ सकता हूँ? मेरी मुक्ति का मार्ग किधर है? 8. मैं ज्ञान पुंज हूँ, समत्त्व योगी हूँ। मुझे सोचना है कि मुझे अमिट शांति क्यों नहीं मिलती, अमिट सुख क्यों नहीं प्राप्त होता? 9. मैं शुद्ध, बुद्ध, निरंजन हूँ। मुझे सोचना है कि मेरा मूल स्वरूप क्या है और उसे मैं प्राप्त कैसे करूँ? मात्र इन नव सूत्रों के ध्यानात्मक विवेचन में 463 पृष्ठों (बड़ी साइज) के उक्त ग्रंथ की रचना हुई है। इस विवेचन में 'आत्म-समीक्षण को स्पष्ट किया गया है।' समीक्षण शब्द दो शब्दों की युति से बना है- सम+ईक्षण अर्थात् सम्यक् या समतामय रूप से देखना। किसे देखना? निजात्मा को। कैसे देखना? ध्यान साधना के माध्यम से। इस ध्यान का मूल है आत्म स्वरूप पर गूढ़ एवं गंभीर चिंतन जो अपनी चेतना को जगाते हुए अपने चरम साध्य तक पहुँचता है। अन्य ध्यान विधाओं की अपेक्षा इस विधा की विशेषता यह है कि आत्मा के भीतर जो झांकना है वह सामान्य नहीं, विशिष्ट है, क्योंकि वह सम्यक् एवं समतामय है। संसार की सारी ध्यान साधनाओं की एक ही दृष्टि है, एक ही निष्पत्ति है और वह है समता। समता दर्शन प्रणेता आचार्य नानेश ने इसी दृष्टि का अपनी ध्यान साधना के प्रवर्तन में सूक्ष्म रूप से विस्तार किया है। एक अलग पुस्तिका द्वारा समीक्षण ध्यान की प्रयोग विधि का भी वर्णन किया है, जिसका लक्ष्य है आत्मदर्शन या अन्तर्दर्शन । जो ध्यान अन्ततः आत्म-साक्षात्कार कराता है. वास्तव में वही ध्यान श्रेष्ठ है। 569

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