Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh

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Page 682
________________ सुचरित्रम् उसका भराव ध्यान साधना से ही संभव है। ध्यान के सहयोगी अनेक तत्त्व हैं-इनमें स्वाध्याय का क्रम सबसे ऊपर है। अन्य हैं-भाव प्रवणत्ता, निर्विकल्प अवस्था, शुद्धिकरण की अभिलाषा, त्याग दृढ़ता, समर्पण निष्ठा, विचार शुद्धि, संकल्प श्रेष्ठता आदि। ध्यान कठिन है, किन्तु साध्य है। ध्यान केवल स्व प्रयत्न पर निर्भर रहता है। यदि शुद्धता और शुभता आंतरिकता में रची-बसी है तो ध्यान जीवन जीने की श्रेष्ठ कला बन जाता है, चरित्र की उज्ज्वलता का प्रतीक हो जाता है और आनन्द के अमृत का रसपान कराता है। आगम साहित्य में ध्यान का विवेचन मार्मिक एवं गूढ़ है : ___ आगम साहित्य के अनुसार ध्यान को तप का ही एक प्रकार बताया गया है। तप दो प्रकार का कहा है-बाह्य एवं आभयंतर तथा इस प्रत्येक प्रकार के छ:-छः भेद हैं। बाह्य तप के भेद हैं-अनशन, ऊणोदरी, भिक्षाचर्या (वृत्ति संक्षेप), रस परित्याग, कायक्लेश तथा प्रतिसंलीनता। आभ्यंतर तप के भी छः भेद हैं-प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य (सेवा), स्वाध्याय, ध्यान एवं व्युत्सर्ग। इस प्रकार तप के बारह भेदों में ध्यान ग्यारहवें क्रम पर हैं। यह क्रम वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक है। बाह्य तपों की परिपुष्टता के पश्चात् आभ्यंतर तप का क्रम गुणसंचय के रूप में चलता है। अकरणीय के करने पर प्रायश्चित होता है जिससे उपजता है विनय गुण। विनीत ही सेवा के प्रति समर्पित होता है और सच्ची सेवा वृत्ति स्वाध्याय (स्वयं का अध्ययन) की अभिरूचि जागृत करती है। स्वाध्याय से समता का धरातल बनता है और ध्यान साधना का शुभारंभ संभव होता है। ध्यान का शिखर है व्युत्सर्ग, जो चरम अवस्था प्राप्ति का संकेत है। आत्म-साधना के अन्तर्गत ध्यान साधना का विशिष्ठ महत्त्व है, क्योंकि ध्यान साधना ही चरित्र साधना है। ____ आगम साहित्य में ध्यान-साधना का विवेचन बहुत विस्तार से हुआ है। आचारांग सत्र से लेकर अन्यान्य कई सूत्रों में ध्यान का गूढ़ एवं मार्मिक विवेचन मिलता है। ध्यान की संक्षिप्त व्याख्या है कि किसी एक विषय में अन्तःकरण की विचारधारा को स्थापित करना ध्यान का लक्षण है। यह कठिन कार्य है, अतः कहा गया है कि ध्यान उत्तम संहनन वाले पुरुष के ही सामर्थ्य क्षेत्र का विषय है। यह सब जानते हैं कि मन की विचारधारा चचंल होती है और क्षण-क्षण में बदलती रहती है। उसमें अस्थिरता होती है। ऐसी क्षण-क्षण में परिवर्तनशील विचारधारा को प्रयत्नपूर्वक अन्य विषयों से हटाकर एक ही विषय में स्थिर रखने को ध्यान कहा गया है। ध्यान का यह स्वरूप छद्मस्थ अवस्था में ही संभव है। चिंतन धारा को एक स्थान पर स्थिर करने के लिए वांछित शारीरिक एवं मानसिक बल की अपेक्षा रहती है। ध्यान के चार भेद किए गए हैं-आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान। 1.आर्तध्यान - दुःख से निमित्त या दुःख में होने वाला ध्यान आर्तध्यान है। इसके मुख्य चार कारण हैं-अ. अनिष्ट वस्तु का संयोग, ब. इष्ट वस्तु का वियोग, स. प्रतिकूल वेदना और द. भोग की लालसा। इन्हीं के आधार पर आर्तध्यान के चार प्रकार किए गए हैं-अ. अनिष्ट संयोग (अमनोज्ञ वस्तु का मिलना), ब. इष्ट वियोग (मनोज्ञ वस्तु का छूट जाना), स. रोग चिंता (पीड़ा निवारण की 564

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