Book Title: Sucharitram
Author(s): Vijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
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चरित्र के शिखर पर पहुंचने का रहस्य
जवाब दिया-बेटा, कल तो मैं परमात्मा के पास था और आज मैं तुम्हारे पास हूँ। संत का यह जवाब मर्मभरा है।
ध्यान व्यक्ति को अन्तर्मुखी बना देता है और अंतर में क्या होता है? परमात्मा रूपी आत्मा ही तो होती है। जो 'स्व' से अन्यत्र दृष्टि नहीं रखता, वह 'स्व' से अन्यत्र रमता नहीं है और जो 'स्व' से अन्यत्र रमा नहीं है वह 'स्व' से अन्यत्र दृष्टि भी नहीं रखता-'जे अण्णणदंसी से अण्णणारामे, जे अण्णणारामे से अण्णदंसी'। चरित्रनिष्ठ पुरुष को ध्यान की साधना चरित्रशीलता के शिखर पर पहुँचा देती है। ___ध्यान क्या है? ध्यान है आंतरिक जागृति करने और अन्तर्मुखी होने का माध्यम। भीतर में जागृति होती है जब भीतर में प्रवेश किया जाता है। भीतर में प्रवेश करना, भीतर की अनुभूति लेना और भीतर में अनासक्त होकर जीना-ये सब अन्तर्मुखता के लक्षण हैं। अन्तर्मुखी बनने के लिए जो साधना आवश्यक है, वह ध्यान की साधना है। खलील जिब्रान ने कहा है-'जब मेरा हृदय प्रेमरस से भीगा नहीं था, तब तक मैं प्रेम की गहरी व्याख्याएँ करता रहा, किन्तु जब मुझ में प्रेम की अनुभूति हुई तो मेरी प्रेम की सारी व्याख्याएँ उस अनुभूति के सामने अर्थहीन हो गई।' वास्तव में ध्यान साधना की ऐसी ही अनुभूति होती है, जो किसी भी व्याख्या, वर्णन या विवेचन से परे होती है। उस अनुपम अनुभूति का वही अनुभव कर सकता है जो स्वयं ध्यान की उस अनुभूति को पा जाता है। मोटे तौर पर कह सकते हैं कि ध्यान ध्यानी को अपने ही भीतर में प्रतिष्ठित करता है एकाग्रता के साथ। तब ध्यानी का बहिर्मुखी चित्त अन्तर्मुखी हो जाता है। वह चित्त विवेक सम्पन्न हो जाता है, अप्रमत्त बन जाता है तथा अनासक्त होकर प्रज्ञा के जागरण का हेतु हो जाता है। ध्यानी की मोहं विमूढता टूट जाती है और आन्तरिकता जगमगाने लगती है। वह अवस्था आत्म-शुद्धि की होती है। ध्यान प्रमुख रूप से आत्म-शद्धि का कारक है और इसी कारण चरित्रलीनता का माध्यम है। जो आत्म जागृत बन जाता है, वही चरित्रलीन कहलाता है। ___ध्यान की पृष्ठभूमि क्या होती है? ध्यान का मर्म है भीतर में प्रवेश करना और सत्य का दर्शन करना। भीतर प्रविष्ट हुए बिना सत्य सहज नहीं बनता, किन्तु प्रश्न है कि भीतर में प्रवेश करने की पृष्ठभूमि कैसी होनी चाहिए। ये जो सारे व्रत-प्रत्याख्यान हैं-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, निर्व्यसनता, यम, नियम आदि इन्हीं की सुदृढ़ पृष्ठभूमि पर ध्यान की साधना सफलता पाती है। वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों की शुभता चाहिए, भोजन विवेक चाहिए, यतना का अभ्यास चाहिए याने कि आत्म शुद्धि का धरातल ध्यान के योग्य बन जाना चाहिए।
ध्यान की निष्पत्ति क्या? ध्यान की निष्पत्ति है सरलता, सहजता और समता, जो समूचे दैनिक जीवन को विनम्रता, सहयोगिता, करुण, मैत्री, सहानुभूति आदि अनेकानेक सद्गुणों का उपहार दे देती है। समता या समभाव वह सेनापति है जिसकी आज्ञा में सद्गुणों की सारी सेना चलती है। ध्यान ध्यानी की स्वकेन्द्रितता को विस्तार देता है-वह केवल अपने ही बारे में नहीं सोचता, बल्कि दूसरों के हितपोषण में भी ध्यान लगाता है। उसके हित चिंतन का आकार सम्पूर्ण विश्व तक फैल सकता है। ध्यान की निष्पत्ति से यह समझ में आएगा कि आज आचरण और आस्था के बीच जो गहरी खाई है,
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